हम स्वतंत्रता में ही पैदा हुए और उसकी खुली हवा में सांस ली. गुलामी कि घुटन और जुल्म की छाया भी तो हमने देखी नहीं लेकिन सुनी है और उसी सुने हुए को और उन महान योद्धाओं के सहे हुए जुल्मों से अवगत हो कर उनके प्रति नमन तो कर ही सकते हैं. तब अपना व्यक्तिगत कुछ भी न था सिर्फ वतन था और उसकी आजादी थी.
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनके कार्यों और भूमिका इतनी लम्बी है कि विस्तार से प्रस्तुत करने पर एक पुस्तक ही लिखी जायेगी फिर भी राष्ट्र के लिए उनकी भूमिका का संक्षिप्त स्वरूप प्रस्तुत करना सामयिक होगा.
लाला जी ने राजनीति में प्रवेश अपने कुछ पत्रों के प्रकाशन के बाद किया और वे पत्र उनके सैयद अहमद खां के विचारों की आलोचना करते हुए लिखे थे. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के स्थापना के ३ वर्ष बाद वे १८८८ में इसमें सम्मिलित हो गए. पहले पहल उन्होंने १८८८ में इलाहबाद में कांग्रेस के मंच पर पदार्पण किया और उर्दू में भाषण दिया. उसमें उन्होंने शैक्षिक तथा औद्योगिक मामलों पर समुचित विचार करने की जरूरत पर बल दिया. उस कांग्रेस में उन्होंने प्रतिनिधियों में 'सर सैयद अहमद खां को खुला पत्र' की प्रतियाँ वितरित की.
१९०५ में अखिल भारतीय कांग्रेस ने उन्हें ब्रिटिश लोकमत के समक्ष भारतियों की मांगों और शिकायतों को प्रस्तुत करने के लिए इंग्लॅण्ड भेजा. वे गोपाल कृष्ण गोखले के साथ प्रतिनिधि मंडल के सदस्य बन कर गए. इस प्रतिनिधि मंडल का उद्देश्य ब्रिटिश नेताओं को बंग - भंग के प्रस्ताव को कार्यान्वयन से रोकना था. किन्तु वे शासक होकर अपने अधीन देश के प्रस्तावों से सहमत नहीं हुए.
१९०७ में लालाजी को सरदार अजीतसिंह के साथ १८१८ के विनिमय ३ के अंतर्गत निर्वासित करके मांडले जेल भेज दिया गया. इस अनुचित कार्य से भारत में अंग्रेजी शासकों कि दमनकारी नीति की स्पष्ट रूपरेखा दिखाई देने लगी. इस जेल से लालाजी का एक विशेष राष्ट्रीय वीर के रूप में मान मिला. ७ सितम्बर १९०७ को वे रिहा कर दिए गए.
१९२० में लाला लाजपत राय ने कलकत्ता में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन का सभापतित्व किया. उसी अधिवेशन में असहयोग पर प्रस्ताव पास किया गया. वे संवैधानिक कार्य प्रणाली तथा उदारवादी आन्दोलन के विशेषज्ञ रह चुके थे. १९०७ के बाद वे राष्ट्रवादी दल की स्वराज, स्वदेशी, बहिष्कार तथा राष्ट्रीय शिक्षा की चार मांगों का समर्थन करने लगे थे. तिलक की भांति वे भी गाँधी जी की असहयोग प्रणाली तथा क़ानून की अहिंसात्मक अवज्ञा से सहानुभूति नहीं रखते थे. १९२० में सियालकोट राजनीतिक सम्मलेन के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने जनता से विद्रोही हुए बिना असहयोग का मार्ग अपनाने की सलाह दी. ३ दिसंबर १९२२ को उन्हें कारागार में डाल दिया गया. १९२२ के बाद गाँधीवादी दर्शन के विरोधी हो गए.
अपने पत्र 'दी पीपुल' के प्रथम अंक में ही उन्होंने लिखा : "राजनीति में अतिशय भावुकता और नाटकीय आचरण के लिए स्थान नहीं है. कुछ समय से हम ऐसी योजनाओं का प्रयोग करते आये जिन्हें मानव स्वभाव में तत्काल और उग्र परिवर्तन किये बिना कार्यान्वित करना संभव नहीं है. राजनीति के सम्बन्ध प्रथमतः और तत्ववः राष्ट्र के जीवन के तथ्यों से है और उसमें यह देखना पड़ता है की उन तथ्यों के आधार पर उसकी प्रगति की क्या संभावनाएं हैं. मानव स्वभाव को महीनों और वर्षों में नहीं बदला जा सकता . उसकी बदलने के लिए दशकों बल्कि शताब्दियों की आवश्यकता हो सकती है. पैगम्बर, स्वप्नद्रष्ट तथा कल्पनाविहारी पृथ्वी का लावण्य होते हैं. उनके बिना संसार फीका पड़ जायगा. किन्तु किसी राष्ट्र की मुक्ति का आंदोंलन मनुष्य स्वभाव को शीघ्र बदलने के प्रयत्न पर आधारित नहीं किया जा सकता है, विशेषकर जबकि वह शासन तलवार के बल पर थोपा गया हो और तलवार के ही बल पर कायम हो."
३० अक्टूबर , १९२८ को लालाजी ने साइमन कमीशन का बहिष्कार करने वाले जुलूस का नेतृत्व किया. एक ब्रिटिश सार्जेंट ने उन पर लाठी से आक्रमण कर दिया. कुछ सप्ताह उपरांत७ नवम्बर १९२८ को उन चोटों के कारण ही लालाजी का स्वर्गवास हो गया. जिस दिन लालाजी को चोटें लगी उसी दिन लौहार में एक विशाल सार्वजनिक सभा हुई जिसमे पुलिस के कार्य की घोर निंदा की गयी. लाजपत राय ने स्वयं उस सभा का सभापतित्व किया. अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने ब्रिटिश सरकार को चेतावनी दी कि यद्यपि भारत ने स्वराज्य के शांतिमय अहिंसात्मक संघर्ष का रास्ता अपनाया है, किन्तु यह भी संभव है कि क्रोध के आवेश में आकर भारतीय तरुण सरकार के पाशविक अत्याचारों के विरुद्ध हिंसा और आतंक के तरीकों का प्रयोग करने लगें. उन्होंने कहा कि यदि इसी बीच में मेरी मृत्यु हो गयी और भारतीय नवयुवकों ने अनिच्छा से उस मार्ग को अपना लिया तो मेरी आत्मा उन्हें आशीर्वाद देगी. इसके साथ ये भी कहा था की 'मेरे शरीर पर पड़ी हुई एक एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत की कील सिद्ध होगी.
हम आज ऐसे देश के महान सपूत को स्मरण करके अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं.