हौसले को सलाम ! (4)
ये जिन्दगी एक कहानी ही तो है , सबकी अपनी एक अलग कहानी - भले ही किसी की जिन्दगी एक पहले से बनाये हुए सुगम रस्ते पर चल रही हो या फिर कंटकाकीर्ण रास्ते पर लहूलुहान पैर लिए घिसट रहे हों . सब कुछ एक इंसान नहीं जी सकता है लेकिन दूसरों के जीने से कुछ सीख सकता है और सबक ले सकता है. बस ऐसे ही मुझे लगा की अपनी जिन्दगी में जितना अधिक ये नारी जाती झेलती है उतना कोई भी नहीं . बस कुछ लोगों ने उनके हौसले देखे और उन्होंने मुझे भेजे उनसे दो चार हो लेना अच्छी बात है .
आज के प्रस्तुति है : विभा रानी श्रीवास्तव जी की .
ज़मीर-आत्मा ढंकने की क्यूँ जरूरत पड़ती हैं ??
धरा पर आते ही धी(बेटी) होती है , किसी की भगिनी(बहन) , भतीजी(भाई की बेटी) , भगीनी(ननद की बेटी) , भांजी(बहन की बेटी) ....
ऐसी नारी ना+अरि .... जिसकी कोई दुश्मन न हो ....
लेकिन जिसके निर्माता-विधाता (वो तौलता भी है और आज़माता भी है ....
हंसने-खुश होने का मौका देता है लेकिन ठीक उसी समय रोने का कारण भी देता है
और संतुष्ट हो पलड़ा बराबर भी समझ लेता है ....) ही दुश्मन हों उसके लिए
धरा के दुश्मन की क्या कमी हो सकती है ....
विधाता की दुश्मनी ही तो
थी की पाप किया किसी ने और वो प्रायश्चित करना चाहा तो उसका जरिया बना दिये
नारी को मासिक-धर्म देकर , नाम दिया मातृत्व-सुख का गौरवशाली-पद .... उतना
ही से जी नहीं भरा , तो पेट में बात नहीं पचेगा श्राप देकर .... बलि- बेदी
पर चढ़ते बनती है भार्या और तब उसे मिलतें हैं , दूसरे अनेकों सम्बोधन ....
बहुत हो गई ऊपरवाले की बातें .....
अब बात हो ... धरा पर रह कर एक स्त्री , कैसे अपने वज़ूद के लिए रोज मर-मर कर जीती है या जीते जी मरती है ....
कहाँ से किसकी आप बीती सुनाऊँ .... बिना किसी के जख्म उधेड़े किसी की
कामयाबी की दास्तान सुनाई भी नहीं जा सकती और सिसकती कहानी लिखने में सिसकी
रोकी भी नहीं जाती !!
इतनी लंबी जिंदगी में अनेकों महिलाओं से मुलाकात हुई जिनमें कुछ अपनी भी है और परायी भी अपनी बनी ....
तो आज एक दो नहीं तीन की थोड़े-थोड़े से बताती हूँ बात ....
(1)
रूमा मित्रा मेरे ही अपार्टमेंट में मेरे ही फ्लोर में मेरे सामने रहने
वाली मेरी राज़दार , मेरी पड़ोसन ,मेरी सखी , मेरी मित्रा-भाभी .... वो इतनी
व्यस्त महिला हैं कि मैं ,उनके घर कभी भी नहीं जाती कभी भी नहीं .....लेकिन
उन्हें जब कभी भी अपने आँसू जब नहीं रुकते और बहुत परेशान होती हैं तो
मेरे घर आती और मैं अपने सब काम छोड़ पहले उनकी बात सुनती हूँ और अपने दिमाग
से जो सही लगता समझा देती हूँ और तारीफ कि वे वही बात समझ भी जाती हैं
....
मित्रा-भाभी तीन भाई और दो बहन .... उनके दादा-पिता गया(बिहार)में
नामी वकील अच्छा खाता-पिता परिवार .....उनकी बहन की शादी उनके पिता जी के
जीवन काल में हुई तो खुशहाल परिवार में हुआ ..... भाई लोगों की शादी भी हो
गई , भाभी के आते ही सब भाई अपनी-अपनी गृहस्थी , अलग-अलग कर मज़े में रहनें
लगे .... किस्मत की मार इन पर पड़ी पिता की मृत्यु हो गई और दूसरा कोई सहारा
न होने से और उनकी माँ उनके साथ रहती थीं तो या खुद स्वालम्बी होने के लिए
ये पटना आ कर स्कूल की एक इंग्लिश की शिक्षिका बनी .... सुचारु रूप से
जिंदगी चलने लगी थी कि समाज के दबाब में आकर उनकी माँ शादी का ज़ोर डाली और
मजबूरन रूमा शादी की .... पति मित्रा दा शादी के समय तो आदर्श वादी बने
बिना तिलक-दहेज़ की शादी हो गई .... लेकिन शादी के बाद उनका जुल्मी चेहरा
सामने आया .... मित्रा दा अपने मामी के साथ पटना में रहते थे और उनका
परिवार कलकता में रहता था मामी का मित्रा दा के पैसे पर नज़र रहता था और वे
चाहती थी कि रूमा मित्रा से उनका संबंध कभी भी नहीं बने इस लिए दोनों को
अलग-अलग कमरे में सुलाती ..... मित्रा भाभी की शिकायत मित्रा दा से हमेशा
करती रहती .... मित्रा भाभी को खाने के लिए नहीं देती .... मित्रा दा को
अपनी मामी पर पूरा विश्वास था ..... इसलिए उनकी ही बात सुनते .... कुछ
महिनें गुजरने के बाद एक दिन मित्रा दा , मित्रा भाभी को ले जा कर कलकता रख
आए कि मुझे इसे अपने साथ नहीं रखना ये मेरे लायक नहीं है .... अब मित्रा
भाभी के परेशानी की सबब बनी उनकी जेठानी .... जेठानी को मुफ्त की एक
नौकरानी मिल गई .... लेकिन मित्रा-भाभी की सास बहुत अच्छी महिला थी .... वे
सब समझती थी ..... अपने बेटे के पास एक चिट्ठी के साथ .....ससुर के साथ
मित्रा भाभी को वापस पटना भेज दीं ..... ससुर उन्हें पटना ले कर आए तो इस
बार मामी के घर न रख कर एक किराए के मकान में बेटे-बहू के रहने की व्यवस्था
हुई ....अब तो मित्रा दा को और जुल्म करने का मौका मिला ..... बहुत गुस्सा
जो भरा था .... मित्रा दा का टूर का जॉब है .... जब वे टूर पर जाते तो
बाहर से ताला लगा कर जाते .... घर में खाने-पीने की सामान है या नहीं है
उससे उन्हे कोई मतलब नहीं होता .... टूर से लौट भी आते तो खुद होटल में
ठहरते .... कभी घर में आते तो मित्रा भाभी को बिना गलती के बहुत मारते जिस
वजह से भाभी के पेट में ही कितने शिशु की हत्या मित्रा दा ने की ..... समाज
की मारी नारी सब जुल्म सह कर भी साथ रहने को विवश .....
खैर !! दिन गुजरता गया .... 8-10 बच्चे में से दो बच्चे बचे .....
एक बेटा एक बेटी ....
नौ(9)साल पहले मेरे ही अपार्टमेंट में रहने ये परिवार रहने आया .... उन्हे
मेरा साथ मिला .... मैं एक दिन उनसे बोली कि भाभी आप पढ़ाती थीं फिर से
क्यूँ नहीं पढ़ाती ....वे बोलीं छोटे-छोटे bachchen हैं कैसे पढ़ाने जाऊँ
मित्रा दा का बाहर ही रहना होता है .... आपके बच्चों को मैं देख लूँगी मैं
तो दिन भर घर गुजरता अकेले ही बेकार रहती हूँ ....
संयोग था ,घर के
सामने एक स्कूल है जिसमें उन्हे टिफिन के बाद का समय मिल गया पढ़ाने के लिए
.... बच्चे उनके स्कूल से आने के पहले आ जाते तो चाभी मेरे पास होता ....
या और कोई जरूरत होती तो मैं तो थी ही .... इन नौ सालो में वे फिर से जीने
लगीहैं .... बच्चे बड़े हुये बाहर गए ..... बेटी पूना से लॉं कर रही है बेटा
बंगलोर से Engineering कर रहा है ....
उन्हे अब बहुत समय मिलता है वे
अब एक जूनियर स्कूल की प्रिंसिपल हैं और घर में 3 बजे से लेकर 8-8.30 तक
बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हैं ....
मित्रा दा अधिकतर कलकता अपनों के साथ रहते हैं .... बहुत ही खुशमिज़ाज़ और खुले दिल की महिला हैं मेरी मित्रा भाभी ....
अरे हाँ कुछ बच्चों को फ्री भी पढ़ाती हैं .... !!
विभा श्रीवास्तव