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शुक्रवार, 6 जून 2025

नया स्टार्ट अप!

           फेसबुक अब पूरी तरह से ठगने के विज्ञापनों से भर चुकी है, इसमें काम करने वाले तथाकथित लेखक, पब्लिशर भी है । उनके नाम बड़े हैं या नहीं यह नहीं जानते लेकिन इतना जरुर जानते हैं कि अवसर का फायदा उठाकर पैसा इकट्ठा करने का एक बहुत अच्छा साधन है। 

            अभी हाल ही में एक घटना घटी - हमारे पास फेसबुक के माध्यम से प्रस्ताव मिला कि अमुक मासिक पत्रिका मां विशेषांक निकालने जा रही है उसके लिए आप अपना लेख और मां के साथ या अलग-अलग फोटो भेजिए जैसा कि अक्सर होता है,  मैंने अपना एक आलेख और मां के साथ फोटो वहां पर भेजा। उसके प्राप्त होते ही मुझे वाट्सएप पर मैसेज मिला कि आप ₹100 भेजें , मैंने सोचा कि विशेषांक होगा तो मूल्य हो सकता है।  फिर भी मैंने पूछा कि पत्रिका के लिए? उत्तर हां में मिला। मैंने सौ रुपये ऑनलाइन भेज दिये। 

             एक दो दिन बाद पीडीएफ भेज दी कि अपने आलेख को देख लें कोई परिवर्तन कराना तो लिखें।

            मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। दो दिन बाद फिर मेरे कुछ उत्तर न देने पर उनका दूसरा मैसेज आया कि कृपया ₹50+₹200 भेजिए।  मेरा दिमाग एकदम चकरा गया पत्रिका के पैसे हमसे पहले ही ले चुके हैं, अब यह किस चीज के पैसे मांग रहे हैं?  मैंने उनसे पूछा यह किस चीज के पैसे आपको चाहिए? उन्होंने कहा ₹50 पोस्टेज के और ₹200 मैगजीन के। मैंने कहा जब मैगजीन के पैसे आप फिर ले रहे हैं तो आपने पहले ₹100 किस चीज के लिए थे । उन्होंने कहा - वह मैंने पब्लिशिंग के लिए थे। मुझे लगा कि पब्लिशिंग के पैसे लेने का क्या मतलब? माना पत्रिका कोई मानदेय नहीं देती है लेकिन पैसे लेकर पब्लिश करने वाली पत्रिका का कोई भी वजूद होता ही नहीं। फिर भी मैंने कहा मैं नहीं दूंगी और मुझको पत्रिका भी नहीं चाहिए। इस पर लिखा अच्छा ₹50 मत दीजिए ₹200 दे दीजिए, आपको हम पत्रिका दे देंगे । ठीक है मैंने उनको ₹200 भेज दिए।

                उसके बाद उनका मैसेज आया कि हम भोपाल में बहुत बड़ा कार्यक्रम कर रहे हैं,  जिसमें ऑनलाइन ऑफलाइन कवि सम्मेलन, पुस्तक विमोचन, नृत्य-संगीत सारी प्रतियोगिताएं रखी जाएगी और आप उसमें किसी भी तरीके से शामिल हो सकते हैं तो मैंने सोचा कि ऑफलाइन शामिल हो जाते हैं। मैंने कहा - मैं सिर्फ ऑफलाइन शामिल हो सकती हूं।   बोले अच्छा ठीक है आप ऑफलाइन शामिल हो जाइए और दूसरे दिन मैसेज आता है कि ₹250+₹2100 आप भेज दीजिए । मैंने पूछा यह पैसे किस चीज के चाहिए ?  उत्तर मिला वह ऑफलाइन के , आप उसमें शामिल होना चाहती हैं तो उसके लिए आपको ₹250 रजिस्ट्रेशन के और ₹2100 ऑफलाइन का योगदान दीजिए । जिससे आपको पुरस्कार और यह सब चीज मिलेगी।  आपको सुविधा प्रदान की जाएगी आपके घर आपका अवार्ड भेजा जाएगा उन सब चीजों के लिए सुनकर तो मुझे ऊपर से नीचे तक आग लग गई।  मैंने कहा कि मुझे किसी भी तरह की सहभागिता नहीं चाहिए ना मैं ऑनलाइन और ना मैं ऑफलाइन कोई भी सहभागिता नहीं करुंगी।  फिर उनके तरह-तरह के प्रलोभन दिए और वह वेन्यू भी उन्होंने फोटो से भेजा जहां पर प्रोग्राम करने वाले थे, देखिए कितना भव्य प्रोग्राम हो रहा है ।  ट्रॉफी का चित्र भी भेजा देखी ट्रॉफी हर एक को दी जाएगी और बड़ा सम्मान होगा। अगर आप ऑफलाइन रहेंगे तो आपके घर में ट्रॉफी आएगी। मैंने सोच लिया था कि नहीं  लेना है। मैंने कहा मुझे यह खरीदा हुआ कप या कोई भी सम्मान पत्र नहीं चाहिए। मेरी सहभागिता नहीं  होगी। अगर आप पत्रिका भेज सके तो भेज दे अन्यथा वह ₹300 भी आप अपने पास रखें।  इसके बाद मैं सब  खत्म कर दिया।  कुछ दिन बाद फिर आया की पिता विशेषांक की तैयारी हो रही है और आप कृपया अपने पिता की फोटो के साथ अपना एक आलेख भेजिए। मुझे बहुत तेज हंसी भी आई और यह भी फिर लगा कि उन्होंने तो व्हाट्सएप पर पूरा बिजनेस उसे डाला होगा मैसेज तो वह मेरे पास भी आ गया । ठीक है मैंने उसको इग्नोर कर दिया मैंने क्या मुझको भाग नहीं लेना है। 

          एक दिन मुझको वह पत्रिका प्राप्त हुई । मैं उसका चित्र यहां भी नहीं डाल रही हूं लेकिन फिर भी मैं बता रही हूं मुझको पत्रिका प्राप्त हुई,  एक किताब उसमें मासिक पत्रिका लिखा हुआ था अंदर जब खोला तो उसका कोई संपादकीय विवरण नहीं, और नहीं,  सीधी अनुक्रमणिका उसमें दी गई थी और पूरी पुस्तक में कहीं भी पृष्ठ संख्या नहीं है। 

               अनुक्रमणिका में भी रचना का कोई जिक्र नहीं सिर्फ़ लेखकों के नाम थे। अनुक्रमणिका की फोटो में यहां पर संलग्न कर देती हूं, जिससे कि समझ में आ सके कि किस तरह के अनुक्रमणिका है । प्रथम पृष्ठ सीधा अनुक्रमणिका है उसके बाद जब अंतर दिखा तो फोटो के साथ एक रचना दो रचना पीछे चलते-चलते पता चला कि एक लेखक की 10-10 रचनाएं हैं उसमें और किसी की दस किसी की पांच किसी की चार करके उसमें कुल 110 रचनाएं थी और उसमें लेखक कल शायद 80 थी । अगर हम आकलन करें तो इस एक किताब की बाबत उन्होंने दो लाख 40 हजार रुपए कमा उसमें सिर्फ नाम दिया किस शहर से प्रकाशित हुई? किस प्रकाशन से।  इसका कोई भी विवरण नहीं दिया एक ईमेल एड्रेस था जिसका कोई भरोसा नहीं होता एक कब दिया जाए और कब हटा दिया जाए और कौन से जवाब देता है या नहीं देता है लेकिन पत्रिका के नाम पर इतना बड़ा मजाक मैंने अपनी जिंदगी में पहली बार देखा और इससे सबक भी मिला कि पैसे लेकर पुस्तक के छपने वाले कितने बड़े व्यापारी होते हैं । और इसको वह अपनी आमदनी का एक साधन बना लेते हैं इन्होंने सारा कलेक्शन एक फोन नंबर पर लिया था और नहीं मालूम कि उसे अकाउंट से जैसा कि आजकल हो रहा है उन्होंने सारा पैसा निकाल के वह अकाउंट बंद कर दिया और फिर नए आलेख को लेकर कोई और नया अकाउंट खोला जाए या कुछ और किया जाए अगर ऐसा कुछ हुआ तो आगे विवरण के अनुसार लेकिन यह सब लोगों से आग्रह है कि इस तरह की चीजों से सावधान रहे।

सोमवार, 31 मार्च 2025

 मायके के चंद घंटे ! (3)

 

                                         उरई की संक्षिप्त यात्रा में सबसे ज्यादा प्रतीक्षित मुलाकात मुझे करनी थी अपने चाचाजी श्री रामशंकर द्रिवेदी जी से। कई बार वह भी कह चुके थे कि मिलना है , लेकिन जिस उद्देश्य से हम मिलना चाहते थे , उसे पूरा करने का समय नहीं मिला। मैं उनको बता चुकी थी कि मैं आ रही हूँ। उनकी कुछ अस्वस्थतावश हम दिन में नहीं मिल सके और मैं चाचीजी के घर चली गयी और वहां तो सारे दिन रहना ही था। अतः हमने समय शाम को मिलने का रखा। 

                                  हमारी मुलाकात तो पहले भी हो चुकी हैं, और हर बार मिलना हमें पापा और चाचा के ज़माने में ले जाता है। उनसे पुरानी यादें सुन कर लगता है कि मैं फिर उसी काल में पहुँच गयी हूँ। 

                              इतने बुजुर्ग होने पर भी उन पर माँ सरस्वती का वरद हस्त सदैव रहा है और आज भी उनकी सक्रियता नमनीय है। हमारे लिए वे प्रेरणा के स्रोत हैं। वे सुबह अस्वस्थ थे और शाम जब मैं पहुंची तो वे हमें अपनी आने वाली किताब की प्रूफ रीडिंग करते मिले। लैपटॉप या ऑनलाइन काम करने के वे अभ्यस्त नहीं है, इसलिए वे प्रिंट आउट से प्रूफ रीडिंग करते हैं। उनके चारों तरफ ईंट की दीवारों के साथ किताबों के दीवारे में खड़ी थीं। सिर्फ किताबें और किताबें लेकिन बहुत ही संयोजित। 

                             हमारे साथ बैठ कर वे अपने ज़माने की बातें हमें बताते रहे।  बांग्ला भाषा के प्रति उनका समर्पण कैसे हुआ? ये किस्सा भी उन्होंने हमें सुनाया कि जब वे कानपुर में पढ़ने के लिए गए तो उनका एक सहपाठी बंगाल से से था , जिसने उन्हें "बांग्ला कैसे सीखें " नामक किताब दी थी। एक हिंदी भाषी की कितनी रूचि होगी? उन्होंने ले तो ली लेकिन इस भाव से कौन पढ़ता है? फिर पता नहीं कौन सी प्रेरणा से उन्होंने उसे पढ़ा ही नहीं बल्कि पूरी तरह से आत्मसात कर लिया और फिर उनका शोध भी बांग्ला भाषा पर ही था। फिर भविष्य में भी उन्होंने बांग्ला भाषा की कितनी किताबों का अनुवाद किया और कार्य सतत रूप से जारी है। सबसे स्मरण रखने वाली बात ये हैं कि वह सहपाठी उन्हें फिर कभी मिला नहीं लेकिन अपने से जोड़ कर रखा है। यह प्रसंग मुझे बहुत ही स्मरणीय लगा। 

                           हमारी चर्चा में पुराने साहित्कारों की बैठकों और उनसे जुड़े संस्मरण भी रहे। अपने कॉलेज के सहकर्मियों चाहे वे वरिष्ठ हों या फिर कनिष्ठ, जिन्हें मैं भी जानती रही , के बारे में बातें होती रहीं। उन्हें भी बहुत अच्छा लगा क्योंकि घर के लोगों के रूटीन अलग होते हैं और मिलने आने वाले अपनों के साथ जो वार्ता होती है उसके विषय अच्छे होते हैं और फिर अतीत को जी लेने का सुख जो होता है वह बड़ा ही सुकून देता है। 

                          घर से छोटी बहन का फोन आना शुरू जो गया कि उनकी सहेली आशा आयी है और दीदी से मिलने के लिए बैठी है। हम चाचाजी से विदा लेकर चल दिए, आशा मेरा इन्तजार कर रही थी क्योंकि मैं ही उससे बहुत सालों से नहीं मिली थी। उसने कह दिया कि आज दीदी से मिलकर ही जाऊँगी।  मुझे तो याद नहीं अब लेकिन उसी ने बताया कि मैंने उसके हाईस्कूल के लिए होमसाइंस का टी सेट ( कपडे का बना टेबल क्लॉथ ,ट्रे कवर और टीकोज़ी) बनाई थी। वह समय कुछ और ही था। मैं निश्छल भाव से सबके कामों के लिए उपलब्ध होती थी। चाहे किसी बच्चे की टीचर की फेयरवेल के लिए कविता लिखनी हो या लेख लिखना हो। तब कोई अंकल आंटी वाली बात नहीं थी। पूरा मोहल्ला , माँ की सहेलियाँ हों या पापा के मित्र चाचाजी,चाचीजी थे और उरई की बेटियाँ बुआ। वैसे हमारी उरई में आज भी ये शेष है। मैं बुआ वालों के लिए बुआ हूँ और दीदी वालों के लिए दीदी। 

                           एक पूरे दिन को मैंने इसी तरह से खुले वातावरण में जी कर दूसरे दिन सुबह ही कानपूर के लिए निकल लिए। व्यस्तता थी इसीलिए काफी लोगों को बता ही नहीं पाई कि मैं आ रही हूँ। सबसे क्षमा के साथ फिर से आने का अवसर तलाशती हूँ।  

मायके के चंद घंटे (2)

      मायके के चंद घंटे (2)

 

                                मायके का सफर अभी ख़त्म नहीं हुआ था क्योंकि वह तो पहुँचने के कुछ घंटे बाद से सोने के बाद का समय था। दूसरे दिन हम लोगों को अपनी चाची के पास जाना था, जो कई महीनों बाद उरई वापस आयीं थी। हमें उनसे मिलना था। हमारे उरई जाने का मुख्य ध्येय अपनी चाची , भाई भाभी और भतीजी से मिलना ही था। 

                              मेरे लिए हर रिश्ता चाहे वह खून का हो या फिर दिल का हमेशा से महत्वपूर्ण रहा है। भले ही हमको उरई छोड़े हुए 45 वर्ष हो चुके हों लेकिन कुछ भी भूला या गुजरा हुआ नहीं लगता है। हमारी चाची हमारी ही हमउम्र हैं लेकिन उनकी शादी बहुत जल्दी हो गयी थी। हमारी उम्र के अनुरूप पटती बहुत थी। माँ-पापा ही उनके संरक्षक थे। वही हाल रहा कि दो चार दिन बाद चाची के पास बैठे होते हम। कहीं भी  जाना हो,  हम दो साथ साथ। तब लड़कियों का अकेले जाना सिर्फ कॉलेज तक अनुमत था। उसके बाद संरक्षक चाहिए सो मेरी चाची के पास लाइसेंस था और हम कहीं भी जाएँ, जब माँ  मेरे जाने के लिए पापा से पूछें तो वहीं सवाल और कौन जा रहा है? चाची का लाइसेंस आगे कर दिया जाता। पिक्चर हो , बाजार हो या फिर प्रदर्शनी ( तब उरई में प्रदर्शनी लगाती थी , हाँ  यही बोला जाता था। 

                              चाची से मिलना भी उतने ही साल बाद हो रहा था, जितने वर्ष बाद मैं उरई आयी थी। काऱण हमारे चाचाजी दो महीने पहले ही हम सब को छोड़ कर चले गए थे। उन्होंने या चाची ने कभी ये नहीं समझा कि हम उनकी बेटियाँ नहीं है। वही रिश्ता हमारे भाइयों के बीच है। यद्यपि दोनों भाई मेरी शादी के बाद पैदा हुए लेकिन रिश्ते तो रिश्ते हैं। हमें प्यार और इज्जत सभी से खूब मिलती है।  वे चाहे कहीं भी रहें लेकिन जुड़े हैं और हमेशा जुड़े रहेंगे। 

                              हमने सारा दिन चाची के साथ गुजारा। नयी पुरानी बातें , सुख-दुःख तो हम पहले से ही बाँटते रहे हैं। एक कष्ट उन्हें भी और मुझे भी कि उरई से धीरे धीरे डेरे उठ रहे हैं।  घर हैं या मकान हैं लेकिन उसमें अपने रहने वाले दूर बेटों के पास जाकर रहने को मजबूर हैं क्योंकि जब दो में से एक रह जाता है तो बच्चे उन्हें अकेले यहाँ रहने की अनुमति नहीं देते हैं। और आज के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में ये हमारे परिवार के संस्कार हैं कि बच्चों को इतनी फिक्र है। हम बच्चे दूर हों या फिर पास लेकिन अपने से बड़ों के संतुष्ट और सुरक्षित होने का अहसास एक निश्चिंतता का अहसास बहुत हैं। 

                           

मायके के चंद घंटे !

               

 

            मायके के चंद दिन हों या फिर चंद घंटे - कितना सुख देते हैं और कितने वर्षों पीछे ले जाकर एक बार फिर जीने का मौका देते हैं।  वही हुआ पिछले हफ़्ते ही हाँ दिन भी नहीं बस 40 घंटे गुजारे थे और जी लिया था वर्षों को। 

                                भाभी इस समय गुरुग्राम में थी, घर में ताला लगा था लेकिन चाबी मिल गयी, जिंदगी में पहली बार अपने ही घर में मैंने  तीन दो बहनों और पतिदेव सहित ताला खोल कर अंदर प्रवेश किया।  फिर भाभी की बताई जगहों से सब कुछ उठा कर चादर बदले और चाय बना कर पी। 

                                फिर दादा को , उनका नाम है विजय कुमार शर्मा, पता चला कि हम लोग आये हैं तो उन्होंने कहा कि मुझे रेखा से मिलना है क्योंकि मेरा जाना ही कम हो पाता है और इस बार तो करीब-करीब चार साल होने आ रहे थे, पहुँच ही गए, लेकिन तब भी कोरोना काम में भतीजे की शादी हुई थी तो कम लोगों ने ही शिरकत की थी। 

                               बताती चलूँ कि दादा कौन हैं ? हमने आँखे खोली तो दादा को देखा था , हमासे ज्यादा बड़े नहीं होंगे फिर दस साल बड़े होंगे। बचपन से दादा ही कहा और मैंने ही नहीं बल्कि उन्हें सब दादा ही कहते थे। किताबी डिग्रियाँ  भले ही न लीं हो लेकिन ज्ञान उन्हें बहुत था क्योंकि वे अख़बार वगैरह ध्यान से पढ़ते थे। हमारा परिवार आज भी वैसे ही प्रेम रखता है। दादा को उनका बेटा गाड़ी से छोड़ गया कि आप लोग बातें कीजिये मैं थोड़ी देर में आता हूँ। 

                             उरई छोड़ने तक यानि कि अपनी शादी तक हम उसी घर में थे और शादी भी दादा के घर से हुई थी। तब गेस्ट हाउस लेने की जरूरत नहीं होती थी। नीचे पूरा खाली कर दिया और ऊपर दादा परिवार सहित हो लिए। तब कोई अतिरिक्त देय नहीं था क्योंकि हमारा परिवार एक ही था। दादा ने बब्बा के साथ 'तेल और दाल मिल ' सभांलने लगे थे तो उनकी शादी भी जल्दी ही कर दी गयी। फिर भाभी भी आ गयीं और हम लोगों के लिए एक सहेली।भाभी के साथ खूब रामलीला देखी क्योंकि वैसे तो पापा जाने नहीं देते लेकिन बहू जा रही है तो साथ में जा सकते हैं। प्रदोष के व्रत में हम और भाभी ही मंदिर पूजा करने साथ जाते थे। कितना याद करूँ ? ये यादें तो  निकलती ही चली आ रहीं हैं। 

                             सारे तो नहीं लेकिन बड़ी सारी भतीजियाँ तो जुडी ही हैं। एक भतीजा स्वप्निल भट्ट वह भी जुड़ा है। बताती चलूँ कि स्वप्निल और मेरी बड़ी बेटी में सिर्फ आठ दिन का अंतर है। दादा के साथ बैठ कर बब्बा के ज़माने से लेकर पापा माँ सबको याद किया गया। अफ़सोस इस बात का है कि हमारी रानी भाभी 2012 में साथ छोड़ गयीं थीं। 

                             सबकी यादों में समय कहाँ गुजर गया पता ही नहीं चला लेकिन उन दो घंटों में वर्षों जी लिए थे।  दादा ने कहा कि तुम लोग कहाँ खाना बनाओगी चलो सब घर पर खाना बनेगा वहीं साथ में खाएंगे लेकिन कुछ हमारे साथ था तो हमने कहा कि ये बर्बाद हो जाएगा।