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शनिवार, 29 नवंबर 2014

अपराध और टीवी !

 
                               मैं इस बात को स्वीकार करती हूँ कि मुझे टीवी पर सावधान इण्डिया , क्राइम पेट्रोल और पुलिस फाइल से आने वाले सच्ची घटनाओं पर आधारित सीरियल देखने में रूचि है और इसके लिए मैं अपने  से जुड़े लोगों  की तमाम दलीलें सुनती हूँ कि इससे अपराध बढ़ते हैं और लोगों को अपराध करने के नए नए तरीकों की जानकारी होती है और अपराध का ग्राफ इससे ही बढ़ रहा है , लेकिन मेरी राय इसके ठीक विपरीत है। 
                            वैसे तो युवा पीढ़ी इन  कार्यक्रमों में कम ही रूचि रखता है और जरूरी नहीं है कि हम उसका गलत पक्ष से ही सीख लें।  उन सबसे कुछ सतर्क होने की दिशा भी तो मिलती है बल्कि वो हमें सबसे ज्यादा मिलती है।  कम से कम हम जैसे लोग कुछ सकारात्मक खोजना चाहते हैं और वो उसी तरह से मिल जाता है जिस दृष्टि से हम उसको देखते हैं।  मैंने बहुत महीनों के अवलोकन और विश्लेषण के बाद कुछ तथ्यों पर विचार किया कि  कैसे हम अपराध में लिप्त लोगों से या फिर होने वाले फ्रॉड से बच सकते हैं ? यह हम अगर समाज का सर्वे करें तब भी इतने सारे मामलों को इकठ्ठा करके निष्कर्ष नहीं ले पाएंगे।  
                             ये बात सच है कि ये सब वे मामले हैं जो पूरे देश से लिए जाते हैं और  शरीफ नागरिक के लिए इनसे बारे में कम  से कम  जानकारी होनी चाहिए . अपराधी किस्म के लोग इससे अपराध के लिए प्रेरित होते हैं लेकिन जो सामान्य जन हैं उनको इससे अवगत होना जरूरी है ताकि वे अपने और अपने परिवार के विषय में सावधान तो रहें , सतर्कता के साथ अपने निर्णय लें . उन लोगों से भी  सावधान रहना होगा जो करीब होकर भी अपराध में लिप्त होकर अपने के लिए ही घातक सिद्ध हो सकते हैं . एक मध्यम वर्गीय नागरिक की अपनी अलग अलग सीमायें होती हैं और उनके जीवन की हदें में निश्चित रूप से न तो बहुत उच्च होती हैं और न ही निम्न होती हैं . वे अपने जीवन में परिवार के पालन पोषण के लिए संघर्ष करते रहते हैं और अपनी जिम्मेदारियों के प्रति बहुत ही समर्पित होते हैं . जीवन की भाग दौड़ में कभी कभी तो अपने आस पास के माहौल से भी पूरी तरह से वाकिफ नहीं होते हैं . वे अपराधों की किस्म से भी वाकिफ नहीं होते हैं और अपराधियों की चालों  से भी वाकिफ नहीं होते हैं . फिर भी  उन्हें इस विषय में अब सतर्क रहना होगा।  काम से काम अपने प्रयास से स्वयं की सुरक्षा पर ध्यान तो दे सकेंगे और सजग रहेंगे।  

                                                                                                                                     (क्रमशः )

गुरुवार, 27 नवंबर 2014

राशन की दुकानें।

          क्या यकीन करेंगे हमारी  सरकार द्वारा आवंटित राशन की दुकानें।  इसकी वास्तविकता सब जानते हैं उन्हें जितना भी सामान मिलता है उसमें सिर्फ BPL  राशन कार्ड रखने वाले ही सामान लेते हैं।  आप पूछेंगे कि मैं इतने विश्वास से कैसे कह सकती हूँ ? एक राशन की दूकान मेरे घर के बहुत करीब है।  मैं कई बार देखती हूँ कि जब हम सुबह मॉर्निंग वाक के लिए निकलते हैं तो चाहे सर्दी हो या गर्मी रात ४ बजे से मिटटी के तेल के लिए डिब्बों की लाइन लगी होती है और उपस्थित लोगों से ज्यादा होती है क्योंकि एक आदमी  कई कई डिब्बों की रखवाली कर रहा होता है क्योंकि कई महिलायें  रखकर घर के कामों में लगी होती हैं और दूसरों के घर काम करने वाली डिब्बा दूसरों की रखवाली में रखा कर काम करने जाती हैं और फिर काम ख़त्म करके आ जाती हैं . कई बार बच्चे खड़े होते हैं  और जब माँ आ जाती है  बच्चे स्कूल चले जाते हैं ।  दूकान ९ बजे खुलती है लेकिन इन्हें तो सामान चाहिए तो नींद ख़राब करके वहां खड़ा होना ही पड़ेगा।
                              

                                 
राशन की दुकानें जो महीने में २८ दिन बंद रहती हैं।

     ये दुकान महीने  में सिर्फ 10 और 21 तारिख को ही खुलती हैं और इसमें सैकड़ों कार्ड जुड़े हुए हैं।  इन लोगों को पता है कि मध्यम वर्गीय लोग राशन की दुकान में लाइन लगाने का समय नहीं रखते हैं सो उन्हें उनके हिस्से का आया हुआ सामान तो काला  बाजारी के लिए एक सबसे बड़ा साधन तो होता ही है।  फिर वे क्यों नहीं सप्ताह में दो दिन सामान वितरित करते हैं ? गरीबों को कब तक अपने हिस्से का सामान ही लेने के लिए भूखे प्यासे घंटों लाइन लगा कर खड़े रहना पड़ेगा ? ऐसा क्यों कर रहे हैं ये लोग ?   ईमानदारी से भी दें तब भी वे मिलवे ने वाले फायदे से वंचित नहीं होंगे।  
                                   
सुबह ४ बजे से खड़े राशन धारक 

                                       वे कहते है कि हमें कोटा लेने के लिए लाखों रुपये खर्च करने पड़ते हैं अगर इसी पर निर्भर रहेंगे तो अपने बाल बच्चे कैसे पालेंगे ? मुझे सरकारी नीतियों और उसको नियम कायदों की जानकारी नहीं है लेकिन इतना एक आम नागरिक होने के नाते कह सकती हूँ कि ऐसी दुकानों को सप्ताह में कम से कम २ दिन जरूर खुलने का आदेश होना चाहिए।  गरीबों को अपने हक़ से पेट भरने की जो सरकारी व्यवस्था है उसमें से तो इनका हक़ न मारा जाय।  

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

विश्व मधुमेह दिवस ! (14 Nov)

                                      आज से ५० साल पहले  जब हम बच्चे थे तो मधुमेह या डायबिटीज जैसे शब्द के बारे में सुना भी नहीं था बल्कि जब हाई स्कूल में होम साइंस में विभिन्न रोगों  के विषय में पढ़ा तो उसमें इस नाम  का कोई रोग न था।  वैसे ये भी कह सकते हैं कि मधुमेह तब लोगों में इतना नहीं था क्योंकि तब व्यक्ति अपने काम स्वयं  करता था और शारीरिक श्रम से ही सारे काम होते थे।  शहरों में और उच्च  मध्यम वर्गीय परिवारों में ही नौकर चाकर हुआ करते थे।  एक मध्यम वर्गीय परिवार में सारे काम पुरुष और महिलायें खुद ही किया करते थे। ऐसे परिवारों में पहले लोग बीमार भी कम ही हुआ करते थे।
                                      आज सम्पूर्ण विश्व की बात करें तो मधुमेह के रोगी तेजी से बढ़ रहे हैं और इसका रूप रोगी  के जीवन में इसके विषय  में आधी अधूरी जानकारी होने और नीम हकीम द्वारा दी गयी सलाहों के कारण  रोग की उपस्थिति अन्य शारीरिक अंगों को भी प्रभावित करता है। इस विषय में शोध करना और रोगियों ( मेरे घर में ही मौजूद हैं - भाई भाभी , पतिदेव , जेठ जी , बहनेंऔर मित्र आदि ) को आगाह करना अब स्वभाव में आ चूका है।  लेकिन कहते है न चिराग तले अँधेरा - वही हुआ भाई और भाभी दोनों ही अपने डॉक्टर से एक बार के बाद दुबारा गए ही नहीं।  वही एक दवा वह लेते रहे।  शुगर चेक करने की जहमत भी नहीं उठाते।  कभी एक बार रात में चेक की लेवल सही आया तो मान लिया कि हमारी तो हमेशा नियंत्रण में रहती है। उनसे पूरी जानकारी ली तो पता चला कि  जब उन्हें लगता है कि  उनकी शुगर बढ़ी हुई है तो आयुर्वेदिक दवा ले ली और कंट्रोल हो गयी तो बंद कर दी।
                                      मधुमेह के टाइप तो जाने दीजिये उन्हें तो सिर्फ मिथकों  से सरोकार रहा है , जो कि  हर दूसरा,  इंसान मधुमेह है  सुनकर, बताना शुरू कर  देता है।  इनमें तथ्य कितने होते हैं ये तो इनके बारे में जानकर ही बताया जा सकता है।
                                         वास्तव में मधुमेह क्यों हो  जाता है ? इसके बारे में जानना जरूरी है।
                  मधुमेह एक ऐसा रोग है जिसमें शरीर में इंसुलिन की कमी के कारण  खून में शुगर की मात्रा बढ़ जाती है।  शरीर में समुचित मात्रा में इन्सुलिन न बनने का कारण अग्नाशय का समुचित रूप से काम न कर पाना होता है ।  इस कमी को पूरा करने के लिए ही दवायें और जरूरत पड़ने पर इन्सुलिन भी दिया जाता। है  लेकिन  सबसे पहले हमारे समाज में कुछ मिथक इस बारे में प्रचलित है जो प्रामाणिक नहीं है जब कि तथ्य कुछ और होते हैं।  जिससे हम लोगों में से बहुत सारे लोग ग्रसित हैं और उसके विषय में स्पष्ट होना आवश्यक है।

१. :मिथक : मधुमेह बॉर्डर लाइन पर होने पर चिंता की कोई बात नहीं है।  ऐसा होना सामान्य बात है।

तथ्य : बॉर्डर लाइन डायबिटीज जैसी कोई स्थिति नहीं है बल्कि एक संकेत है आपके शरीर में इन्सुलिन का निर्माण कार्य बाधित हो रहा है और इसके लिए आप अपने खान पान में सुधार करके और अपनी दैनिक क्रियाकलापों में कुछ परिवर्तन करके आप मधुमेह को नियंत्रित करने में सफल हो सकते हैं।  आरंभिक स्थिति में ही इसको बढ़ने से रोक जा सकता है।

२. मिथक : अधिक मीठा खाने से ही मधुमेह होता है।

तथ्य : इसका कोई प्रमाण नहीं है  अत्यधिक मीठा खाना मधुमेह का कारण हो सकता है।  वास्तव में मधुमेह पारिवारिक इतिहास यानि परिवार में माता पिता या दादा दादी को मधुमेह होना , मोटापा , शारीरिक परिश्रम न करने वाली जीवनचर्या या खानपान की गलत आदतें होने से  हो सकता है।

३. मिथक : पौष्टिक भोजन करने से रक्त में ग्लूकोज नहीं बढ़ता है।

तथ्य : सभी खाद्य पदार्थों में अपने स्वभाव के अनुसार कार्बोहाइड्रेट होता है और अगर रक्त में इन्सुलिन पर्याप्त मात्र में होती है तो खाद्य पदार्थों से ग्रहण किया हुआ कार्बोहाइड्रेट रक्त में शुगर की मात्रा नहीं बढ़ने देता है।  लेकिन अगर इन्सुलिन का शरीर में कम निर्माण हो रहा है या पर्याप्त मात्रा में उसका उपयोग नहीं हो रहा है तो पौष्टिक भोजन से भी शुगर की मात्रा रक्त में बढ़ सकती है

४. मिथक :  मधुमेह के रोगियों के चावल नहीं खाने चाहिए।

तथ्य : स्टार्चयुक्त खाद्य पदार्थ भी स्वास्थ्यप्रद आहार के अंतर्गत आते हैं।  मधुमेह के रोगियों को चावल छोड़ने की जरूरत नहीं होती बल्कि उसको स्टार्च कम करके भी खाया जा सकता है।  इसके लिए चावल को पकाते समय अधिक मात्रा में पानी डालें और पकाने के बाद उसके पानी को निथार कर चावल निकाल लें।  ये चावल मधुमेह के रोगियों के लिए खाद्य हो सकता है।

५. मिथक : अनुवांशिकी न होने पर मधुमेह नहीं होता।

तथ्य : कई लोगों की यह भ्रान्ति रहती है कि उनके परिवार में किसी को मधुमेह नहीं था या है तो उनको यह हो ही नहीं सकता है।  ये सत्य है कि मधुमेह अनुवांशिक हो सकता है या कहें तो तब होने की सम्भावना बढ़ जाती है।  लेकिन व्यक्ति विशेष के खान पान , शारीरिक श्रम , मोटापा और तनाव मधुमेह की सम्भावना को बढाने वाले कारक होते हैं।

६. मिथक :  मधुमेह रोगियों को विशेष खाद्य पदार्थ खाने चाहिए

तथ्य  :  मधुमेह रोगियों को विशेष खाद्य पदार्थ खाने चाहिए ऐसा विशेष प्रतिबन्ध नहीं है , लेकिन खाने के अंतराल को निश्चित करके खाना चाहिए।  खाने के मध्य अधिक लम्बा अंतराल नहीं होना चाहिए।  साथ ही  जिन खाद्य पदार्थों में शुगर की मात्रा अधिक पायी जाती है जैसे केला , चुकन्दर , शकरकंद आदि के सेवन को सीमित मात्रा  और शक्कर का सीधा सेवन भी वर्जित होता है क्योंकि इनसे शरीर में जाने वाली शुगर रक्त में शुगर के स्तर को बढ़ा देता है जो रोग के लिए नुकसानदेह साबित होता है।

७. मिथक : डॉक्टर द्वारा इन्सुलिन लेने का परामर्श देने का अर्थ है की आपका रोग अनियंत्रित हो चुका है।

तथ्य :  मधुमेह का टाइप २ होने की  स्थिति में डॉक्टर इन्सुलिन लेने का परामर्श देता है लेकिन इसका अर्थ ये बिलकुल भी नहीं है कि आप पहली अवस्था में ठीक से  नियंत्रित नहीं कर सके हैं।  जब शरीर में  दवाओं द्वारा ग्लूकोज  स्तर बनाये रखना संभव नहीं होता है  तब  इन्सुलिन लेने का परामर्श दिया जाता है।  ये रक्त में ग्लूकोजकी मात्रा को नियंत्रित करता  है।  
                         इसके बारे में बहुत कुछ कहना है ,  हो सकता है कि आप इस बारे में जानकारी रखते हों लेकिन जो नहीं जानते उन्हें  तथ्यों  से अवगत जरूर कराएं !

शनिवार, 1 नवंबर 2014

३१ अक्टूबर '८४ की यादें !

                         

संकल्प दिवस पर शत शत नमन

                   वह दिन वाकई बहुत भयावह रहा था।  जब ये समाचार  कि ' इंदिरा गांधी को उनके अंगरक्षक ने गोलियां मारी हैं। ' मैंने सुना उस समय मैं कानपूर के एलिम्को संस्थान में अपने एम एड के लघु शोध के लिए कुछ किताबें लेने के लिए गयी थी।  वहां पर रेडियो पर न्यूज़ सुनी। सबसे पहले मन में यही विचार आया कि अब देश का क्या होगा? वहां से किताबें लेकर किसी तरह से घर आई। 
                           ऐसे समय में अफवाहों का बाजार किस तरह से गर्म होता है , ये अपने आँखों से देखा और वह दहशत भी झेली हम लोगों ने।  हम उस समय इंदिरा नगर में रहते थे और उस समय वहां पर सिर्फ एक सिख परिवार रहता था।  सब लोगों को डर था कि रात में उस परिवार पर हमला हो सकता है।  उनकी सुरक्षा के लिए इंदिरा नगर के लोग हर तरह से प्रतिबद्ध हुए।  सभी प्रवेश मार्गों पर लोगों की टोली ने अवरुद्ध कर रखा था।  तब मोबाइल नहीं ही थे लेकिन उनके घर की सुरक्षा पूरी थी। 
                          हम जिस घर में रहते थे , नीचे रहते थे और ऊपर मकान मालकिन अकेली रहती थी।  उन्होंने हम लोगों को परिवार सहित ऊपर बुला लिया था कि अगर कुछ होता भी है तो नीचे ज्यादा खतरा है और ऊपर से हम सामना कर सकते हैं।  बीच बीच में रह रह कर अफवाहों का बाजार गर्म हो उठता कि वे लोग ( दंगाई) इस रस्ते से आने की सोच रहे हैं।  हमारा संयुक्त परिवार था हम ९ लोग थे, ६ बड़े और ३ हमारी बेटियां।   कहीं और किसी के घर जा नहीं सकते थे।  बस रात का ही डर था क्योंकि हमले की  साजिश रात में ही रची जाती थी।  कहीं दूर शोर सुनाई देता तो अंदर तक काँप जाते थे कि पता नहीं क्या होगा ? 
                            वह रात गुजर गयी और प्रशासन सतर्क भी हुआ।  वह परिवार सुरक्षित बच गया लेकिन मेरे दायरे में ही नहीं बल्कि रोज साथ होने वाले दो सिख परिवारों की कहानी बदल गयी थी।  उस समय मैं एक पब्लिक स्कूल में प्रिंसिपल का काम भी देख रही थी और मेरे साथ काम करने वाली चरणजीत कौर ( पता नहीं अब कहाँ होंगी ?) टीचर थी।  उस दिन उन्होंने शाम को सभी लोगों को अपने यहाँ खाने पर बुलाया था।  उसके बाद तो कहानी ही बदल गयी।  कई दिनों तक कर्फ्यू लगा रहा और जब स्कूल खुला तो पता चला कि उनका पूरा घर लूट लिया गया और वे लोग कहाँ गए ये पता नहीं लग पाया ? कई महीनों  तक  हम सब सामान्य नहीं हो पाये थे।
                              दूसरा था उसी स्कूल से लगी हुई एक बिल्डिंग मटीरियल की दुकान थी - वह एक सिख सज्जन की ही थी और उनसे करीब करीब रोज ही दुआ सलाम हुआ करती थी और वे थे भी बहुत सज्जन इंसान।  उनकी पूरी दुकान जला दी गयी थी और जो सामान लूटने वाला था लूट लिया गया था।  आस पास के कुछ लोगों को उनसे कुछ बैर भी था और वे लोग बहुत खुश देखे गये , लेकिन हमें दिल  अफ़सोस था कि किसी की रोजी रोटी चली गयी पता नहीं कितने दिन लगेंगे उन्हें फिर से जुटाने में लेकिन इतना था कि  उनका घर वहां नहीं था और वे परिवार सहित सुरक्षित थे।  


                         वैसे तो इंदिरा गांधी जैसी लौह इरादों वाली प्रधानमंत्री के साथ हुआ वह विश्वासघात शर्मिंदा करने वाला था, लेकिन शिकार जो निर्दोष इसमें शिकार हुए वो हादसे भूलने वाली चीज नहीं है।  लेकिन लिखा आज ३० साल बाद है।










शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल !

                                 


                        आज सरदार पटेल के जन्मदिन को राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में मनाने की घोषणा बहुत सुखदाई  लगी । सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय एकता के अदभुत प्रणेता थे,  जिनके ह्रदय में भारत  की आत्मा बसती थी।  वास्तव में वे भारतीय जनमानस अर्थात किसान की आत्मा थे। स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी एवं स्वतन्त्र भारत के प्रथम गृहमंत्री सरदार पटेल एक शांत ज्वालामुखी थे। वे नवीन भारत के निर्माता थे। उन्हे भारत का ‘लौह पुरूष  कहा जाता है।
                   वह व्यक्तित्व जो इस भारत के शुरूआती निर्माण में पूरे मन से समर्पित रहा और गृह मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर रह कर भी उनके हाथ अपने वचन के कारण बंधे रहे और जहाँ जहाँ विवश पाये गए या उनके निर्णयों को गांधीजी या नेहरूजी के कारण दरकिनार कर दिए गए वे आज भी नासूर  बन कर रिस रहे हैं।  
                                    सरदार पटेल ने भारत विभाजन स्वीकार किया था क्योंकि  पूरे भारत के हाथ से जाने का भय सामने खड़ा दिख रहा था - नवंबर,1947 में संविधान परिषद की बैठक में उन्होंने अपने इस कथन को स्पष्ट किया, मैंने विभाजन को अंतिम उपाय के रूप में तब स्वीकार किया था, जब संपूर्ण भारत के हमारे हाथ से निकल जाने की संभावना हो गई थी। वे गांधीजी और नेहरूजी की बात का सम्मान करते थे लेकिन विभाजन के समय पाकिस्तान को  ५५ करोड़ रूपयें देने के निर्णय के सर्वथा विरोधी थे और तत्कालीन सरकार ने इसको अस्वीकार भी कर दिया था लेकिन गांधीजी के अनशन ने सरकार के इस फैसले को पलटवाया गया था।  उस समय सरकार को अपने विवेक से निर्णय लेने का अधिकार न था।  गांधी जी का अंधानुकरण ही सबसे घातक सिद्ध होने वाला था ये बात सरदार पटेल को आभास दे गयी थी और उन्होंने कहा था - 'अब मैं इस शासन में न रह सकूँगा। ' 

                    वे एक समर्थ और जागरूक गृहमंत्री थे और देशहित में उनके विचारों को कितना स्वीकार किया गया ये बात और है।  शायद उस समय हम सिर्फ और सिर्फ आजादी को गांधी जी और नेहरूजी द्वारा दिलवाई गई नियामत समझ रहे थे।  
               
जब चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने नेहरू को पत्र लिखा कि वे तिब्बत को चीन का अंग मान लें तो पटेल ने नेहरू से आग्रह किया कि वे तिब्बत पर चीन का प्रभुत्व कतई न स्वीकारें, अन्यथा चीन भारत के लिए खतरनाक सिद्ध होगा। नेहरू नहीं माने बस इसी भूल के कारण हमें चीन से पिटना पड़ा और चीन ने हमारी सीमा की 40 हजार वर्ग गज भूमि पर कब्जा कर लिया। वह चीन १९६२ में जिस रूप में हमारे सामने खड़ा हुआ वह हमारी उस भूल का ही परिणाम था और तब से लेकर आज कितने नापाक इरादे हमें देखने को मिलते ही रहते हैं।
                              बहुत जल्दी चले गए थे सरदार पटेल अगर देश को उनका साथ कुछ और बरसों तक मिल गया होता तो शायद देश का स्वरूप कुछ और ही होता।  उनके जन्मदिन पर कुछ लिखने का मन था सो लिखा।  

बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

मित्र बनाओ बनाम ...........!






                                       ये बानगी है कुछ विज्ञापनों की -----रोज करीब करीब हर दैनिक अख़बार में निकला करते हैं. इनसे आने वाली बू सबको आती है और सब इस बात को समझते हैं. अख़बार वाले भी और असामाजिक गतिविधियों में लिप्त लोगों को सही दिशा देने वाली संस्थाएं भी लेकिन क्या कभी इस ओर किसी ने प्रयास किया कि  इनकी छानबीन की जाय ? लेकिन आख़िर की क्यों जाय? 
             

         परिवार संस्था पहले भी थी और आज भी है, बस उसके नियम और कायदे कुछ उदार हो गए हैं. पहले बेटे और बहू परिवार के साथ ही रहते थे और वहीं पर कोई नौकरी कर लेते थे. उस समय मिल जाती थीं. घर और परिवार की मर्यादा का पालन होता रहता था. मुझे अपना बचपन और जीवन का प्रारंभिक काल याद है. घर से बाहर जाने पर अकेले नहीं जा सकते  थे कोई साथ होना चाहिए. स्कूल भी अकेले नहीं बल्कि साथ पढ़ने वाली कई लड़कियाँ इकट्ठी हो कर जाती थीं. भले ही स्कूल घर से २० कदम की दूरी पर था. समय के साथ ये सब बदला और बदलते बदलते यहाँ तक पहुँच गया कि लड़कियाँ और लड़के दोस्ती के नाम पर कहाँ से कहाँ तक पहुँचने लगे हैं। कहीं भी विश्वास जैसी चीजें अब रह नहीं गयीं हैं।  दोस्ती के नाम पर ऐसे काम भी होने लगे हैं , जिसमें यहाँ से लड़कियों को लेकर विदेशों में तक पहुँचाने वाले रैकेट मौजूद हैं. कहीं कभी कोई वारदात सामने आ गयी तो हंगामा मच जाता है लेकिन खुले आम आने वाले इन विज्ञापनों को क्या कोई नहीं पढ़ पाता है ? 
                 सिर्फ ये ही क्यों? मसाज सेंटर के नाम पर निकलने वाले विज्ञापनों में भी आप इस तरह के कामों की महक पा सकते हैं. हमारी सरकार या फिर पुलिस  किस इन्तजार में रहती है कि ऐसे लोगों पर छापे मारने के लिए कोई बड़ी वारदात जब तक न हो जाए तब तक उनकी नींद खुलती ही नहीं है. इन विज्ञापनों में फ़ोन नं.  ईमेल एड्रेस सभी कुछ होता है. इसके लिए कोई आपरेशन क्यों नहीं चलाया जाता है? समाज में सेक्स के भूखे भेडिये बेलगाम घूम रहे हैं जिनसे बच्चियों से लेकर युवतियां ही नहीं बल्कि उम्र दराज महिलायें भी सुरक्षित नहीं है. जिसमें ऊँची पहुँच वाले लोगों को तो अब संयम जैसे गुण से कोई वास्ता ही नहीं रह गया है या फिर इनके साए तले पलने वाले लोग भूखे भेडिये बन कर घूम रहे हैं. 

                  अब ये लड़कियों तक ही सीमित नहीं रह गया है क्योंकि अब तो लड़कों को  भी अच्छे पैसे मिलने के नाम पर लुभाया जाने लगा है और लडके भी क्या करें ? सब तो पढ़ लिख कर नौकरी नहीं पा लेते हैं बल्कि  पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ उन्हें सिर्फ काम की तलाश में उलझा ले जाता है और फिर वे इनके जाल में ऐसे फँस जाते हैं कि निकल ही नहीं पाते हैं। ऐसा नहीं है पुलिस ने ऐसे  मामलों पर काम  किया और भंडाफोड़ भी किया लेकिन ये काम तो आज भी खुले आम अखबारों में निमंत्रण दे रहे हैं और हम पढ़ रहे हैं।  
कुछ विज्ञापन की बानगी : 

* प्रिया मसाज पार्लर रजि. २००८ अमीर घरों की अकेली महिलाओं की बॉडी मसाज करके युवक रोजाना २५ - ३० हजार कमाएं।  सर्विस आधे घंटे में।  संपर्क सूत्र : ००००००००० 

 * दीपा मसाज पार्लर रजि. २००४  अमीर घरों की अकेली महिलाओं की बॉडी मसाज करके युवक रोजाना २५ - ३० हजार कमाएं।  सर्विस आधे घंटे  में।  संपर्क सूत्र : ०००००००००


              अलग अलग नाम से  पार्लर के  ढेरों विज्ञापन और एक ही भाषा होती है - कोई भी इसकी भाषा पढ़  समझ सकता है कि इसके पीछे क्या चल रहा है ? फिर क्यों समाज के ये कोढ़ पाले जा रहे हैं क्योंकि उनके ऊपर हाथ रखने वाले भी इसमें हिस्सेदार होते हैं। कौन होती है अमीर घरों की अकेली महिलायें ? और क्या  सिर्फ मसाज के काम के पच्चीस हजार से लेकर तीस हजार तक सिर्फ आधे घंटे में मिलते हैं तो फिर क्यों कोई बोझ ढोता है।  क्यों सुबह से शाम तक ऑफिस में काम करता है और फिर  भी नहीं  कमा पता इतना ? ढेरों सवाल है और उत्तर हम सभी जानते हैं और चुप हैं।  
                मीडिया वाले नए नए मामलों को लेकर टी वी पर रोज पेश करते रहते हैं लेकिन उनकी नजर इन पर क्यों नहीं पड़ती है कि वे ऐसे लोगों तक पहुँचने के लिए अपने जाल बिछा कर इनका खुलासा करें. जो खुल गया उसको पेश करके कौन सा कद्दू में तीर मार रहे हैं. अभी हम आदिम युग की ओर फिर प्रस्थान करने लगे हैं तो फिर अपने प्रगति के दावों को बखानना बंद करें नहीं तो अंकुश लगायें।  इस तरह की संस्थाओं और विज्ञापनों पर जिनसे समाज का भला नहीं  होता है. इस दलदल में फंसने के बाद अगर कोई बाहर निकलना भी चाहे तो नहीं निकाल सकता है. अपना भंडा फूटने के डर से इनसे जुड़े लोगों को इस तरह से अनुबंधित कर लिया जाता है या फिर उनको ऐसे प्रमाणों के साथ बाँध दिया जाता है कि वे उससे निकलने का साहस नहीं कर पाते हैं. इससे समाज सिर्फ और सिर्फ पतन कि ओर जा रहा है. इस पर अंकुश लगाना चाहिए चाहे जिस किसी भी प्रयास से लगे. .

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस !

                                  कहते हैं न कि इंसान वही सुखी है जो तन , मन से सुखी हो।  धन का सुख तो उसकी लालसाओं और जरूरतों से जुड़ा रहता है।  कभी वह अपार धन के बाद भी , पलंग के गद्दे के नीचे नोटों की मोटी तह लगा कर भी सुखी नहीं होता और कभी कोई इस " दाता इतना दीजिये जामे कुटुंब समाय , मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाय। " सूक्ति पर विश्वास करके जीवन भर सुखी रह लेता है। 
                                    आज का जो जीने का तरीका है या फिर कहें इस वर्तमान जीवनचर्या ने इंसान को तनावों के अतिरिक्त कुछ दिया ही नहीं है।  ये सत्य है कि आज हर आयु वर्ग में कुंठा , अवसाद और तनाव के शिकार लोग मिल रहे हैं। सबके अपने अपने तरीके के तनाव है और इस तनाव के जो कारण है वही आगे जाकर उनको अवसाद का शिकार बना देते हैं।  आज ८० प्रतिशत लोग (  इसमें हर आयु वर्ग के हैं ) मानसिक तौर पर स्वस्थ नहीं है।  सबकी अपनी अपनी परेशानियां है - बच्चे को स्कूल से भेजने से जीवन में कम्पटीशन और सबसे आगे रहने की लालसा,  चाहे ये अभिभावकों के द्वारा थोपी गयी हो उनके बचपन की अल्हड़ता और भोलेपन को छीन लेता है।  स्कूलों की शिक्षा पद्यति ने भी उनको किताबों और होम वर्क के तले इतना दबा दिया है कि वे कुछ और सोच ही नहीं पाते हैं।  खुली हवा में खेलना उनके लिए कितना जरूरी है ये कोई समझता नहीं है।  
                                   उससे आगे बढे तो अपने करियर की चिंता युवाओं को इसका शिकार बना रही है।  बार बार की असफलता या फिर मनमुताबिक जगह का न मिलना उन्हें क्या देता है ? यही  कुंठा , तनाव और अवसाद ! 
जबतक उन्हें मंजिल मिल नहीं जाती वे संघर्ष करते रहते हैं और ये संघर्ष का काल क्या उन्हें मानसिक रूप से स्वस्थ रहने देता है।  घर वालों के कटाक्ष , पड़ोसियों की बातें और सफल हुए मित्रों के माता पिता की अपने बच्चों की सफलता की लम्बी चौड़ी बातें - उन्हें क्या देता है ? सिर्फ कुंठा ,मानसिक तनाव और अवसाद।  
                                   नौकरी करने वाले जो कॉर्पोरेट जगत से जुड़े हैं - उनके काम की कोई सीमा नहीं है , डेड लाइन , टारगेट और प्रोजेक्ट का कम्पलीट होना - ऐसे बेरियर हैं कि कई बार बच्चे अपने सगे रिश्तों के  महत्वपूर्ण अवसरों पर शामिल होने से वंचित हो जाते हैं।  जीवन के कुछ पल ऐसे होते हैं कि जिन्हें इंसान अपने अनुसार जीना चाहता है लेकिन आज वह भी नसीब नहीं है फिर हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य बरक़रार रहेगा।  
                                      परिवार वालों की अपनी तरह की अलग अलग समस्याएं , बुजुर्गों की भी अपनी समस्याएं हैं , एकाकीपन , आर्थिक असुरक्षा , पारिवारिक तनाव ये सब मानसिक तौर  वाले कारक है और इससे ही बढ़ता जा रहा है - समाज में स्वस्थ मानसिकता का अभाव !
                                        इसके परिणाम क्या हो रहे हैं -- 


  • छोटी कक्षा के छात्र ने पिता के डांटने पर आत्महत्या  ली।  . 
  • लड़की ने माँ के देर तक बाहर न रहने के आदेश पर आत्महत्या। 
  • उच्च पदासीन अधिकारी द्वारा आत्महत्या। 
  • अफसरों के व्यवहार से क्षुब्ध होकर आत्महत्या। 
  • पत्नी के मायके जाने पर आत्महत्या।
  • परीक्षा में असफल होने पर आत्महत्या।

                                      जो उम्र होती है खेलने की क्यों मौत चुन लेते हैं ? आत्महत्या  अपने आप में इस बात की द्योतक है कि  मानसिक दबाव में रहा होगा।  जब उसको अपने अनुसार कोई भी भविष्य के लिए आशा नजर नहीं आती तो वह ऐसे कदम उठा लेता है।  
                                    ये जीवन की इति नहीं है - अगर हमारे परिवार का कोई सदस्य , मित्र , बच्चे या फिर कोई परिचित  मानसिक तौर पर अवसाद , कुंठा या तनाव  शिकार है तो उसको मनोरोग विशेषज्ञ के पास ले जाना चाहिए।  इससे पहले कि वह गंभीर समस्या का शिकार जो जाए।   काउंसलिंग की भी जरूरत होती है जो परिवार के सदस्य सबसे अच्छी तरह से अध्ययन करके कर सकते हैं।  हमें अपनी आर्थिक प्रगति भरपूर दिख रही है लेकिन  उसके पीछे दीमक की तरह खा रहे ये अवसाद , कुंठा और तनाव  किसी को नजर नहीं आते हैं।  
आप स्वयं अपना स्वविश्लेषण कीजिये और फिर स्वयं को स्वस्थ रखने की दिशा में प्रयास कीजिये और अगर आप स्वस्थ हैं तो दूसरों के लिए प्रयास कीजिए।  

कुछ सार्थक सुझव दे सकती हूँ जिनको अपनाने से कुछ तो इससे ग्रसित लोग स्वयं को स्वस्थ बनाने की दिशा में सक्रिय हो सकते हैं --

१. नियमित सुबह भ्रमण के लिए निकले , सुबह की जलवायु आपको शारीरिक रूप से नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी सामान्य रहने में सहायक होगी। 

२.  सोने   और जागने का  समय निश्चित करें। 

३. ६ घंटे की नींद जरूर लें , सोने के बाद दिमाग  तरोताजा रहता है। 

४. लगातार कंप्यूटर या मोबाइल पर काम न करें।  सोशल साइट पर रहने के बजाय अपने आस पास सामाजिक होने का प्रयास करें।  

५. बच्चों को भी पढाई से उठाकर कुछ देर  खुली हवा में पार्क या अन्य जगह पर खेलने के लिए कहें।  

६. परिवार के सदस्यों के साथ समय बिताएं और उनके नियमित जीवन की समस्याओं से अवगत रहें।  
                            अगर जीवन है तो उसे पूरी  तरह से स्वस्थ होकर जीना ही वास्तव में जीवन है।

मंगलवार, 9 सितंबर 2014

घरेलू आतंकवाद : अनदेखा क्यों ?

वे हमारी जड़ों में तीखा जहर बो रहे हैं ,
और हम हैं  कि जाग कर भी सो रहे हैं .
दूसरों को अंगुली दिखा कर बनते हैं  होशियार
अपने नाक के तले बसे चोरों से हों ख़बरदार
                              हम और हमारे नेता सभी कहते फिरते हैं कि पाकिस्तान आतंकवादियों की पाठशाला है और वहाँ पर विभिन्न संगठनों को शरण दी जा रही हैवहाँ की सरकार उनको संरक्षण दे रही हैहम खुद क्या कर रहे हैं ? अपने गिरेबान में झांक कर देखने कि फुरसत किसे है?
                                  हम अपने घर में पलने वाले और पाले  जाने वाले आतंकियों की ओर नजर ही नहीं डाल पा रहे हें . हम आतंकवादी शब्द  पुनर्परिभाषित करने की सोचें क्या ? देश में दहशत फैलाने वालों को हम नक्सली , उग्रवादी , अलगाववादी, माफिया  और दबंग कहते हैं , क्या ये  किसी न किसी तरीके से आम नागरिक के जीवन में मुश्किल पैदा नहीं करते हैं। नक्सली प्रभावित क्षेत्रों में वे खुले आम घोषणा करते हैं कि हमें हर परिवार  सदस्य अपनी विद्रोही सेना में बढ़ोत्तरी करने  लिए चाहिए।  हमने कभी सोचा है कि उन परिवारों में कितनी दहशत फैली होगी।  हमें आतंक के चेहरे से इतने मुखौटे हटा कर सिर्फ एक नाम देना है और  उससे निबटना भी बहुत जरूरी है क्योंकि आतंक सिर्फ एक होता है और उसका सहारा लेकर---- 
  • जो दहशत फैलाये , 
  • लोगों का जीवन मुश्किल कर दे , 
  • उनका शोषण करे ,
  •  उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर उन्हें अपनी मर्जी  अनुसार जीने को विवश करे।  
  •  आम आदमी के घर की बहू और बेटियां जहाँ सुरक्षित न हों।  बहू बेटियां तो बड़ी हो जाती हैं , यहाँ  दुधमुंही बच्चियों से लेकर बचपन के आगोश में बेखबर बच्चियों का जीवन तक सुरक्षित न हो , 
  • बलात श्रम करवाकर अपने स्वार्थ सिद्ध करने वाले लोगों को हम किस श्रेणी में रख सकते हैं। 
  • माफिया चाहे वे किसी भी क्षेत्र के क्यों न हों ? 
 ये सभी तो अपने दबदबे को प्रयोग करके लोगों को आतंकित कर रहे हैं।  फिर इसको भी हमें  आतंकवादी  की श्रेणी में क्यों नहीं रखना चाहिए ? 
                               आम तौर पर तो हम देश की सीमाओं में बलात घुस कर आने वाले पडोसी देशों या एक विचारधारा विशेष के शिकार लोग, क़ानून भंग  करके लोगों में दहशत फैलाने वालों,  को  ही आतंकवादी कहते आ रहे हैं।  इस अलगाववादी विचारधारा वाले लोग देश के नागरिकों को भी बरगला कर अपने कामों को अंजाम देने के लिए मजबूर करने वाले , या फिर नयी पीढ़ी को धन का लालच देकर उन्हें दिग्भ्रमित करने वाले , उनका ब्रेन वाश करके अपने घर के विरुद्ध खड़े करने वाले भी इसी श्रेणी में आते हैं लेकिन वे धर्म विशेष से जुड़े हुए लोग हैं , जो सिर्फ हमारे देश में ही नहीं बल्कि अपनी अलग क़ानून व्यवस्था को स्थापित करने के लिए दूसरे देशों में भी सक्रिय हैं।  
                                 उनसे निपटने के लिए हमारी सेना है ,  हमारी खुफिया एजेंसी हैं जो हमें इसके आगमन और इसके बुरे इरादे से अवगत करा कर सतर्क करती हैं।  कई बार हम बच जाते हैं और इन आतंकवादियों के मंसूबे ध्वस्त कर देते हैं और कई बार हमारे जवान इनकी चालों का शिकार होकर शहीद हो जाते हैं।
                            हमारे अपने देशवासी , इसी जमीन पर जन्मे , पले और जीवन जीने वाले जब उपरिलिखित कामों को अंजाम देते हैं तो उन्हें आतंकवादी क्यों न कहा जाय ?  उनके लिए ही सजा मुक़र्रर क्यों न की जाय ? देश के इन आतंकवादियों को बचाने के लिए - राजनैतिक हस्तियां , दबंग , बड़े बड़े पैसे वाले और रसूख वाले खड़े होते हैं।  उन्हें सजा तो क्या बाइज्जत बरी तक दिया जाता है।  खतरा हमें बाहर के दुश्मनों से जितना है उससे कहीं अधिक देश में फैले हुए सफेदपोश आतंकवादियों से है।  उनको बेनकाब करने का काम न पुलिस कर पाती है और न ही मीडिया। क्योंकि इन लोगों के शरणदाता  रसूखवाले होते हैं।

सोमवार, 8 सितंबर 2014

पितृ पक्ष : वर्तमान में औचित्य !

               सिर्फ हिन्दू धर्म में ही वर्ष  में १५ दिन पूर्वजों को समर्पित होते हैं  इन दिनों में हम अपने पूर्वजों को पूर्ण श्रद्धा से स्मरण करते हुए तर्पण और श्राद्ध करते हैं . हमारे पूर्वजों को इन दिनों किये गए हमारे कार्यों (  तर्पण , श्राद्ध भोज आदि ) संतुष्टि और तृप्ति प्राप्त होती है।  हम भी अपने पितृ ऋण से मुक्त होने का संतोष अनुभव करते हैं।  हम अपनी संस्कृति और मान्यताओं का सम्मान करते हैं और अपने दायित्वों को पूर्ण करते हैं। जबकि इसकी भी आज के तथाकथित पढ़े लिखे और उच्च स्तरके लोग आलोचना करते हैं और इसको दकियानूसी सोच और लकीर का फकीर बताते हैं लेकिन उसके पीछे के तर्कों को जानते तक नहीं हैं । क्लब जाना , रेसकोर्स जाना ,फिल्में देखने से समय नहीं तो क्या करेंगे ? ददे रात लौटना और देर तक सोना । बिस्तर पर बैड टी चाहिए , तर्पण कौन करेगा ? 


                            वैसे श्राद्ध कर्म का मुख्य तत्व है -  श्रद्धा।  श्राद्ध कर्म में पिंडदान और तर्पण करने से अधिक आवश्यक है कि हमारे मन में अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा हो।  जो आज का चलन हो चुका है कि जीते जी माता पिता को इज्जत न दो क्योंकि ये मानी हुई बात है बेटा पिता से कुछ अच्छे और संपन्न जीवन जीने योग्य बना दिया जाता है ( इसका पूर्ण श्रेय पिता को ही जाना चाहिए किन्तु ??) फिर पिता अपने स्तर से नीचे के नजर आने लगते हैं।  उसके मित्रों के साथ बैठने की लियाकत नहीं रखते हैं । उसकी माँ बहू की किटी पार्टी वाली सहेलियों के सामने आने लायक नहीं होती है । उनके लिए ऊपर या पीछे  कहीं एक कमरा बना होता है।  बेटा ऑफिस से थका हुआ लौटता है तो उसके पास अपने बच्चों और पत्नी के लिए ही समय होता है।  उनके हाल चाँ लेने का समय कहाँ ? कहीं कहीं तो खाना भी अलग ही बनाते हैं ।
                           यही बच्चे माता-पिता के श्राद्ध को बड़े ही सम्मान के साथ करना चाहते हैं। इस अवसर पर एक कहानी याद आ रही है - पिता के श्राद्ध के कारण खाने पीने में देर हो रही थी और कमरे  में अपाहिज माँ खाना मांग रही थी लेकिन बहू - 'आपको अभी खाना कैसे दे दें ? अभी पंडित जी श्राद्ध करवाने आने वाले हैं उसके बाद मिलेगा। ' ऐसे में बहू और बेटे जिन्हें जीवित माँ को खाना देने के लिए एक बहाना मिल गया।  मरने के बाद उनकी भी श्राद्ध करेंगे।  ऐसे श्राद्ध से क्या फायदा ? क्या पितर हमारे ही घर में एक जीवित आत्मा को भूख से परेशान देख कर हमारे द्वारा किये जा रहे पिंडदान से संतुष्ट और तृप्त हो रहे होंगे।  मुझे तो ऐसा नहीं लगता है।  आप जीवित बुजुर्गों के लिए कुछ और खाने की व्यवस्था करके दे सकते हैं  लेकिन ऐसे उत्तर देकर आप अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते हैं। 
                            पितरों को भी जैसा कि  हम मानते हैं , इन दिनों अपने वंशजों से कुछ आशाएं होती हैं लेकिन वे ये कभी नहीं चाहते कि  उनके पड़पोते उनके नाम पर जीवित लोगों के प्रति निष्ठुर व्यवहार करें।  सबसे पहले होता है कि आपके मन में अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा होनी चाहिए।  कर्मकांड और दिखावा करने की आवश्यकता नहीं है।  पूर्वज तभी प्रसन्न होने जब आप उनके वंशजों को भी खुश रखेंगे।  उनसे आशीष की आशा भी तभी कर सकते हैं।  इस कार्य को बोझ समझ कर न ढोयें बल्कि श्रद्धा के साथ तिल युक्त जल की तिलांजलि देकर भी आप अपने कर्त्तव्य का निर्वाह कर सकते हैं।जीवित आत्माओं को संतुष्ट रखेंगे तभी मृत आत्माएं या हमारे पूर्वज संतुष्ट रहेंगे।  
                           

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

यादें : शिक्षकों की !

                       आज शिक्षक दिवस पर मैं अपने सभी शिक्षकों जो मुझे प्राथमिक शिक्षा से उच्च शिक्षा तक या कार्य स्थल पर मिले, मुझे शिक्षित करते रहे  सबको नमन करती हूँ और उनमें से कुछ के साथ जुडी यादें भी स्मरण कर रही हूँ। मुझे वो अपने सारे शिक्षक अच्छे तरह से याद हैं। 

                        मेरी प्रारम्भिक शिक्षा सनातन धर्म स्कूल , उरई में हुई।  स्कूल  शिक्षक तो नहीं लेकिन  मुझे घर पर उसी स्कूल में चपरासी का काम करने वाले गुप्ता जी पढ़ाने आते थे।  उस समय शिक्षकों को भाई साहब और शिक्षिकाओं को बहनजी कहा जाता था।  गुप्ता जी ने हमारी नींव मजबूत की थी और जब वे स्कूल में क्लास में चाक और डस्टर रखने आते थे तो मैं उठ कर खड़ी हो जाती थी।  एक दिन उन्होंने समझाया कि क्लास में खड़े मत हुआ करो।  मैं घर का टीचर हूँ न।  मुझे उनकी बात आज भी याद है। 
                         मेरी इण्टर तक की शिक्षा आर्य कन्या इण्टर कॉलेज , उरई में हुई।   हाईस्कूल तक की शिक्षा में मेरी क्लास टीचर और होम साइंस टीचर प्रवेश प्रभाकर ने मुझे बहुत प्रभावित किया और यही नहीं मेरी अभिव्यक्ति की क्षमता  को उन्होंने ही पहचाना था।  उनका प्रयास रहता कि मैं क्लास के पढाई से इतर कामों में भी सक्रीय रहूँ।  इत्तेफाक से वे हमारे घर के बगल वाले घर में रहती थी।  उनके पापा सरकारी हॉस्पिटल में डॉक्टर थे।  मेरी आज भी इच्छा है कि वे मुझे मिल जाएँ तो मैं उनसे कहूँ - 'मैं वह बन चुकी हूँ , जो वह चाहती थीं। ' 
                         मेरी इण्टर कॉलेज की प्रिंसिपल प्रेम भार्गव भी मुझे हमेशा याद रहेंगी। वैसे तो मैं जिस कॉलेज में जिस स्तर तक पढ़ी , शिक्षक और कॉलेज में शक्ल और नाम से सब जानते थे।  एक कड़क टीचर थी वो।  मैं उन्हें हमेशा याद रही।  शादी के बाद भी कभी भाई साहब से उनका मिलना होता तो पूछती 'रेखा कहाँ है ? क्या कर रही है ?' अफ़सोस की वो अब नहीं हैं।  
                            डिग्री स्तर पर -को-एजुकेशन वाला था और छोटी जगह का माहौल सीधे  कॉलेज जाना और वापस आना।  हाँ उस समय तक मैंने लिखना और स्तरीय पत्रिकाओं में प्रकाशित होना शुरू कर दिया था।  फिर भी किसी विशेष शिक्षक के बारे में इस स्तर पर उल्लिखित नहीं कर सकती।  
                              शादी के बाद मैंने बी एड किया और वहां की शिक्षिकाएं सभी अच्छी थी लेकिन सिर्फ एक मुझे प्रिय थी और उन्हें मैं  डॉ प्रीती श्रीवास्तव ( दुर्भाग्य से वो अब नहीं रहीं। ) और वहां की प्रिंसिपल डॉ अमर कुमार हमेशा याद रहेंगी क्योंकि मैंने एम एड भी उसी कॉलेज से किया था।  वहां भी मेरी अपनी एक पहचान बनी हुई थी। कॉलेज छोड़ने के बाद जब मैंने पी एच डी के लिए रजिस्ट्रेशन फॉर्म भरा तो आखिरी शिक्षण संस्थान के प्रमुख के साइन होना चाहिए।  मैं नहीं गयी मेरे  पतिदेव अपने  प्रो. मित्र के साथ गए तो उन्होंने  साइन करने से मना कर दिया।  बोली रेखा को भेजो। 
                                 जब मैं गयी तो बोली - 'मैं अपनी स्टूडेंट को देखना चाहती थी , नहीं तो साइन की कोई बात नहीं थी। ' बस वो कड़क छवि वाली मेरी शिक्षिका फिर कुछ ही वर्ष बाद कैंसर से चल बसी। 
                             
                                   इसके बाद मैंने कानपूर विश्वविद्यालय से  'डिप्लोमा इन कंप्यूटर साइंस ' का कोर्स किया।  बस मौज मौज में नहीं तो आई आई टी में जॉब कर रही थी और सब कुछ जो पढ़ाया जाना था मुझे पहले से आता था।  फिर पढ़ाने वाली सारी  फैकल्टी आई आई टी की ही थी। क्लास में बैठ कर उनसे पढ़ती और आई आई टी में उनके साथ गप्पें भी मारा करती थी।  फिर भी मेरे शिक्षकों में वाई डी एस आर्य , निर्मल रोबर्ट , रजत मूना ,  बी एम शुक्ला  और सुषमा तिवारी बहुत अच्छे थे।  इनमें से कुछ तो सेवानिवृत्त हो कर चले गए और कुछ अभी भी हैं लेकिन वे उम्र में हमसे छोटे हैं और तारीफ की बात उन्होंने मुझे क्लास हो या आई आई टी हमेशा रेखाजी से ही सम्बोधित किया।  
                                     सबसे अंत में और श्रद्धा से जिन्हें मैं याद करती हूँ वे हैं मेरे कार्य स्थल और मेरे कंप्यूटर साइंस  के प्रोजेक्ट मशीन ट्रांसलेशन के मुख्य दिग्दर्शक  डॉ विनीत चैतन्य - जिन्होंने हमें कंप्यूटर पर हाथ रखने से लेकर उसकी सारी प्रक्रिया बहुत धैर्य के साथ सिखाई , कभी गुस्सा नहीं किया क्योंकि हम तो कला क्षेत्र के लोग थे लेकिन हमारी अच्छी हिंदी और लेखन क्षमता के कारण ही हमें चुना गया था।  सो डेस्कटॉप से लेकर नेट के साथ काम करने  शिक्षा उनसे ही ग्रहण की।  मैं उनकी चिर ऋणी रहूंगी और ऐसे गुरु को हमेशा और सभी नमन करते हैं।  
                                         आज मेरे सभी शिक्षको को मेरा शत शत नमन।  



         

बुधवार, 27 अगस्त 2014

बुजुर्गों का भविष्य !

                                         
 अखबार में पढ़ी हुई कई घटनाएँ हमें विचलित कर जाती हैं लेकिन कुछ तो  अपने पीछे इतने सारे प्रश्न छोड़ जाती हैं कि उनके उत्तर खोजने में और कितने सवाल सामने उठ खड़े होते हैं।  सभी प्रश्न हमारे समाज के हो रहे नैतिक अवमूल्यन से जुड़े होते हैं।  हमें झकझोर  देते हैं लेकिन फिर भी उन घटनाओं को पढने वालों में से कितने अभी भी पुरातन मूल्यों के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं --
* कुलदीपक बेटा ही होता है। 
* वंशबेल बढ़ानेवाला बेटा ही हो सकता है। 
* बेटा चाहे आवारा , बदमाश या कुल के नाम को डुबाने वाला ही क्यों न हो ? लेकिन होना चाहिए। 
                      बेटे की चाह में चाहे कितनी ही बेटियों की बलि चढ़ा दी जाय , उनको गर्भ में ही मार दिया जाय।  बेटी पैदा करने वाली माँ को कभी सम्मान नहीं मिलता।  बेटियां चाहे अपने घर के साथ दोनों घर की फिक्र करती रहें लेकिन वह बेटे की जगह नहीं ले सकती है। 

        आज सुबह सुबह जब अखबार में पढ़ा तो लगा कि उनके एक नहीं तीन तीन बेटे हैं।  सभी इतना तो कमाते ही हैं कि मिल कर माता पिता का पेट पाल सकें।   उन्होंने  खेतों में हल चला कर बेटों को पाला होगा , पढ़ाया लिखाया भी होगा क्योंकि बड़ा बेटा फौज से रिटायर्ड है और शेष दोनों  फैक्ट्री में नौकरी करते हैं।  
९० वर्ष के रोशन लाल और ८५ वर्ष की उनकी पत्नी कटोरी देवी को बेटों द्वारा प्रताड़ित करने की बात रोज की थी।  लेकिन इस उम्र में वे  सहन करने को मजबूर थे फिर एक  दिन कुछ ऐसा हुआ कि उनकी सहनशक्ति ने शायद जवाब दे दिया।  वे घर से निकल कर कसबे पहुंचे और सड़क के किनारे दोनों रोते रहे और फिर अपने जीवन का फैसला  ले लिया।  वे एक सड़क से कुछ दूर  खाली पड़े प्लाट में मृत मिले।  सल्फास की  गोलियों  की शीशी उनके पास मिली , जिसमें दोनों ने ६ गोलियां खायीं थी।  गाँव वालों ने बताया कि  रोशन लाल के तीन बेटे तो थे लेकिन रोटियां देने वाला कोई न था।   लम्बे समय से वे दोनों पड़ोसियों की दया पर जी रहे थे।  वही उनको खाना देते थे।  
                                 जो बेटे जीते जी पेट भरने को न दे सके हो सकता है कि वे उनकी अंतिम क्रिया और तेरहवीं बड़े धूम धाम से करें और समाज के लिए कल उनका श्राद्ध भी करें लेकिन क्या जीते जी उनको भूखा रखने वालों के घर किसी को तेरहवीं और श्राद्ध में भोजन ग्रहण करना चाहिए।  
                                 मेरे विचार से तो बिलकुल भी नहीं।  जिन्हें  समाज की न सही अपने जनक जननी के प्रति अपने दायित्व के प्रति जिम्मेदारी न बनती हो तो ऐसे लोगों को वो पैसा अपने लिए बचा कर रखना चाहिए क्या पता कल उनका भी यही भविष्य हो ?  अरे इस जगह ये तो भूल ही गयी बेटों का ये गुमान कि उनको तो जब तक जिन्दा रहेंगे सरकार पैसे देगी ही , वे किसी के मुंहताज नहीं होंगे जब कि  उनके किसान पिता को कोई पेंशन देने वाला नहीं था।  बेटों के रूप में जो दौलत उन्होंने तैयार की थी वह तो उन्हें धोखा दे गयी।  फिर बेटे किस लिए ? ऐसे ही कितने बुजुर्ग हैं ,  जो रहते तो बेटे के पास हैं लेकिन बीमार होने पर बेटी के घर भेज दिए जाते हैं और बेटी उनका उपचार भी करवाती हैं और कुलदीपक  कहे जाते हैं बेटे।  
                                  इस जगह हम संस्कारों की दुहाई नहीं दे सकते हैं  क्योंकि मानवता कोई संस्कार नहीं बल्कि हर व्यक्ति में पलने वाली भावना है।

सोमवार, 18 अगस्त 2014

चट मंगनी पट ब्याह : कितना उजला कितना स्याह !

                                  '' विवाह " जैसी सामाजिक संस्था का अस्तित्व जितना महत्वपूर्ण दशकों पूर्व था वैसे अब नहीं रह गया है।  शिक्षा , प्रगतिवादी विचारधारा और पाश्चात्य  स्वरूप ने अपने  तरह से उसे  पूरी तरह से बदल दिया है।  लडके और लड़कियों के प्रतिदिन  बदलते विचारों ने इसके स्वरूप को प्रभावित किया है।  अब दोनों को ही अपने इस रिश्ते के बारे में निर्णय लेने के लिए माता - पिता के साथ बराबर की भागीदारी कर रहे हैं।  इसके बाद भी पहल के रूप में माता - पिता इस निर्णय को अपने हाथ में ही रखना चाहते हैं - वह अच्छी बात है कि  उन्होंने दुनियां देखी होती है लेकिन आज के बदलते माहौल और विचारों के चलते सोचने को मजबूर कर दिया है कि क्या इसको बनाने से पहले कुछ खास सावधानियां बरतनी चाहिए ?  


                                    सबसे पहले चाहे माता पिता हों या बच्चे अपने जीवनसाथी के रूप में आर्थिक , सामाजिक और व्यावसायिक तौर पर अपने स्तर का साथी चुनना अधिक पसंद करते हैं. इस दिशा में कभी कभी बहुत देर भी हो जाती है।  उस स्थिति में माता - पिता की रातों की नींद गायब हो जाती है।  बेटी/बेटे  की बढती उम्र और अपने दायित्व के प्रति अपराध बोध उन्हें घेरने लगता है।  फिर वे मनचाहा वर मिलने पर या उसकी जानकारी मिलने पर आतुर हो उठते हैं कि अगर ये रिश्ता हो जाए तो मन मांगी मुराद मिल जायेगी।  इस दिशा में वे ऊपरी तौर पर जानकारी हासिल कर लेते हैं,  लेकिन उसके विषय में गहन छानबीन नहीं करते है क्योंकि उन्हें ये भय रहता है कि अधिक छानबीन करने से अगर लडके वाले नाराज हो गए तो ये भी लड़का हाथ से न निकल जाए। गुपचुप कहीं रिश्तेदारों और पड़ोसियों को पता न चल जाए और कुछ ऐसा हो कि रिश्ता न हो।उनकी ये सोच उन्हें कभी कभी बहुत बड़ा धोखा दे जाता है।  जिससे लड़की और लडके  की ही जिंदगी बरबाद हो जाती है।  
                                   वैवाहिक साइट और विज्ञापन में तो और अधिक धोखा होता है लेकिन कभी कभी खुद से खोजे हुए रिश्ते भी इतने धोखे वाले साबित हो जाते हैं कि जीवन या तो एक बोझ बन जाता है या फिर उस बच्ची/बच्चे  को जिंदगी से ही हाथ धोना पड़  जाता है।  कहते हैं न कि अगर बेटी एक साल पिता के घर में कुमारी बैठी रहे तो समाज को मंजूर है लेकिन विवाह होने के बाद अगर वह दो महीने भी पिता के घर रह जाती है तो कितना ही पढ़ा लिखा समाज हो - उंगली उठाने लगता है।  तरह तरह के कटाक्ष माता पिता और बेटी पर किये जाते हैं।  चट मांगनी पट ब्याह होना बुरा नहीं है लेकिन उस समय में तैयारी के साथ साथ छानबीन भी उतनी ही जरूरी है।
                                       करुणा के माता पिता ने उसके ग्रेजुएट होते ही शादी करने की सोची।  उन्हें एक बहुत अच्छा लड़का मिला बहुत पैसे वाले लोग , लड़का इकलौता  था और पिता के साथ बिज़नेस संभाल रहा था। किसी रिश्तेदार ने बताया था।  कुछ उम्र का अंतर था लेकिन देखने में लड़का ठीक ही लग रहा था।  विवाह के बाद कुछ दिन तो ठीक रही लेकिन पति तो रोज कुछ  कुछ दवाएं खाता रहता था. उसने कभी पूछा तो कह दिया की विटामिन्स है।  इतना तो उसको पता ही था कि विटामिन्स में और इन दवाओं में कितना अंतर है ? करुणा की बड़ी बहन डॉक्टर थी ,  एक दिन करुणा ने सोचा कि दीदी से ये दवाएं होंगी तो लेती आउंगी और पति की दवाओं के पत्ते लेकर बहन के यहाँ गयी।  उसकी बहन ने देखा  तो पैरों तले जमीन खिसक गयी।
                                   उसके पति की दवाएं शुगर और किडनी से सम्बन्धी रोगों की थी।  उसने अपने तरीके से उस डॉक्टर से संपर्क किया जो उसके बहनोई का इलाज कर रहा था।  पता चला कि उसका पैंक्रियाज की स्थिति बदतर हो चुकी थी।  शुगर अनियंत्रित थी और हार्ट और किडनी की स्थिति भी ठीक नहीं थी।  तरुणा की आँखों के आगे अँधेरा छा गया।
                                  उसने सीधे से करुणा के ससुराल अपने माता पिता के साथ जाकर बात की तो सच ये था कि उनके बेटे की जिंदगी कुछ ही सालों की डॉक्टरों ने बतलाई थी , इसी लिए जल्दी से शादी की जिससे बहू को कोई बच्चा  हो जाएगा तो घर को वारिस मिल जाएगा और फिर बहू भी बच्चे को लेकर कहाँ जायेगी ? उनके बुढ़ापे का सहारा बना रहेगा।
                                   धोखाधड़ी का मामला बन रहा था लेकिन वो आपसी सहमति से तलाक के लिए तैयार हो गए और करुणा अपने घर आ गयी।  उसको विवाह जैसे संस्कार से घृणा हो चुकी है।
                                   *                   *                    *                       *
                           स्मिता के माता पिता ने  २२ लाख रुपये खर्च किये थे अपनी बेटी की शादी में , बड़ी कोठी ,  लड़का कनाडा में इंजीनियर और पिता बैंक का मैनेजर। स्मिता के स्थानीय रिश्तेदारों ने कुछ कहना चाहा तो उन लोगों को लगा कि हमारी बेटी को इतना अच्छा घर और वर मिल रहा है सो सबको जानकारी कर लेने की बात सूझ रही है।  उन लोगों  देखते ही हाँ कर दी  और तुरंत सगाई हो गयी।  लड़का फिर बाहर चला गया।  लडके और लड़की में बातचीत होती रही।  सब कुछ अच्छा था।  लड़की को नौकरी छोड़ने को कहा गया और उसने शादी से पहले ही नौकरी छोड़ दी। 
                          शादी के कुछ महीने के बाद लड़का वापस कनाडा और स्मिता उसके माँ बाप के पास।  तरह तरह से परेशान करना।  गर्भवती हो गयी तो मायके भेज दिया ये कह कर - जब तुम्हारे बाप के पास खाने को ख़त्म हो जाए तो चली आना।  उसके वहीँ पर अपने मां के घर बेटी हुई लेकिन ससुराल से कोई भी देखने नहीं आया।  पति भी नहीं।  ससुर ने सारी  संपत्ति बेटी के बेटे के नाम कर दी।  
             *                      *                        *                         * 
ये सिर्फ लड़कियों के मामले में लागू नहीं होता बल्कि लड़कों के मामले में भी ऐसे ही धोखे दर्ज हैं  कभी कभी तो ऐसे धोखे सामने आते हैं कि सामने वाले की जिंदगी ही तबाह हो जाती है। 
                          रमन की शादी किसी रिश्तेदार ने ही करवाई थी , बहुत करीबी का नाम लेकर रिश्ता आया था।   रिश्तेदार थे सो खोजबीन की जरूरत नहीं समझी।  लड़की मानसिक तौर पर  बीमार थी।  बताती चलूँ मैं भी उसमें शामिल हुई थी।  शादी की रस्मों के बीच कुछ ऐसी हरकतें की कि  मुझे कुछ अजीब लगा लेकिन शादी हो गयी।  सिर्फ १ महीने बाद ही उसकी असामान्य हरकतें शुरू हो गयीं।  माँ आकर ले गयी और दामाद से  कहने लगी कि तुम भी साथ चलो इसकी बीमारी में पति का साथ होना जरूरी है।  
                          फिर वह वापस नहीं आई आया तो दहेज़ उत्पीड़न का नोटिस।  लड़का जेल गया , माता पिता की उम्र और बीमारी के देखते हुए जमानत मिल गयी।  दस साल तक कोर्ट के चक्कर लगाये और तब ३ लाख रुपये लेकर समझौता किया और तलाक दिया।  

             अनिल के माता पिता को पता चला कि उसका बेटा किसी लड़की को पसंद करता है और शादी करना चाहता है तो उन्होंने तुरत फुरत लडके की शादी अपने एक रिश्तेदार के बताए रिश्ते से कर दी।  वहां भी कुछ तो गड़बड़ा थी कि लड़की ने अपने पति को पति का अधिकार नहीं दिया और जब मन आये मायके चली जाए और जब मन हो यहाँ आ जाए।  इसी तरह से कई साल गुजर गए।  आखिर लडके ने अपनी माँ से कहा कि वह तलाक चाहता है तो वह तलाक देने को तैयार नहीं थी।  आखिर में उसने शर्त राखी कि  उसको २५ लाख रूपये दिए जाएँ तो वह तलाक़ दे सकती है।  अनिल के लिए ये  कीमत बहुत अधिक थी।  वह इतना पैसा दे नहीं सकता था लेकिन जिंदगी की कीमत पर उसने अपने  परिचितों से उधार लेकर पैसा इकठ्ठा किया और तब उसको तलाक़ मिला।
                           चट मंगनी पट ब्याह जरूर करें लेकिन उससे पहले पूरी जानकारी हासिल करके -  विज्ञापन या वैवाहिक साइट का भरोसा तो बिलकुल भी  न करें।  अपने को अनाथ बताने वालों से सावधान रहें।  पद , स्थिति और परिवार सम्बन्धी जानकारी लेकर ही निर्णय लें।
                                

          

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

संघर्ष उनका : गर्व हमारा या शर्मिंदगी !



                               पढने में कुछ अजीब सा लग रहा है ये शीर्षक लेकिन इससे ही वो भाव उभरते हैं जो हमें कहना है और वो महसूस करते हैं। 
                                जीवन में हर इंसान टाटा या बिड़ला की तरह भाग्यशाली नहीं होता है कि चाँदी की चम्मच मुँह  में लेकर पैदा हुए हों। जब एक पीढ़ी अभावों की  बलि चढ़ती है और खुद संघर्ष करती है तब जाकर अपनी आने वाली पीढ़ी को एक सुन्दर भविष्य देने में सफल होती है।  जब अपने संघर्ष की धूप  में फसल पकती हुई देखते हैं तो उनका सीना चौड़ा हो जाता है।  उनका संघर्ष उनके और उनके बच्चों या भाइयों के जीवन में जुड़ा वह पहलू है जिसके बिना जीवन और सफलता अधूरी ही है।  जिन सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ कर आप ऊपर पहुँच रहे हैं , वे कैसे धूप  , बारिश और सर्द हवाओं में काटी गयीं है , इसका अहसास आपको होना चाहिए।  
                               लेकिन इसके भी दो पहलू हैं - कभी कभी नयी पीढ़ी अपने माता - पिता के संघर्ष को मान देते हैं और उसको अपने लिए गर्व मान कर सबके सामने स्वीकार करती है।  तभी तो बच्चे अपनी डिग्री या तमगे अपने लिए जूझ रहे अभिभावकों को समर्पित करते हैं।  सब कुछ उनका ही किया होता है , पढाई का परिश्रम , अपना उसके प्रति समर्पण और मिली हुई सफलता।  फिर अगर वे किसी को समर्पित करते हैं तो वो आँखें उस समय आंसुओं से भीगी होती हैं और कृतज्ञ मन उनके आगे नत होता है। 
                           इसका एक पहलू ये भी होता है - अपनी सफलता के बाद तथाकथित बड़े लोग , अफसर या उच्च पद पर पहुँच कर अपना रसूख बनाने वाले अपने को इसका खुद जिम्मेदार मान कर बड़ी बड़ी बातें हांकने लगते हैं क्योंकि अगर उन्होंने अपने लिए संघर्ष करने वाले के विषय में बताया तो लोग क्या कहेंगे ? लेकिन क्या हम सच को बदल सकते हैं ? माता - पिता कैसे भी हों ? कभी शर्मिंदा होने की बात तो सोचनी ही नहीं चाहिए।  क्या ये कम है कि उन्होंने आप जैसे व्यक्तित्व को जन्म दिया।  भले ही उन्होंने भर पेट न खाया हो लेकिन आपको भूखा नहीं रखा।  कुछ लोग अपने सर्किल में ये भी बतलाने में शर्म महसूस करते हैं कि उनके पिता मीलों साईकिल चला कर नौकरी पर जाते थे और फिर कहीं पार्ट टाइम काम करके खर्च पूरा कर पाते थे।  उनका भविष्य बनाने के लिए उन्होंने अपना वर्तमान होम कर दिया।  
                           मेरी अपने एक मित्र से बात हो रही थी तो वे बोले कि मेरे संघर्ष के बारे में अगर मेरे बच्चे जान लें तो विशवास ही नहीं करेंगे क्योंकि उन्होंने तो मेरा वर्तमान देखा है और अगर मैं कहूँ भी तो विश्वास नहीं करेंगे और पता नहीं जानकार क्या सोचें ? उन लोगों ने तो मुझे एक अफसर की तौर पर ही देखा है और सारी  सुख सुविधाओं  सम्पन्न।  मेरा संघर्ष तो मेरी पत्नी को भी नहीं पता है।  
                             मैंने उनसे कहा कि आप अपना संघर्ष बयान करके उनको न सही औरों के लिए  एक नसीहत दे सकते हैं क्योंकि परिश्रम और संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता है।  उन्होंने मुझे बताया कि वे एक किसान परिवार में पैदा हुए जिसमें ३ बेटे और १ बेटी थी।  आमदनी के साधन सीमित ही होते हैं गाँव में।  स्कूल  से लौट कर जानवरों के लिए चारा पानी करना।  उनके बाड़े की गोबर आदि  हटा कर सफाई करना उसके बाद रात में पढाई करता था। आगे की पढाई के लिए गाँव छोड़ना पड़ा तो एक छोटा सा कमरा लिया।  खाना बनाना , बरतन धोना , कपडे और सफाई सब के बाद पढाई होती थी।   लालटेन की रौशनी में पढाई करनी होती थी।  जब अफसर बन गया तब लोगों ने जाना।  तब तक घर स्थिति भी ठीक हो गयी थी।  
                           मेरी पत्नी , ससुराल वाले और बच्चे सबने ऐसे ही देखा अगर कहूँ  विश्वास नहीं करेंगे और फिर न जाने क्या सोचें ? मेरा अतीत किसी पुरानी पत्रिका की तरह रद्दी का ढेर में कहीं दब गयी है। ये तो वह पक्ष है जिसे किसी ने जाना ही नहीं है। 
                           दूसरे पक्ष में नलिन जैसे लोग - बहुत बड़ी कंपनी में इंजीनियर।  रोज ही घर पर पार्टियां  हुआ करती हैं लेकिन अपने घर वालों को कभी शामिल ही नहीं किया।  ओहदा देख कर पत्नी के परिवार वालों ने विवाह कर दिया और वह भी बड़े घर के लोग।  अपने किसान पिता के बारे में किसी को क्या बताया जाय ? पार्टी में तो साले , सालियां शामिल होते , इष्ट मित्र होते।  बहन , भाई और माता पिता  उस श्रेणी में आते ही नहीं थे।  न पार्टी तौर तरीकों से वाकिफ और न वैसी महँगी ड्रेसेस का खर्च उठाने वाले।  छोड़ दिया उन सबको।  उसका बचपन से लेकर इंजीनियर बनाने तक का सफर  एक बदनुमा दाग है जिसको वह देखना ही नहीं चाहता है।  
                            आज नलिन जैसे लोग बहुत हैं और हमारे मित्र जैसे संकोची भी।  ये तो हमारे संस्कारों पर निर्भर करता है कि हम अपने अतीत को कैसे स्वीकार करते हैं।  अपने माता पिता के संघर्ष को मान देकर गर्व महसूस करते हैं या फिर उन्हें अपना काला अतीत मान कर शर्मिंदगी महसूस करने के साथ  उस पर मिटटी डाल कर दफन कर देते हैं।  
                                                  
           
                                 

शनिवार, 19 जुलाई 2014

ये उत्तर प्रदेश है !

                       

                                             ये उत्तर प्रदेश है , जहाँ के नेताजी औरतों की अस्मत से खेलने को: लड़कों के जवान खून है - गलती हो जाती है कहकर उनकी पीठ थपथपाने का काम कर चुके हैं। इतना ही नहीं नेताजी की कही बात को संयुक्त राष्ट्र संघ में भी संज्ञान में लिया गया था।   उत्तर प्रदेश में बढ़ते हुए दुष्कर्म के मामले क्या इसी बात सबूत नहीं है कि ' सैया  भये कोतवाल अब डर काहे का.  '
                                             दिल्ली की निर्भया काण्ड से पूरा देश नहीं बल्कि विश्व के हर कोने से आवाजें उठीं थी।  विदेशों में रहने वाले भारतीयों के सिर शर्म से झुक गए थे।  फिर क्या हुआ ? कहीं कुछ कमी आई नहीं , फिर मुंबई का शक्ति मिल काण्ड वह भी  एक नहीं बल्कि दो दो बार एक ही जगह पर।  इन सिरफिरों की हिम्मत तो देखिये।  उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक दुष्कर्म काण्ड हो रहे है शायद ही कोई दिन ऐसा जाता होगा जिस दिन अख़बार में दो से लेकर चार तक दुष्कर्म के समाचार न आते हों।  फिर उनमें से कितने आगे बढ़ते हैं ये बात और है और कितने दबंगों के प्रभाव में सामने आ ही नहीं पाते हैं।  फिर हमारे मुख्यमंत्री महोदय कहते हैं कि  क्यों सिर्फ उत्तर प्रदेश के मामलों को सुर्ख़ियों में लाया जाता है. क्या कहीं और दुष्कर्म के मामले नहीं होते हैं।  हाँ होते हैं लेकिन वहां के जिम्मेदार नेता  उनकी पीठ नहीं थपथपाते हैं।  सिर्फ कुछ ही दिनों में हुए चर्चित मामलों पर एक नजर डालते हैं --

दैनिक जागरण के साभार
   इन आंकड़ों को मैं उल्लिखित भी करती हूँ क्योंकि प्रकाशित सामग्री शायद उतनी सुविधा जनक न लगे। 
१८  जुलाई : मोहनलालगंज के एक स्कूल में दुष्कर्म के बाद युवती की नृशंस हत्या। 

१८ जुलाई : अलीगढ के देहलीगेट क्षेत्र की सगी बहनों को अगवा करके हाथरस में दुष्कर्म।  आरोपी दुष्कर्म के बाद हाथरस  जंक्शन पर छोड़कर भाग गए। 

१३ जून : बदायूं के बिसौरली में महिला को  बंधक बनाकर उसके बच्चों के सामने सामूहिक  दुष्कर्म।  


११ जुलाई : हाथरास के सिकन्दरामऊ की नवविवाहिता को इटावा स्थित ससुराल से ५ युवक अगवा करके लाये । ३ और दोस्तों के साथ मिलकर सामूहिक दुष्कर्म किया और घर के बाहर  छोड़ गए।  १४ जुलाई को घर में जिन्दा जला  दिया।
११ जून: बहराइच के रानीपुर में  साथ सामूहिक दुष्कर्म के बाद हत्या।  शव को अमरूद के पेड़ पर टांग कर आरोपी फरार। 

४ जून : अलीगढ में महिला जज के आवास में घुस कर दुष्कर्म और हत्या का प्रयास। 

३ जून : बरेली में सामूहिक दुष्कर्म के बाद लड़की को तेज़ाब पिलाया , फिर गला घोंट कर हत्या। 

२ ८ मई : बदायूं  के कटरा सआदतगंज में दो किशोरियों को सामूहिक दुष्कर्म के बाद हत्या कर पेड़ से लटकाया। 

२१ मई : अलीगढ में दुष्कर्म में नाकाम  होने पर युवती को जिन्दा जलाया। 

मासूमों पर कहर :

८ जुलाई : आगरा के छटा में घर में घुसकर बालिका से दुष्कर्म। 

२६ जून: बहराइच के विशेश्वरगंज में आम बीनने गयी ११ वर्षीया बालिका की दुष्कर्म के बाद गला दबाकर हत्या। 

२२ मई : अम्बेडकरनगर के अहिरौली थाना क्षेत्र के रामनगर जमदरा में कक्षा आठ की छात्रा से दुष्कर्म। 

२० मई : आगरा  के सैया क्षेत्र के किशोर ने बच्ची से किया दुष्कर्म।

७ अप्रैल: आगरा में आठवीं की छात्रा को अगवा कर सामूहिक दुष्कर्म । 

 ५ अप्रैल : आगरा  में कार सवारों ने छात्रा को अगवा कर क्या दुष्कर्म । 

 १२ मार्च : बहराइच के नानपारा में शादी के दौरान वीडिओ देखने गयी एक १० वर्षीया बालिका के साथ बाग़ में सामूहिक दुष्कर्म के बाद हत्या।  पुलिस ने दुष्कर्म के बजाय चोट पहुंचा कर हत्या दर्ज की . 

१४ फरवरी : रामपुर के शहजादनगर में कक्षा नौ की छात्रा से दुष्कर्म में नाकाम होने पर गला दबा कर हत्या।  

१३ फरवरी : शादी में आई मासूम को अगवा करके दुष्कर्म।  न्यू आगरा में अमर विहार पुलिस  खून  लथपथ मिली बच्ची।  

रक्षक बने भक्षक :

२४ जून : रामपुर में महिला सिपाही ने हाथरस में तैनात सिपाही के  साथ दुष्कर्म करने का मुकदमा दर्ज कराया। 

१७ जून : इलाहबाद शिवकुटी के दो सिपाहियों पर नौकरी का झांसा देकर युवती से दुराचार का  आरोप।

१५ जून :  सोनभद्र में सिपाहियों ने रायपुर थाना क्षेत्र में सो रही महिला की अस्मत लूटी। 

१२ जून : हमीरपुर में पति से मिलने थाने  पर गयी महिला से दरोगा और चार सिपाहियों पर सामूहिक दुष्कर्म का आरोप। 

२९ मई : अलीगढ के सिविल लाइंस थाना परिसर में स्थित सरकारी आवास में एसओजी के सिपाही ने बच्चों को ट्यूशन पढने वाली युवती  से दुष्कर्म। 

१९ मई : अलीगढ के बन्नादेवी क्षेत्र में महिला के साथ सिपाही ने साथियों के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया।  


शनिवार, 12 जुलाई 2014

गुरु ने ली मेरी परीक्षा !

                                 गुरु के बिना ज्ञान नहीं मिलता लेकिन गुरु भी अपने शिष्य को जीवन में कई कसौटियों पर कसा करते हैं।  जब हम पढाई करते हैं तो शिक्षक परीक्षा लेते हैं और हमारी दी हुई परीक्षा के आधार पर हमें पास करते जाते हैं।  वहां दी हुई परीक्षा चाहे हम पाठ  रट कर दें , नक़ल करते हुए दें या फिर  उनके दिए हुए ज्ञान को आत्मसात करके दें।  लेकिन गुरु प्रसन्न तभी होता है , जब उसका  दिया हुआ ज्ञान सार्थक होता है। 
                                 मेरे आध्यात्मिक गुरु मेरे फूफा जी ही थे . बचपन से जिनकी गोद में खेली और बड़ी हुई।  उनका विशेष स्नेह और पूजा के दिशा निर्देश सब को मैं सहज ही लेती थी क्योंकि वे हमारे परिवार से विशेष स्नेह रखते थे।  इत्तेफाक से बड़े होने पर शादी भी मेरी कानपूर में हुई और उनका सानिंध्य मुझे बराबर मिलता रहा।  कभी कोई परेशानी , समस्या सब के लिए हम उनके ही पास पहुँच जाते थे।  वह हमारी समस्या का समाधान भी बताते थे और उसके पीछे  के कारणों को भी बताते थे। 
                                 शादी के चार साल बाद मेरे परिवार की एक सदस्य बहुत बीमार पड़ी।   पीलिया और बोन टी बी के चलते वह सेमी कोमा में चली गयीं।  परिवार पर मुसीबत तो थी ही तो  घर में सलाह दी गयी की जाकर फूफा जी से  पूछो।  उनकी दो छोटी ५ - ३ साल की  बेटियां थी।  मेरी बेटी १ साल की थी।  अभी तो घर पर आई मुसीबत के लिए सारी जिम्मेदारी उठा ही रही थी , मैं उस समय एम एड भी कर रही थी।  कॉलेज जाना , घर सम्भालना और साथ ही मरीज को भी देखना था। 
                                 मैंने इस बारे में उनसे पूछा कि उनके ठीक होने के लिए क्या किया जा सकता है ? तो उन्होंने बताया कि इनका मारकेश चल रहा है , दोनों ही संभावनाएं हैं तुम बोलो क्या चाहती हो ? मैंने कहा - 'मैं चाहती हूँ कि वह ठीक हो जाएँ . कोई भी इंसान इतना बुरा नहीं  होता है दुनियां में कि  उसकी न रहने की बात जान कर हम कुछ सकारात्मक न का सकें।  ' 
                                  इस पर उन्होंने कहा - 'एक बात मैं तुम्हें स्पष्ट बता दूँ कि ये इंसान जिंदगी में कभी भी तुम्हारा भला नहीं चाहेगा और न होने देगा। ' 
                                  मैंने कहा - फूफा जी , उनकी दो छोटी छोटी बेटियां हैं , अगर कुछ होता है तो वे बिना माँ की हो जाएंगी और माँ की तरह  परवरिश कोई नहीं कर सकता।  आप कुछ भी बताइये मैं पूजा कर लूंगी। '
                                  फूफा जी बोले वह तो मुझे ही करनी पड़ेगी लेकिन मैं तो तुम्हारी परीक्षा ले रहा था कि हमारे साथ से तुमने क्या ग्रहण किया है ? आज मुझे पूरा संतोष है कि तुम्हारी सोच वैसी ही है जैसी मैंने तुम्हें दी है। '
                                   उसके बाद मेरे गुरु ने उनकी बीमारी अपने ऊपर ली और उनको पीलिया हो गया , वह भी काफी बीमार रहे और बाद में दोनों ठीक हो गए।  फूफा जी अब नहीं है लेकिन उनके द्वारा दी गयी दिशा और शिक्षा मेरा मार्गदर्शन आज भी कर रही है।  

रविवार, 15 जून 2014

पितृ दिवस !

                            आज के दिन सब लोग पितृ दिवस के रूप में अपने अपने पिताओं को याद कर रहे हैं और वे भाग्यशाली पिता हैं जिनके बच्चे उन्हें श्रद्धा और सम्मान से याद करते हैं और आज का दिन उनके लिए यादगार  बना देते हैं।  
                            वैसे मौका तो नहीं है लेकिन हम सिक्के का दूसरा पहलू भी देखते चलें या फिर हो सकता है कि पढने वालों में कितनों के लिए ये आइना ही हो।  ये तो नहीं कह सकती कि  इसके पढने के बाद  कोई बदल सकता  हो अपने आपको।  कानपूर अपने बुजुर्गों  प्रताड़ित करने वाले लोगों को पालने वाला भारत का दूसरा शहर है , बताते चलें कि मदुरै का स्थान पहला है।  
                         एक बार का वाकया याद कर रही हूँ।   मेरे बहुत करीबी रिश्तेदार हैं , जीवन में बहुत ईमानदारी से नौकरी की और अपनी मेहनत से सब कुछ अर्जित किया बच्चों को पॉश एरिया में में रहने के लिए एक तीन मंजिला मकान  बनवाया।  गाड़ी खरीदी और सारी  सुख सुविधाएँ उनके लिए जुटाई।  वो सब कुछ दिया जो संभव था लेकिन खुद सदैव सीधी सादी जिंदगी जी।   उनकी जिंदगी को मैंने उस समय से जाना जब वे एक कमरे के मकान  में रहते थे।   सुख सुविधा देने के बाद वे निश्चिन्त हो गए कि अब बच्चे सब कुछ चला ही लेंगे।  लेकिन पैसे की चकाचौंध ने बेटों को अँधा बना दिया और माँ की शह ने उन्हें बर्बाद कर दिया। 
कोई भी दुर्व्यसन से वे अधूरे न रहे और फिर शुरू हुआ बरबादी का दौर -  पिता ने रिटायर होने पर सारा पैसा अपने और बेटे के नाम जमा कर दिया। 
                          एक बेटा असमय नशेबाजी के चलते गुजर गया और दूसरा उनको आत्महत्या की धमकी देकर ब्लैकमेल करने लगा।  सब कुछ बिक गया।  इतना उधार ले कर उड़ाया कि लोग तगादे के लिए दरवाजे खटखटाने लगे।  पिता मुंह नहीं दिखा पाते।  
                            एक दिन मैं उनके घर में बैठी थी और बेटा पता नहीं किस लिए बेचने के लिए माँ से गले  की जंजीर मांग रहा था।  पिता ने सुना तो वह अंदर आये और बेटे को डांटने लगे और नशे में धुत बेटे ने एक तलवार लेकर अपनी माँ के ऊपर रख दी कि मुझे डांटा कैसे ? कान पकड़ कर उठक बैठक लगाओ नहीं तो किसी की गर्दन काट दूंगा।  मैंने ऐसा अपनी जिंदगी  देखा ही नहीं था और वो रिश्ते में मेरे जेठ होते थे।  एक व्यक्तित्व  के तौर पर वे अनुकरणीय थे मेरे लिए।  उन्होंने मजबूर होकर उठक बैठक लगायी  और मुझसे ये सहन नहीं हुआ और  मैं वहां से रोती हुई तुरंत चली आई लेकिन एक बार यही कहूँगी की ऐसे बेटों से बेऔलाद होना ज्यादा अच्छा होगा।