जब से कोरोना वायरस का हमारे देश मेंं प्रवेश हुआ , एक साथ बहुत सारी चीजों के लिए सतर्क हो गए लेकिन हमारे ग्रामीण जीवन में किसी विशेष चीज को करने की आवश्यकता नहीं पड़ी क्योंकि उन सब चीजों को उन्होंने पहले ही अपना रखा है । अपने बचपन में या युवावस्था में अपने घरों में, अपने गाँँवों में यह सब चीजें हमने पहले से ही देखी है । यह चीजें हमारी संस्कृति में शायद हमारे जीवन में शामिल थीं ऋऔर हमारे आचरण को एक अलग दिशा देती थी। इससे हमें किसी और चीज से बचने की परहेज करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी, जिसे हम क्वॉरेंटाइन हैं।
.. क्वॉरेंटाइन हमारे ग्रामीण जीवन में हमारे माता-पिता के जीवन काल से ही चला आ रहा है :--
व्यक्तिगत क्वॉरेंटाइन :--
हमारे घरों में प्रसव होने पर ही प्रसूता को सबसे अलग कर दिया जाता था। उसे इस नाम से कभी नहीं समझा जाता था, कहा जाता था कि इस घर में सूतक लगा है । प्रसूता को सबसे अलग रखा जाता था , उसको कोई छू नहीं सकता था , साफ सफाई के लिए साथ ही किसी भी प्रकार के संक्रमण से बचाने के लिए प्रसूता और बच्चे के कमरे में बराबर आग जला कर रखी जाती थी । विशेष कार्य के लिए अगर कोई प्रसूता के पास जाता , उसे छूना होता तो बाहर आकर नहाना होता था। हम जानते हैं ये अवधि किसी घर में 12 दिन , किसी घर में सवा महीने तक प्रसूता रसोई या पूजा आदि कार्य नहीं कर सकती थी । ऐसा उसको शारीरिक आराम देने के लिए , उसको किसी संक्रमण से बचाने के लिए पहले से ही ये व्यवस्था बनाई गई थी । प्रसूता को गरम जड़ी बूटियों वाला पानी ही दिया जाता था । खाने में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए गरम ड्राई फ्रूट गुड़ के साथ लड्डू और कतली बना कर दिया जाता था ।
परिवार का होम क्वॉरेंटाइन :-
इसी तरह किसी परिवार में मृत्यु होने पर उस परिवार के घर में खाना पीना बनना वर्जित होता है और आस पड़ोस के लोग उन लोगों के लिए खाने-पीने की सामग्री बनाकर देते थे । इस दिशा में वह लोग उनके घर से कुछ नहीं लेते थे बल्कि उस परिवार के लोग दूसरों के यहाँँ प्रवेश नहीं करते हैं । उस समय भी एक तरह से उस परिवार को क्वॉरेंटाइन कर दिया जाता था। मृत्यु के इस काल को भी सूतक काल कहा जाता है। शांति हवन या तेरहवीं के पश्चात ही वे लोग सामाजिक जीवन मैं शामिल हो पाते थे । चाहे जहाँँ भी, चाहे जिस तरह भी मृत्यु क्यों न हुई हो, घर में पूरी साफ सफाई की जाती थी - जैसे कोरोना के रोगी को छूने की अनुमति नहीं होती है , उसी तरह दिवंगत के कपड़े , बिस्तर आदि घर से बाहर फेंक दिया जाता है। घर की लिपाई पुताई शायद इसी उद्देश्य की जाती है कि किसी भी तरह का संक्रमण घर में ना रह जाए। दीवारों को चूने से पुताई की जाती थी और जमीन के कच्चे फर्श को गोबर और मिट्टी मिलाकर पोता जाता था जिससे सफाई बरकरार रहे पक्के मकानो में भी शव के हटते ही घर की धुलाई की जाती है ।
सोशल डिस्टेंसिंग :-
जो आज के समय में आवश्यक मानी जा रही है । वह हम सदियों से प्रयोग करते आ रहे हैं। अजनबी आने वाले व्यक्ति को अभिवादन करके स्वागत करने की प्रथा हमारे यहां थी, लेकिन तब दूर से ही 'राम-राम', पाँय लागूँ , जय राम जी की ' कहकर होता था । फिर नमस्कार, प्रणाम आदि भी दूर से ही किया जाता था । चौपाल पर भी गाँव के लोग दूर दूर ही बैठते थे । ये उनके जीवन चर्या का अंग सदैव रहता था।
व्यक्तिगत सफाई :-
कोरोना से बचने के लिए घर में घुसते ही सबसे पहले जूते चप्पल बाहर छोड़ना, फिर हाथ पैर मुंह धोना और बाहर की कपड़े उतार कर नहा कर ही अंदर प्रवेश करना जैसे आवश्यक है , उसी तरह से हमारे ग्रामीण परिवेश में आज भी और हमारे जीवन में पारंपरिक तौर पर कहीं से भी आने पर जूते चप्पल बाहर निकालना हाथ पैर मुंह धो के घर के अंदर प्रवेश करना आवश्यक है और इससे हमारी विभिन्न प्रकार के रोगों से बचत होती रही । जब पश्चिमी संस्कृति ने हमारे जीवन में कदम रखा और हमने अपने को सुशिक्षित और सुसंस्कृत कहलाने के लिए अपनी पुरानी परंपराओं को तोड़ना शुरू कर दिया ताकि हम आधुनिक कहला सकें । पैर में चप्पल हर समय रहती है । जबकि पहले चप्पल घर में हर समय पहनना आवश्यक नहीं था । अभिवादन नमस्कार की जगह हाथ मिलाने ने ले लिया । इस प्रकार के कार्य हमने जब करने छोड़ दिए और हम प्रगतिशील कहलाने लगे तभी एक झटका लगा कोरोना के आने से हमको अपनी प्राचीन संस्कृति ग्रामीण संस्कृति याद आने लगी और हम फिर हाथ जोड़कर नमस्कार करें , अपने जूते चप्पल को बाहर छोड़ने हाथ पैर धो कर घर के अंदर प्रवेश करने की परंपरा को अपनाने लगे। हमारे लिए कुछ नया नहीं बल्कि हम तो यह सदियों से देखते और करते चले आ रहे हैं , कभी भी बगैर हाथ पैर धोए खाना खाने के लिए नहीं बैठा जाता और भोजन भी रसोई के पास जमीन में चटाई पर बैठकर , चौकी पर बैठकर खाते थे। तब हमें कभी भी किसी भी निसंक्रमण जरूरत नहीं पड़ी । हम सुरक्षित है और हमारे पूर्वजों की आयु 100 वर्ष तक की होती थी और उन्हें इसी प्रकार की कोई गंभीर बीमारी नहीं देखी गई।
कोरोना के कारण घर में कैद होकर रह गए , क्योंकि जिसे हम सामाजिक जीवन कहते हैं -- पार्टियाँँ , डाँस पार्टी, होटल और रेस्तरां में जाकर लंच डिनर लेना । मॉल में जाकर शॉपिंग करना और शाम को खाना खाते हुए घर आना। बाहर खाना खाते हुए भले ही हम चम्मच से खाएं लेकिन वहाँँ लोगों को कभी भी हाथ धोकर आते हुए नहीं देखा। टेबल पर अपने ऑर्डर को पूरा करने के लिए बैठे रहते हैं और फिर खाकर ही घर आते हैं । आज के लोगों का जीवन स्तर बन चुका था । लेकिन आज वह अपनों से मिलते हुए भी डरता है , पता नहीं कब क्या हो जाए ?
अंतिम क्रिया :--
हमारी यह कल्पना हमारा शरीर पांच तत्वों से बना हुआ है और शव के शवदाह करने से शरीर उन्हें उन्हें पंचतत्व में विलीन हो जाता है और उसकी अस्थियों को जल में प्रवाहित करके अपना कार्य पूर्ण किया जाता था यह सिर्फ हिंदू संस्कृति की विशेषता और विश्वास था, लेकिन इसको कोरोना ही नहीं बल्कि मरीजों को के शवदाह करने की बात सामने आई तो जो लोग शवों को दफनाते थे , वे भी सबको शवदाह गृह में जाकर अंतिम संस्कार कर रहे हैं । बल्कि अब तो शव छूने या उसके पास जाने की अनुमति नहीं होती है और कहीं-कहीं तो शव को लेने से इंकार कर देते हैं यह विडंबना है उन लोगों की जो कि यदि अंतिम संस्कार सनातन धर्म के अनुसार नहीं होती है तो आत्मा भटकती रहती है।
.. क्वॉरेंटाइन हमारे ग्रामीण जीवन में हमारे माता-पिता के जीवन काल से ही चला आ रहा है :--
व्यक्तिगत क्वॉरेंटाइन :--
हमारे घरों में प्रसव होने पर ही प्रसूता को सबसे अलग कर दिया जाता था। उसे इस नाम से कभी नहीं समझा जाता था, कहा जाता था कि इस घर में सूतक लगा है । प्रसूता को सबसे अलग रखा जाता था , उसको कोई छू नहीं सकता था , साफ सफाई के लिए साथ ही किसी भी प्रकार के संक्रमण से बचाने के लिए प्रसूता और बच्चे के कमरे में बराबर आग जला कर रखी जाती थी । विशेष कार्य के लिए अगर कोई प्रसूता के पास जाता , उसे छूना होता तो बाहर आकर नहाना होता था। हम जानते हैं ये अवधि किसी घर में 12 दिन , किसी घर में सवा महीने तक प्रसूता रसोई या पूजा आदि कार्य नहीं कर सकती थी । ऐसा उसको शारीरिक आराम देने के लिए , उसको किसी संक्रमण से बचाने के लिए पहले से ही ये व्यवस्था बनाई गई थी । प्रसूता को गरम जड़ी बूटियों वाला पानी ही दिया जाता था । खाने में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए गरम ड्राई फ्रूट गुड़ के साथ लड्डू और कतली बना कर दिया जाता था ।
परिवार का होम क्वॉरेंटाइन :-
इसी तरह किसी परिवार में मृत्यु होने पर उस परिवार के घर में खाना पीना बनना वर्जित होता है और आस पड़ोस के लोग उन लोगों के लिए खाने-पीने की सामग्री बनाकर देते थे । इस दिशा में वह लोग उनके घर से कुछ नहीं लेते थे बल्कि उस परिवार के लोग दूसरों के यहाँँ प्रवेश नहीं करते हैं । उस समय भी एक तरह से उस परिवार को क्वॉरेंटाइन कर दिया जाता था। मृत्यु के इस काल को भी सूतक काल कहा जाता है। शांति हवन या तेरहवीं के पश्चात ही वे लोग सामाजिक जीवन मैं शामिल हो पाते थे । चाहे जहाँँ भी, चाहे जिस तरह भी मृत्यु क्यों न हुई हो, घर में पूरी साफ सफाई की जाती थी - जैसे कोरोना के रोगी को छूने की अनुमति नहीं होती है , उसी तरह दिवंगत के कपड़े , बिस्तर आदि घर से बाहर फेंक दिया जाता है। घर की लिपाई पुताई शायद इसी उद्देश्य की जाती है कि किसी भी तरह का संक्रमण घर में ना रह जाए। दीवारों को चूने से पुताई की जाती थी और जमीन के कच्चे फर्श को गोबर और मिट्टी मिलाकर पोता जाता था जिससे सफाई बरकरार रहे पक्के मकानो में भी शव के हटते ही घर की धुलाई की जाती है ।
सोशल डिस्टेंसिंग :-
जो आज के समय में आवश्यक मानी जा रही है । वह हम सदियों से प्रयोग करते आ रहे हैं। अजनबी आने वाले व्यक्ति को अभिवादन करके स्वागत करने की प्रथा हमारे यहां थी, लेकिन तब दूर से ही 'राम-राम', पाँय लागूँ , जय राम जी की ' कहकर होता था । फिर नमस्कार, प्रणाम आदि भी दूर से ही किया जाता था । चौपाल पर भी गाँव के लोग दूर दूर ही बैठते थे । ये उनके जीवन चर्या का अंग सदैव रहता था।
व्यक्तिगत सफाई :-
कोरोना से बचने के लिए घर में घुसते ही सबसे पहले जूते चप्पल बाहर छोड़ना, फिर हाथ पैर मुंह धोना और बाहर की कपड़े उतार कर नहा कर ही अंदर प्रवेश करना जैसे आवश्यक है , उसी तरह से हमारे ग्रामीण परिवेश में आज भी और हमारे जीवन में पारंपरिक तौर पर कहीं से भी आने पर जूते चप्पल बाहर निकालना हाथ पैर मुंह धो के घर के अंदर प्रवेश करना आवश्यक है और इससे हमारी विभिन्न प्रकार के रोगों से बचत होती रही । जब पश्चिमी संस्कृति ने हमारे जीवन में कदम रखा और हमने अपने को सुशिक्षित और सुसंस्कृत कहलाने के लिए अपनी पुरानी परंपराओं को तोड़ना शुरू कर दिया ताकि हम आधुनिक कहला सकें । पैर में चप्पल हर समय रहती है । जबकि पहले चप्पल घर में हर समय पहनना आवश्यक नहीं था । अभिवादन नमस्कार की जगह हाथ मिलाने ने ले लिया । इस प्रकार के कार्य हमने जब करने छोड़ दिए और हम प्रगतिशील कहलाने लगे तभी एक झटका लगा कोरोना के आने से हमको अपनी प्राचीन संस्कृति ग्रामीण संस्कृति याद आने लगी और हम फिर हाथ जोड़कर नमस्कार करें , अपने जूते चप्पल को बाहर छोड़ने हाथ पैर धो कर घर के अंदर प्रवेश करने की परंपरा को अपनाने लगे। हमारे लिए कुछ नया नहीं बल्कि हम तो यह सदियों से देखते और करते चले आ रहे हैं , कभी भी बगैर हाथ पैर धोए खाना खाने के लिए नहीं बैठा जाता और भोजन भी रसोई के पास जमीन में चटाई पर बैठकर , चौकी पर बैठकर खाते थे। तब हमें कभी भी किसी भी निसंक्रमण जरूरत नहीं पड़ी । हम सुरक्षित है और हमारे पूर्वजों की आयु 100 वर्ष तक की होती थी और उन्हें इसी प्रकार की कोई गंभीर बीमारी नहीं देखी गई।
कोरोना के कारण घर में कैद होकर रह गए , क्योंकि जिसे हम सामाजिक जीवन कहते हैं -- पार्टियाँँ , डाँस पार्टी, होटल और रेस्तरां में जाकर लंच डिनर लेना । मॉल में जाकर शॉपिंग करना और शाम को खाना खाते हुए घर आना। बाहर खाना खाते हुए भले ही हम चम्मच से खाएं लेकिन वहाँँ लोगों को कभी भी हाथ धोकर आते हुए नहीं देखा। टेबल पर अपने ऑर्डर को पूरा करने के लिए बैठे रहते हैं और फिर खाकर ही घर आते हैं । आज के लोगों का जीवन स्तर बन चुका था । लेकिन आज वह अपनों से मिलते हुए भी डरता है , पता नहीं कब क्या हो जाए ?
अंतिम क्रिया :--
हमारी यह कल्पना हमारा शरीर पांच तत्वों से बना हुआ है और शव के शवदाह करने से शरीर उन्हें उन्हें पंचतत्व में विलीन हो जाता है और उसकी अस्थियों को जल में प्रवाहित करके अपना कार्य पूर्ण किया जाता था यह सिर्फ हिंदू संस्कृति की विशेषता और विश्वास था, लेकिन इसको कोरोना ही नहीं बल्कि मरीजों को के शवदाह करने की बात सामने आई तो जो लोग शवों को दफनाते थे , वे भी सबको शवदाह गृह में जाकर अंतिम संस्कार कर रहे हैं । बल्कि अब तो शव छूने या उसके पास जाने की अनुमति नहीं होती है और कहीं-कहीं तो शव को लेने से इंकार कर देते हैं यह विडंबना है उन लोगों की जो कि यदि अंतिम संस्कार सनातन धर्म के अनुसार नहीं होती है तो आत्मा भटकती रहती है।
Bhut bdiya,mam
जवाब देंहटाएंआभार।
हटाएंअच्छे उदाहरण दिए हैं आपने ... कई बात ख़ुद की परम्पराओं में झांकना सही होता है ... जिसका सतत प्रयास होते रहना चाहिए .।
जवाब देंहटाएंआभार।
हटाएंपरम्पराएँ समयानुकूल ही बनती है। और हर परम्परा का कोई न कोई औचित्य ज़रूर होता है। सूतक के समय जो काम निषिद्ध होते हैं वह वैज्ञानिक रूप से सही है लेकिन कुछ परम्पराओं को समय के साथ बदलना ज़रूरी था, इसलिए बदलाव हुआ। पहले प्रसव घर में होता था, मृत्यु घर में तो यह संभव था। मकान, रसोईघर, बाथरूम, कार्यस्थल, दालान सब कुछ में परिवर्तन हुआ।ऐसे में सबकुछ पुराना अपनाना कठिन है। बहरहाल कोरोना ने उन दिनों को याद दिलाया है। बहुत अच्छा आलेख। बधाई।
जवाब देंहटाएंआभार !
हटाएंतथ्यों पर आधारित सारगर्भित आलेख।
जवाब देंहटाएंआभार !
जवाब देंहटाएंबुआ जी, कोरोना ने सबको सनातन संस्कृति की तरफ मोड़ दिया है.
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कहा है आपने ,कल के नियम कायदे आदतें आज की जरूरत बन गए हैं , ये भी सही है कि आज भी कई जगह इसका पालन किया जाता है , सारगर्भित बहुत ही सुन्दर आलेख दीदी ,शुभ प्रभात
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