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शनिवार, 27 मार्च 2010

अर्थ पावर !

आज सुबह अखबार हाथ में आया तो नजर पड़ी 'अर्थ पावर' का सन्देश मिला - कुछ गिने चुने शहरों में आज रात ८:३० से ९:३० के बीच सभी अपने घरों में बिजली बंद रखें , ये अनुरोध किया गया था. 

               ग्लोबल वार्मिंग - ऊर्जा संचय, जल संरक्षण, और पृथ्वी बचाओ जैसे लक्ष्यों से जुड़ा एक संकल्प है.

इस काम के लिए क्या हमको सन्देश प्रसारित करने की आवश्यकता है?  
लेकिन क्या इसके बाद भी आज का मानव इसमें स्वेच्छा से अपना सहयोग देगा? 
अगर देगा भी तो कितने प्रतिशत? 
                         हम अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या देने वाले हैं? 

     जल विहीन, आग में तपता हुआ एक अन्धकारपूर्ण जहाँ !
  
   हाँ शायद यही, हम  अपने अपने घरों में झाँक कर चलें. अगर हम ईमानदार उपभोक्ता है तो अपने अपने घरों से ही इस बारे में पहल करें.
जहाँ हम रहें वहाँ ही बिजली जलाएं, AC और TV को वहाँ किसी के न होने पर चलता हुआ न छोड़ें. सिर्फ सुन्दरता के लिए घर में बल्बों की पंक्तियाँ  न सजाएँ. ऊर्जा की भी एक सीमा है, अगर हम आबादी पर काबू पा सकते हैं तो ये कार्य तो हमारे अपने ऊपर निर्भर करता है. कंप्यूटर सिर्फ खेलने के लिए प्रयोग न करें? अगर प्रयोग करें तो रचनात्मक कार्यों के लिए ही करें. खेलने के लिए और भी खेल हैं जो कि घर में या बाहर खेले जा सकते हैं. 
                     जल का भी भण्डारण असीमित नहीं है,  हर वर्ष पानी का स्तर जिस तरह से नीचे जा रहा है, एक दिन वह भी होगा - जब कि हम इस पानी के लिए ही महायुद्ध का सामना कर रहे होंगे. अभी से संचित करें. अपव्यय न करें? सबमर्सिबल लगा कर सड़क धोने वालों को मैं रोज देखती हूँ और साथ ही सरकारी नलों पर लगी हुई खाली बाल्टियों की लाइनें भी. इस विरोधाभास के लिए हम क्या कर सकते हैं? सिर्फ उन्हें सलाह दे सकते हैं. मानना और न मानना सबकी मर्जी पर निर्भर करता है. 
                  कभी सुबह कि सैर के लिए सड़क के किनारे निकल जाते थे और पेड़ों कि ठंडी छाँव में ठंडी हवा की ताजगी से तबियत खुश हो जाती थी. और आज इस ठंडी हवा और हरियाली को देखने के लिए तरस रहे हैं. अगर किसी पार्क में जाना भी है तो उसके लिए पैसे खर्च करने पड़ते हैं. पार्क में जाने के लिए पास बनवाइए.  हम अपने हाथों से ही प्रकृति से दूर जा रहे हैं और मोल ले रहे हैं हजारों बीमारियाँ. अब सिर्फ सड़कें और वाहन हैं , उसपर चलते हुए सांस नहीं ले सकते हैं क्योंकि हमारा वाहन हमें इतना धुआं दे रहा है कि हम मास्क पहन कर ही सड़क पर चल सकते हैं. एक घर में जितने लोग हैं, उतने ही वाहन भी हैं. उतने ही धुआं उगलने वाले साधन हैं और वातावरण को प्रदूषित करने वाले साधन भी. 
                 आप सब से एक करबद्ध  अनुरोध हैं कि जैसे भी संभव हो अपने स्तर पर जल, ऊर्जा और वृक्ष को संरक्षण कीजिये. अगर ये हैं तो हमारा जीवित रहना और स्वस्थ रहना भी संभव है अन्यथा जीवित तो रहेंगे लेकिन  मर मर कर जीने के हालत भी बन जायेंगे.  इस दिशा में पहल करें और जीवन को बचाएं.

गुरुवार, 25 मार्च 2010

वह मूक कान्तिकारी - गणेश शंकर विद्यार्थी !







                       आज २५ मार्च उनकी पुण्य तिथि है. वह खामोश क्रांतिकारी  - बहुत शोर शराबे से नहीं बने थे. उन्हें मूक क्रांतिकारी के नाम से भी जाना जा सकता है. अपने बलिदान तक वे सिर्फ कर्म करते रहे और उन्हीं कर्मों के दौरान वे अपने प्राणों कि आहुति देकर नाम अमर कर गए.
             वे इलाहबाद में एक शिक्षक जय नारायण  श्रीवास्तव के यहाँ २६ अक्तूबर १८९० को पैदा हुए. शिक्षक परिवार गरीबी से जूझता हुआ आदर्शों के मार्ग पर चलने वाला था और यही आदर्श उनके लिए संस्कार बने थे. हाई स्कूल  की परीक्षा प्राइवेट तौर पर पास की और आगे की शिक्षा गरीबी की भेंट चढ़ गयी. करेंसी ऑफिस में नौकरी कर ली. बाद में कानपुर में एक हाई स्कूल में शिक्षक के तौर पर नौकरी की.
                        वे पत्रकारिता में रूचि रखते थे, अन्याय और अत्याचार के खिलाफ उमड़ते  विचारों ने उन्हें कलम  का सिपाही बना दिया. उन्होंने हिंदी और उर्दू  - दोनों के प्रतिनिधि पत्रों 'कर्मयोगी और स्वराज्य ' के लिए कार्य करना आरम्भ किया.
उस समय 'महावीर प्रसाद द्विवेदी' जो हिंदी साहित्य के स्तम्भ बने हैं, ने उन्हें अपने पत्र 'सरस्वती' में उपसंपादन के लिए प्रस्ताव रखा और उन्होंने १९११-१३ तक ये पद संभाला. वे साहित्य और राजनीति दोनों के प्रति समर्पित थे अतः उन्होंने सरस्वती के साथ-साथ 'अभ्युदय' पत्र भी अपना लिया जो कि राजनैतिक गतिविधियों से जुड़ा था.
                    १९१३ में उनहोंने कानपुर वापस आकर  'प्रताप ' नामक अखबार का संपादन आरम्भ किया. यहाँ उनका परिचय एक क्रांतिकारी  पत्रकार के रूप में उदित हुआ. 'प्रताप' क्रांतिकारी पत्र के रूप में जाना जाता था. पत्रकारिता के माध्यम से अंग्रेजों कि खिलाफत का खामियाजा उन्होंने भी भुगता.
        १९१६ में पहली बार लखनऊ में उनकी मुलाकात महात्मा गाँधी से हुई, उन्होंने १९१७-१८ में होम रुल मूवमेंट  में भाग लिया और कानपुर कपड़ा मिल मजदूरों के साथ हड़ताल में उनके साथ रहे . १९२० में 'प्रताप ' का दैनिक संस्करण उन्होंने  उतारा. इसी वर्ष उन्हें रायबरेली के किसानों का नेतृत्व करने के आरोप में दो वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गयी. १९२२ में बाहर आये और पुनः उनको जेल भेज दिया गया. १९२४ में जब बाहर आये तो उनका स्वास्थ्य ख़राब हो चुका था लेकिन उन्होंने १९२५ के कांग्रेस सत्र के लिए स्वयं को प्रस्तुत किया.
१९२५ में कांग्रेस ने प्रांतीय कार्यकारिणी कौंसिल के लिए चुनाव का निर्णय लिया तो उन्होंने स्वराज्य पार्टी का गठन किया और यह चुनाव कानपुर से जीत कर उ. प्र. प्रांतीय कार्यकारिणी परिषद् के सदस्य १९२९ तक रहे और कांग्रेस पार्टी के निर्देश पर त्यागपत्र भी दे दिया. १९२९ में वह उ.प्र. कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष निर्वाचित  हुए और १९३० में सत्याग्रह आन्दोलन ' की अगुआई की. इसी के तहत उन्हें जेल भेजा गया और ९ मार्च १९३१ को गाँधी-इरविन पैक्ट के अंतर्गत बाहर आये.
         १९३१ में जब वह कराची जाने के लिए तैयार थे. कानपुर में सांप्रदायिक दंगों का शिकार हो गया और विद्यार्थी जी ने अपने को उसमें झोंक दिया. वे हजारों बेकुसूर हिन्दू और मुसलमानों के खून खराबे के विरोध में खड़े हो गए . उनके इस मानवीय कृत्य के लिए अमानवीय कृत्यों ने अपना शिकार बना दिया और एक अनियंत्रित भीड़ ने उनकी हत्या कर दी. सबसे दुखद बात ये थी कि उनके मृत शरीर मृतकों के ढेर से निकला गया. इस देश कि सुख और शांति के लिए अपने ही घर में अपने ही घर वालों कि हिंसा का शिकार हुए.
             उनके निधन पर गाँधी जी ने 'यंग' में लिखा था - 'गणेश का निधन हम सब कि इश्य का परिणाम है. उनका रक्त दो समुदायों को जोड़ने के लिए सीमेंट का कार्य करेगा. कोई भी संधि हमारे हृदयों को नहीं बाँध सकती है.' 
                 उनकी मृत्यु से सब पिघल गए और जब वे होश में आये तो एक ही आकर में थे - वह था मानव. लेकिन एक महामानव अपनी बलि देकर उन्हें मानव होने का पाठ पढ़ा गया था. 
                 कानपुर में उनकी स्मृति में - गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक चिकित्सा महाविध्याल और गणेश उद्यान बना हुआ है. आज के दिन  उनके प्रति मेरे  यही श्रद्धा सुमन अर्पित हैं.

शनिवार, 20 मार्च 2010

युवा पीढ़ी अपराध में लिप्त क्यों?

                      इस बात से सभी वाकिफ हैं की आज की युवा पीढ़ी अगर बहुत कुशाग्र नहीं है तो उसका रुख अपराधों की ओर अधिक हो रहा है? बैक पर सवार लड़के जंजीर खींचने को सबसे अच्छा कमी का साधन समझ रहे हैं. छोटे बच्चों को अगुआ कर फिरौती माँगना और फिर उनकी हत्या कर देना? सारे बाजार के सामने किसी को भी लूट लेना? ये आम अपराध हैं और इनसे सबको ही दो चार होना पड़ता है. खबरों के माध्यम से, कभी कभी तो आँखों देखि भी बन रहा है. 
                         
                            कभी इन युवाओं के इस अपराध मनोविज्ञान के बारे में भी सोचा गया है. अगर पकड़ गए तो पुलिस के हवाले और पुलिस भी कुछ ले दे कर मामला रफा-दफा करने में कुशलता का परिचय देती  है. ये युवा जो देश का भविष्य है , ये कहाँ जा रहे हैं?  बस हम यह कह कर अपने दायित्व की इतिश्री समझ लेते  हैं कि जमाना बड़ा ख़राब हो गया है, इन लड़कों को कुछ काम ही नहीं है. पर कभी जहाँ हमारी जरूरत है हमने उसे नजर उठाकर देखा , उसको समझने की कोशिश की,  या उनके युवा मन के भड़काने वाले भावों को पढ़ा है. शायद नहीं?  हमने ही समाज का ठेका तो नहीं ले रखा है. हमारे बच्चे तो अच्छे निकल गए यही बहुत है? क्या वाकई एक समाज के सभ्य और समझदार सदस्य होने के नाते हमारे कुछ दायित्व इस समाज में पलने वाले और लोगों के प्रति बनता है कि नहीं? 
                           ये भटकती हुई युवा पीढ़ी पर नजर सबसे पहले अभिभावक कि होनी चाहिए और अगर अभिभावक कि चूक भी जाती है और  आपकी पड़  जाती है उन्हें सतर्क कीजिये? वे भटकने की रह पर जा रहे हैं. आप इस स्वस्थ समाज के सदस्य है और इसको स्वस्थ ही देखना चाहते हैं. बच्चों कई संगति  सबसे प्रमुख होती है. अच्छे पढ़े लिखे परिवारों के बच्चे इस दलदल में फँस जाते हैं. क्योंकि अभिभावक इस उम्र कि नाजुकता से अनजान बने रहते हैं.  उन्हें सुख सुविधाएँ दीजिये लेकिन उन्हें सीमित दायरे में ही दीजिये.  पहले अगर आपने उनको पूरी छूट दे दी तो बाद में शिकंजा कसने पर वे भटक सकते हैं. उनकी जरूरतें यदि पहले बढ़ गयीं तो फिर उन्हें पूरा करने के लिए वह गलत रास्तों पर भी जा सकते हैं.  इस पर आपकी नजर बहुत जरूरी है.
                      ये उम्र उड़ने वाली होती है, सारे शौक पूरे करने कि इच्छा भी होती है, लेकिन जब वे सीमित तरीकों में उन्हें पूरा नहीं कर पाते हैं तो दूसरी ओर भी चल देते हैं. फिर न आप कुछ कर पाते हैं और न वे. युवाओं के दोस्तों पर भी नजर रखनी चाहिए उनके जाने अनजाने में क्योंकि सबकी सोच एक जैसी नहीं होती है, कुछ असामाजिक प्रवृत्ति के लोग उसको सीढ़ी बना कर आगे बढ़ना चाहते हैं, तो उनको सब बातों से पहले से ही वाकिफ करवा देना अधिक उचित होता है. वैसे तो माँ बाप को अपने बच्चे के स्वभाव और रूचि का ज्ञान पहले से ही होता है. बस उसकी दिशा जान कर उन्हें गाइड करें, वे सही रास्ते पर चलेंगे. 

                             इसके लिए जिम्मेदार हमारी व्यवस्था भी है और इसके लिए एक और सबसे बड़ा कारण जिसको हम  नजर अंदाज करते चले आ रहे हैं, वह है आरक्षण का?  ये रोज रोज का बढ़ता हुआ आरक्षण - युवा पीढी के लिए एक अपराध का कारक बन चुका है. अच्छे मेधावी युवक अपनी मेधा के बाद भी इस आरक्षण के कारण उस स्थान तक नहीं पहुँच पाते हैं जहाँ उनको होना चाहिए.  ये मेधा अगर सही दिशा में जगह नहीं पाती  है तो वह विरोध के रूप में , या फिर कुंठा के रूप में भटक  सकती  है . जो काबिल नहीं हैं, वे काबिज हैं उस पदों पर जिन पर उनको होना चाहिए. इस वर्ग के लिए कोई रास्ता नहीं बचता है और वे इस तरह से अपना क्रोध और कुंठा को निकालने लगते हैं. इसके लिए कौन दोषी है? हमारी व्यवस्था ही न? इसके बाद भी इस आरक्षण की मांग नित बनी रहती है. वे जो बहुत मेहनत से पढ़े होते हैं. अगर  उससे वो नहीं  पा  रहे  हैं  जिसके  लिए  उन्होंने मेहनत की है तो उनके मन में इस व्यवस्था के प्रति जो आक्रोश जाग्रत होता है - वह किसी भी रूप में विस्फोटित हो सकता है. अगर रोज कि खबरों पर नजर डालें तो इनमें इंजीनियर तक होते हैं. नेट का उपयोग करके अपराध करने वाले भी काफी शिक्षित होते हैं. इस ओर सोचने के लिए न सरकार के पास समय है और न हमारे तथाकथित नेताओं  के पास. 
                                इस काम में वातावरण उत्पन्न करने में परिवार की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. वे बेटे या बेटियों को इस उद्देश्य से पढ़ातए है कि ये जल्दी ही कमाने लगेंगे और फिर उनको सहारा मिल जायेगा. ये बात है इस मध्यम वर्गीय परिवारों को. जहाँ मशक्कत करके माँ बाप पढ़ाई का खर्च उठाते हैं या फिर कहीं से कर्ज लेकर भी. उनको ब्याज भरने और मूल चुकाने कि चिंता होती है. पर नौकरी क्या है? और कितना संघर्ष है इसको वे देख नहीं पाते हैनौर फिर --
  • कब मिलेगी नौकरी?
  • तुम्हें इस लिए पढ़ाया  था कि सहारा मिल जाएगा. 
  • अब मैं ये खर्च और कर्ज नहीं ढो पा  रहा हूँ. 
  • सबको तो मिल जाती है तुमको ही क्यों नहीं मिलती नौकरी.
  • जो भी मिले वही करो.
  • इस पढ़ाई से अच्छ तो था कि अनपढ़ होते कम से कम रिक्शा तो चला लेते.
                             घर वाले परेशान होते हैं और वे कभी कभी नहीं समझ पाते हैं कि क्या करें? उनकी मजबूरी, उनके ताने और अपनी बेबसी उनको ऐसे समय में कहीं भी धकेल देती है. वे गलत रास्तों पर भटक सकते हैं. सबमें इतनी विवेकशीलता नहीं होती कि वे धैर्य से विचार कर सकें.  युवा कदम ऐसे वातावरण और मजबूरी में ही भटक जाते हैं. अपराध कि दुनियाँ कि चकाचौंध उनको फिर अभ्यस्त बना देती हैं. कुछ तो जबरदस्ती फंसा दिए जाते हैं और फिर पुलिस और जेल के चक्कर लगा कर वे पेशेवर अपराधी बन जाते हैं.
इन सब में आप कहाँ बैठे हैं? इस समाज के सदस्य हैं, व्यवस्था से जुड़े हैं या फिर परिवार के सदस्य हैं. जहाँ भी हों, युवाओं के मनोविज्ञान को समझें और फिर जो आपसे संभव हो उन्हें दिशा दें. एक स्वस्थ समाज के सम्माननीय सदस्य बनने के लिए , इस देश की भावी पीढ़ी को क्षय होने से बचाइए. इन स्तंभों  से ही हमें आसमान छूना है. हमें सोचना है और कुछ करना है.

रविवार, 7 मार्च 2010

कानपूर का गंगा मेला!

  




  कानपुर में होली कुछ और ही रंग में रंगी होती है. होली वाले दिन के बाद अनुराधा नक्षत्र में गंगा मेला के नाम से होली मनाई जाती है. बिलकुल होली कि तरह से उस दिन यहाँ पर स्थानीय छुट्टी होती है. हर तरफ होली का नजारा देखी देती है.
                   इस नयी होली के विषय में सबको नहीं मालूम है लेकिन चूँकि यह कहानी देश  के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी  है तो सबके लिए रोचक हो सकती है.  न हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता है, यह तो इतिहास है - जरूरी नहीं कि हम इससे वाकिफ हों या फिर रूचि रखें ही.
                   स्वतंत्रता से पूर्व होली वाले दिन स्वतंत्रता के दीवानों ने हटिया पार्क में तिरंगा फहराकर देश कि आजादी कि घोषणा कर डी थी. अंग्रेजी शासन को एक चुनौती देने वाले कार्य ने प्रशासन को बौखला दिया. यहाँ पर हटिया एक जगह है - जो उस समय आजादी के दीवानों का गढ़ हुआ करता था. 
                       उस समय हटिया में किरण, लोहा कपड़ा और गल्ले का व्यापार होता था. व्यापारियों के यहाँ आजादी के दीवाने व क्रांतिकारी डेरा जमाते और आन्दोलन कि रणनीति बनाते थे. हटिया में ही झंदगीत ' झंडा ऊँचा रहे हमारा विजयी विश्व तिरंगा प्यारा' के रचयिता श्याम लाल गुप्ता 'पार्षद' ने जवाजीवन पुस्तकालय कि स्थापना कि थी. पुस्तकालय व हटिया पार्क क्रांतिकारियों के लिए अड्डा बना गया था.

इस घटना के बाद घुड़सवार पुलिस ने हटिया को चारों तरफ से घेर लिया और काफी लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया. स्वतंत्रता के सेनानियों की गिरफ्तारी से शहर भड़क उठा. लोगों ने होली नहीं मनाई और एक आन्दोलन छेड़ दिया जिससे कि अंग्रेज अधिकारी घबरा गए. गिरफ्तार सेनानियों को छोड़ना पड़ा. यह रिहाई अनुराधा नक्षत्र के दिन हुई . होली के बाद अनुराधा नक्षत्र के दिन उनके लिए उत्सव का दिन हो गया और जेल के बाहर भरी संख्या में इकट्ठे लोगों ने ख़ुशी मनाई. ख़ुशी में हटिया से रंग भरा ठेला निकला गया और लोगों ने जमकर रंग खेला. 
                     शाम को गंगा किनारे सरसैया घाट पर मेला लगा. जिसमें सभी लोग इकट्ठे हुए और एक दूसरे को गुलाल लगते हुए गले मिले. तब से कानपुर शहर इस परंपरा का निर्वाह कर रहा है . हटिया बाजार आज भी होली वाले दिन से लेकर गंगा मेला तक बंद रहता है. आज भी सरसैया घाट पर पूर्ववत  शाम को होली मिलन समारोह होता है.

         

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

आई आई टी स्वर्ण जयंती वर्ष

आई आई टी कानपुर अपने स्वर्ण जयंती वर्ष में  ऐसे शिलालेख तैयार किया  है जिससे कि आने वाले समय में अगर ये दुनिया किसी तरह से रसातल में जाती है या फिर कभी किसी प्राकृतिक आपदा का शिकार हो जाती है तब भी इसका इतिहास किसी न किसी रूप में सदैव जीवित रहे.  इसके इतिहास को लिपिबद्ध कर हस्ताक्षरों सहित ऐसे धातु के एक कैप्सूल में सुरक्षित करके जमीन के अन्दर दबा दिया गया है.
                             
 टाइम कैप्सूल २०१० 

 चित्र उस टाइम कैप्सूल २०१० का है, जिसमें पिछले ५० वर्षों में इस संस्थान में हुई प्रगति , शोध, और उपलब्धियों को अंकित कर डाला गया है. इससे जुडी हस्तियों के बारे में और १९५९ में १४० छात्रों के साथ मात्र अभियांत्रिकी एवं तकनीकी विधा को लेकर आरम्भ होने के समय से लेकर आज इन विधायों की एक लम्बी श्रृंखला  जिसमें जैवकीय से जुड़ी सभी विज्ञान , प्रबंधन, एक विशाल संस्थान में परिवर्तित रूप का वर्णन किया गया .

                     आज ६ मार्च  २०१० को महामहिम प्रतिभा देवीसिंह पाटिल जी द्वारा इसको पृथ्वी के अन्दर स्थापित किया जाएगा और उस स्थल को शिलालेख द्वारा इंगित किया जाएगा.  जैसे हम आज पाषाण युग, सिन्धु घाटी की सभ्यता के अवशेषों को देख कर एक प्राचीन काल के इतिहास का अनुमान लगा लेते हैं ठीक उसी तरह हजारों साल के बाद भी यदि कभी इस पृथ्वी का स्वरूप बदला तब भी ये इतिहास जीवित रहे इस परिकल्पना को सामने रखकर इसको तैयार  किया गया है. 

               नैनो सेटेलाईट "जुगनू"

 आज का दिन इस संस्थान के लिए और भी महत्वपूर्ण इस लिए है की यहाँ के प्रतिभाशाली इंजीनियरों के द्वारा तैयार की गयी 'जुगनू' नैनो सैटेलाईट  इसरो के प्रतिनिधि को भेंट की जायेगी और इसका प्रक्षेपण इसरो के द्वारा किया जाएगा. ये सबसे कम वजन की सैटेलाईट है जिसको अन्तरिक्ष में स्थापित किया जाएगा.
 महामहिम प्रतिभा देवी सिंह पाटिल जी ने इस को इस तरह से सम्मानित किया - ' कानपुर आई आई टी के द्वारा दी गयी ये नैनो सैटेलाईट ने देश को कान, आँख और नाक भी दी है.'
         आज के इस महत्वपूर्ण अवसर पर ये बताना जरूरी है कि हम सिर्फ तकनीक और अभियांत्रिकी को ही आगे नहीं ले रहे हैं बल्कि विभिन्न प्रोजेक्ट के द्वारा देश कि तमाम सामान्य और आपातकालीन सथियों से निपटने के लिए चाहे वह रेल , प्राकृतिक आपदा, प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण का क्षेत्र हो. देश के लिए महत्वपूर्ण एवं अविस्मरनीय योगदान देने के लिए सदैव ही आगे रही है और आगे भी इसी तरह से सदियों तक और भी अधिक क्षमता के साथ देश के लिए योगदान के लिए आगे रहेगी.