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सोमवार, 31 मार्च 2025

मायके के चंद घंटे !

               

 

            मायके के चंद दिन हों या फिर चंद घंटे - कितना सुख देते हैं और कितने वर्षों पीछे ले जाकर एक बार फिर जीने का मौका देते हैं।  वही हुआ पिछले हफ़्ते ही हाँ दिन भी नहीं बस 40 घंटे गुजारे थे और जी लिया था वर्षों को। 

                                भाभी इस समय गुरुग्राम में थी, घर में ताला लगा था लेकिन चाबी मिल गयी, जिंदगी में पहली बार अपने ही घर में मैंने  तीन दो बहनों और पतिदेव सहित ताला खोल कर अंदर प्रवेश किया।  फिर भाभी की बताई जगहों से सब कुछ उठा कर चादर बदले और चाय बना कर पी। 

                                फिर दादा को , उनका नाम है विजय कुमार शर्मा, पता चला कि हम लोग आये हैं तो उन्होंने कहा कि मुझे रेखा से मिलना है क्योंकि मेरा जाना ही कम हो पाता है और इस बार तो करीब-करीब चार साल होने आ रहे थे, पहुँच ही गए, लेकिन तब भी कोरोना काम में भतीजे की शादी हुई थी तो कम लोगों ने ही शिरकत की थी। 

                               बताती चलूँ कि दादा कौन हैं ? हमने आँखे खोली तो दादा को देखा था , हमासे ज्यादा बड़े नहीं होंगे फिर दस साल बड़े होंगे। बचपन से दादा ही कहा और मैंने ही नहीं बल्कि उन्हें सब दादा ही कहते थे। किताबी डिग्रियाँ  भले ही न लीं हो लेकिन ज्ञान उन्हें बहुत था क्योंकि वे अख़बार वगैरह ध्यान से पढ़ते थे। हमारा परिवार आज भी वैसे ही प्रेम रखता है। दादा को उनका बेटा गाड़ी से छोड़ गया कि आप लोग बातें कीजिये मैं थोड़ी देर में आता हूँ। 

                             उरई छोड़ने तक यानि कि अपनी शादी तक हम उसी घर में थे और शादी भी दादा के घर से हुई थी। तब गेस्ट हाउस लेने की जरूरत नहीं होती थी। नीचे पूरा खाली कर दिया और ऊपर दादा परिवार सहित हो लिए। तब कोई अतिरिक्त देय नहीं था क्योंकि हमारा परिवार एक ही था। दादा ने बब्बा के साथ 'तेल और दाल मिल ' सभांलने लगे थे तो उनकी शादी भी जल्दी ही कर दी गयी। फिर भाभी भी आ गयीं और हम लोगों के लिए एक सहेली।भाभी के साथ खूब रामलीला देखी क्योंकि वैसे तो पापा जाने नहीं देते लेकिन बहू जा रही है तो साथ में जा सकते हैं। प्रदोष के व्रत में हम और भाभी ही मंदिर पूजा करने साथ जाते थे। कितना याद करूँ ? ये यादें तो  निकलती ही चली आ रहीं हैं। 

                             सारे तो नहीं लेकिन बड़ी सारी भतीजियाँ तो जुडी ही हैं। एक भतीजा स्वप्निल भट्ट वह भी जुड़ा है। बताती चलूँ कि स्वप्निल और मेरी बड़ी बेटी में सिर्फ आठ दिन का अंतर है। दादा के साथ बैठ कर बब्बा के ज़माने से लेकर पापा माँ सबको याद किया गया। अफ़सोस इस बात का है कि हमारी रानी भाभी 2012 में साथ छोड़ गयीं थीं। 

                             सबकी यादों में समय कहाँ गुजर गया पता ही नहीं चला लेकिन उन दो घंटों में वर्षों जी लिए थे।  दादा ने कहा कि तुम लोग कहाँ खाना बनाओगी चलो सब घर पर खाना बनेगा वहीं साथ में खाएंगे लेकिन कुछ हमारे साथ था तो हमने कहा कि ये बर्बाद हो जाएगा।


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