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शुक्रवार, 16 अगस्त 2019

जरा याद उन्हें भी कर लो ...!

1957 की क्रांति की कानपुर की वीरांगनाएँ !


                        हमारा देश सिर्फ वीरों का ही नहीं अपितु वीरांगनाओं की भी कर्मस्थली रहा है । उसने माँ बनकर, बेटी बनकर, शासक बनकर और वीरांगना बनकर प्रत्येक क्षेत्र में विजय पताका  फहराई है। अगर विजयश्री न पा सकीं तो संघर्ष करते करते अपने को मातृभूमि पर न्योछावर करके इतिहास में पृष्ठों पर अपना नाम  अंकित कर गयीं। नव जागरण काल से लेकर संघर्ष की पूरी स्वातंत्र्य अवधि में भारतीय नारियाँ सुधी एवं मनीषी पुरुषों के दिग्दर्शन में उनके कंधे से कन्धा मिलाकर देश की गुलामी के विरुद्ध लड़ती रहीं.
                          कुछ  ऐसी वीरांगनाएं भी हैं, जिन्हें हम आमतौर पर अपने अब तक के अध्ययन में किसी भी विषय के पाठ्यक्रम में नहीं पढ़ सके हैं और यह कार्य यदि शोध की दृष्टि से न किया गया होता तो शायद आज भी मैं अनभिज्ञ होती. हम लोगों में कुछ कुछ इतिहासकारों को इसका ज्ञान अवश्य ही होगा क्योंकि जिनका ये शोध विषय रहा है - वे मनीषी ही इस दिशा में मुझे वहाँ तक पहुँचने में सहायक सिद्ध हुए.
                         इस दिशा में पहल करने के लिए १८५७ की क्रांति में महारानी लक्ष्मी बाई का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा है । उन पर कुछ भी लिखना कुछ नया नहीं होगा. वे स्वयं इतिहास है. इस क्रांति का सूत्रपात जब १८५७ में मेरठ में हुआ तब मेरठ छावनी में अंग्रेजों द्वारा प्रयोग करने के लिए दिए गए कारतूसों के प्रयोग को लेकर हुए विरोध पर ८५ सैनिकों का कोर्ट मार्शल हुआ और उनको १०-१० वर्ष का कठोर कारावास हुआ। उन्हें बेड़ियाँ डालकर कारगर में बंद कर दिया गया. उसी शाम कुछ सैनिक मेरठ बाजार में घूमने गए तो मेरठ की महिलाओं ने उनको इस शब्दों में धिक्कारा - आपके भाई जेल में है। आप यहाँ मक्खी मार रहे हैं. आपके जीने को धिक्कार है." ( इन शब्दों का प्रयोग एक अंग्रेज ने अपनी डायरी में किया था.) ये गुमनाम किन्तु देशभक्ति  से भरी नारियाँ इस क्रांति कि एक सुलगती हुई चिंगारी थीं.
                          इस काल की कुछ वीरांगनाओं की, जो उत्तर प्रदेश से ही थीं, भूमिका प्रस्तुत करने कि इच्छा है। अगर इस विषय को आप लोगों ने सार्थक समझा तो इससे जुड़े और गुमनाम व्यक्तित्वों  से परिचय अवश्य कराऊंगी  अन्यथा फिर कभी प्रस्तुत करूंगी।

                                         
कुमारी मैना बाई


                     स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगनाओं में नाना साहब की अल्पवयस्क दत्तक पुत्री मैना को भी नहीं भुलाया जा सकता है. चिता में जिन्दा जल जाने के बावजूद उसने अपने साथियों के बारे में जानकारी देने से इंकार कर दिया और बिना चिल्लाये स्वतंत्रता की वेदी पर बलि चढ़ गयी।
                      मैना शरणागतों को लेकर और एक अंगरक्षक माधव को लेकर गंगातट पर पहुँची , जहाँ उसे खबर मिली कि अंग्रेज कानपुर में महिलाओं की इज्जत से खिलवाड़ कर रहे हैं और दुधमुंहे बच्चों तक को नहीं बक्श रहे हैं.  मैना का यह सुनकर खून खौल उठा , वह फिरंगियों से बदला लेने की सोचती ही रहती थी। उसको अपने पिता का ये आदेश कि 'शरणागतों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाना है.' याद आ गया। वह कर्त्तव्य से विमुख नहीं होना चाहती थी और वे फिरंगियों कि परवाह किये बिना अपने काम को अंजाम देने में लगी रही। इस बात की खबर अंग्रेजों को भी लग गयी और अंग्रेज भी वहाँ पंहुच गए। अंग्रेजों ने मैना के अंगरक्षक माधव को मारकर मैना को गिरफ्तार कर लिया। उनको  मैना  से  स्वतंत्रता  सेनानियों  के  बारे  में  जानकारी  चाहिए थी। इसके लिए उसे पेड़ से बाँध कर भीषण यातनाएँ  दी गयीं। लेकिन मैना को देश के साथ जीने और मरने की शहादत याद थी और पिता की हिदायत भी। जब अंग्रेज इससे संतुष्ट न हुए तो  उसको उन्होंने  जिन्दा चिता में जलाया और अधजला शरीर  निकाल कर फिर पूछताछ की लेकिन भारत माँ की  उस पुत्री ने अपना मुँह नहीं खोला और उसको पूरा ही जल दिया गया।
                        मैना चिता में जल गयी लेकिन अंग्रेजों को ये सबक सिखा गयी कि भारतीय युवतियाँ भी किसी से पीछे नहीं है। भारत को इस बहादुर बेटी पर सदा गर्व रहेगा।


 महारानी तपस्विनी


                  महारानी लक्ष्मी बाई की भतीजी  और उनके  एक सरदार पेशवा नारायण राव की पुत्री महारानी तपस्विनी का भी योगदान अविस्मरनीय है.   उन्होंने सांसारिक मोहमाया का त्याग कर पूजापाठ में लीन रहने वालों को गुलाम बनाने वाले अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए प्रेरित  किया और उनके हाथ में अस्त्र-शस्त्र पकडाए।
                 बाल विधवा होने के बावजूद उन्होंने योगासन के साथ साथ शस्त्र  चालन , घुड़सवारी का भी प्रशिक्षण लिया. पेशवा खानदान की होने के कारण ही उनको देशप्रेम विरासत में मिला था। अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने की इच्छा  ने उन्हें शस्त्र विद्या में निपुण बनाया।
                        अंग्रेजों को धोखा देने के लिए वे संत गौरीशंकर की शिष्या बन गयीं और शांति और प्रेम के भक्तों को आध्यात्मिक ज्ञान देने के साथ साथ देशभक्ति का उपदेश भी दिया करती थी। उन्होंने विद्रोह का प्रतीक लाल कमल दे कर क्रांतिकारी साधुओं का दल बनाया। इन्होंने लोगों में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति करने के लिए सोयी हुई भावनाओं  को जगाने का कार्य सम्पन्न करना शुरू कर दिया। ये साधु दल अस्त्र शस्त्रों से पूरी तरह से लैस होते थे । युद्ध के समय  तपस्विनी घोड़े पर सवार होकर मुठभेड़ों से जूझते हुए सारी व्यवस्था का निरीक्षण  स्वयं ही देखती थीं। अंग्रेजों की योजनायें जब असफल होने लगीं तो अंग्रेज हाथ धोकर महारानी के पीछे पड़  गए। वह नाना साहेब के साथ नेपाल चली गयीं लेकिन वे वहाँ भी निष्क्रिय नहीं रहीं और वहाँ भी अंग्रेजों के खिलाफ देशप्रेम की भावना पैदा की और वहाँ पर  'महाकाली पाठशाला' खोल दी । वहीं से स्वतन्त्रता यज्ञ आरम्भ किया। जब तक जीवित रहीं क्रांति योजना की बार बार असफलता के बावजूद इसे जारी रखे रहीं। १८५७ की क्रांति असफल होने के बाद भी क्रांति के ज्वाला जलाये रखने वाली महारानी तपस्विनी का नाम भारत की वीरांगनाओं  में अग्रणी रहेगा.


                                                         *अजीज़न बाई*


                   जैसा इस नाम से अनुमान लगाया जा सकता है कि ये नाम किसी नाचने वाली से सम्बन्ध रखता होगा। घुंघरुओं की झंकार  से  लेकर  तलवार  की  खनक  तक अजीज़न का जीवन इस प्रकार का रहा जो अपने आप में देशभक्ति और राष्ट्र की स्वतंत्रता का एक बहुत बड़ा पथ है।
                  जब कानपुर पर अंग्रेजों ने पुनः अधिकार कर लिया तो कानपुर की  हिन्दू और मुस्लिम महिलायें अपने घरों से निकल कर गोला बारूद इधर से उधर ले जाने  और सैनिकों को भोजन पहुँचने एवं और भी प्रकार की  सहायता का काम ठीक अंग्रेजी किले की  दीवार के नीचे कर रहीं थीं। इन सब स्त्रियों में कानपुर की महान स्वतंत्रता सेनानी, कूटनीतिज्ञ   एवं समर दक्ष अजीज़न ने वीर महिलाओं का एक दल संगठित किया और वीरांगनाओं की इस टुकड़ी का नेतृत्व किया। वीरांगना अजीज़न का यह संगठित दल मरदाने वेश में हाथ में तलवार लेकर घोड़े  पर सवार होकर नगर में लोगों को क्रांति का सन्देश सुनाता  हुआ घूमता  था। युद्ध के समय यह दल अपने सिपहियों को दूध , फल, मेवा, मिठाई  बांटता, घायलों की  सेवा करता था, समय पड़ने पर यह दल अपने साथियों को हथियार , गोला बारूद पहुंचता था। अजीज़न सैनिक वेशभूषा में तथा हाथ में पिस्तौल लिए अंग्रेजी सैनिकों को रौंदती चली जाती थी। उनके वीरत्व के कारण ही कानपुर की महिलाओं में चेतना जाग्रत हुई।
                    नाना साहब की  पराजय का समाचार पाते ही अजीज़न प्रतिशोध की  भावना से प्रेरित होकर मोहम्मद के होटल से ५ कातिल ले आई और बीबीघर  के अंग्रेज कैदियों को मारकर कुँए में डलवा दिया। यह कुआँ आज नाना राव पार्क में तात्या टोपे की प्रतिमा के समक्ष वृत्ताकार चबूतरा बना  हुआ है। अजीज़न इस कांड से शांत नहीं बैठी वरन उसने अंग्रेजी सेना से अपनी टुकड़ी और क्रांतिकारी सेना के साथ मिलकर छापामार युद्ध आरम्भ कर दिया।
                   एक बार हैरी और वाटसन नामक सैनिक इस लड़ाई में अपनी टुकड़ी से बिछुड़ कर  पानी की  खोज में जंगल में भटक गए थे और एक कुँए की  ओर बढे। इधर अजीज़न  भी इनकी ताक  में पिस्तौल लिए पेड़ की  आड़ में खड़ी थी. इन दोनों को बढ़ता देखकर उसने गोली चलाई  परन्तु गोली चलते ही दोनों जमीं पर लेट गए और अजीज़न की  गोलियां बेकार गयी. हैरी और वाटसन शस्त्रास्त्रों से लैस थे और उन्होंने इन सैनिकों को पकड़ना चाहा। आदमी समझ कर धर दबोचा उससे अजीज़न की  पिस्तौल दूर जा गिरी, सिर का साफा  खुल गया और वह जमीन पर गिर पड़ी। तब वे समझे कि जिसे वे युवक समझ रहे थे वह तो वीरांगना नारी अजीज़न है। अजीज़न ने जमीन से उठने का प्रयास किया तो पुनः गिर पड़, किन्तु पिस्तौल उनके हाथ में आ गयी। हैरी पानी पीने गया था। अजीज़न वाटसन के सीने में गोली उतार दी। हैरी जब तक कुछ समझे तब दूसरी गोली उसके सीने में उतार दी और वह परलोक सिधार गया.
                  अजीज़न निश्चिन्त होकर आगे बढ़ना चाह रही थी किन्तु वह सैनिकों से घिर चुकी थी। इस पर भी उसने साहस का परिचय दिया और एक सैनिक की बन्दूक छीन कर उस पर कुंदों से प्रहार कर दिया, किन्तु इतने सैनिकों से निपटना आसन नहीं था। अतः पकड़ी  गयीं फिर हैवलाक  के पास लाई गयीं। हैवलाक  ने अजीज़न से कहा कि क्षमा मांग लो तो तुम्हारे प्राणों कि रक्षा हो  सकती  है। अजीज़न  ने  उत्तर  दिया  - "अत्याचारी  से  क्षमा  माँगने के लिए मैं तैयार नहीं ।"
फिर हैवलाक ने पूछा - "तुम क्या चाहती हो?"
उसने कहा कि "अंग्रेजी राज्य का विनाश।" इस पर हैवलाक के संकेत पर एक गोली उसके सीने पर जा लगी और गोली लगते ही वह "नाना साहब की जय" चिल्ला उठी। गोलियां चलती रहीं और वह अंतिम साँस तक नाना साहब की जय बोलती रहीं और अंत में वीरगति को प्राप्त हुई।

शनिवार, 10 अगस्त 2019

कहाँ आ गये हम ?

                       सदियों से चली आ रही सृष्टि और उसकी संस्कृति  को हम बरकरार  न रख पाए। हमने छोड़ते छोड़ते सब छोड़ दिया पर दिखाई किसी को न दिया।  आज जब खाली हाथ इंसान जानवर से भी बदतर होकर इंसानियत और खून  रिश्तों का लिहाज भी भूल गया। क्या बहन , क्या बेटी और क्या माँ ? सिर्फ और सिर्फ एक औरत उसमें दिखलाए देने लगी है। और उसकी सोच रोज किसी न किसी बेटी को दुष्कर्म का शिकार बना डालता है और हम बार बार सिर मारते हुए सोचते है कि इसमें गलत कहाँ हुआ ? इंसानी सोच अब उम्र  की मुहताज नहीं रही है। अपनी नानी दादियों के मुँह से सुना था  कि जब बाप बेटी को भी अपनी हवस का शिकार बनाने लगेगा और इंसान इंसान को खाने लगेगा तब घोर कलयुग समझना कि आ गया । सब कुछ हो रहा है लेकिन कहीं कलयुग की पराकाष्ठा को देखा है और प्रकृति  सका ह्रास हम देख रहे हैं । अब प्रलय में क्या शेष है ? हर साल प्रकृति अपना भयावह रूप दिखा देती है । 

        हमारे बुजुर्गों में जो संस्कार और संस्कृति थी , उसमें सिर्फ और सिर्फ मानवता थी , तब हर इंसान चाहे गरीब हो , चाहे अमीर हों -- एक सम्मान , एक अदब और एक रिश्ते का नाम दिया गया था।  सारा गाँव एक परिवार था क्योंकि तब हम गाँव में ही बसते थे।  उससे आगे आने वाली पीढ़ी घर से बाहर निकली शिक्षा के लिए और ज्ञान के लिए।  वह तो उन्होंने ग्रहण की लेकिन वो अपनी संस्कृति से दूर होते गए और उन्होंने उन संस्कारों को अपनी सहूलियत के अनुसार ग्रहण किया।  सब कुछ न ले पाए क्योंकि उनमें कुछ शिक्षित हुए तो उन्हें वे संस्कार बेमानी लगने लगे। हमारे घर में काम करें और हमसे ही पैसे लेकर गुजारा करें और हम उन्हें काका और बाबा का दर्जा दें। ये तो नयी सभ्यता ने सिखाया ही नहीं है।  बुजुर्गों को दुःख हुआ कि ये नयी पीढ़ी हमारे बनाये संस्कारों को छोड़ती जा रही है लेकिन उन पर बस किसी का भी नहीं चल सकता है।
                            वह  पीढ़ी शहर में आ बसी और गाँव आती रही क्योंकि अभी संस्कारों का असर बाकी था और तीज त्यौहार घर और गाँव में ही मनाने का मन बना रहता था क्योंकि उनकी दूरी गाँव से बहुत अधिक दूर तक न बन पायी थी ,  लेकिन  आधुनिकता के रंग में रंगी यह पीढ़ी गाँव वालों को भी प्रभावित करती रही। वे शिक्षा के लिए गाँव से दूर हुए थे और नए बच्चों ने उनकी चमक धमक से प्रभावित होकर शहर का रुख कर लिया।  शहर में कुछ तो काम करने को मिलने लगा और शहर की ओर दौड़ लगने लगी संस्कारों की कमी क्या हुई ? वहां भी रिश्तों की गरिमा ख़त्म होने लगी।  जब ऊपर की पीढ़ी विदा होने लगी तो कुछ ही घरों पर छतें रह गयी बाकि ढह गयी और कुछ सालों बाद वो खंडहर बन बिकने लगे। जो संस्कार गाँवों से लाये थे वे चुकने लगे थे।  शिक्षा की चमक दमक ने संस्कारों पर कुठाराघात किया और उनकी आने वाली पीढ़ी डैड और ममी वाली रह गयी। सारे  रिश्ते अंकल और आंटी में सिमट गए।  मामा , मामी , बुआ , चाचा चाची दादी बाबा सब ख़त्म हो गए।  नयी पीढ़ी के हाथ क्या आया ? फ़िल्टर किये हुए संस्कार और रिश्ते और वे भी इतना कम थे कि अगली पीढ़ी को देने के लिए कुछ बचा ही नहीं था और क्या पता सृष्टि इन्हीं के लिए आगे चलकर दम तोड़ देगी ।
               यौन विकृतियों ने किशोर , युवा , वयस्क और प्रौढ़ों तक को अपनी गिरफ्त में ले लिया । कन्या शब्द खत्म हो चुका है क्योंकि इन लोगों को सिर्फ औरत और भोग्या नजर आने लगी ।
            माँएंं चिंतित हैंं कि बेटियों को कैसे बचायें ? बेटे को इस हवा से कैसे बचायें ? अबशिक्षित माँँओंंं की यही चिंता है । आओ मंथन करें और खोजें संस्कृति के पुनर्स्थापन की राह । तभी बच सकेगी ये सृष्टि, अन्यथा बिना प्रलय के नाश निश्चित है ।