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बुधवार, 27 मई 2020

जागरूक माँ बनें !

                              माँ बनना हर स्त्री के लिए गौरव की बात होती है और स्वस्थ संतान की कामना भी हर माँ करती है। मैंने लगातार बच्चों के विकास को देखते हुए इस बात पर दृष्टि रखी हुई है। समय और विचारों के अनुरूप साथ ही अपने करियर के प्रति जागरूकता ने विवाह की उम्र बढ़ा दी है।  आज 80 फीसदी माताएं नौकरीपेशा होती हैं।  इस स्थिति में उनको करीब करीब 8 -9 घंटे तक  ऑफिस में काम करना होता है और इनमें भी अधिकतर लैपटॉप , कंप्यूटर और मोबाइल के संपर्क में रहती हैं । इनका उनके शारीरिक रूप से उन पर प्रभाव होता है।  कभी कभी वह शिफ्ट में भी काम कर रही होती हैं।
                        ऐसा नहीं है कि उनके लिए छुट्टियों का प्रावधान नहीं है लेकिन अधिकतर माताएँँ मिलने वाली छुट्टियों को डिलीवरी के बाद लेना चाहती हैं और लेती भी हैं।  वे इस बात से वाकिफ नहीं होती हैं कि उनके आराम करने से ही गर्भस्थ शिशु को आराम मिलता है।  प्रसव के ठीक पहले एक महीने में बच्चे का पूर्ण विकास हो चुका होता है और उसको हर चीज की बहुत  जरूरत होती है।  लैपटॉप, मोबाइल से निकलने वाली रेडिएशन भी उनको प्रभावित करता है।

प्रसव पूर्व माँ की जीवन शैली :--

                                                 आज की आधुनिक कही जाने वाली पीढ़ी अपने से बड़ों की सलाह को दकियानूसी बातें मानती है. क्योंकि उनके हाथ में जो मोबाइल होता है और उस पर मिलने वाली जानकारी ही उनके लिए मील का पत्थर बन जाती है और गूगल बाबा सबसे ज्ञानी होते हैं। वे इस बात से अनभिज्ञ होती हैं कि  हमारी संस्कृति में चले आ रहे कुछ अनुभव निरर्थक तो नहीं होते हैं।  उनका कोई आधार होता है और वे समय के साथ प्रभावित भी करते हैं।

संरक्षकों की सतर्कता :--

                                               प्रसव के तुरंत बाद प्राकृतिक रूप से शिशु रोता है और इस रोने के पीछे जो लॉजिक है वह पुराने समय में बच्चे बाहर आकर घबरा जाता है और जोर जोर से रोने लगता है लेकिन इसका मुख्य सम्बन्ध बच्चे के सम्पूर्ण जीवन से होता है।  गर्भ में शिशु माँ से ही भोजन और साँँस ग्रहण करता है लेकिन गर्भ से बाहर आते ही उसका रोना शिशु के जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है।  बच्चे के रोने से ऑक्सीजन अंदर ग्रहण करता है और उससे उसके मस्तिष्क की जो रक्तवाहिनी सम्पूर्ण शरीर के लिए जाती हैं वे खुल जाती हैं और रक्त प्रवाह सम्पूर्ण शरीर में सुचारु रूप से होने लगता है , जो शिशु के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
                 कभी कभी शिशु के रोने में कुछ समय लगता है तो डॉक्टर और नर्स बच्चे को मार कर रुलाने का प्रयास करते हैं और यदि समय रहते ये काम हो जाता है तो कोई खतरा नहीं होता लेकिन अगर अंतराल बढ़ जाता है तो जहाँ जहाँ से सम्बंधित रक्तवाहिनियां सुचारु रूप से खुल नहीं पाती हैं , वे अंग असामान्यता के शिकार हो जाते हैं।  इस स्थिति में संरक्षकों को सतर्क रहना होता है और बच्चे पर नजर रखते हुए समय से डॉक्टरों से सलाह लेनी चाहिए।

बुजुर्गों की सोच :--

                             प्रसूता के प्रति घर में बुजुर्गों का रुख कैसा है ? ये एक महत्वपूर्ण मुद्दा होता है।  कहीं पर बड़ों की बातों में पिता या माँ कोई दखल नहीं दे पाते हैं और वे अपने अनुभवी होने की दलील से सबको चुप करा देते हैं।  इस स्थिति में बच्चे के बड़े होने के साथ साथ माँ और पिता को सतर्क रहने की जरूरत होती है। बच्चे की प्रगति में बुजुर्ग हस्क्षेप करते हैं लेकिन माँ को ये ध्यान रखना चाहिए कि  समय के साथ और बदलते प्राकृतिक परिवर्तन से शारीरिक व मानसिक मानकों में परिवर्तन हो रहे हैं और उन पर नजर रखते हुए सतर्क रहना होता।  अगर बच्चे में कोई भी असामान्यता दिखलाई देती हैं तो विशेषज्ञ से राय ले लेना होता है। यद्यपि बच्चे की दादी और नानी अपने अनुभव बाँँटने लगती हैं कि हमारे बच्चे तो ऐसे थे और भी चीजें हैं :-

बच्चे के चेतनता :--
                                  इस  विषय में उनका कहना होता है
कि इस उम्र में हमारे बच्चे भी नहा धोकर घंटों सोया करते थे।  बच्चों को सोना अच्छी बात है। लेकिन समय के साथ साथ सब कुछ परिवर्तित हो रहा है , तब बच्चों की माँ को नियमित चेकअप और अल्ट्रासॉउन्ड और डॉक्टर की बराबर नजर नहीं रहती थी।  सरकारी अस्पताल में भी डॉक्टर के बुलाने के बाद भी दिखाने के लिए  नहीं जाती थी बल्कि सिर्फ डिलीवरी कार्ड बनवाने के दिखाने जाती थी और फिर डिलीवरी के लिए।  आज बच्चों की सक्रियता बढ़ रही है और उनके  कार्य कलाप भी।  इस पर माँ को ध्यान देना चाहिए।

बच्चे की प्रतिक्रिया :--

                                बच्चे कुछ ही महीने होने पर अपनी प्रतिक्रिया शुरू कर देते हैं।  उनसे हँसकर बात करने पर वे भी हँसकर उत्तर देने लगते हैं।  आपके बुलाने पर सिर घुमा कर देखने का प्रयास करते हैं और अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उनकी इस बात को गंभीरता से लेना चाहिए। डॉक्टर से सलाह लेना चाहिए। उनके विकास के लिए प्रति महीने होने वाले विकास का एक प्रामाणिक चार्ट है , जिसे आगे प्रस्तुत किया जाएगा।


रविवार, 24 मई 2020

प्रवासियों का दर्द !


           कोरोना ने सम्पूर्ण देश में ऐसे पैर पसारे कि हर तरफ त्राहि त्राहि मच रही है। लम्बे लॉक डाउन ने उनको खाने पीने के लिए मजबूर कर दिया , जब भूखों मरने की नौबत आ गयी तो उन्हें घर याद आया और सोचा कि  अगर मरना ही है तो अपने घर पहुँच कर अपनों के बीच मरेंगे।  उनकी जिजीविषा ही  थी , जो उनको बिना साधनों के सैकड़ों मील के दूरी पैदल नापने के लिए तैयार हो गए।  चल दिए अपने सारे साजो सामान लेकर।  गर्भवती पत्नी , दुधमुंहे बच्चे , वृद्ध माता - पिता को लेकर जहाँ से जो साधन मिला चले आ  रहे हैं।

                        इनके सामने कल अपने घर पहुँच कर भी ढेरों समस्याओं का सामना करने का एक भयावह सवाल खड़ा होगा ।    अभी तो एक नरक से छूट कर अपने घर की शीतल छाँव में पहुँच कर चैन की साँस लेंगे, कम से कम पेट भर कर खाना तो नसीब होगा। इसी तरह के सपनों में डूबे सभी चले जा रहे थे , घर की डगर बहुत दूर लग रही थी लेकिन मन में  खुशी तो थी।

अपनों का बदला रुख :-  
                                       अपना आशियाना छोड़ कर वह लोग आ रहे हैं यह सूचना तो उनको मिल ही चुकी है लेकिन  घर में अफरा तफरी मची हुई होगी कि ये लोग जितना लम्बा रास्ता तय करके आ रहे हैं --
- कहीं कोरोना किसी के साथ न आ जाय?
- हमारे अपने भी तो बाल बच्चे हैं , कहीं कुछ हो गया तो हम क्या करेंगे ?
- पता नहीं कितने लोग साथ आ रहे होंगे ?
- क्या पता  उनमें किसी कोरोना न हो फिर हम क्या करेंगे ?
- क्या उतनी आत्मीयता से मिल पायेंगे ?
                आने वाले इन सारे  प्रश्नों के बारे में सैकड़ों मील की पैदल  या  विभिन्न साधनों से आ रहे हैं , एक शांति लिए मन में कि घर पहुँच जाएँ तब चैन की सांस लेंगे। वो जिस  चैैन की साँस की आशा लेकर आ रहे हैं वह मिलेगी या नहीं। ये तो उनका भाग्य ही निश्चित करेगा ।

  कोरन्टाइन की अवधि :-
                                      कोरंटाइन की अवधि भी किसी अग्नि  परीक्षा से कम न थी. अपने गाँव शहर से बाहर किसी भी जगह  रखा जाएगा , जहाँ न खाने पीने का की समय होगा और न रहने सोने की पर्याप्त व्यवस्था। एक लम्बी अग्नि परीक्षा। इस वक़्त न वे  बाहर के ही हैं और न ही घर गाँव के।  कब वह पहुँच पाएंगे ?  उन्हें लग रहा था कि वे इस देश के निवासी ही नहीं हैं।  फिर भी घर जमीन तक पहुँचने में अभी कुछ और बाकी था। 

घर का कोरन्टाइन :- 

                              घर पहुँच कर सब   घर  बाहर ही मिले और उसको कह दिया गया कि वह ऊपर बनवाए हुए कमरे में अपने सामान सहित चले जाएँ।  
- देखो अभी अभी तुम बाहर आ रहे हो, पता नहीं कितने लोगों के साथ में सफर करके आ रहे हो तो अभी फिलहाल कुछ दिनों तक तो तुमको हम सबसे दूर रहना ही चाहिए। 
- खाना तुम्हें ऊपर ही मिल जाया करेगा।  पूरे घर में घूमने के जरूरत नहीं है। 
-  फिर तुम्हें कौन सा यहाँ हमेशा रहना है , बीमारी ख़त्म हो जायेगी तो वापस चले ही जाना है। 
                       कितने कष्टों से जूझते हुए वह लोग घर आये थे और घर में आकर ये नया कोरन्टाइन भी झेलना पड़ेगा इसकी तो कल्पना भी नहीं की थी।  वहाँँ से चले थे कि  बस अब और नहीं अपने घर में चलकर ही रहेंगे। अपनी मेहनत को घर में लगा कर काम कर लेंगे तो फिर दर दर नहीं भटकना पड़ेगा। पर यहाँ पर अछूतों जैसा व्यवहार कर रहे हैं घर वाले।  ये पक्का आँगन , कमरे , कुँए की जगत सब कुछ उसके भेजे पैसे से ही बने हैं लेकिन लग ये रहा है कि वे अवांछित मेहमान होंं।                              

सम्बन्धों में दरार :-
                             यह वही घर और  माता-पिता और भाई, बहन हैं , जो इससे पहले घर आने पर आगे पीछे घूमते रहते थे। किसी को भाई के कपड़े पसंद है तो ले लिए , भाभी की साड़ी जिसे पसंद आई ले ली कि वे वहाँ  जाकर और ले लेंगे । आज सब कटे कटे फिर रहे हैं। अब वापस नहीं जाना है । ये सुन कर सब चुप हैं


                         

         इस महामारी के काल में जब इंसान के लिए खाने पीने का ठिकाना न रहे तो वह वापस तो अपने घर ही आएगा। लेकिन और भाई जो खेती पर ऐश कर रहे थे , भाई के आने से उनका हिस्सा भी लगेगा , ये सोचकर दुखी थे । बार बार सभी उसको यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि महामारी ठीक होने तक वह गाँव में रहे फिर वापस चले जाएँ।  वहाँँ ज्यादा कमाई है और यहाँ पर खेती में क्या होता है ? सैकड़ो मील पैदल , ट्रक, ट्रैक्टर पता नहीं कैसे कैसे सफर की ? अभी पैरों के छाले रिस ही रहे थे कि दिल के छाले पड़ने लगे । उसे जमीन पर घर पर उसका भी तो अधिकार बनता है लेकिन जिस चीज को कुछ लोग पूरे अधिकार से प्रयोग कर रहे थे और उसका कोई दूसरा भी प्रयोग करने वाला आ जाय तो अगले  को खलेगा ही। जो सैकड़ों मील की सफर करके किसी तरह से घर पहुंचा हो और घर में वो पहले वाला  सम्मान और प्यार अपने लोगों से न मिले तो स्वाभाविक है कि उसके लिए दूसरा झटका सहना आसान नहीं हो सकता है।  ये त्रासदी भी सहना आसान नहीं है।

भविष्य का प्रश्न :-
                           अब जो घर लौटे हैं तो वापस जाने के लिए नहीं । शहर की चकाचौंध गाँव वालों को समझ आती है । वहाँ की हाड़ तोड़ मेहनत किसे दिखेगी ? अब गाँव में स्कूल हैं, सड़कें हैं तो दुकान भी डाल लेंगे तो वहाँ से अच्छे तब भी रह लेंगे।  न मकान का किराया लगना है ।  खाने पीने के लिए खेती से मिल ही जाएगा।  बहुत दिनों तक घर और घर वालों से दूर रह लिए, अब  अपनी घर जमीन पर ही रहेंगे।  खुदा न खास्ता कोरोना हो जाता तो ये पत्नी , बच्चे तो कहीं के न रहते।  कहाँ किस अस्पताल में पड़ा होता और अगर मर मरा जाता तो फिर किसी को शक्ल भी देखने को न मिलती। यही रोड के किनारे कोई दुकान डाल लूँगा।   इतनी कमाई तो हो ही जायेगी कि सारे खर्चे आराम से निबट जायेगे। अगर दुकान न चली तो फिर क्या करेंगे? घर पहुँच कर भी उन लोगों को चैन नहीं मिल रहा है। एक यक्ष प्रश्न अभी प्रवासी मजदूरों के सामने भयानक रूप लिए आज खड़ा है और जब तक हल न मिले ये खड़ा ही रहेगा।
              सरकारी प्रयास कितना काम दे पायेंगी ? इसके लिए इंतजार करना पड़ेगा । अभी सब भविष्य के गर्भ में है ।



शुक्रवार, 15 मई 2020

विश्व परिवार दिवस !

आज विश्व परिवार दिवस है और यह भी पाश्चात्य सभ्यता से परिचय के बाद मनाने की हमारे देश में आवश्यकता हुई क्योंकि हम सदैव से संयुक्त परिवार और वृहत् परिवार को मान्यता देते रहे और इसीलिए परिवार की यह परिकल्पना विदेशों में बहुत ही इज्जत के साथ  देखी जाती है,  लेकिन जैसे-जैसे हम विदेशी सभ्यता के संपर्क में आए और हमारे ऊपर  उच्च शिक्षा के बाद शहरी संस्कृति का प्रभाव पड़ा तो नई पीढ़ी ने एकल परिवार की परिभाषा  समझी।  वे संयुक्त परिवार  की बजाए एकल परिवार में ज्यादा सुख खोजने लगे,  ऐसे में हमारे देश की प्राचीन संस्कृति की धरोहर संयुक्त परिवार टूटने लगे । उनके बीच जो प्रेम और सद्भावना थी उसका ह्रास होने लगा, धीरे धीरे सुख और दुख सभी में शामिल होने के लिए लोगों ने भागीदारी से कटना आरंभ कर दिया और हमारी उस परिवार की जो छवि थी वह धूमिल हो गई। लेकिन हमारी जहाँ जहाँ जड़ें हैं, शाखाएं चाहे जितनी दूर-दूर तक फैल जाए हमें अपना जीवन अपनी जड़ों से ही प्राप्त होता है । उनके बिना हम जी नहीं सकते । 
          आज जब एक भयंकर स्थिति ने  संपूर्ण विश्व को घेर रखा है तो लॉक डाउन के कारण और घर से बाहर निकले परिवारों को फिर से अपना घर याद आने लगा और धरती मां या जन्मभूमि कभी इतनी निष्ठुर नहीं होती कि  यदि उनके बच्चे उन्हें छोड़कर चले जाएं और संकट में वे लौटें तो उन्हें शरण देने से इनकार कर दे और इसी का परिणाम है कि हजारों लाखों की संख्या में प्रवासी अपने घर की ओर चल दिए  क्योंकि उनको विश्वास है  कि मजदूर या कामगर वापस अपने घर की ओर आ रहे हैं , पैदल चलकर, ट्रेनों में भरकर, बसों में भरकर या जिसको जो भी साधन मिला वह अपनाकर  जन्म भूमि की ओर चल दिए। उनको यह विश्वास था कि उन्हें अपने परिवार में शरण मिलेगी और उनके भूखे मरने की  नौबत नहीं आएगी चाहे पूरा परिवार आधी आधी रोटी खाए लेकिन परिवार के हर सदस्य को खाना मिलेगा, कपड़े मिलेंगे और एक छत के नीचे छाया मिलेगी । हो सकता है घर के अंदर परिवार की  तीन या चार पीढ़ियाँ आज की आपको मिले और उनके अंदर मतभेद भले ही हो लेकिन मनभेद नहीं हो । जब व्यक्ति अपना-अपना स्वार्थ देखने लगता है तंभी परिवार में दरार आना शुरू हो जाती  और परिवार बिखरने लगता है , लेकिन आपातकाल में वही परिवार किसी न किसी रूप में साथ देता है और जो साथ नहीं देता है वह अपने को इस दुनिया की भीड़ में अकेला खड़ा हुआ पाता है । आज जबकि इंसान के जीवन कोई भी निश्चित नहीं रह गई तब वह वापस अपनी जड़ों की ओर भागने लगा है क्योंकि अगर परदेश में उसको कुछ हो जाता है तो उसका परिवार घर में शरण पाएगा और महानगरों की सड़कों पर उसको ठोकर नहीं खानी पड़ेगी । इसीलिए परिवार को  महत्व दिया जाता है ।
          विश्व की इस त्रासदी ने कुछ भी न किया हो , इंसान को अपनी जड़ों से मिला दिया है ।