माँ बनना हर स्त्री के लिए गौरव की बात होती है और स्वस्थ संतान की कामना भी हर माँ करती है। मैंने लगातार बच्चों के विकास को देखते हुए इस बात पर दृष्टि रखी हुई है। समय और विचारों के अनुरूप साथ ही अपने करियर के प्रति जागरूकता ने विवाह की उम्र बढ़ा दी है। आज 80 फीसदी माताएं नौकरीपेशा होती हैं। इस स्थिति में उनको करीब करीब 8 -9 घंटे तक ऑफिस में काम करना होता है और इनमें भी अधिकतर लैपटॉप , कंप्यूटर और मोबाइल के संपर्क में रहती हैं । इनका उनके शारीरिक रूप से उन पर प्रभाव होता है। कभी कभी वह शिफ्ट में भी काम कर रही होती हैं।
ऐसा नहीं है कि उनके लिए छुट्टियों का प्रावधान नहीं है लेकिन अधिकतर माताएँँ मिलने वाली छुट्टियों को डिलीवरी के बाद लेना चाहती हैं और लेती भी हैं। वे इस बात से वाकिफ नहीं होती हैं कि उनके आराम करने से ही गर्भस्थ शिशु को आराम मिलता है। प्रसव के ठीक पहले एक महीने में बच्चे का पूर्ण विकास हो चुका होता है और उसको हर चीज की बहुत जरूरत होती है। लैपटॉप, मोबाइल से निकलने वाली रेडिएशन भी उनको प्रभावित करता है।
प्रसव पूर्व माँ की जीवन शैली :--
आज की आधुनिक कही जाने वाली पीढ़ी अपने से बड़ों की सलाह को दकियानूसी बातें मानती है. क्योंकि उनके हाथ में जो मोबाइल होता है और उस पर मिलने वाली जानकारी ही उनके लिए मील का पत्थर बन जाती है और गूगल बाबा सबसे ज्ञानी होते हैं। वे इस बात से अनभिज्ञ होती हैं कि हमारी संस्कृति में चले आ रहे कुछ अनुभव निरर्थक तो नहीं होते हैं। उनका कोई आधार होता है और वे समय के साथ प्रभावित भी करते हैं।
संरक्षकों की सतर्कता :--
प्रसव के तुरंत बाद प्राकृतिक रूप से शिशु रोता है और इस रोने के पीछे जो लॉजिक है वह पुराने समय में बच्चे बाहर आकर घबरा जाता है और जोर जोर से रोने लगता है लेकिन इसका मुख्य सम्बन्ध बच्चे के सम्पूर्ण जीवन से होता है। गर्भ में शिशु माँ से ही भोजन और साँँस ग्रहण करता है लेकिन गर्भ से बाहर आते ही उसका रोना शिशु के जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है। बच्चे के रोने से ऑक्सीजन अंदर ग्रहण करता है और उससे उसके मस्तिष्क की जो रक्तवाहिनी सम्पूर्ण शरीर के लिए जाती हैं वे खुल जाती हैं और रक्त प्रवाह सम्पूर्ण शरीर में सुचारु रूप से होने लगता है , जो शिशु के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
कभी कभी शिशु के रोने में कुछ समय लगता है तो डॉक्टर और नर्स बच्चे को मार कर रुलाने का प्रयास करते हैं और यदि समय रहते ये काम हो जाता है तो कोई खतरा नहीं होता लेकिन अगर अंतराल बढ़ जाता है तो जहाँ जहाँ से सम्बंधित रक्तवाहिनियां सुचारु रूप से खुल नहीं पाती हैं , वे अंग असामान्यता के शिकार हो जाते हैं। इस स्थिति में संरक्षकों को सतर्क रहना होता है और बच्चे पर नजर रखते हुए समय से डॉक्टरों से सलाह लेनी चाहिए।
बुजुर्गों की सोच :--
प्रसूता के प्रति घर में बुजुर्गों का रुख कैसा है ? ये एक महत्वपूर्ण मुद्दा होता है। कहीं पर बड़ों की बातों में पिता या माँ कोई दखल नहीं दे पाते हैं और वे अपने अनुभवी होने की दलील से सबको चुप करा देते हैं। इस स्थिति में बच्चे के बड़े होने के साथ साथ माँ और पिता को सतर्क रहने की जरूरत होती है। बच्चे की प्रगति में बुजुर्ग हस्क्षेप करते हैं लेकिन माँ को ये ध्यान रखना चाहिए कि समय के साथ और बदलते प्राकृतिक परिवर्तन से शारीरिक व मानसिक मानकों में परिवर्तन हो रहे हैं और उन पर नजर रखते हुए सतर्क रहना होता। अगर बच्चे में कोई भी असामान्यता दिखलाई देती हैं तो विशेषज्ञ से राय ले लेना होता है। यद्यपि बच्चे की दादी और नानी अपने अनुभव बाँँटने लगती हैं कि हमारे बच्चे तो ऐसे थे और भी चीजें हैं :-
बच्चे के चेतनता :--
इस विषय में उनका कहना होता है
कि इस उम्र में हमारे बच्चे भी नहा धोकर घंटों सोया करते थे। बच्चों को सोना अच्छी बात है। लेकिन समय के साथ साथ सब कुछ परिवर्तित हो रहा है , तब बच्चों की माँ को नियमित चेकअप और अल्ट्रासॉउन्ड और डॉक्टर की बराबर नजर नहीं रहती थी। सरकारी अस्पताल में भी डॉक्टर के बुलाने के बाद भी दिखाने के लिए नहीं जाती थी बल्कि सिर्फ डिलीवरी कार्ड बनवाने के दिखाने जाती थी और फिर डिलीवरी के लिए। आज बच्चों की सक्रियता बढ़ रही है और उनके कार्य कलाप भी। इस पर माँ को ध्यान देना चाहिए।
बच्चे की प्रतिक्रिया :--
बच्चे कुछ ही महीने होने पर अपनी प्रतिक्रिया शुरू कर देते हैं। उनसे हँसकर बात करने पर वे भी हँसकर उत्तर देने लगते हैं। आपके बुलाने पर सिर घुमा कर देखने का प्रयास करते हैं और अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उनकी इस बात को गंभीरता से लेना चाहिए। डॉक्टर से सलाह लेना चाहिए। उनके विकास के लिए प्रति महीने होने वाले विकास का एक प्रामाणिक चार्ट है , जिसे आगे प्रस्तुत किया जाएगा।
ऐसा नहीं है कि उनके लिए छुट्टियों का प्रावधान नहीं है लेकिन अधिकतर माताएँँ मिलने वाली छुट्टियों को डिलीवरी के बाद लेना चाहती हैं और लेती भी हैं। वे इस बात से वाकिफ नहीं होती हैं कि उनके आराम करने से ही गर्भस्थ शिशु को आराम मिलता है। प्रसव के ठीक पहले एक महीने में बच्चे का पूर्ण विकास हो चुका होता है और उसको हर चीज की बहुत जरूरत होती है। लैपटॉप, मोबाइल से निकलने वाली रेडिएशन भी उनको प्रभावित करता है।
प्रसव पूर्व माँ की जीवन शैली :--
आज की आधुनिक कही जाने वाली पीढ़ी अपने से बड़ों की सलाह को दकियानूसी बातें मानती है. क्योंकि उनके हाथ में जो मोबाइल होता है और उस पर मिलने वाली जानकारी ही उनके लिए मील का पत्थर बन जाती है और गूगल बाबा सबसे ज्ञानी होते हैं। वे इस बात से अनभिज्ञ होती हैं कि हमारी संस्कृति में चले आ रहे कुछ अनुभव निरर्थक तो नहीं होते हैं। उनका कोई आधार होता है और वे समय के साथ प्रभावित भी करते हैं।
संरक्षकों की सतर्कता :--
प्रसव के तुरंत बाद प्राकृतिक रूप से शिशु रोता है और इस रोने के पीछे जो लॉजिक है वह पुराने समय में बच्चे बाहर आकर घबरा जाता है और जोर जोर से रोने लगता है लेकिन इसका मुख्य सम्बन्ध बच्चे के सम्पूर्ण जीवन से होता है। गर्भ में शिशु माँ से ही भोजन और साँँस ग्रहण करता है लेकिन गर्भ से बाहर आते ही उसका रोना शिशु के जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है। बच्चे के रोने से ऑक्सीजन अंदर ग्रहण करता है और उससे उसके मस्तिष्क की जो रक्तवाहिनी सम्पूर्ण शरीर के लिए जाती हैं वे खुल जाती हैं और रक्त प्रवाह सम्पूर्ण शरीर में सुचारु रूप से होने लगता है , जो शिशु के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
कभी कभी शिशु के रोने में कुछ समय लगता है तो डॉक्टर और नर्स बच्चे को मार कर रुलाने का प्रयास करते हैं और यदि समय रहते ये काम हो जाता है तो कोई खतरा नहीं होता लेकिन अगर अंतराल बढ़ जाता है तो जहाँ जहाँ से सम्बंधित रक्तवाहिनियां सुचारु रूप से खुल नहीं पाती हैं , वे अंग असामान्यता के शिकार हो जाते हैं। इस स्थिति में संरक्षकों को सतर्क रहना होता है और बच्चे पर नजर रखते हुए समय से डॉक्टरों से सलाह लेनी चाहिए।
बुजुर्गों की सोच :--
प्रसूता के प्रति घर में बुजुर्गों का रुख कैसा है ? ये एक महत्वपूर्ण मुद्दा होता है। कहीं पर बड़ों की बातों में पिता या माँ कोई दखल नहीं दे पाते हैं और वे अपने अनुभवी होने की दलील से सबको चुप करा देते हैं। इस स्थिति में बच्चे के बड़े होने के साथ साथ माँ और पिता को सतर्क रहने की जरूरत होती है। बच्चे की प्रगति में बुजुर्ग हस्क्षेप करते हैं लेकिन माँ को ये ध्यान रखना चाहिए कि समय के साथ और बदलते प्राकृतिक परिवर्तन से शारीरिक व मानसिक मानकों में परिवर्तन हो रहे हैं और उन पर नजर रखते हुए सतर्क रहना होता। अगर बच्चे में कोई भी असामान्यता दिखलाई देती हैं तो विशेषज्ञ से राय ले लेना होता है। यद्यपि बच्चे की दादी और नानी अपने अनुभव बाँँटने लगती हैं कि हमारे बच्चे तो ऐसे थे और भी चीजें हैं :-
बच्चे के चेतनता :--
इस विषय में उनका कहना होता है
कि इस उम्र में हमारे बच्चे भी नहा धोकर घंटों सोया करते थे। बच्चों को सोना अच्छी बात है। लेकिन समय के साथ साथ सब कुछ परिवर्तित हो रहा है , तब बच्चों की माँ को नियमित चेकअप और अल्ट्रासॉउन्ड और डॉक्टर की बराबर नजर नहीं रहती थी। सरकारी अस्पताल में भी डॉक्टर के बुलाने के बाद भी दिखाने के लिए नहीं जाती थी बल्कि सिर्फ डिलीवरी कार्ड बनवाने के दिखाने जाती थी और फिर डिलीवरी के लिए। आज बच्चों की सक्रियता बढ़ रही है और उनके कार्य कलाप भी। इस पर माँ को ध्यान देना चाहिए।
बच्चे की प्रतिक्रिया :--
बच्चे कुछ ही महीने होने पर अपनी प्रतिक्रिया शुरू कर देते हैं। उनसे हँसकर बात करने पर वे भी हँसकर उत्तर देने लगते हैं। आपके बुलाने पर सिर घुमा कर देखने का प्रयास करते हैं और अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उनकी इस बात को गंभीरता से लेना चाहिए। डॉक्टर से सलाह लेना चाहिए। उनके विकास के लिए प्रति महीने होने वाले विकास का एक प्रामाणिक चार्ट है , जिसे आगे प्रस्तुत किया जाएगा।
सही कहा...माएँ गर्भावस्था से ही बच्चे कस ध्यान रखे...माँ कर अलावा बच्चे के लिए कोई ज़्यादा नहीं सोच सकता। बढ़िया।
जवाब देंहटाएंउपयोगी आलेख।
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(३०-०५-२०२०) को 'आँचल की खुशबू' (चर्चा अंक-३७१७) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
**
अनीता सैनी
आभार अनीता जी ।
हटाएं
जवाब देंहटाएंआज की आधुनिक कही जाने वाली पीढ़ी अपने से बड़ों की सलाह को दकियानूसी बातें मानती है. क्योंकि उनके हाथ में जो मोबाइल होता है और उस पर मिलने वाली जानकारी ही उनके लिए मील का पत्थर बन जाती है और गूगल बाबा सबसे ज्ञानी होते हैं। वे इस बात से अनभिज्ञ होती हैं कि हमारी संस्कृति में चले आ रहे कुछ अनुभव निरर्थक तो नहीं होते हैं। उनका कोई आधार होता है और वे समय के साथ प्रभावित भी करते हैं।
सत्य वचन ,आपकी कही हुई बातों का ध्यान रखना जरूरी है ,और मानना भी जरूरी है ,यदि परिवार तथा देश का भविष्य स्वस्थ और तंदुरुस्त रखना चाहते है ,कम से कम अपने आने वाले संतान के हित के बारे मे ही सोचे ,लाभकारी उपयोगी ,सार्थक लेख ,पोस्ट ,धन्यवाद दीदी ,सुबह की राम राम जय राम
बच्चे के साथ माँ का भी ख्याल %रखना पड़ेगा तब जाकर देश में बदलाब आएगा
जवाब देंहटाएंhttps://yourszindgi.blogspot.com/2020/05/blog-post_29.html?m=0
उपयोगी जानकारी और विचार.
जवाब देंहटाएंमहत्त्वपूर्ण लेख
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीय
बहुत अच्छा आलेख ।
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