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सोमवार, 26 जुलाई 2010

क़ानून और हम!

        बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक मुकदमे के फैसले में अपना फैसला दिया कि "शादी का झूठा वादा  करके यौन सम्बन्ध बनाना  बलात्कार नहीं है." और उस आरोपी को बरी कर दिया गया.
                       अब हमारा न्याय इस बात को स्पष्ट करे कि  यह अपराध किस श्रेणी में रखा जाय और अगर वह किसी भी अपराध की श्रेणी में नहीं आता है तो फिर हमारे मूल्यों को कौन बचाएगा या फिर उनको फिर से परिभाषित किया जाय? क्या इस श्रेणी में वह लड़की अपराधी बनती है जो इस झांसे में आकर अपना भावात्मक और यौन शोषण करवाती रही. इस का परिणाम कुछ भी हो सकता है , वह लड़की गर्भवती हो सकती है, वह इस धोखे से धोखा खाकर आत्महत्या कर सकती है या फिर विक्षिप्त हो सकती है. तब हमारे कानून को बताना चाहिए कि इस हालात में उस बच्चे का क्या होगा? इस लड़की का भविष्य क्या होगा? बरी किया गया व्यक्ति तो पाकसाफ दमन लेकर समाज में सिर उठाये घूम रहा है और वह लड़की  जो जिन्दगी जियेगी ये हम सब को पता है.
                         अब जरूरत इस बात की है कि भारतीय संस्कृति और मूल्यों को परिमार्जित करके फिर से परिभाषित किया जाय क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति के समागम से हमारे मूल्यों का ह्रास हो चुका  है और हमारे विधि शास्त्र  को भी नवीन स्वरूप की आवश्यकता आन पड़ी है. लिव इन रिलेशनशिप  को मान्यता दी जा चुकी है बगैर ये जाने कि ये सुविधा और सुख की वजह से सामजिक मूल्यों का विघटन हो रहा है और इन संबंधों को प्रयोग के तौर पर मानने वालों के लिए तो कुछ भी नहीं है लेकिन इसमें भावात्मक रूप से जुड़े होने वाले के लिए शेष जीवन का स्वरूप ही बदल जाएगा.
                    हमारी क़ानून व्यवस्था किसी एक न्यायाधीश के द्वारा दिए गए निर्णय से थरथरा जाती है और फिर आम आदमी उसमें सिर मारता रह जाता है. हम अपने क़ानून व्यवस्था के सदियों पुराने कानूनों को आजतक बदल नहीं पाए हैं और वे बेमानी क़ानून हमें ही मुँह चिढा रहे हैं. आधे अधूरे क़ानून न्याय को सुलभ  नहीं दुर्लभ और दुष्कर बना देते हैं. इतने हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट रोज कानून के पांसों से खेलते  है लेकिन फिर भी कुछ खोटे और कालातीत सिक्के अब भी क्यों चलाये जा रहे हैं? क्यों नहीं सोचा जाता कि इनको बदला जाय. इन्हीं के बीच में फंसा इन्साफ पाने वाला दम तोड़ देता है और उसको इन्साफ नहीं मिलता है.

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

मेरा सफरनामा (नासिक) !

               अब हमारी बारी थी नासिक को घूमने की. हमारी पहली ही यात्रा थी तो यहाँ के दर्शनीय स्थलों  से हम अधिक परिचित न थे लेकिन हमारे टैक्सी  वाले ने बताया कि   यहाँ  पर भी बहुत सारे स्थान देखने काबिल हैं. नासिक रोड से एक घंटा लगता है नासिक जाने में. रामायण कालीन  बहुत सारे स्थल हैं - जो आज भी उस काल के इतिहास के साक्षी माने जाते हैं. एक खास बात मुझे वहाँ जाने पर यह पता लगी कि  यहाँ नासिक नाम पड़ने के पीछे भी एक कथोक्ति है कि  यहाँ पर लक्ष्मण जी ने रावण की बहन सूर्पनखा की नाक काटी थी इसी लिए इसका नाम नासिक पड़ा. हम लोग उस स्थान को भी देखने गए जहाँ पर ये घटना घटित हुई थी. वहाँ एक कुटिया जैसे स्थान पर सूर्पनखा की क्षत विक्षत नाक वाली प्रतिमा और साथ ही लक्ष्मण  जी की प्रतिमा बनी हुई थी.                         यहाँ पर पंचवटी नामक स्थान विशेष उल्लेखनीय है. वैसे तो पंचवटी तो श्री राम की महत्वपूर्ण कार्यस्थली कही गयी है जहाँ पर वे अपने वनवास काल में रहे. उनके जीवन काल की महत्वपूर्ण घटनाओं से जुड़े स्थल अपनी अपनी कहानी कह रहे थे. वह अगस्त्य मुनि का आश्रम जहाँ पर राम को उपदेश दिए थे और उनकी पत्नी ने सीता को.. वह कुटिया जहाँ तीनों ने निवास किया था. 

                       सीता की स्मृतियों से जुड़ी हुई सीता गुफा है, जिसमें कहा जाता है की सीता जी ने निवास किया था. उस स्थल को देखने वालों की भीड़ देखते बनती थी. और वे सभी  एक विशाल लाइन  में खड़े थे. जब कि  उस गुफा में सिर्फ एक व्यक्ति ही प्रवेश कर आगे बढ़ सकता था और वह भी बैठे बैठे ही आगे बढ़ सकता था. एक लम्बी सुरंग की तरह वह गुफा सीता के निवास की कहानी कह रही थी.
                  वहाँ  से हम उस स्थान पर गए जहाँ पर कपिल मुनि ने तपस्या करके कपिला नामक नदी को प्रकट किया था और उस स्थान पर कपिला और गोदावरी नदी का संगम स्थल है. छोटी बड़ी पहाड़ियों के बीच में ये संगम स्थल है और चित्र में वही स्थल देखा जा सकता है.

                 इसी स्थान par  पहाड़ के ऊपर राम लक्ष्मण और सीता की  बड़ी बड़ी सी  मूर्तियाँ कहें या मैटल से  बनायीं गयी प्रतिमाएं जिन्हें पत्थर की ही नाव पर दिखाया गया है. चित्र में इनका आकाश की पृष्ठभूमि में दिखाई देना मुझे बहुत ही आकर्षक लगा था.


                 सीता का रावण द्वारा किये गए हरण के समय जिस कुटिया में सीता थी और लक्ष्मण द्वारा खींची गयी लक्ष्मण रेखा का स्थल भी चिन्हांकित किया गया है.
                रावण के पुत्र मेघनाद का वध करने के लिए लक्ष्मण ने जिस वृक्ष के नीचे तपस्या की थी , उसको भी विशेषरूप से चिन्हांकित किया गया है. इतने वर्ष बाद भी उस वृक्ष के अस्तित्व के विषय में शंका तो होती है लेकिन इतने साक्ष्य के बीच अविश्वास दब जाता है.
               नासिक की प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है, इस पूरे स्थान को धार्मिक दृष्टि से देखें तो अपने आप में महत्वपूर्ण स्थान है. यहाँ पर सिंहस्थ कुम्भ पड़ने वाला स्थल भी हमने देखा. गोदावरी के किनारे उस स्थल की तस्वीर भी ली. यद्यपि गोदावरी का पानी इस स्थान पर कानपुर कि गंगा से कम गन्दा न था, फिर भी लोग उसमें डुबकी लगा कर नहा रहे थे. चारों ओर पालीथीन तैर रहीं थी.

                एक विशेष बात मुझको यह लगी कि यही गोदावरी के किनारे ही बने बड़े बड़े बरामदों के ऊपर नगरपालिका द्वारा निर्मित भवन है , जिसमें पर्यटक अपना सामान जमा करके पूरा नासिक घूम सकते हैं और चलते समय कुछ शुल्क देकर सामान लेकर जाएँ. न सामान ढोने का चक्कर और न ही कुछ घंटों के लिए होटल का चक्कर क्योंकि स्टेशन नासिक रोड पर है जो कि यहाँ से बहुत दूर है.
               गोदावरी के गंदे पानी को छूने का मन नहीं कर रहा था , वही गोदावरी के किनारे ही एक चौमुखी सिंह की प्रतिमा थी जिसके चारों मुख से पानी निकल रहा था और वह पानी एकदम साफ था. लोग उसको गंगाजल की तरह से बोतल में भरकर ले जा रहे थे.
              संगम थल के पास ही एक भव्य मंदिर कपालेश्वर का मंदिर था. जिसके बारे में कहा गया है कि सम्पूर्ण भारत में यही एक मंदिर ऐसा है जहाँ पर शिवलिंग के साथ नंदी की प्रतिमा नहीं है. इस स्थान पर नंदी को गुरु मानकर स्थापित नहीं किया गया है . इस मंदिर के दर्शन से सम्पूर्ण बारह ज्योतिर्लिंगों के बराबर पुण्य प्राप्त होता है. काफी ऊंचाईपर बना यह मंदिर काफी बड़ा और सीढ़ियों के बीच बीच में  और भी मंदिर बने हुए हैं.
                  इसके अतिरिक्त यहाँ पर गोराराम, कालाराम के मंदिर भी हैं . जिनमें राम की काली और गोरी प्रतिमाएं हैं. काले पत्थर से बने ये विशाल मंदिर पुलिस के नियंत्रण में भी हैं. यहाँ पर कैमरा ले जाना निषिद्ध हैं . उन मंदिरों कि स्थापत्य काला देखते बनती है. ये कितने प्राचीन हैं .इसके बारे में उनके पत्थरों   और उनपर उत्कीर्ण कृतियों से ही लगाया जा सकता है.
                 इन मंदिरों के बाहर बने बरामदों में बुजुर्ग महिलायें रुई की  बत्तियां बना रही होती हैं और लेने वालों को पैसे देकर बेचती भी हैं. यहाँ न बुढापा एक समस्या  न वक्त काटना. कई महिलाओं के समूह आपस में बातें करते हुए काम कर रही होती हैं. जो आत्मनिर्भरता का एक साधन भी है .                     
                   नासिक में विशुद्ध  महाराष्ट्रीय  संस्कृति के दर्शन हुए. पुरुष सिर पर गाँधी टोपी लगाये हुए. पहले लगा कि ये सब राजनीति से प्रेरित हैं क्या? लेकिन नहीं ये वहाँ की संस्कृति है. औरतें  लांगदार  धोती पहने हुए मिलेंगी और पुरुष धोती कमीज और टोपी में नजर आयेंगे.

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

ये मौत के सौदागर!

            वह कथोक्ति है न कि जो दूसरों के लिए कुआँ खोदता है ईश्वर उनके लिए खाई खोद कर तैयार कर देता है. लेकिन  ये कहावतें त्रेता , द्वापर या सतयुग में चिरतार्थ होती होंगी. अब तो दूसरों को मौत बेचने वाले किसी जेल में नहीं बल्कि मखमली सेजों पर सोते हैं. उनपर हाथ डालने की हिम्मत किसी नहीं है.
                         कुछ दिन पहले पढ़ा कि CSIR के एक अधिकारी की मृत्यु  लौकी का रस पीने से हो गयी. ये आयुर्वेद चिकित्सा की औषधि है और इसमें गलत कुछ भी नहीं है. हाँ कुछ ऐसी मानसिकता वाले लोगों ने इसे दूषित करने की कसम खाई है.  जो प्रकृतिका चिकित्सा कि औषधियों को भी जहर बना रहे हैं.
                      कानपुर में गाँव से दूध वालों के डिब्बों  को पकड़ा गया तो सब डिब्बे  छोड़ कर भाग गए क्योंकि उस दूध में यूरिया और फार्मोलीन   मिला हुआ होता  है जो किसी विष से कम घातक नहीं है. ये भी मौत परोस रहे है. हम सभी इस बात से वाकिफ हैं कि हरी सब्जियों में विशेषरूप से लौकी, खीर, तरबूज, और खरबूजे में किसान ऑक्सीटोसिन  के injection लगाकर रातोंरात बड़ा करके  बाजार में लाकर बेच लेते हैं. ये oxytocin भी जहर ही है. हरी  और मुलायम सब्जियां सबको आकर्षित करती हैं और हम  सभी उस जहर को जज्ब करते रहते हैं और फिर एक दिन  -
*बहुत दिनों से पेट में दर्द की शिकायत थी , पता चला की कैंसर है.
*भूख नहीं लगाती थी, पेट भारी रहता था लीवर सिरोसिस निकला.
*इसी पीलिया, आँतों में सूजन और पता नहीं कितनी घातक बीमारियाँ एकदम प्रकट होती है. फिर
उनका अंजाम कुछ    भी होता है.
                          सिर्फ यही क्यों? सभी खाद्य पदार्थों में मिलावट एक आम बात हो चुकी है और उसको जहरीला बनाने वाले लोग हम में से ही तो होते हैं. सिर्फ धनवान बनने की चाहत में जहर बो रहे हैं और इन  चीजों से दूर रहने  वाला आम आदमी इस जहर को अपने शरीर में उतार रहा है और उसके दुष्परिणामों को भी झेल रहा है .
                       वे जो ऑक्सीटोसिन का इंजेक्शन लगा कर जानवरों से दूध निकाल  रहे हैं या सब्जियां उगा रहे हैं वे इस ख्याल में हैं कि  वे अपनी चीजों को प्रयोग नहीं करेंगे लेकिन यह भूल जाते हैं कि सारी वस्तुएं वे ही नहीं बना सकते हैं और उनके भाई बन्धु उनके लिए भी जहर परोस रहे हैं  जिसको  वे निगल रहे हैं.  इस बात से अनजान  तो नहीं हो सकते हैं फिर क्यों मानवजाति के दुश्मन अपनी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए ये जहर  खा और खिला रहा है. वह क्या सोचते हैं कि  इस जहर से बच जायेंगे? क्या धनवान बनने से  वे दूसरों के खिलाये जा रहे जहर से ग्रसित होकर खून की उल्टियाँ नहीं करेंगे?
क्या वे  कैंसर से ग्रसित नहीं होंगे?
पक्षाघात या हृदयाघात का शिकार नहीं होंगे?
हमारे बच्चे क्या इसकी पीड़ा नहीं झेलेंगे?
                      अगर वे इस बात से इनकार कर रहे हैं या अनजान हैं तो कोई बात नहीं. लेकिन ऐसा कोई भी चोर नहीं होता कि अपने किये अपराध की सजा न जानता हो. जब तक नजर से बचा हैं तो सफेदपोश और जिस दिन ये भ्रम टूट गया तो इससे बच वे भी नहीं सकते .हाँ ये हो सकता है कि पैसे के बल पर वे इन रोगों से लड़ सकते हैं लेकिन उस पीड़ा को उनकी तिजोरियों में रखा हुआ धन नहीं झेलेगा और क्या पता वह भी मौत से हार जाये और आप खुद अपने ही हाथों मौत परोस कर खुद ही उसके शिकार हो जाएँ.
                    इस जहर से कोई नहीं बच सकता है. अगर हम नहीं बचेंगे तो ये मौत के सौदागर भी नहीं बचेंगे.

                   

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

मेरा सफरनामा (शनि शिंगुनापुर)

               त्रयम्बकेश्वर से चल कर हम अपनी नयी मंजिल की ओर बढे तो चले वापस नासिक रोड और वहाँ से टैक्सी  करके चल दिए अहमदनगर के सीमा में पड़ने वाले शनि देव के प्रसिद्द स्थल शिंगुनापुर के लिए.  जब  हम  होटल  से  चलने  वाले  थे  तो हमने एक टैक्सी की. वहाँ से करीब १६० किमी है. मेरी बेटी को रोड यात्रा बिल्कुल भी सूट नहीं करती. वह और उसके सहेली ( मेरी मानस पुत्री ) दोनों ही कहने लगी तो ये तो जा नहीं सकती. ५ किमी तक में इसकी हालात ख़राब हो जाती है. अपने इतनी लम्बी जर्नी के लिए कैसे सोच लिया?
                                  पतिदेव भी गुस्से में आ गए कोई नहीं जाएगा. सब होटल में ही रुको और वापस चलो.  मेरा बहुत मन था कि यहाँ तक आयी हूँ तो दर्शन कर ही लूं. पापा की गुस्सा से दोनों ही बेटियां चलने के लिए बेमन से तैयार हुईं. टैक्सी की गयी और जब मैं होटल की सीढियां उतर रही थी तो मैंने मन ही मन कामना की -ये मेरी आस्था की परीक्षा है, मेरी बेटी को मंदिर तक सकुशल ही ले जाना चाहती हूँ और आपकी कृपा भी चाहती हूँ. " . बहुत दूर था मंदिर और बाई रोड ही जाना था. नासिक से शिंगुनापुर  जाने वाले रास्ते में एक खास चीज यह भी देखी की थोड़ी - थोड़ी दूर पर टेंट लगा कर कुर्सियां डाल कर दुकाने सजी थीं और वहाँ पर कोल्हू में जुटा हुआ बैल शांत खड़ा था शायद ग्राहकों के आने की प्रतीक्षा कर रहा था की कब आयें और उसको गन्ने का रस निकालने के लिए आदेश मिले. अभी तक तो मैंने मशीनों से रस निकलते हुए ही देखा था. यह मेरा पहला अनुभव था कि दुकान में बैल को कोल्हू में जोत कर रह निकल रहे थे.

                          मंदिर के अन्दर शनि देव की शिला जो की पूजन के लिए स्थापित है.

मंदिर के अन्दर तस्वीरें लेने के लिए अनुमति नहीं थी. फिर भी सिर्फ एक तस्वीर किसी तरह से ली और फिर शेष मंदिर के परिसर में ली गयीं.

इस स्थान पर हम पहली बार गए थे बस सुना भर था कि इसका हिन्दू धर्म में बड़ा ही महात्म्य है. आज इस समय जब कि हम १६० किमी की यात्रा करके आये और मेरी बेटी कि हालात वैसे ही सामान्य थी जैसे कि ट्रेन से यात्रा करने में होती है. मेरी आस्था  और दृढ हो चुकी थी   क्योंकि सब कुछ अच्छा लग रहा  था. ऐसा होने की तो मेरी बेटी कल्पना ही नहीं कर सकती थी और इस समय वह भी उस अज्ञात शक्ति के लिए नतमस्तक थी.
शनिवार के दिन यहाँ पर बहुत अधिक भीड़ होती है. चारों तरफ कारों, टैक्सियों और बसों का ताँता लगा था.. यहाँ पर शनिदेव की शिला का पूजन सिर्फ पुरुष ही करते हैं और वह भी वहीं प्रसाद कि दुकानों से मिलने वाले नारंगी रंग के एक वस्त्र धोती में. जिसको पहन कर नहा कर गीले वस्त्र में ही पूजन करने जाते हैं. चारों तरफ पुरुष तो नारंगी रंग के वस्त्रों में थे ही साथ ही नन्हे बटुक भी उसी वेशभूषा में बहुत प्यारे लग रहे थे. स्त्रियाँ मंदिर  प्रांगन में ही दर्शन कर सकती हैं. शिला स्पर्श करने का विधान वहाँ नहीं था. अपार भीड़ के बाद भी वहाँ पर कोई धक्का मुक्की नहीं थी. मंदिर के परिसर में सरसों का तेल चढाने के कारण चारों तरफ फिसलन थी. और शिला वाले चबूतरे पर तो तेल का तालाब ही बना हुआ था.
बस अगर सबसे खलने वाली बात थी तो ये थी यहाँ पर प्रसाद की दुकानों पर बड़ी लूट मची हुई थी. - एक प्रसाद की डलिया जिसमें मुश्किल से ३० या ३५ रुपये का सामान होगा उसकी कीमत उन लोगों ने ३५१ रुपये वसूल की. जब कि मंदिर जाने से पहले २५१ बताया था और लौट कर आने पर जब पेमेंट किया तो १०० रुपये बढ़ा कर लिए और बोले कि नहीं  इतना ही होता है. इसके साथ ही टैक्सी वालों का कमीशन भी ये लोग देते हैं कि भक्तो को उनके यहाँ लाने पर इतना मिलेगा. खैर ये तो सभी तीर्थ स्थानों पर होता है लेकिन इस तरह से नहीं. जब कि ये मान्यता है और सिर्फ मान्यता ही  नहीं बल्कि सत्य भी है कि यहाँ पर घरों में या दुकानों में आज भी ताले नहीं डाले जाते हैं. घर खुले ही रहते हैं और यहाँ पर चोरी जैसे घटनाएँ घटित नहीं होती. इसके बाद हम उसी टैक्सी से वापस नासिक रोड होटल में लौट कर आये कुल ३२० किमी यात्रा करने के बाद भी सभी लोग खुश थे और खास तौर पर मैं कि मेरी बिटिया रानी बिल्कुल नॉर्मल थीं और आज मैंने अपनी आस्था और विश्वास को पूरी तरह से फलीभूत होते देखा था.