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रविवार, 21 जून 2020

बालिका संरक्षण गृह क्यों संदिग्ध हैं ?

                    आज फिर वही खेल सामने आया और यह कोई पहली बार नहीं हुआ है । पूरा इतिहास है हमारे सामने  कि बाल संरक्षण गृह में रहने वाली नाबालिग बच्चियों में से 57 कोरोना पॉजिटिव पाई गयीं , ये कहीं जाती नहीं है फिर भी इससे लज्जाजनक बात तो ये है कि उन में से 2 नाबालिग बच्चियाँ  गर्भवती है और इनमें कहा जा रहा है कि दोनों बच्चियाँ आने से पहले से गर्भवती थीं । उनमें एक एच आईवी पॉजिटिव है और दूसरी हेपेटाइटिस सी से ग्रसित है । संबंधित अधिकारी इस विषय में चुप्पी साधे हैं तो एक प्रश्नचिह्न खड़ा है ।
         ये कानपुर की ही घटना है । इन 57 बच्चियों के भी परीक्षण की जरूरत है कि उनमें से कितनी अन्य संक्रमण की शिकार नहीं है ? इनको कहीं भेजा जाता है या फिर उनके शोषण के लिए वहाँ किसी को बुलाया जाता है । कौन कौन शामिल है ?  यहाँ बात कोरोना की ही नहीं है बल्कि इन बच्चियों के शोषण का है । संरक्षण गृह की संरक्षिका,  वहाँ का स्टाफ या फिर रसूख वाले लोगों के दबाव में बच्चियों का.शोषण किया जाता है । सरकारी नियंत्रण का क्या है ?
         अगस्त 2014 में  मुज्जफरपुर आश्रय गृह के बाद , अपने इतिहास को दुहराता  अगस्त , 2018 देवरिया आश्रय गृह का लड़कियों के होते यौन शोषण ने अब प्रश्न खड़ा कर दिया है कि क्या ये संवासिनी गृह , अनाथालय , बालिका सुधार गृह , नारी कल्याण केंद्र , वृद्धाश्रम , बाल संरक्षण गृह सब के सब ऐसे यौन शोषण  के ही अड्डे बने हुए हैं।  एक बार हुई घटना के बाद क्यों नहीं सबक लिया जाता है।  क्या गुनाह है उन लड़कियों का , वे सिर्फ अनाथ हैं या किसी जाने अनजाने अपराध में या साजिश में अपराधी घोषित हुईं ,  घर के अत्याचार से तंग आकर घर से भाग आईं  , लेकिन उन्हें इन सबसे कोई सरोकार न था। रसूख के चलते बच्चियों की मेडिकल रिपोर्ट साफ सुथरी दिखाई गयीं ।
                            कुछ साल पहले 2012 का इलाहबाद के बालिका संरक्षण गृह में नाबालिग बच्चियों के यौन शोषण की बात सामने आयी थी और उसके पीछे भी बहुत सारे प्रश्न खड़े हो गए थे लेकिन फिर आगे क्या हुआ ? इसके बारे में कोई भी पता नहीं है।  वहां की  वार्डेन अपने घर में रहती थी और बच्चियां पुरुष नौकरों के सहारे छोड़ दी जाती थीं। सरकारी संस्थाओं में ये हाल है कि वार्डेन के पद पर काम करने वाली महिला संरक्षण गृह से दूर अपने घर में सो रही है और बच्चियां पुरुषों के हवाले करके।  जिम्मेदार लोगों को सिर्फ और सिर्फ अपने वेतन से मतलब होता है। शायद  उनकी संवेदनाएं भी मर चुकी होती हैं।  प्रश्न यह है कि बच्चियों की संरक्षा का दायित्व महिलाओं को क्यों नहीं सौप गया था ? ऐसा किस्सा कानपुर में भी हुआ था , जब संवासिनी आश्रम छोड़ कर भागने लगती हैं तो फिर खलबली मच जाती है।   रसूखदार लोगों के चल रहे बाल गृह एक धंधा मात्र है सरकारी पैसे को हड़पने का और अपने काले धन को सफेद बनाने का।
                                   जून २०१६ को कानपु र के निकट रनियां में एक बाल संरक्षण गृह शांति देवी मेमोरियल  संस्था द्वारा संचालित  शिशु गृह एवं बाल गृह में से शिशु गृह में ५ बच्चियों की कुपोषण के कारण मौत हो गयी थी और तब उसको बंद करने का आदेश दिया गया था और बच्चियों को दूसरी जगह भेज दिया गया था।
                    बाल गृह में भी 23 अगस्त 2016 को 7 वर्षीय मासूम की मौत हो गयी।   यहाँ पर पालने वाले बच्चों के प्रति कौन जिम्मेदार होता है ? ये केंद्र बगैर निरीक्षण के कैसे चलते रहते हैं ? राज्य की भी कोई जिम्मेदारी होती है या नहीं। कितने आयोग चल रहे हैं ? मानव संसाधन मंत्रालय , महिला एवं बाल विकास मंत्रालय और भी कई परियोजनाओं के अन्तर्गत इस तरह की संस्थाएं को अनुदान मिलता है लेकिन इसके बाद क्या कोई उत्तरदायित्व नहीं बनता है कि वे जाने इन में पालने वाले या संरक्षित किये जाने वाले बच्चों का हाल क्या है ? उनके रहने , खाने और चिकित्सा व्यवस्था कैसी है ? एक टीम को इसके लिए नियुक्त किया जाना चाहिए जो समय समय पर इनका निरीक्षण करे। बशर्ते कि  वे भी इन संस्थाओं की तरह पैसा बनाने का काम न करते हों।                                                 
कैसा जीवन बिताती हैं ? --
                                   इन संरक्षण गृहों में वे कैसा जीवन बिताती हैं , ये जाने की न कोई महिला आयोग कभी जानने की कोशिश करता है और न ही सरकार का कोई भी विभाग ऐसा है।  उनसे गृहों में साफ सफाई , बाकी घरेलू  काम करवाए जाते हैं  , जबकि सरकार की तरफ से इन गृह संचालकों को एक मोटी रकम मिलती है इनके भरण पोषण के लिए। वह कहाँ जाती है ? इसका कोई हिसाब किताब कहीं माँगा जाता है या फिर रसूख वाले और दबंगों को ये काम दिया जाता है। इस काम में सिर्फ पुरुष ही दोषी हों ऐसा नहीं है बल्कि महिलाये भी ऊपर के अफसरों को खुश करने के लिए और अपनी आमदनी बनाये रखने के लिए लड़कियों को प्रयोग करती हैं।
                                                            आश्रम या गृह- समाज सेवा का प्रतीक माने जाते हैं  जैसे -- सरकारी नारी कल्याण केंद्र , वृद्धाश्रम , बाल सुधार केंद्र या बालिका सुधार गृह , अनाथालय , संवासिनी गृह और बाल संरक्षण गृह का नाम सुनकर ये ही लगता है।  लेकिन इनको चलाने वाले एनजीओ में होने वाली गतिविधियों से यही समझ आता है कि कुछ लोग जोड़ तोड़ कर सरकारी सहायता प्राप्त कर दुनियां का दिखावा करके एनजीओ खोल लेते हैं और फिर उसे बना लेते हैं अपनी मोटी आमदनी का एक साधन। सब कुछ कागजों पर चलता रहता है , जब तक कि कोई बड़ी वारदात सामने नहीं आती है।  उसके पीछे का खेल एक दिन सामने आता है।एक एनजीओ को तो मैं भी अपने ही देखते देखते करोड़पति होने की साक्षी हूँ बल्कि कहें हमारे घर से दो किमी की दूरी पर है। वर्षों में उसी के सामने से ऑफिस जाती रही हूँ और वह सिर्फ ईंटों से बने स्कूल के मालिक ने कुछ ही सालों में इंटर कॉलेज , फिर डिग्री कॉलेज और साथ ही संवासिनी आवास तक बना डाले और फिर जब संवासिनी की मौत हुई और उसपर की गयी लीपापोती ने सब कुछ सामने ला दिया।
                           ये सिर्फ एक एनजीओ की कहानी नहीं है बल्कि ऐसे कितने ही और मिलेंगे। ,ये तो निजी आश्रम तो बनाये ही इसी लिए जा रहे हैं कि  वह इनके नाम पर सरकारी अनुदान लेने की नीयत होती है।  साम दाम दंड भेद सब  अपना कर पैसे वाले बनाने का काम बहुत तेजी से चल निकला है। इन तथाकथित समाज सेवकों के दोनों हाथ में लड्डू होते हैं , समाज में प्रतिष्ठा , प्रशासन में हनक और हर महकमें में पैठ।  धन आने के रास्ते खुद बा खुद खुलते चले जाते हैं। इन पर सरकार का कोई अंकुश नहीं होता है क्योंकि मिलने वाले अनुदान में सरकारी विभागों का भी हिस्सा होता है और फिर कौन किससे हिसाब माँगेगा या फिर निरीक्षण करने आएगा।  सारी खाना पूरी कागजों पर होती रहती है।

अनुदान के बाद निरीक्षण 
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                           बाल संरक्षण गृह के नाम पर भी लोग अपना व्यवसाय चला रहे हैं। इसमें सभी शक के दायरे में नहीं आते हैं, लेकिन इन संरक्षण गृहो का जीवन अगर अंदर झांक कर कोई देखना चाहे तो संभव नहीं है और इसके लिए सहायक महिला आयोग , मानव संसाधन मंत्रालय , मानवाधिकार आयोग सब कहाँ सोते रहते हैं ? किसी की कोई भी जिम्मेदारी नहीं बनती है।  अगर संरक्षण गृह खोले गए हैं तो उनका  निरीक्षण भी उनका ही दायित्व बनता है।  एक दिन न सही महीनों और सालों में तो उन पर दृष्टिपात करना ही चाहिए।  वह हो इस लिए नहीं पाता  है क्योंकि पहुँच ही सारी कार्यवाही कागजों पर पूरी करवा देती है और फिर ये संरक्षण गृह यातना गृह बने होते हैं। इनका रख रखाव और साफ सफाई , खाना पीना सब कुछ ऐसा कि जिसे आम आदमी के खाने काबिल भी न हो। सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार कहा था कि उत्तर प्रदेश में महिला आयोग जैसी कोई चीज है भी या नहीं क्योंकि हर जगह अराजकता के बाद भी इस आयोग को कभी सक्रिय होते नहीं देखा जाता है।  निराश्रितों , संवासिनियों , अबोध बालिकाओं में संरक्षण किसका होता है ? इसके बारे में सिर्फ कागजात साक्षी होते हैं। 

 सरकार का दायित्व 
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        बीमार कर देने वाला वातावरण और बदबू और सीलन से भरे हुए कमरे जिनमें वह बच्चे कैसे जीते हैं ? ये जानने की कोई भी जरूरत नहीं समझता है। निजी एनजीओ की बात तो हम बाद में करेंगे पहले हम सरकारी सरंक्षण ग्रहों की बात कर लें।  इनमें से आये दिन संवासनियां मौका मिलते ही भाग जाती हैं।  बाल संरक्षण गृहों से भी बच्चों के भागने की खबर मिलती रहती है।  अगर यहाँ पर उन्हें वह वातावरण मिलता है जिसके लिए उनको भेजा गया है तो वे अनाथ या संरक्षणहीन बच्चे  क्यों भागेंगे ? सब जगह ऐसा होता हो ये मैं नहीं कह सकती लेकिन अव्यवस्था और विवादित रखरखाव् पर सरकार को दृष्टि तो रखनी ही चाहिए।  किसी को तो ये सब चीजें संज्ञान में रख कर इनके प्रति जिम्मेदार होना चाहिए।               
                   इतनी सारी अनियमितताओं के बाद भी किसी की नींद खुलती नहीं है।  सरकारें आती और जाती रहती हैं लेकिन ये सब उसी तरह से चलती रहती हैं क्योंकि सरकार इस बात से अवगत ही नहीं है कि  कहाँ कहाँ और कितना अनुदान जा रहा है।  विभागों में सब कुछ निश्चित है कि  कितने अनुदान पर कितने प्रतिशत देना होगा।  वहां से चेक जारी ही तब होता है जब आप अग्रिम राशि के रूप में उन्हें चेक दे दें।


शुक्रवार, 12 जून 2020

कभी यही हमारा जीवन था !

        जब से कोरोना वायरस का हमारे देश मेंं प्रवेश हुआ , एक साथ बहुत सारी चीजों के लिए सतर्क हो गए लेकिन हमारे ग्रामीण जीवन में किसी विशेष चीज को करने की आवश्यकता नहीं पड़ी क्योंकि उन सब चीजों को उन्होंने पहले ही अपना रखा है । अपने बचपन में या युवावस्था में अपने घरों में, अपने गाँँवों में यह सब चीजें हमने पहले से ही देखी है । यह चीजें हमारी संस्कृति में शायद हमारे जीवन में शामिल थीं ऋऔर हमारे आचरण को एक अलग दिशा देती थी। इससे हमें किसी और चीज से बचने की परहेज करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी, जिसे हम क्वॉरेंटाइन हैं।
        ..     क्वॉरेंटाइन हमारे ग्रामीण जीवन में हमारे माता-पिता के जीवन काल से ही चला आ रहा है :--

         व्यक्तिगत  क्वॉरेंटाइन :--

           हमारे घरों में प्रसव  होने पर ही प्रसूता को सबसे अलग कर दिया जाता था। उसे इस नाम से कभी नहीं समझा जाता था, कहा जाता था कि इस घर में सूतक लगा है । प्रसूता को सबसे अलग रखा जाता था , उसको कोई छू नहीं सकता था , साफ सफाई के लिए साथ ही किसी भी प्रकार के संक्रमण से बचाने के लिए प्रसूता और बच्चे के कमरे में  बराबर आग जला कर रखी जाती थी । विशेष  कार्य के लिए अगर कोई प्रसूता के पास जाता , उसे छूना होता तो बाहर आकर नहाना होता था।  हम  जानते हैं ये अवधि किसी घर में 12 दिन , किसी घर में सवा महीने तक प्रसूता रसोई या पूजा आदि कार्य नहीं कर सकती थी । ऐसा उसको शारीरिक आराम देने के लिए , उसको किसी संक्रमण से बचाने के लिए पहले से ही ये व्यवस्था बनाई गई थी ।  प्रसूता को गरम जड़ी बूटियों वाला पानी ही दिया जाता था । खाने में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए गरम ड्राई फ्रूट गुड़ के साथ लड्डू और कतली बना कर दिया जाता था ।

 परिवार का होम क्वॉरेंटाइन :-
 
               इसी तरह किसी परिवार में मृत्यु होने पर उस परिवार के घर में खाना पीना बनना वर्जित होता है और आस पड़ोस के लोग उन लोगों के लिए खाने-पीने की सामग्री बनाकर देते थे । इस दिशा में वह लोग उनके घर से कुछ नहीं लेते थे बल्कि उस परिवार के लोग दूसरों के यहाँँ प्रवेश नहीं करते हैं । उस समय भी एक तरह से उस परिवार को क्वॉरेंटाइन कर दिया जाता था। मृत्यु के इस काल को भी सूतक काल कहा जाता है। शांति हवन या तेरहवीं के पश्चात ही वे लोग  सामाजिक जीवन मैं शामिल हो पाते थे । चाहे जहाँँ भी,  चाहे जिस तरह भी मृत्यु क्यों न हुई हो,  घर में पूरी साफ सफाई की जाती थी -  जैसे कोरोना के रोगी को छूने की अनुमति नहीं होती है , उसी तरह दिवंगत के कपड़े , बिस्तर आदि  घर से बाहर फेंक दिया जाता है। घर की लिपाई पुताई शायद इसी उद्देश्य की जाती है कि किसी भी तरह का संक्रमण घर में ना रह जाए। दीवारों को चूने से पुताई की जाती थी और जमीन के कच्चे फर्श को गोबर और मिट्टी मिलाकर पोता जाता था जिससे सफाई बरकरार रहे पक्के मकानो में भी शव के हटते ही घर की धुलाई की जाती है ।

सोशल डिस्टेंसिंग :-

             जो आज के समय में आवश्यक मानी जा रही  है । वह हम सदियों से प्रयोग करते आ रहे  हैं। अजनबी आने वाले व्यक्ति को अभिवादन करके स्वागत करने की प्रथा हमारे यहां थी, लेकिन तब दूर से ही 'राम-राम', पाँय लागूँ , जय राम जी की ' कहकर होता था । फिर नमस्कार, प्रणाम आदि भी दूर से ही किया जाता था । चौपाल पर भी गाँव के लोग दूर दूर ही बैठते थे । ये उनके जीवन चर्या का अंग सदैव रहता था।

व्यक्तिगत सफाई :-

            कोरोना से बचने के लिए घर में घुसते ही सबसे पहले जूते चप्पल बाहर छोड़ना, फिर हाथ पैर मुंह धोना और बाहर की कपड़े उतार कर नहा कर ही अंदर प्रवेश करना जैसे आवश्यक है , उसी तरह से हमारे ग्रामीण परिवेश में आज भी और हमारे जीवन में पारंपरिक तौर पर कहीं से भी आने पर जूते चप्पल बाहर निकालना हाथ पैर मुंह धो के घर के अंदर प्रवेश करना आवश्यक है और इससे हमारी विभिन्न प्रकार के रोगों से बचत होती रही । जब पश्चिमी संस्कृति ने  हमारे जीवन में कदम रखा और हमने अपने को सुशिक्षित और सुसंस्कृत कहलाने के लिए अपनी पुरानी परंपराओं को तोड़ना शुरू कर दिया ताकि हम आधुनिक कहला सकें ।  पैर में चप्पल हर समय रहती है । जबकि पहले चप्पल घर में हर समय पहनना आवश्यक नहीं था । अभिवादन नमस्कार की जगह हाथ मिलाने ने ले लिया । इस प्रकार के कार्य हमने जब करने छोड़ दिए और हम प्रगतिशील कहलाने लगे तभी एक झटका लगा कोरोना के आने से हमको अपनी प्राचीन संस्कृति ग्रामीण संस्कृति याद आने लगी और हम फिर हाथ जोड़कर नमस्कार करें , अपने जूते चप्पल को बाहर छोड़ने हाथ पैर धो कर घर के अंदर प्रवेश करने की परंपरा को अपनाने लगे। हमारे लिए कुछ नया नहीं बल्कि हम तो यह सदियों से देखते और करते चले आ रहे हैं , कभी भी बगैर हाथ पैर धोए खाना खाने के लिए नहीं बैठा जाता और भोजन भी रसोई के पास जमीन में चटाई पर बैठकर , चौकी पर बैठकर खाते थे। तब हमें कभी भी किसी भी निसंक्रमण जरूरत नहीं पड़ी । हम सुरक्षित है और हमारे पूर्वजों की आयु 100 वर्ष तक की होती थी और उन्हें इसी प्रकार की कोई गंभीर बीमारी नहीं देखी गई।
कोरोना के कारण घर में कैद होकर रह गए , क्योंकि जिसे हम सामाजिक जीवन कहते हैं -- पार्टियाँँ , डाँस पार्टी,  होटल और रेस्तरां में जाकर लंच डिनर लेना ।  मॉल में जाकर शॉपिंग करना और शाम को खाना खाते हुए घर आना। बाहर खाना खाते हुए भले ही हम चम्मच से खाएं लेकिन वहाँँ  लोगों को कभी भी हाथ धोकर आते हुए नहीं देखा। टेबल पर अपने ऑर्डर को पूरा करने के लिए बैठे रहते हैं और फिर खाकर ही घर आते हैं । आज के लोगों का जीवन स्तर बन चुका था । लेकिन आज वह अपनों से मिलते हुए भी डरता है , पता नहीं कब क्या हो जाए ?

अंतिम क्रिया :--

              हमारी यह कल्पना हमारा शरीर पांच तत्वों से बना हुआ है और शव के  शवदाह करने से शरीर उन्हें उन्हें पंचतत्व में विलीन हो जाता है और उसकी अस्थियों को जल में प्रवाहित करके अपना कार्य पूर्ण किया जाता था  यह सिर्फ हिंदू संस्कृति की विशेषता और विश्वास था,  लेकिन इसको कोरोना ही नहीं बल्कि मरीजों को के शवदाह करने की बात सामने आई तो जो लोग शवों को दफनाते थे , वे भी सबको शवदाह गृह में जाकर अंतिम संस्कार कर रहे हैं । बल्कि अब तो शव छूने या उसके पास जाने की अनुमति नहीं होती है और कहीं-कहीं तो शव को लेने से इंकार कर देते हैं  यह विडंबना है उन लोगों की जो कि यदि अंतिम संस्कार सनातन धर्म के अनुसार नहीं होती है तो आत्मा भटकती रहती है।

गुरुवार, 4 जून 2020

विश्व पर्यावरण दिवस !

विश्व पर्यावरण दिवस !

   विश्व पर्यावरण दिवस की आवश्यकता संयुक्त राष्ट्र संघ ने महसूस की और इसी लिए प्रतिवर्ष 5 जून को इस दिवस को मनाने के लिए निश्चित किया गया । विश्व में लगभग 100 देश विश्व पर्यावरण दिवस मनाते हैं । धरती से हरियाली के स्थान पर बड़ी बड़ी बहुमंजिली इमारतें दिखाई दे रहीं हैं ।

         नेशनल हाईवे के निर्माण के नाम पर मीलों लंबे रास्ते एक कतरा छाँव से रहित है। पथिक पहले तो पैदल ही चलते थे पेड़ों के नीचे सुस्ताकर कुँए का शीतल जल पीकर आगे की रास्ता लेते थे । अब तो कुछ शेष नहीं तो अगर हम वृक्षों को नहीं रहने देंगे तो वह हमें कहाँ से और कैसे छाया देंगे?

      मानव सुख की कीमत
 
                               दिन पर दिन आगे बढ़ रही  हमारी वैज्ञानिक प्रगति और नए संसाधनों से हम सुख तो उठा रहे हैं, लेकिन अपने लिए पर्यावरण में विष भी घोल रहे हैं। हाँ हम ही घोल रहे हैं। प्रकृति के कहर से बचने के लिए हम अब कूलर को छोड़ कर किसी तरह से ए सी खरीद कर ठंडक का सुख उठाने लगे हैं, लेकिन उस ए सी  से निकलकर विपरीत दिशा में जाने वाली गैस उत्सर्जन से पर्यावरण को और प्रदूषित कर रहे हैं। सभी तो एसी नहीं लगवा  सकते हैं। लेकिन इससे उत्सर्जित होने वाली गैसें दूर दूर तक लगे पोधों को सुखाने के लिए पर्याप्त है । पेड़ों पर शरण न मिली तो पक्षी कहाँ जायेंगे । इस भयंकर गर्मी से और वृक्षों के लगातार कम होने से पशु और पक्षी भी अपने जीवन से हाथ धोते चले जा रहे हैं।

   खेतों का व्यावसायिक प्रयोग होने लगा है कुछ क्षणों का सुख समझ कर हम अपनी ही साल दर साल आजीविका देने वाले खेतों को बेच कर शहर में बसने का सपना पूरा करने लगे हैं लेकिन वो कितने दिन का सुख है। वे न भी बेचें तो हमारी सर्कार हाइवे और सड़क बनाने के नाम पर जबरन मुआवजा के नाम पर पैसे देकर खेतों को अधिकार में ले रहे है और उनके लिए कोई व्यवसाय भी नहीं होता है। 
 
    जिन खेतों में लहलहाती फसलें ,
     अब उन पर इमारतें उग रही हैं ।
                                   - अज्ञात
     ये पंक्तिया हमें आइना दिखा रही हैं ।
                        
          हम  लम्बे लम्बे भाषणों को सुनते चले आ रहे हैं और सरकार भी प्रकृति को बचाने के लिए मीटिंग करती है , लम्बे चौड़े प्लान बनाती है और फिर वह फाइलों में दब कर दम तोड़ जाते है क्योंकि शहर और गाँव से लगे हुए खेत और बाग़ अब अपार्टमेंट और फैक्ट्री लगाने के लिए उजाड़े  जाने लगे हैं।  अगर उनका मालिक नहीं भी बेचता है तो उनको इसके लिए विभिन्न तरीकों  से मजबूर कर दिया जाता है कि वे उनको बेच दें और मुआवजा लेकर हमेशा के लिए अपनी रोजी-रोटी और अपनी धरती माँ से नाता तोड़ लें। कुछ ख़ुशी से और कुछ मजबूर हो कर ऐसा कर रहे है। ऊँची ऊँची इमारतें और इन इमारतों में जितने भी हिस्से या फ्लैट बने होते हैं उतने ही ए सी लगे होते हैं , कभी कभी तो एक फ्लैट में दो से लेकर चार तक एसी होते हैं । उनकी क्षमता के अनुरूप उनसे गैस उत्सर्जित होती है और वायुमंडल में फैल जाती है । हम सौदा करते हैं अपने फायदे के लिए, लेकिन ये भूल रहे है कि हम उसी पर्यावरण में  विष घोल रहे है ,जिसमें उन्हें ही नहीं बल्कि हमें भी रहना है। उन्हें गर्मी से दो चार नहीं होना पड़ता है क्योंकि घर में एसी , कार में एसी और फिर ऑफिस में भी एसी । गर्मी से बचने के लिए वे ठंडक खरीद सकते हैं लेकिन एक गर्मी से मरते हुए प्राणी को जीवन नहीं दे सकते हैं। इस विषाक्त होते पर्यावरण को वे की भी कीमत लेकर शुद्ध नहीं कर सकते हैं।
               
    मोबाइल टावर : -

         मोबाइल के लिए टावर लगवाने का धंधा भी खूब तेजी से पनपा  और प्लाट , खेत और घर की छतों पर काबिज हो गए लोग बगैर ये जाने कि इसका जनसामान्य के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है ? उससे मिलने वाले लाभ को देखते हैं और फिर रोते भी हैं कि  ये गर्मी पता नहीं क्या करेगी ? इन टावरों निकलने वाली तरंगें स्वास्थ्य के लिए कितनी घातक है ? ये भी हर इंसान नहीं जानता है लेकिन जब इन टावरों में आग लगने लगी तो पूरी की पूरी बिल्डिंग के लोगों का जीवन दांव पर लग जाता है। इन बड़ी बड़ी बिल्डिंगों में पेड़ पौधे लगाने के बारे में कुछ ही लोग सोचते हैं और जो सोचते हैं वे छतों पर ही बगीचा  बना कर हरियाली  फैला रहे है।

      जैविक चिकित्सकीय कचरा :-
   
          पर्यावरण को दूषित करने वाला आज सर्वाधिक जैविक चिकित्सकीय कचरा बन रहा है । जिस तेजी से नर्सिंग होम खुलते चले जा रहे है , उतना ही कचरे का निष्कासन बढ़ रहा है । उसके निस्तारण के प्रति कोई भी सजग नहीं है । सिर्फ कुछ सौ रूपयों के पीछे ये कचरा निस्तारण करने वाली संस्थाओं को न देकर अस्पतालों के पीछे या थोड़ी दूर पर फेंक दिया जाता है । ये जीवन रक्षण केन्द्र है या बीमारी फैलाने का स्रोत ? इसमें घातक बीमारियों के फैलाने वाले तत्व भी होते हैं। जानवर इनको इधर उधर फैला देते हैं और वह वाहनों में फँस कर मीलों तक फैलतचला जाता  न है ।

                     हम औरों को दोष क्यों दें ? अगर हम बहुत बारीकी से देखें तो ये पायेंगे कि  हम पर्यावरण को किस तरह प्रदूषित कर रहे हैं और इसको कैसे रोक सकते हैं ? सिर्फ और सिर्फ अपने ही प्रयास से कुछ तो कर ही सकते हैं . यहाँ ये सोचने की जरूरत नहीं है कि और लोगों को चिंता नहीं है तो फिर हम ही क्यों करें? क्योंकि आपका घर और वातावरण आप ही देखेंगे न . चलिए कुछ सामान्य से प्रयास कर पर्यावरण दिवस पर उसको सार्थक बना ही लें क्योंकि हमको भी इसमें ही जीना है और इससे ज्यादा हम अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या देकर जाएँगे ?

* अगर हमारे घर में जगह है तो वहां नहीं तो जहाँ पर बेकार जमीन दिखे वहां पर पौधे लगाने के बारे में सोचें।  सरकार वृक्षारोपण के नाम पर बहुत कुछ करती है लेकिन वे सिर्फ खाना पूरी करते हैं और सिर्फ फाइलों में आंकड़े दिखाने के लिए। आप लगे हुए वृक्षों को सुरक्षित रखने के लिए प्रयास कर सकते है।

* अगर आपके पास खुली जगह है तो फिर गर्मियों में एसी चला कर सोने के स्थान पर बाहर  खुले में सोने का आनंद लेना सीखें तो फिर कितनी ऊर्जा और गैस उत्सर्जन से प्रकृति और पर्यावरण को बचाया जा सकता है .

*  डिस्पोजल वस्तुओं का प्रयोग करने से बेहतर होगा कि  पहले की तरह से धातु बर्तनों का प्रयोग किया जाए या फिर मिट्टी से बने पात्रों को , जो वास्तव में शुद्धता को कायम रखते हैं,  प्रयोग कर सकते हैं। वे प्रयोग के बाद भी पर्यावरण के लिए घातक नहीं होते हैं।

* अगर संभव है तो सौर ऊर्जा का प्रयोग करने का प्रयास किया जाय, जिससे हमारी जरूरत तो पूरी होती ही है और साथ ही प्राकृतिक ऊर्जा का सदुपयोग भी होता है।

* फल और सब्जी के छिलकों को बाहृर सड़ने  के लिए नहीं बल्कि उन्हें एक बर्तन में इकठ्ठा कर जानवरों को खिला दें . या फिर उनको एक बड़े गमले में मिट्टी  के साथ डालती जाएँ कुछ दिनों में वह खाद बन कर हमारे हमारे पौधों को जीवन देने लगेगा .

* गाड़ी जहाँ तक हो डीजल और पेट्रोल के साथ CNG और LPG से चलने के विकल्प वाली लें ताकि कुछ प्रदूषण को रोका जा सके। अगर थोड़े दूर जाने के लिए पैदल या फिर सार्वजनिक साधनों का प्रयोग करें तो पर्यावरण के हित में होगा और आपके हित में भी।

* अपने घर के आस पास अगर पार्क हो तो उसको हरा भरा बनाये रखने में सहयोग दें न कि  उन्हें उजाड़ने में . पौधे सूख रहे हों तो उनके स्थान पर आप पौधे लगा दें। सुबह शाम टहलने के साथ उनमें पानी भी डालने का काम कर सकते हैं , यह हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है।
          इस पर्यावरण दिवस को सार्धक बनाने के लिए जल संरक्षण दिवस , पृथ्वी दिवस , प्राकृतिक संपदा संरक्षण , वृक्षारोपण , कृषि योग्य भूमि की बिक्री निषेध को भी अपनाना होगा ।

बुधवार, 3 जून 2020

खिताबों की लूट है , लूट सके तो लूट ....!



            भई हम तो किसी काबिल नहीं , कमोबेश पचपन साल हो रहे है कलम उठाये हुए और मिला क्या ठेंगा ? फिर मिले भी क्यों ?  बड़ी सिद्धांतों वाले टके के तीन बिकते हैं ।
         या तो चलते पुर्जे हो या इतनी हिम्मत हो कि हर सभा, समारोह, गोष्ठियों में पहुँच जाओ और घूम घूम कर सबको अपना परिचय दो और एक आध किताब छपवा कर सबको बाँटो , फिर उसी किताब से कुछ रचनाओं को अलग करके एक किताब और छपवा लो । कुल मिलाकर खेल पैसे का है । दो पैसे देकर नामी गिरामी नेता टाइप कलमकारों को बुला लो । दूसरी किताब आ गई । चार लोग जान गये तो अपनी संस्था बना लो।
           कुछ विश्वविद्यालय तो पैसे लेकर मानद उपाधि भी देने लगे । उपलब्धियों की बात नहीं है । बात तो जुगाड़ की है , सो चौकस होना चाहिए । टेंट में हो रुपइया तो चाहे जो खरीदो । एकदम बाढ़ सी आ गई , जो देखो डॉक्टर लगाये घूम रहा है। एक डॉक्टर साहब मिले एक मौके पर बोलने खड़े और गाँधीजी के तीन बंदरों को भूल गये और बोल गये बुरा न बोलो, बुरा न सुनो और बुरा न कहो । बच्चे मुँह दबा कर हँस रहे थे । पर डॉक्टर साहब गलत तो हो ही नहीं सकते । एक डॉक्टर साहिबा हैं , एक समारोह में हाथ फटकार फटकार कर कविता पाठ कर रहीं थी और वह रही हमारी थी लेकिन कह तो न हीं सकते थे , सब कहते कि कौन खेत की मूली हो ? डॉक्टर साहिबा काबिल है और तुम जे मियाँ मसूर की दाल ।
   .   बेचारे शोध करने वाले तो चुल्लू भर पानी में डूब मरें ( अगर मेहनत से किया हो ।) आइआइटी जैसी संस्था हो तो शोध में सात साल भी लग जाते है और फिर भी वो डॉ. नहीं लगाते हैं । सबके नाम के आगे प्रो. ही लगा होता है।
        बेचारे चिकित्सा क्षेत्र वाले भी चाहे जितनी डिग्री जोड़ लें , कहा उन्हें  वही डॉ. ही जायेगा । अब तो वही कहेंगे सब धान बाइस पसेरी । ये भी पता नहीं कि खरीदी या मानद उपाधियाँ नाम से पहले नहीं लगाते ।
        कुछ साल पहले शोध ग्रंथ ठेके पर लिखे जाते थे । गाइड ने पैसे लिए और शोधग्रंथ तैयार करवा कर हस्ताक्षर कर दिए और उपाधि किसी और को मिल गई ।
            हाँ तो जब सोशल मीडिया का जोर हुआ तो ढेर सारे समूह बने और प्रमाण पत्र बाँटने का चलन शुरू हो गया । हर दूसरे व्यक्ति के पास कई कई समूहों के सम्मान पत्र चेंपे मिल जाते है।
        अब ये जो कोरोना फैला तो फिर सेवा करने वाले तो कितने सेवा करते करते चल बसे लेकिन कोरोना वॉरियर्स का तमगा लेने के लिए बचे ही नहीं । ये लिखने वाले घर में बैठे लिख दिए दो चार लेख और जीत लिए कोरोना वॉरियर्स का खिताब । जलन इस लिए हो रही कि हम तो खूब लिखे कौनो पूछन न आया । दो-दो हजार दें तो एक नहीं कंई संस्था कोरोना वॉरियर्स बनाने को तैयार बैठी हैं। अब क्या कहें न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी ।
      फ्री राशन की तरह कहीं बँट रहे हों तो सूचित किया जाय । दो घंटे लाइन में लग कर ले लेंगे और फिर चेंपेंगे नहीं गले में लटका कर घूमेंगे । भाई बंधु जरा ध्यान रखना नहीं तो ऊपर जाकर क्या मुँह दिखायेंगे ? बेइज्जती तो आप सब की भी होगी कि पैसे देकर किताब में शामिल हुए और कई बार हुए और कोई रसीद तक न लगा पाये । गुमनाम चले गये ।