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बुधवार, 27 मार्च 2013

हौसले को सलाम (९ ) !


  क्या हमारे लिए अपना संघर्ष ही हमेशा बड़ा  लगता है लेकिन अगर हमने अपने संवेदनशील ह्रदय से  आस पास के चरित्रों को ध्यान से  देखें तो  पता चलता है कि  हम अपनी जिन्दगी में  खुद को एक मनचाही जिन्दगी जीने के लिए संघर्ष करे या फिर कुछ लोगों को रोटियों और जीवन को चलाने  के लिए किया जाने वाला संघर्ष बराबर अर्थ रखता  है. 

                    आज की  प्रस्तुति है डॉक्टर रागिनी मिश्रा की .


रागिनी मिश्रा 



'सरिता'.....
मेरे लिए ये नाम सिर्फ मेरे घर में काम करनेवाली बाई का न होकर एक आदर्श का हो गया है, मेरे लिए इसका अर्थ लगातार बहने वाली नदी ना होकर एक मजबूत चट्टान का हो गया है, क्योंकि  जीवन से हर प्रकार का सुख, सम्पन्नता और संबल छूट जाने के बाद भी वह जिस दृढ इरादों के साथ अपने जीवन को संवार रही है, वह सच में एक मिसाल है हम स्त्रियों के लिये।
                        शराबी पति द्वारा एकड़ो जमीन,घर-बार  सब कुछ बर्बाद कर दिए जाने के बाद भी उसने अपने घर-परिवार या किसी के भी सामने हाँथ नहीं फैलाए बल्कि बीमार शराबी पति को लेकर शहर आकर इलाज़ कराने  लगी। मायके से भी मदद ना मिलने पर उसने हार ना मानी। अनपढ़ थी इसलिए दूसरे के घरों में साफ़- सफाई और मालिश इत्यादि का काम करने लगी . सारा दिन हाड़तोड़ मेहनत  उसने अपने पति का इलाज़ कराया। बच्चों का सरकारी स्कूल में नाम लिखाया। अनपढ़ होने के बावजूद उसे इस बात का भान था कि  अगर उसने पढाई-लिखाई  की होती तो उसकी आज यह दुर्दशा ना होती . इसलिए वह अपनी लड़कियों को पढ़ाना चाहती थी। आज उसका पति भगवान् को प्यारा हो चुका है। उसने अपनी दोनों बेटियों का विवाह एक खाते-पीते घर में किया है। दोनों बेटियां खुश हैं। वह आज भी उतनी ही मेहनत करती है कि उसने जो भी कर्ज अपनी बेटियों के विवाह में लिया था , उसे चुका सके. मेहनती, शरीफ और सच्चाई की प्रतिमूर्ति ' सरिता' मेरे लिए हमेशा ही एक आदर्श रहेगी।

.........................................................डॉ  रागिनी मिश्र ....................................

सोमवार, 25 मार्च 2013

कलम का क्रांतिकारी : गणेश शंकर विद्यार्थी !




                                   कानपुर शहर को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले क्रन्तिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी   ने अखबार "प्रताप " से अंग्रेजों के साथ अपनी बगावत को एक अलग दिशा दी . जिसने कलम को ही अपनी बन्दूक और बम बना कर उस शासन की  चूलें ही नहीं हिलायीं बल्कि उसके दम पर ही  देश को एक  नए जोश और देशभक्ति से भरने का काम किया . वे पत्रकारिता में रूचि रखते थे, अन्याय और अत्याचार के खिलाफ उमड़ते विचारों ने उन्हें कलम का सिपाही बना दिया. उन्होंने हिंदी और उर्दू - दोनों के प्रतिनिधि पत्रों 'कर्मयोगी और स्वराज्य ' के लिए कार्य करना आरम्भ किया.
                
             उस समय 'महावीर प्रसाद द्विवेदी' जो हिंदी साहित्य के स्तम्भ बने हैं, ने उन्हें अपने पत्र 'सरस्वती' में उपसंपादन के लिए प्रस्ताव रखा और उन्होंने १९११-१३ तक ये पद संभाला. वे साहित्य और राजनीति दोनों के प्रति समर्पित थे अतः उन्होंने सरस्वती के साथ-साथ 'अभ्युदय' पत्र भी अपना लिया जो कि राजनैतिक गतिविधियों से जुड़ा था.
                      १९१३ में उन्होंने कानपुर वापस आकर 'प्रताप ' नामक अखबार का संपादन आरम्भ किया. यहाँ उनका परिचय एक क्रांतिकारी पत्रकार के रूप में उदित हुआ. 'प्रताप' क्रांतिकारी पत्र के रूप में जाना जाता था. पत्रकारिता के माध्यम से अंग्रेजों की खिलाफत का खामियाजा उन्होंने भी भुगता.  कानपुर कपड़ा मिल मजदूरों के साथ हड़ताल में उनके साथ रहे . १९२० में 'प्रताप ' का दैनिक संस्करण उन्होंने उतारा.  प्रताप के प्रथम अंक  की सम्पादकीय में लिखा था कि  प्रताप सदैव सत्य के  समर्पित रहेगा और उन्होंने अपने उस  को पूरी  से निभाया वे सदैव सत्य के मार्ग पर चलते रहे .

                    इतना नहीं बल्कि उन्होंने अपने प्रताप के माध्यम से और भी  ऐसे काम किये जो उल्लेखनीय  हैं . उन्होंने देश में १८५९ में शुरू हुई कुली प्रथा को अपने पत्र के माध्यम से ही ख़त्म करने का प्रयास किया और सफल  रहे. देश में जमींदारी प्रथा , देशी  का राज्यों का  में विलय , देश की जनता को एक साथ मिलकर लड़ने का सन्देश भी उन्हीं का दिया हुआ था . 
                    एक  विशेष बात यह है कि प्रताप के शुरू होने का यह शताब्दी वर्ष है और हमें उस इमानदार पत्रकार की पत्रकारिता धर्म पर एक दृष्टि डालने की फिर से जरूरत है और यही हमारी  दिन सच्ची श्रद्धांजलि होगी . उनकी शहादत के प्रति हमारा नमन होगा . हम आज उनके बलिदान दिवस  २५ मार्च पर उन्हें याद करके श्रद्धावनत है .

                   

रविवार, 24 मार्च 2013

हौसले को सलाम (8)

                       जिन्दगी जितने लोगों की  हैं उसके  उतने ही रंग देखने को मिलते हैं  यह बात  नारी में ही देखने को मिलाती है की वह कितने धैर्य से अपने गिरे  संघर्ष के दिनों को हौसले से काट कर निकल आती है और तभी तो उसके हौसले को सलाम  करने का मन होता है. जब हम औरों के संघर्ष  हैं तो लगता है की अगर हमने अपने जीवन में संघर्ष किया है तो उसके आगे  बौना सा लगता है या  बड़ा भी हो तो हौसला हमें भी मिलता है. 
आज की इस व्यक्तित्व की  प्रस्तुति दे रही हैं नीलिमा शर्मा जी . 



नीलिमा शर्मा 

नीरू दी !! हाँ यही तो नाम था उनका ... मेरी बहन की सहेली नीरा ... प्यारी सी सूरत ....... शायद कवियों की सारी उपमाये उनको ही समर्पित होती थी .... तीन भाइयो की छोटी बहन ... जुड़वाँ बहन मीरा के साथ पैदा हुए थी परन्तु ईश्वर ने इनको ही उम्र का वरदान दिया था ... सातवे दशक में जब लडकिया कम ही को - एड कालेज में पढ़ती थी उस वक़्त में नीरू दी जब कालेज जाती थी तो कई दिल आहे भरते थे सुन्दरता और सहजता - सरलता का ऐसा अनोखा संगम कम ही देखने को मिलता था उस वक़्त मैं  यही कोई पांचवी छठी में पढ़ती थी . मेरी दी और नीरू दी अक्सर गप्पे लड़ाती थी और मुझसे चाय बनवाई जाती थी बदले में मुझे उन दोनों की चप्पल पहने को मिलती थी या कोई भी नई माला . या टॉप्स .उस उम्र में ख्वाहिशे भी कितनी होती हैं ,बड़ी बहनों के सामान पर अधिकार ज़माना बहुत अच्छा लगता था कभी लगता ही नही था कि वो बहन की सहेली हैं ...छोटी बहन की तरह उनसे जमकर लडाई झगड़ा करना आदतों में शुमार था .... अभी बीए फाइनल में ही आई थी मेरी सबसे बड़ी बहन के पति अपने दोस्त का रिश्ता नीरू दी के लिय ले आये लड़का बैंक में ऑफिसर , दो भाई एक बहन की फॅमिली , चंडीगढ़ जैसा शहर .. बस नीरू दी की बीजी को सब कुछ पसंद आ गया और तीन महीनो में दी की शादी भी हो गयी दीपक जीजू बहुत ही अच्छे ..लगे मुझे कम ही बात करती थी मैं उनसे लेकिन सब से जितना सुना अच्छा  ही लगता था . दी शादी के बाद और भी प्यारी लगने लगी बीच - बीच में बडी दी आकर बताती कि नीरू दी की सास से नही बन रही .... दादी उनको ज्यादा प्यार करती हैं या उनकी ननद उनको परेशान करती हैं
लाड़ - प्यार से पली दी अब सिर्फ घरेलू महिला बनकर रह गयी सास उस ज़माने में भी ताश पार्टिया - किटी पार्टिया करती थी .... आधुनिकता में भी भी रूढ़िवादिता कि बहु सारा घर सम्हाले .. छोटी छोटी बाते जब बढ़कर कलह का रूप लेने लगी तो जीजू के डैडी ने जीजू से कही बाहर तबादला करने को कह दिया और जीजू का ट्रांसफर अहमदाबाद हो गया तब तक दी दो-दो बेटो की माँ बन चुकी थी
बैंक में कiम का प्रेशर बढ़ रहा था ,परन्तु उस हिसाब से पैसा नही मिलता था . गुजराती लोगो के बीच जीजू को भी ज्यादा पैसे कमाने की ललक उठी और चिट  फंड का काम शुरू कर दिया बैंक की नौकरी छोड़ कर . इधर दी ने भी गुजराती लोगो के शहर में अपना पंजाबी सुट्स बनाने का बुटीक खोल लिया ... दी की मीठे बोली और उनका अप्रितम सौन्दय आस पास की महिलाओ को अपनी और खीचने लगा धीरे धीरे दी का काम चल निकला बच्चे भी स्कूल में जाने लगे दी ने जीजू से कहा के आप अपने काम  पर ध्यान दे घर मैं चला लूंगी . तीन साल बीत गये , दी का बुटीक अच्छे से चलने लगा था इधर पैसे कमाने के चक्कर में न जाने जीजू कहा चूक  गये बाकी  हिस्से दार उनको धोखा देकर सारा पैसा हड़प गये और जीजू को सब लोगो ने घेर लिया कि हमारा पैसा वापिस दो .घर के बाहर नारे लगने लगे पुलिस में कंप्लेंन की गयी और दी से बात करने का भी मौका नही मिला और जीजू सलाखों के पीछे डाल दिए गये .... दो बच्चे . जहाँ कोई अपना नही . सब ताने मारने वाले के इसका पति सारा पैसा खा गया बड़ी पैसे वाली बनती थी .ऐसे वक़्त में ससुराल वाले भी और मायके वाले भी महज तमाशबीन बनकर खड़े हो गये थे . दी ने अपना सारा गोल्ड बेच दिया सब कुछ बेचकर लोगो को उनका पैसा वापिस किया और जीजू के साथ जा खड़ी हुए जीजू को आजीवन कारावास सुनाया गया 14 साल की सजा सुनकर भी दी नही टूटी और बच्चो को हौसला दिया और दूर दिल्ली पढने भेज दिया बिना किसी रिश्तेदार का सहारा लिए  . बच्चे भी समझदार थे माँ का दर्द जानते थे . पढ़ लिखकर बहुत ही उच्चे पद पर आसीन हैं .... दोनों बच्चे आज गुडगाँव  में रहते हैं .... दी ने जीजू के बिना ही बड़े बेटे की शादी की ... उनकी बहु एक प्राइवेट बैंक की चीफ मेनेजर हैं ... दी का काम आज भी बहुत अच्छे से चल रहे हैं .... जिस अनजान शहर ने उनको गालियाँ दी थी आज उनकी मेहनत की तारीफ करते नही थकता हैं जीजू अब जेल से आने वाले है अगले साल तो दी अब बच्चो के पास दिल्ली शिफ्ट करना चाहती हैं परन्तु उस से पहले वो अपने आपको आर्थिक रूप से सुदृढ़ करना चाहती हैं ताकि बच्चो पर बोझ न बने . यह सब मुझे अभी पिछले ही हफ्ते दी से बात करने पर पता चला जब उनको अचानक करोल बाग में घुमते देखा .... 50 साल की दी ने 30 साल की शादीशुदा जिन्दगी में न जाने कितने रंग देख लिए थे वक़्त के साथ अपनों का अपनापन भी ....और मुझे ऐसे गले मिली कि जैसे हम बचपन में मिलते थे और वही बहस भी हुआ कि कहाँ थी इतने साल :)) सच में ,दी के हौसले को प्रणाम की ... उन्होंने अपने पति का साथ नही छोडा बच्चो को अच्छे संस्कार भी दिए और अपने को आर्थिक रूप से मजबूत भी बनाया ..... नारीवाद का झंडा उठाकर अपने पति पर आरोप , दी भी लगा सकती थी ,परन्तु उन्होंने उन हिस्सेदारों  को भी माफ़ कर दिया उनके संस्कार ऐसे थे . कहकर ..... कोइ कुछ भी कहे मैं तो यही कहूँगी की यह होती हैं नारी जो सब त्याग भी करती हैं और उनका बखान भी नही करती .

शनिवार, 23 मार्च 2013

शहीद दिवस पर !

                     आज शहीद दिवस पर  तीनों अमर शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि ! 




                 नहीं जानती कि इस  दिन हमारी संसद में कोई इन तीनों भगत , सिंह राजगुरु और सुखदेव  के लिए दो शब्द भी बोल होगा क्योंकि संसद की कार्यवाही नहीं देखी, लेकिन अखबार देखे हैं  और देखे हैं सरकार के विज्ञापन .  हाँ उत्तर प्रदेश सरकार के वैचारिक गुरु   राम मनोहर लोहिया जी  की जयंती भी आज  है और उसका भी विज्ञापन देखा है . सपा मुखिया के परिजनों की तस्वीर  के साथ समाजवाद की दुहाई , लेकिन शहीदों को  नमन  करते नहीं देखा है.  अरे ये तो समझ लो ये विचारों की ईमारत जब बनने लगी तो उस नींव में जिनके बलिदान की ईंटे लगी हैं उनको तो नहीं भूलना चाहिए .  किसी एक कोने में भी सही उन शहीदों को नमन तो करना चाहिए .  ये राज्य का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और कल देश के प्रतिनिधित्व का सपना देख  हैं और साथ ही देश के इतिहास को बदलने का दावा भी कर रहे है .

शुक्रवार, 22 मार्च 2013

हौसले को सलाम ! ( ७ )

         हमारा संघर्ष  सिर्फ अपने जीवन में संघर्ष करती हुई माध्यम वर्गीय या उच्च वर्गीय महिलाओं के संघर्ष को ही नहीं देखती है बल्कि  ये तो सिर्फ एक महिला  के संघर्ष की गाथा से जुडी हुई दास्ताँ है . क्योंकि औरत सिर्फ औरत होती है और उसका संघर्ष भी एक  ही होता है  वह कोई शिक्षिका हो , गृहणी हो या फिर हमारे ही घर में काम करने वाली कोई महिला हो. आज की प्रस्तुति  है : अपर्णा साह जी की .
 
    
अपर्णा साह 
           भगवान ने दो जाति  बनाया ...एक शारीरिक रूप से सबल और दुसरे को निर्बल ...तो समाज -परिवार का ढांचा और परिवेश भी उसके अनुरूप  ही बना था .देश की गुलामी के लम्बे दौर मे पुरुष स्त्रियों को संरक्षण  देते-देते अपनी शक्ति को हथियार बना लिए फिर तो वे शोषक और शासक बन बैठें .यानि कि एक पुरुष से संरक्षण देना दूसरे पुरुष का काम हो चला ,वो ब्रह्मा-विष्णु -महेश की भूमिका का निर्वाह करने लगा .स्त्रियाँ घर की इज्जत बन परदे के पीछे छुप  गई ..
                                         स्त्रियाँ किसी भी तबके की हों वो शोषित है ,बस अंतर इतना है की मध्यम वर्ग की औरतें इज्जत के आवरण में अपने को समोय रहती है जबकि निचले तबके की मेहनतकश औरतें इज्जत के अलग अर्थ को अमल में लाती  हैं ....ये इतनी सबल होती हैं कि सलाम करने को जी चाहता है .कितनी सहजता से बचपनसे बुढ़ापा तक का सफ़र यूँ गुजर देती हैं मानो किसी के सहारे की आरजू ही नहीं .पति के निकम्मेपन,शराबीपन और अत्याचार को ये किस्मत का नाम देकर चिंतामुक्त हो जाया करते हैं ,औरत होने का दर्द सहती हैं,मार खाती हैं पर घायल सिर्फ शारीर होता है मन नहीं ......
                                            पूरे शरीर पे चोट का निशान,माथा फटा,खून बहता हुआ,तीन छोटे बच्चों को लिए गेट पर पिटती नेहा को देख मै विह्वल हो गई ,क्या हुआ "मेमसाहेब कुछ पैसा दे दीजिये मै खाली हाथ घर छोड़ आए हूँ,रात सामने के गराज में सोई हूँ,"ठंड अभी भी कायम है तो कैसे ये रही होगी .उसके हौसले को मैं देखने लगी और उसकी सहारा बन उसके साथ खड़ी हो गई ."जानती हैं मेमसाहेब माँ-बाप छोटी उम्र में शादी कर दिया, सास बहुत ख़राब बर्ताव मेरे साथ करती थी,तीनो बच्चे जल्दी ही हो गए ...उसके बाद पति को किसी तरह फुसलाकर यहाँ लेके आई,ये अच्छा कमाता था पर इसके माँ-बाप यहाँ आके रहने लगे ,सास के बहकावे  में आ मेरा मरद दारू पीने लगा,मै खूब लडती थी,चिल्लाती थी ,मुझे मारता था …आज चिल्लाके लड़ रही थी तो पीछे से माथा पे लाठी मारा " उसे हर तरह का सहायता दे प्यार से समझाई कि क्यों अपना घर छोडोगी ,जीत  तो तब होगी जब उन तीनो को घर से भगाओ ,इतने घर काम कर उन सबों को खिलाती थी न तो अपना और बच्चों का पेट कैसे न भर पाओगी ? .....फिर उसे थाना भेज शिकायत दर्ज करवा दी,,पति जेल गया फिर जमानत पे छूट  अपने माँ-बाप को लेकर अलग रह रहा है .इसे साथ रखने को लेकर कभी पंचायत कर रहा,कभी झगडा . नहीं जानती आगे क्या होगा पर परिवर्तन की हवा तो चल ही पड़ी है ........
                                                     हर तरफ कहानियां बिखरी पड़ी है, हर एक औरत की एक कहानी है .मेरी-आपकी-सबकी ..औरत एक जाति विशेष है सिर्फ ......जिसने दिमाग का प्रदर्शन किया  उसे पग-पग पर लक्षण लगाये जाते हैं .........इन आपबीतियों को,भोगों को कहानियों में ढालने  की कितनो को हिम्मत है और गर हिम्मत है तो कितने लिखने की कला के ज्ञाता हैं ............??????




बुधवार, 20 मार्च 2013

हौसले को सलाम ! (६)


                        वक़्त जिन्दगी में कैसे कैसे लाता है और उन मोड़ों पर कभी इंसान हार जाता है और कभी बड़ी वीरता और धैर्य से उन्हें पर कर मंजिल पा लेता है .  का नाम है जिन्दगी - जन्म से लेकर मृत्यु तक हम यन्त्र चालित से रहते हैं लेकिन उसमें अपने बुद्धि और विवेक से जीतने और हारने में हमारी अपनी ही कुशलता को श्रेय जाता है. 
                  आज की कड़ी की  प्रस्तुति  है रेखा जोशी जी की .



''ट्रिग ट्रिन ''दरवाज़े की घंटी के बजते ही मीता ने खिड़की से  झाँक कर देखा तो वहां उसने अपनी ही पुरानी इक छात्रा अनन्या को दरवाज़े के बाहर खड़े पाया ,जल्दी से मीता  ने दरवाज़ा खोला तो सामने खड़ी वही मुधुर सी  मुस्कान ,खिला हुआ चेहरा और हाथों में मिठाई का डिब्बा लिए अनन्या खड़ी थी । ''नमस्ते मैम ''मीता को सामने देखते ही उसने कहा ,''पहचाना मुझे आपने।  ''हाँ हाँ ,अंदर आओ ,कहो कैसी हो ''मीता ने उसे अपने घर के अंदर सलीके से सजे ड्राइंग रूम में बैठने को कहा । अनन्या ने टेबल पर मिठाई के डिब्बे को रखा और बोली ,''मैम आपको एक खुशखबरी देने आई हूँ मुझे आर्मी में सैकिड लेफ्टीनेंट की नौकरी मिल गई है ,यह सब आपके आशीर्वाद का फल है ,मुझे इसी सप्ताह जाईन करना है सो रुकूँ गी नही ,फिर कभी फुर्सत से आऊं गी ,''यह कह कर उसने मीता के पाँव छुए और हाथ जोड़ कर उसने विदा ली । अनन्या के जाते ही मीता के मानस पटल पर भूली बिसरी तस्वीरे घूमने लगी, जब एक दिन वह बी एस सी अंतिम वर्ष की कक्षा को पढ़ा रही थी तब उस दिन अनन्या क्लास में देर से आई थी और मीता  ने उसे देर से कक्षा में आने पर डांट  दिया था और क्लास समाप्त होने पर उसे मिलने के लिए बुलाया था । पीरियड खत्म होते ही जब मीता स्टाफ रूम की ओर जा रही थी तो पीछे से अनन्या ने आवाज़ दी थी ,''मैम ,प्लीज़ मुझे माफ़ कर दो ,''और उसकी आँखों से मोटे मोटे आंसू टपकने लगे । तब मीता उसे अपनी प्रयोगशाला में ले गई थी ,उसे पानी पिलाया और सांत्वना देते हुए उसके रोने की वजह पूछी ,कुछ देर चुप रही थी वो ,फिर उसने अपनी दर्द भरी दास्ताँ में उसे भी शरीक कर लिया था  उसकी कहानी सुनने के बाद मीता की आँखे भी नम  हो उठी थी ।उसके पिता  का साया उठने के बाद उसके सारे रिश्तेदारों ने अनन्या की माँ और उससे छोटे दो भाई बहनों से मुख मोड़ लिया था ,जब उसकी माँ ने नौकरी करनी चाही तो उस परिवार के सबसे बड़े बुज़ुर्ग उसके ताया  जी ने उसकी माँ के सारे सर्टिफिकेट्स फाड़ कर फेंक दिए,यह कह कर कि उनके परिवार की बहुएं नौकरी नही करती। हर रोज़ अपनी आँखों के सामने अपनी माँ  और अपने भाई बहन को कभी पैसे के लिए तो कभी खाने के लिए अपमानित होते देख अनन्या का खून खौल  उठता था ,न चाहते हुए भी कई बार वह अपने तथाकथित रिश्तेदारों को खरी खोटी भी सुना दिया करती थी और कभी अपमान के घूँट पी कर चुप हो जाती थी ।
पढने  में वह एक मेधावी छात्रा  थी  ,उसने पढाई के साथ साथ एक पार्ट टाईम नौकरी भी कर ली थी ,शाम को उसने कई छोटे बच्चों को  ट्यूशन भी देना शुरू कर दिया था और वह सदा अपने छोटे भाई ,बहन की जरूरते पूरी करने  की कोशिश में रहती थी ,कुछ पैसे बचा कर माँ की हथेली में भी रख दिया करती थी ,हां कभी कभी वह मीता के पास आ कर अपने दुःख अवश्य साझा कर लेती थी ,शायद उसे इसी से कुछ मनोबल मिलता हो । फाइनल परीक्षा के समाप्त होते ही मीता को पता चला कि उनका परिवार कहीं और शिफ्ट कर चुका है ।धीरे धीरे मीता भी उसको भूल गई थी ,लेकिन आज अचानक से उसके आने से मीता को उसकी सारी बाते उसके आंसू ,उसकी कड़ी मेहनत सब याद आगये और मीता  का सिर  गर्व से ऊंचा हो गया उस लडकी ने अपने नाम को सार्थक कर दिखाया ,अपने छोटे से परिवार के लिए आज वह अन्नापूर्णा  देवी से कम नही थी |

रेखा जोशी 
 

सोमवार, 18 मार्च 2013

हौसले को सलाम (५)

                  जिन्दगी सबकी  में  अपने अपने नजरिये का एक स्वरूप होती है. दूसरे की जिन्दगी  किसी के लिए उपहास का  कभी  का सबब  जाती है लेकिन  जिन्दगी खुद  लिए   है?और  उसने किस  से जिया और किस तरह से उससे जूझ कर अपने और अपने  के लिए रस्ते बनाये यह तो वही बता सकता है. हम सिर्फ उसके   जानकर उसको व्यक्त कर सकते है। आज एक संघर्ष गाथा की प्रस्तुति है गुंजन श्रीवास्तव  की . 



मुझे याद है ...वो मिली थीं मुझे एक यज्ञ समारोह में .....स्टोर का सामान सहेजती हुई ..... बड़े घर की सभ्रांत महिला थीं ....कुछ दिन साथ रहे तो निकटता हो गयी ....एक बार कटनी से गुज़रीं तो मैंने घर पर आमंत्रित कर लिया .... साथ बैठे तो पुरानी यादों की पोटली खुल गयी ....वो मायके से बहुत बड़े घर की थीं ....अब तो सब उन्हें अम्माजी कहते थे .... तो मैं भी उन्हें अम्माजी कहने लगी ....उनका ब्याह भी सम्पन्न घर में हुआ था ....पर छोटी जगह और परदे में बहुओं को रखा जाता था .....यहाँ तक कि साड़ी वाले , चूड़ी वाले और सुनार भी अपनी दूकान लेकर घर आते थे .....पति के साथ सुख से रह रही थीं और बिजनेस पति और नंदोई मिलकर संभाल रहे थे ......सब कुछ बहुत अच्छा था ...अचानक पति को बुखार आया ....छोटी जगह पर पर्याप्त इलाज के अभाव में वो स्वर्गवासी हो गए ... उस समय अम्माजी की उम्र मात्र 30 साल थी और बड़ा बेटा 11 साल का जबकि छोटा बेटा मात्र 6 साल का था ....बड़ी दो बेटियाँ भी थीं ....पति के निधन के बाद नंदोई का रवईया बेईमानी भरा था ....पर अम्माजी ने कभी उन्हें व्यापार से अलग नहीं किया ...वो कहते थे पूरा व्यापार मेरे नाम कर दो पर अम्माजी कहती थीं की जब मेरे बच्चे बड़े होंगे तो कहाँ जायेंगे ...नंदोई आये दिन दूकान बंद करने की धमकी देते ...अम्माजी उन्हें मना लेतीं .....जैसे तैसे उन्होंने 3 साल गुज़ारे .....बेटे को ग्यारहवीं तक पढ़ने दिया ....उसके बाद उन्होंने अपने बेटे से कहा ....अब तुम गद्दी सँभालो ......बेटे की पढ़ाई छुडाने के दुःख में अम्माजी खूब रोयीं .... बेटियों की शादी उन्होंने अच्छा घर न देखकर बल्कि अच्छा लड़का देखकर कर दी ... सारे समाचार पत्र घर मँगवाती थीं ...ताकि देश और दुनिया की खबरें परदे के भीतर भी आ पायें .... बेटे बेटियों दोनों को घर , बाहर के सारे काम भी सिखाये और अच्छे संस्कार भी दिए ...बेटे को ऊँची तालीम न दिला पाने का प्रायश्चित कुछ इस तरह किया कि शहर में एक कन्या महा विद्यालय खोला जो अभी भी चल रहा है .. उनका कहना है कि कब कैसा वक़्त आये कोई नहीं जानता इसलिए हर लड़की को आत्म निर्भर ज़रूर होना चाहिए ...खुद समाज सेवी संस्थाओं में जाकर यथा सम्भव मदद करती हैं ...बहुत सादा जीवन व्यतीत किया पर कभी किसी से कर्ज नहीं लिया ......हमेशा आवश्यकतों को सीमित रखा ....उनका कहना था ''न कूदकर चलो न मुँह के बल गिरो'' .....व्यवहार ऐसा कि हर किसी को लगता है की वही उनके लिए ख़ास है ..... उनका वह विश्वास कि मैं दूसरे के सहारे हूँ .....अगर व्यापार से मिले 80 पैसे भी वो ले लेगा तो भी 20 पैसे तो मेरे बच्चों के लिए मिलेंगे ......अपनाने लायक है .....आज भी पूरे गाँव में उनका बहुत सम्मान है ।।

शुक्रवार, 15 मार्च 2013

हौंसले को सलाम ! (4)

                           
हौसले को सलाम ! (4)


 ये जिन्दगी एक कहानी ही तो है , सबकी अपनी एक अलग कहानी - भले ही किसी की जिन्दगी एक पहले से बनाये हुए सुगम रस्ते पर चल रही हो या फिर कंटकाकीर्ण रास्ते पर लहूलुहान पैर लिए घिसट  रहे हों . सब कुछ एक इंसान नहीं जी सकता है लेकिन दूसरों के जीने से कुछ सीख सकता है और सबक ले सकता है. बस ऐसे ही मुझे लगा की अपनी जिन्दगी में जितना अधिक ये नारी जाती झेलती है उतना कोई भी नहीं . बस कुछ लोगों ने उनके हौसले देखे और उन्होंने मुझे भेजे उनसे दो चार हो लेना अच्छी बात है . 

आज के प्रस्तुति है : विभा रानी श्रीवास्तव जी की . 


 
ज़मीर-आत्मा ढंकने की क्यूँ जरूरत पड़ती हैं ??
धरा पर आते ही धी(बेटी) होती है , किसी की भगिनी(बहन) , भतीजी(भाई की बेटी) , भगीनी(ननद की बेटी) , भांजी(बहन की बेटी) ....
ऐसी नारी ना+अरि .... जिसकी कोई दुश्मन न हो ....
लेकिन जिसके निर्माता-विधाता (वो तौलता भी है और आज़माता भी है .... हंसने-खुश होने का मौका देता है लेकिन ठीक उसी समय रोने का कारण भी देता है और संतुष्ट हो पलड़ा बराबर भी समझ लेता है ....) ही दुश्मन हों उसके लिए धरा के दुश्मन की क्या कमी हो सकती है ....
विधाता की दुश्मनी ही तो थी की पाप किया किसी ने और वो प्रायश्चित करना चाहा तो उसका जरिया बना दिये नारी को मासिक-धर्म देकर , नाम दिया मातृत्व-सुख का गौरवशाली-पद .... उतना ही से जी नहीं भरा , तो पेट में बात नहीं पचेगा श्राप देकर .... बलि- बेदी पर चढ़ते बनती है भार्या और तब उसे मिलतें हैं , दूसरे अनेकों सम्बोधन ....
बहुत हो गई ऊपरवाले की बातें .....
अब बात हो ... धरा पर रह कर एक स्त्री , कैसे अपने वज़ूद के लिए रोज मर-मर कर जीती है या जीते जी मरती है ....
कहाँ से किसकी आप बीती सुनाऊँ .... बिना किसी के जख्म उधेड़े किसी की कामयाबी की दास्तान सुनाई भी नहीं जा सकती और सिसकती कहानी लिखने में सिसकी रोकी भी नहीं जाती !!
इतनी लंबी जिंदगी में अनेकों महिलाओं से मुलाकात हुई जिनमें कुछ अपनी भी है और परायी भी अपनी बनी ....
तो आज एक दो नहीं तीन की थोड़े-थोड़े से बताती हूँ बात ....
(1)
रूमा मित्रा मेरे ही अपार्टमेंट में मेरे ही फ्लोर में मेरे सामने रहने वाली मेरी राज़दार , मेरी पड़ोसन ,मेरी सखी , मेरी मित्रा-भाभी .... वो इतनी व्यस्त महिला हैं कि मैं ,उनके घर कभी भी नहीं जाती कभी भी नहीं .....लेकिन उन्हें जब कभी भी अपने आँसू जब नहीं रुकते और बहुत परेशान होती हैं तो मेरे घर आती और मैं अपने सब काम छोड़ पहले उनकी बात सुनती हूँ और अपने दिमाग से जो सही लगता समझा देती हूँ और तारीफ कि वे वही बात समझ भी जाती हैं ....
मित्रा-भाभी तीन भाई और दो बहन .... उनके दादा-पिता गया(बिहार)में नामी वकील अच्छा खाता-पिता परिवार .....उनकी बहन की शादी उनके पिता जी के जीवन काल में हुई तो खुशहाल परिवार में हुआ ..... भाई लोगों की शादी भी हो गई , भाभी के आते ही सब भाई अपनी-अपनी गृहस्थी , अलग-अलग कर मज़े में रहनें लगे .... किस्मत की मार इन पर पड़ी पिता की मृत्यु हो गई और दूसरा कोई सहारा न होने से और उनकी माँ उनके साथ रहती थीं तो या खुद स्वालम्बी होने के लिए ये पटना आ कर स्कूल की एक इंग्लिश की शिक्षिका बनी .... सुचारु रूप से जिंदगी चलने लगी थी कि समाज के दबाब में आकर उनकी माँ शादी का ज़ोर डाली और मजबूरन रूमा शादी की .... पति मित्रा दा शादी के समय तो आदर्श वादी बने बिना तिलक-दहेज़ की शादी हो गई .... लेकिन शादी के बाद उनका जुल्मी चेहरा सामने आया .... मित्रा दा अपने मामी के साथ पटना में रहते थे और उनका परिवार कलकता में रहता था मामी का मित्रा दा के पैसे पर नज़र रहता था और वे चाहती थी कि रूमा मित्रा से उनका संबंध कभी भी नहीं बने इस लिए दोनों को अलग-अलग कमरे में सुलाती ..... मित्रा भाभी की शिकायत मित्रा दा से हमेशा करती रहती .... मित्रा भाभी को खाने के लिए नहीं देती .... मित्रा दा को अपनी मामी पर पूरा विश्वास था ..... इसलिए उनकी ही बात सुनते .... कुछ महिनें गुजरने के बाद एक दिन मित्रा दा , मित्रा भाभी को ले जा कर कलकता रख आए कि मुझे इसे अपने साथ नहीं रखना ये मेरे लायक नहीं है .... अब मित्रा भाभी के परेशानी की सबब बनी उनकी जेठानी .... जेठानी को मुफ्त की एक नौकरानी मिल गई .... लेकिन मित्रा-भाभी की सास बहुत अच्छी महिला थी .... वे सब समझती थी ..... अपने बेटे के पास एक चिट्ठी के साथ .....ससुर के साथ मित्रा भाभी को वापस पटना भेज दीं ..... ससुर उन्हें पटना ले कर आए तो इस बार मामी के घर न रख कर एक किराए के मकान में बेटे-बहू के रहने की व्यवस्था हुई ....अब तो मित्रा दा को और जुल्म करने का मौका मिला ..... बहुत गुस्सा जो भरा था .... मित्रा दा का टूर का जॉब है .... जब वे टूर पर जाते तो बाहर से ताला लगा कर जाते .... घर में खाने-पीने की सामान है या नहीं है उससे उन्हे कोई मतलब नहीं होता .... टूर से लौट भी आते तो खुद होटल में ठहरते .... कभी घर में आते तो मित्रा भाभी को बिना गलती के बहुत मारते जिस वजह से भाभी के पेट में ही कितने शिशु की हत्या मित्रा दा ने की ..... समाज की मारी नारी सब जुल्म सह कर भी साथ रहने को विवश .....
खैर !! दिन गुजरता गया .... 8-10 बच्चे में से दो बच्चे बचे .....
एक बेटा एक बेटी ....
नौ(9)साल पहले मेरे ही अपार्टमेंट में रहने ये परिवार रहने आया .... उन्हे मेरा साथ मिला .... मैं एक दिन उनसे बोली कि भाभी आप पढ़ाती थीं फिर से क्यूँ नहीं पढ़ाती ....वे बोलीं छोटे-छोटे bachchen हैं कैसे पढ़ाने जाऊँ मित्रा दा का बाहर ही रहना होता है .... आपके बच्चों को मैं देख लूँगी मैं तो दिन भर घर गुजरता अकेले ही बेकार रहती हूँ ....
संयोग था ,घर के सामने एक स्कूल है जिसमें उन्हे टिफिन के बाद का समय मिल गया पढ़ाने के लिए .... बच्चे उनके स्कूल से आने के पहले आ जाते तो चाभी मेरे पास होता .... या और कोई जरूरत होती तो मैं तो थी ही .... इन नौ सालो में वे फिर से जीने लगीहैं .... बच्चे बड़े हुये बाहर गए ..... बेटी पूना से लॉं कर रही है बेटा बंगलोर से Engineering कर रहा है ....
उन्हे अब बहुत समय मिलता है वे अब एक जूनियर स्कूल की प्रिंसिपल हैं और घर में 3 बजे से लेकर 8-8.30 तक बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हैं ....
मित्रा दा अधिकतर कलकता अपनों के साथ रहते हैं .... बहुत ही खुशमिज़ाज़ और खुले दिल की महिला हैं मेरी मित्रा भाभी ....
अरे हाँ कुछ बच्चों को फ्री भी पढ़ाती हैं .... !!

 विभा श्रीवास्तव

बुधवार, 13 मार्च 2013

हौसले को सलाम ! (3)

कुछ जिंदगियों का इतिहास इश्वर ऐसे रच देता है कि  खुद जीने वाला तो रो ही देता है और उससे जुड़े सब लोग रो देते हैं . फिर उस जीवन को जीने वाले में इतनी हिम्मत नहीं होती है कि  वह कल के बारे में कुछ सोचे और न भविष्य की काली  स्याही पुती कुंडली को कोई पढ़ पाता है. ऐसी ही एक जिन्दगी मेरे गिर्द जीने वाली वह महिला जिसे मैं बहुत सम्मान से देखती हूँ --


रेखा श्रीवास्तव 


                                   उसके बच्चे का कैंपस सलेक्शन हुआ तो मुझे सुबह ही फ़ोन किया था . उसे अपने कालिमा पुती कुंडली के अतीत और भविष्य के लिए एक हलकी सी किरण दिखलाई लेने लगी थी लेकिन इस किरण तक उसका सफर कितना भयावह रहा ? इस बात को हर कोई नहीं जानता  और जो जानता है वह भी पूरी तरह से नहीं जानता  है. उसके फ़ोन पर उसकी आवाज में जो ख़ुशी झलक रही थी वह उसके भविष्य के प्रति आशान्वित होने का संकेत दे रही थी .
                                मैं उसे तब से जानती हूँ जब से वह न किसी की बहू , पत्नी और माँ  भी नहीं थी सिर्फ एक नाम थी और इंसान थी . वह रिटायर्ड पिता की सबसे छोटी संतान थी और इकोनॉमिक्स में एम ए करने के बाद एक बैंक मैं नौकरी कर रही थी . पिता बीमार रहते थे और उसके चार भाई बहनों में दोनों भाई बड़े और बहने छोटी थीं . भाई पिता से अलग अपने जीवन में रम चुके थे और बहन और जीजाजी जिम्मेदारी को बांटने के लिए प्रयासरत थे. कुछ छल और कुछ धन की आड़ में उसका रिश्ता एक धनाढ्य परिवार में हो गया और शादी भी हो गइ . किसी ने नहीं सोचा था कि ऐसे परिवार में शादी होगी . पॉश  इलाके में तीन मंजिला मकान , गाड़ियाँ और उच्च पदाधिकारी ससुर जी और  घर में  बड़ा बिजनेस भी  था जिसको उसके पति और देवर संभाल  रहे थे. .  धूमधाम से शादी की गयी थी . लोग उसकी किस्मत पर रश्क करने लगे थे.  वह भी अपनी किस्मत पर फूली नहीं समां रही थी .
                       वह घर  गयी उसको लगा कि  घर के लोग कुछ उससे छिपा रहे है , और फिर धीरे धीरे करके बातें सामने आने लगी . पति बहुत ख्याल रखते प्यार करते लेकिन वह ड्रग लेते थे. कुछ ही महीने बाद उसको   पता चला कि  वह माँ बनने वाली है . घर का माहौल बहुत ही अच्छा था और फिर  खबर से और भी बढ़िया हो गया . बेटे  के जन्म के बाद उसकी क़द्र और बढ़ गयी .  
                      उसका देवर कुछ अलग ही स्वभाव का था , बड़े घर के बिगडैल बेटे सा - कोई सुन्दर लड़की दिखी नहीं कि उसके पीछे कुछ भी कर  सकता था सिर्फ कुछ समय साथ रहने के लिये. उसको पति ने आगाह कर दिया था कि  उसके भाई से दूरी बना कर  रहे. 
                       फिर एक रात उसके पति को खांसी आनी  शुरू हुई तो फिर सांस ही रुक गयी . डॉक्टर को बुलाया गया लेकिन तब तक वह दूर जा चुका था . छह माह के बेटे की माँ और वैधव्य का कलंक . बूढ़े माँ बाप इस सदमे से और टूट  गए . माँ को फालिज मार गया . यद्यपि उसकी सास ने उसे सास नहीं बल्कि माँ  की तरह से गले लगा कर रखा . फिर रिश्तेदारों और आस पास के लोगों ने कयास लगाने शुरू कर दिए . बहू बेटे को  और आधी संपत्ति लेकर अपने मायके चली जायेगी . घर वाले बेटे को लेकर बहू के घर वालों को कुछ पैसे देकर  शादी करने को कहेंगे . सारी  जिन्दगी लड़की ऐसे  ही तो नहीं रह सकती है. 
                   सास ने एक बड़ा निर्णय लिया और छोटे बेटे से बहू की शादी करने की घोषणा कर दी .बड़े बेटे की बरसी तक उन्होंने इन्तजार  किया और उसके बाद शादी करवा दी . यहाँ तक सब ठीक था लेकिन वह लड़की जो अपने देवर से दूरी बना कर रहती  थी और उसके चाल चलन से अच्छी तरह से वाकिफ भी थी . उसकी पत्नी बनने के अलावा  उसके पास कोई और विकल्प न था . माता  पिता के पास वह वापस नहीं जा सकती थी . वह विधवा के आवरण से बाहर  आ गयी लेकिन वह अपने पति को कैसे भूल जाती ? फिर भी वह उस देवर के साथ   मर मर कर जीने लगी . उसे पति का अधिकार दिया गया तो वह इनकार कैसे कर सकती थी ? उसको  इस पति से एक साल बाद एक बेटी हुई .
                वर्तमान पति ने शादी के बाद अपनी आदतों को छोड़ा नहीं बल्कि बढ़ गयी क्योंकि बिजनेस अब उसके हाथ में पूरी तरह से आ चुका था . उसके पैसे उडाने  की गति पर किसी का अंकुश  न रहा और फिर धीरे धीरे सब कुछ  उड़ाना  शुरू कर दिया . धीरे धीरे बिजनेस प्लाट , गाड़ियाँ और पिता के रिटायर्डमेंट के बाद मिला वह पैसा  जिसमें वह नॉमिनी था सब कुछ उड़ाना  शुरू कर दिया . रोकने पर पत्नी और माँ को ताना  देता कि  अगर  कहीं और शादी हुई होती तो इतना दहेज़  मिला होता . मेरे सर इस को मढ दिया गया . जब कुछ न बचा तो उधार  लेकर उड़ाना  शुरू कर दिया और लोग उसके घर और हैसियत देख कर उधार  देने लगे , जब नहीं चुकाया तो घर पर तागाजा करने के लिए आने लगे . माँ और पत्नी के गहने बेच कर कुछ उधार चुकाया गया . 
                 उसकी रईसों जैसी आदत ख़त्म तो नहीं हो सकी , मकान का किराया ही घर के खर्च का  जरिया   रह गया लेकिन उसको अपने नशे की आदत के लिए पैसे चाहिए होते और न मिलने पर आत्महत्या की धमकी देता . एक बेटे को खो चुकी माँ डर जाती और पत्नी को सिर्फ उस सिन्दूर की चिंता रहती जिसे वह दुबारा धोना नहीं चाहती थी . वह खुद नौकरी नहीं कर सकता था क्योंकि बड़े घर का बेटा  जो था . पत्नी को भी नहीं करने देता क्योंकि जैसे वह खूबसूरत लड़कियों और महिलाओं के पीछे भागता  रहा उसको शक था कि  उसकी पत्नी के पीछे भी लोग लगे रहेंगे . हर समय पत्नी पर निगाह रखता . पत्नी से उसकी बहन से पैसे मांगने को कहता और  उसके ममेरे भाई जो यू एस में थे , उनसे भी  पैसे माँगने के लिए मजबूर कर देता . वह सामान्य घर की बेटी जरूर थी लेकिन हाथ फैलाना उसे मंजूर न था . उसने घर के काम करने वालों को छुट्टी दे दी और खुद सब कुछ करने लगी जो पैसा बचता उसे पति को नशे के लिए दे देती जिससे घर में शांति रहे. लेकिन वह कब तक  चलता ? एक दिन सास को दिल का दौरा पड़ा और  वे चली गयीं .   घर के खर्चे किराये के पैसे से चलता था  , उसमें से भी उसे पंद्रह सौ नशे के लिए चाहिए थे. बच्चों को महंगे स्कूल से निकाल  कर एक सस्ते  स्कूल में डाल  दिया. बच्चे की प्रतिभा और लगन  देख कर स्कूल के प्रिंसिपल ने खुद ट्यूशन दी और फीस नहीं  ली . बच्चे बड़े हो रहे थे लेकिन वह नहीं चाहती थी कि वे किसी भी तरह से पिता के  रास्ते पर जाने की सोचे।   ७० साल के ससुर साइकिल से जाकर कहीं काम करने लगे . सब  बहू के हाथ पर रख देते . बेटा बड़ा हो रहा था और वह छुट्टियों में ट्यूशन करके अपनी पढाई के लिए पैसे जमा कर लेता था . 
                      आज उसको लगने लगा की शायद आगे जिन्दगी कुछ बदलेगी क्योंकि उसके बेटे ने अपनी माँ को जो कुछ भी झेलते हुए देखा है  , कहता है कि माँ चिंता मत करो थोड़े दिन और फिर सब ठीक चलने लगेगा . बस  पढ़ लेने दो . अपनी पढाई के लिए मैं बैंक से लोन ले लूँगा.  उसके हौसले बुलंद रहे और उसका स्थानीय इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश लिया और लोन लेकर पढ़ाई की । अब है कि उसको  इस आशा की किरण के सहारे जीने की शक्ति दे दी । 
        




सोमवार, 11 मार्च 2013

हौसले को सलाम ! (2)


           एक औरत की जिन्दगी कभी बहुत आसन नहीं रही है , अगर अंगुली  पर गिनने की बात हम छोड़ दें तो एक घर से दूसरे घर आकर उसको अपना बनाने की प्रक्रिया सदैव कुछ कठिन ही रही है और फिर कभी कभी तो ये प्रक्रिया  जीवन चलती रहती है और कभी कभी जीवन में  वाले संघर्ष से जीतकर अपने मनोबल और साहस के सामने उन्हें स्वीकार करने का विकल्प बन जाती हैं . जितने जीवन है उतनी ही कहानी लेकिन कुछ एक प्रेरणा का स्रोत बन जाती हैं तो कुछ गुमनाम रह जाती है . उन्हें प्रस्तुत करने का एक प्रयास और साथ देने वाले हैं हमारे साथी ब्लॉगर . आज की प्रस्तुति है रंजू भाटिया जी कॆ. 




(एक ख़त बेटी के नाम)
मेरी प्यारी बेटी ..

आज वह वक्त आ गया है जब मैं तुम्हे ज़िंदगी की उन सच्चाइयों से रूबरू
करवाऊं जिनका सामना मैंने किया और सहते सहते हर जुल्म को अपने से यह वादा करती गई कि यह पीड़ा तुम नही सहोगी ..यहाँ यह बताना मेरा उदेश्य नही हैं कि मैंने क्या क्या सहा  क्यूंकि अब  लगता है की अपनी इस पीड़ा कि जिम्मेदार मैं भी हूँ .पर कई बार हम सच में परिस्थियों के आगे विवश हो जाते हैं या हमारी ही कुछ कमजोरियां हमे उस हालात से विद्रोह नही करने देती ...बहुत छोटी थी जब मेरी शादी कर दी गई यह कह कर कि  नए  कपड़े नए गहने मिलेंगे .. माँ थी नही जो ज़िंदगी का असली मर्म दर्द समझाती ..उस पर वह उम्र थी ख़्वाबों की सपनों की ,जो यह तो देख रही थी कि शादी के होने पर गहने तो मिलेंगे पर इस के साथ जो मिलेगा वह इस पगले दिल ने सोचा ही नही था ।
          मात्र १९ साल में शादी हो के पति के घर आ गई ..शादी के बाद
पहला तोहफा १० दिन में ही मिल गया जब ममिया सास के कुछ कपड़े चोरी हो गए और तलाशी मेरी अलमारी की ली गई ..हैरान  परेशान हो कर पति की तरफ देखा तो वहाँ गहरा सन्नाटा था और सास- ननद  तो तलाशी ले ही रही थी ...माँ सगी नही थी पर ऐसा अपमान वहाँ अपना नही देखा था ..दिल किया धरती फट जाए और समा जाऊं  क्योंकि  शादी पर आए मेहमान अभी रुखसत नही हुए थे सब तमाशा देख रहे थे यह ...फ़िर  दो महीने बीते ही थे कि  तुम मेरी कोख में आ गई ..और मैं एक नए रंग में ख़ुद को देख कर खुश हो गई ..उस वक्त तक के मिले सारे दुःख
भूल  गई और तुम्हारे आने की राह देखने लगी ...इसी बीच ननद की शादी भी तय हो गई लगा कि  अब यह मेरी दुनिया है जहाँ अब कोई दर्द नही होगा ..पर वक्त को शायद इतना खुश होना मंजूर नही था इधर से तुम आई मैं जी भर के तुम्हे अभी देख भी न पायी थी की उधर से ननद तलाक ले कर और एक छोटी बच्ची को कोख में ले कर वापस आ गई .....खैर वक्त धीरे धीरे बीतने लगा ..मेरे साथ साथ अब तुम पर भी गुसा उतरा जाता.... ननद नौकरी करती थी  और घर में तुम्हे और उसकी बेटी को संभलने वाली मैं ही थी ।
        तुम्हारी दादी को बेटी के वापस आने के दुःख के साथ ही यह दुःख भी
था कि उनके इकलौते बेटे का बेटा नही हुआ बेटी हुई है .मुझे मनहूस चोर और भाग्यहीन नाम से अक्सर पुकारा जाता था क्यों कि  लड़की का होना ननद का वापस आना  और उसकी बेटी होना यह सब मेरे मनहूस होने के कारण था  इसी बीच यह पता लगा कि  तुम्हरे पापा जहाँ नौकरी करते हैं अब वह नही रही इसका कारण भी मुझे ही माना गया ..मैंने नौकरी की इच्छा जाहिर की यही सोच के कुछ सहारा तो मिलेगा पर तुम्हारी दादी को  मेरा बाहर नौकरी करना मंजूर नही हुआ ..   इसी तरह ३ साल बीत गए ..तभी तुम्हारी छोटी बहन के आने की खबर  मिली और इस बार बेटा ही होगा इस आशा को ले कर कई तरह की दवा मुझे खिलाई गई पर मेरा ईश्वर   जानता है कि  मैंने हर दवा लेते वक्त यही दुआ मांगी की ,मुझे दूसरी भी बेटी देना ..जाने क्यों यह बात दिल मैं आई की दूसरे की बेटी पर जुलम करने वाले के घर अब कोई बेटा न हो .ईश्वर ने मेरी
सुन ली और तुम्हारी एक प्यारी छोटी सी बहना आ गई ..अभी इन उलझनों से सुलझ ही रहे थे कि  एक एक्सीडेंट मैं तुम्हारी दादी चल बसी ..अब तक
तुम्हारे पापा का नौकरी का कोई जुगाड़ सही ढंग से नही बन पाया था और उनका वह गुस्सा गाहे बगाहे मेरे ऊपर उतरता रहता था   ...वैचारिक  समानता हम दोनों के बीच मैं कभी बन ही नही पायी और जो पति पत्नी के बीच का एक समझदार रिश्ता बन  पाता  वह तुम्हारी बुआ   ने कभी बनने नही दिया..तुम्हारे दादा जी आज तक मेरे हाथ का पानी नही पीते थे क्यूंकि  उनकी नज़रों मैं आज भी मनहूस थी  जिसने आते ही उनके घर को मुसीबतों से लाद दिया ..तुम्हारे नाना ,नानी ने तो मेरी शादी के बाद से ही अपना दरवाज़ा यह कह कर बंद कर लिया की हमने तो शादी कर दी अब आगे जीयो या मरो वही तुम्हारा  घर है ......
           आज उम्र की संध्या बेला आ गयी है  ..अपनी ज़िंदगी के बीते लम्हे मैं वापस नही ला सकती ..पर  तुम्हे और तुम्हारी बहन को यही सिखाया की खूब पढो ताकि वक्त आने पर अपने पैरों    पर आत्म सम्मान के साथ खड़ी रह सको  और
ख़ुद मैं इतनी ताक़त पैदा करो कि कोई तुम्हे मनहूस या चोर कह के गाली दे तो तुम वह लड़ाई ख़ुद लड़ सको  याद रखो की अन्याय वही ज्यादा होता है जब हम उसको चुपचाप सह लेते हैं ..मैं आज मानती हूँ की मैं उस वक्त इन सब बातों का विद्रोह नही कर सकी कुछ मेरे पास हिम्मत की  कमी थी और कुछ दिए हुए संस्कार कि वही घर है अब जीना मरना तो इसी में है
इन सबसे ज्यादा जो कमी मुझ ख़ुद मैं  लगी कि मैं शिक्षित होते हुए भी
अपने पैरों  पर खड़े होने कि हिम्मत नही जुटा पायी ..पर हाँ इतनी हिम्मत
जरुर जुटा ली की अपनी बात अपनी कलम से एक लेखिका के रूप में लिख पायी तुम्हारे पापा एक पिता बहुत अच्छे रहे बस पैसे कहाँ से आये यह फ़िक्र उन्हें कभी नहीं हुई और आज भी नहीं है ... ..  तुम्हे उच्च शिक्षा दिलाना मेरा एक सपना था और यह पूरा हुआ ,किस तरह से यह मैं ही जानती हूँ ..खैर जो बीत गई बात गई ..आज मुझे खुशी सिर्फ़ इसी बात कि है कि मैं अपनी बात लिख सकती हूँ कम से कम इतनी डरपोक तो नही हूँ .:) .आज मेरी अपनी एक पहचान है लोग मुझे एक अच्छी लेखिका के रूप में जानते हैं ..और यह पहचान मैंने ख़ुद बनायी है.... हाँ घर के कई मोर्चों पर अब भी चुप्पी लगा लेती हूँ इसलिए कि जो बात मैं इतने सालों में नही समझा पायी अब उसको समझाना मुश्किल है  और   अभी मुझे माँ होने का एक और फ़र्ज़ पूरा करना है ..तुम्हे तुम्हारे घर में खुशहाल देखना है.....आज तुम्हारे पास इतनी अच्छी शिक्षा है इसका भरपूर प्रयोग  करो और अपनी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जीयो ..बडो का सम्मान करो पर जहाँ अपमानित होने लगो वहाँ मेरी तरह गर्दन झुका के हर इल्जाम कबूल मत करो ..अपनी पसंद से अपना जीवन साथी चुनो और उस में सबसे पहले यह बात देखो कि क्या वह तुम्हारे विचारों को समझता है  और क्या तुम्हारी भावनाओं का भी उतना  मान करता है जितनी उसकी ख़ुद की हैं ..अब तुमने कुछ समय में अपना नया जीवन शुरू  करना है ..आने वाला कल
तुम्हारी राह देख रहा है ..तुम्हे हर खुशी मिले और अन्याय से लड़ने  की
ताक़त मिले इसी दुआ के साथ।(तुम्हारी माँ )

यह ख़त शायद  आज के हालत से न मिलता हो .पर आज भी बहुत तरक्की नहीं हुई है ।आज कई जगह वह लड़के की माँ होने का और ससुराल के रंग ढंग वही है जो आज से तीस साल पहले थे ...लड़की को आज जरुरत है आपकी आवाज़ उठाने की .अन्याय न सहने की ..नहीं तो पढना लिखना बेकार है ..बेटियाँ  माँ की हालत से होश संभलते ही परिचित थी .और यही सब देख कर अपने आने वाले जीवन के प्रति भी बहुत अधिक आश्वस्त नहीं थी ,पर वक़्त अपनी रफ़्तार से चलता है और आगे आने वाले मान दंड वही तय करता है ।यह ख़त आज पढने वालों को सत्तर अस्सी के दशक का लग सकता है और यह भी की अब एक माँ को ख़त लिखने की जरूरत
क्यों पड़ी ?पर दिल के बोझ को कहने का सुनाने का कोई वक़्त तय नहीं है बस दिल किया और कह दिया .।क्यों की आज बहुत सी घुटन से आजादी है जो खुद की हासिल की हुई है ,पर आज भी अनचाहे रिश्तो को ढ़ोने का बोझ है ,आज भी पति पत्नी के रिश्तों में विश्वास की कमी है ,आज भी  घर को जिम्मेवारी से चलाने का काम पति नहीं जानता है इस लिए यह ख़त है और मैं हूँ ....

रंजना भाटिया !

शुक्रवार, 8 मार्च 2013

हौसले को सलाम ! (१)

                        बीत गया महिला दिवस और फिर एक साल के लिए गया ये दिवस, लेकिन हम उसके होने का अहसास, अलग अलग महिलाओं के हौसले को देख कर सलाम करते हुए, करते रहेंगे . एक पहल है उस वर्ग की अपने विषय में सोचने की और अपने संघर्ष के रूप को प्रस्तुत करने की . कई बार तो हमें ऐसा लगेगा कि ऐसा भी कभी होता है लेकिन होता है क्योंकि हर महिला के सहन करने की सामर्थ्य अलग अलग होती है और अगर उसके सामने ज्वालामुखी भी फटती है तो वो उससे भी भिड़ने की ताकत रखती है और भिड़ती ही रही है. जो हार गयीं वो हौसले वाली कब कहीं जायेंगी? इन महिलाओं के हौसले को देख कर इसका निर्णय तो आप ही करेंगे . 

रश्मि प्रभा जी 




                          इस बार पहली कड़ी में रश्मि प्रभा जी ने कुछ दिया जो ठीक वैसे ही जैसे वे छायावादी कवि के प्रदत्त नाम को लिए हैं तो उसकी अभिव्यक्ति का भी कुछ तो असर इस कलम में है और इनकी प्रस्तुति में है.  

                                                         

आस-पास ?
वह तो अपने भीतर है 
सच स्पष्ट है 
पर नकाब है !
भीतर को उजागर न करो 
तो किसी और के लिए सोचा ही नहीं जा सकता !
तो - 
जो स्त्री मेरे भीतर रहती है 
वह जब छोटी सी थी 
तो अपने पापा के लिए ख़्वाबों की सच्चाई थी 
माँ के लिए हंसी का झरना 
भाई-बहनों के लिए बहुत ख़ास ,,,
पुरवा का झोंका जब बनी 
तो कितनी नज़रें उठीं 
जो ठहरी 
उसने मन में सोच लिया 
सच को बदल दूंगा !!!
सच बदला -
एक एक कौर के लिए बढ़ने की बद्दुआ उसने दी 
जिसने सम्मान,नाम देने के अग्नि फेरे लिए 
.......
रास्ते ही डगमगाने लगे .
समाज-परिवार और मासूम बच्चे 
सवालों ने जीना हराम कर दिया 
अपमान की अग्नि में झुलसने का जो सिलसिला आरम्भ हुआ 
वह तो थमा ही नहीं 
अति सर्वत्र वर्जयेत 
अन्याय सह्नेवाला भी गुनाहगार है 
ईश्वर हमेशा साथ है 
ये तीन स्वर सहयात्री बने 
मन ने कहा -
जान लेने से अधिक कोई नहीं मार सकता 
और मृत्यु के भय से परे उस स्त्री ने 
बच्चों के लिए सम्मान का घेरा बनाया 
सुकून भरी नींद के लिए लोरियां संजोयीं 
अकेलेपन को वरदान माना 
सरस्वती के आगे नतमस्तक हुई 
शब्दों का वरदान ले 
भावों की परिक्रमा करने लगी ....
कुछ निशान बनाये 
साथ ही इस घृणित सच को स्वीकारा -
हौसले अपने होते हैं 
जिसमें साथ की आहुति कोई नहीं देता 
समाज हो या परिवार 
वह ऊँगली पहले उठाता है 
और अपने घिनौने रूप का सवाल 
भयभीत चेहरे के साथ स्वत्व की मशाल लिए स्त्री के आगे रखता है 
नींद उडती है 
पर ................ मशाल आत्मविश्वास की बुझती नहीं है ...

नाम उजागर होते अजगर से सवाल 
गिद्ध सी मंशा का धुंआ उठता है 
पर हौसला वही है - जिसका नाम हो 
नाम को पूजा नहीं 
तो फिर हौसला कैसा ???

रश्मि प्रभा !

                                                          .

गुरुवार, 7 मार्च 2013

" अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस "

            

          " अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस " को हम एक दिवस की तरह हमेशा मानते हैं और फिर दूसरे दिन इस दिन कहे गए सारे वादों और संकल्प को भूल कर जिन्दगी फिर उसी ढर्रे पर चलने लगती है. इस बार सोचा कुछ ऐसा करें कि  कुछ लोगों कीं जिंदगियों से दो चार किया जाए . वह उस समय भी संघर्ष कर रही थी, जब वह घर की चहारदीवारी के अन्दर रहती थी और वह आज भी संघर्ष कर रही है .  मेरे अनुसार इस दिवस की सार्थकता तभी कुछ प्रतिशत हम सिद्ध कर सकते हैं जब हम उनके दिल और आँखों में झांक कर देखें कि  कहाँ आंसुओं के कतरे सूख चुके हैं , अब होंठों की हंसी ने जीवन में जगह बना ली है लेकिन उनके राह के काटों के निशान सिर्फ उनके पैरों में ही शेष नहीं है बल्कि वे अगर झांक कर देखें तो दिल में भी कहीं शेष है . 

                 जिन्दगी कहीं  भी फूलों की सेज नहीं है . एक नारी के लिए जन्म से लेकर अपने जीवन के अंत तक कितने तरीके से वह इस बात को सोचने के लिए मजबूर होती है की वह नारी क्यों हुई? सबकी जिन्दगी बड़े घरानों में पैदा हुए नारियों की तरह से नहीं है . सबके लिए जीवन के रास्ते  पहले से पहले खुले नहीं होते हैं कि वे उनपर चलती चली जाएँ . अपनी राहें उन्होंने खुद बनायीं हैं और उसमें बिछे काटों को खुद ही काटा है नहीं तो लहुलुहान होकर उन पर चलते रहना उनकी नियति बना दी गयी है. हम कहते हैं कि  नारी सशक्तिकरण हो रहा है , इस बात से इनकार तो नहीं किया जा सकता है लेकिन इस महिला सशक्तिकरण कहें तो विश्व की कितने प्रतिशत नारियां शक्तिशाली बन चुकी है , आज भी हम कह सकते हैं कि नारियों का आत्मनिर्भर होना , नौकरी करना या फिर घर से बाहर निकल कर कुछ करना उनके शक्तिशाली होने का प्रतीक नहीं है . कितनी महिलायें नौकरी करती हैं लेकिन फिर भी वे परतंत्र है क्योंकि  उनका वेतन उनके परिवार की संपत्ति होती है. कहीं कहीं तो उनको  अपने वेतन से कुछ अंश भी लेकर अपने हाथ से खर्च करने का हक नहीं होता है. एक आवरण पड़ा होता है उनके जीवन के भीतर और बाहर से दिखने वाले स्वरूप पर. कुछ ऐसी ही जिंदगियों की संघर्ष गाथा प्रस्तुत करने का हमारा प्रयास है और आशा करती हूँ कि अगर इसको पढ़ने वाले साथियों के दृष्टि में भी कोई ऐसी महिला संज्ञान में हो तो उसके संघर्ष को एक रूप देकर हमें भेजने की कृपा करें . उसमें नाम के उजागर करने की कोई भी जरूरत नहीं है. वो एक गाथा ही काफी है. 
                 वे हमारे अपने हों या न हों लेकिन अगर वे हमारे संज्ञान में हैं , जो अपनी  जिन्दगी की उन चुनौतियों से जूझते हुए अपने पैरों पर खड़े होकर सांस ले रहे हैं . इस मुकाम तक आते आते जो झेला वह एक मिसाल ही तो है . कहीं न कहीं वे लोग कुछ सन्देश दे जाते हैं - उन्हें मैं एक श्रृंखला में शामिल करके उनके संघर्ष के सफर की दास्ताँ को एक रूप देकर यहाँ प्रस्तुत करके महिला दिवस पर उनके हौसले को सलाम करती हूँ .