क्या हमें फिर से अतीत के इतिहास को दुहराने का जरूरत आ पड़ी है. इस विषय को नहीं छूना चाह रही थी लेकिन आज की इस घटना ने झकझोर दिया. अब इंसां की वहाशियत ने हदें पर कर दीं हैं और वह भी आँखों के सामने जब देखा तो रोना आ गया उस माँ के रोने पर जिसने बेटी को स्कूल ही तो भेजा था पढ़ने के लिए और लौट कर तो उसे बेटी की लाश ही मिली और वह भी दरिंदों की नोची हुई अपनी बेटी की लाश.
कानपुर नगर - अब अखबारों में इस काम के लिए बहुत चर्चित हो रहा है. कुछ दिन पहले एक नामी गिरामी डॉ. के नर्सिंग होम के आई सी यूं में भर्ती एक लड़की के साथ बलात्कार के बाद इंजेक्शन लगा कर उसे मौत की नीद सुला दिया गया क्योंकि एक दिन पहले ही उसने अपने माँ बाप से कहा था कि मुझे यहाँ से निकाल ले चलो नहीं तो मैं नहीं बचूंगी और नर्सिंग होम वालों ने छुट्टी नहीं दी. दूसरे ही दिन उन्हें बेटी के लाश मिल गयी.
पुलिस बलात्कार के जरूरी साक्ष्य भी नहीं जुटा पाई , पोस्ट मार्टम की रिपोर्ट से पुष्टि के बाद साक्ष्य कहाँ से लाये? यद्यपि संचालिका अभी जेल में हैं लेकिन उन पर लगी धाराएँ पुलिस बदल कर हल्की कर रही है क्योंकि मालदार पार्टी है और बेटी किसी गरीब की.
कल स्कूल गयी १० वर्षीया दिव्या को लहूलुहान हालत में स्कूल कर्मियों द्वारा घर छोड़ा गया और जब माँ उसे अस्पताल ले गयी तो डॉक्टर ने मृत घोषित कर दिया. उस बच्ची के साथ जो व्यवहार किया गया है उसने अब तक के सारे वहशीपन के रिकार्ड तोड़ दिए थे. डॉक्टर खुद हतप्रभ थे कि इस नन्ही सी बच्ची के साथ क्या हुआ है? डाक्टरी रिपोर्ट के अनुसार जो समय तय है उस समय बच्ची स्कूल में थी.
ये समाज क्या चाहता है , पहले तो इन मासूमों को होने से पहले ही ख़त्म करने की साजिश रची जाती है और अगर वह दुनियाँ में आ भी गयी तो दोयम दर्जे के व्यवहार का शिकार हो जाती है. अब तो उनकी उम्र का भी कोई लिहाज नहीं बचा क्या फिर से बाल विवाह की प्रथा शुरू कर दी जाय या फिर उनकी शिक्षा को बंद कर दिया जाय. कोई भी माता पिता अपने बेटी के साथ साए की तरह से नहीं रह सकता है. उसको घर की देहलीज तो लांघ कर बाहर निकलना ही पड़ेगा.
पहले यही होता था न, कि किसी की सुन्दर बेटी पर अगर बूढ़े जमींदार की नजर भी पड़ गयी या सुल्तान की नजर पड़ गयी तो उसकी जिन्दगी उसकी नजर हो जाती थी. इसी लिए तो बेटियों को घर से बाहर नहीं निकलने दिया जाता था या फिर जल्दी शादी करके उसको ससुराल वाली बना दिया जाता है और तब भी वह कम उम्र में ही माँ बनने के अभिशाप से ग्रसित होकर मृत्यु के मुँह में चली जाती थी. नसीब उसका मृत्यु ही होती थी. या फिर बाल विधवा बनकर लोगों की इस गलत नजर का शिकार होकर अपनी अस्मिता को बचाने के लिए संघर्ष करती फिरती थी.
अब हमारे पास क्या रास्ता है? क्या करें हम? बेटियों को सिर्फ सीने से लगा कर रखे और विदा कर दें. अगर उनको घर से बाहर निकालेंगे तो फिर किसी वहशी की नजर न पड़ जाए. किसका विश्वास करें-- डॉक्टर, पड़ोसी, रिश्तेदार, स्कूल, रिक्शेवाला, बसवाला और फिर शिक्षक ? अगर किसी का नहीं तो फिर ये कौन सा जीवन जीने की हक़दार हैं? इस बात को मैंने अपने एक लेख में पहले भी जिक्र किया था कि अब लड़कियों को खुद में इतना सक्षम बनाना होगा कि वे अपनी सुरक्षा खुद कर सकें. उनको मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग आरम्भ से देने की जरूरत अब आ पड़ी है. इसको स्कूल के स्तर पर ही अनिवार्य करना होगा. कम से कम वे संघर्ष कर अपना बचाव तो कर सकें. ये वहशी दरिन्दे कुछ भी नहीं सिर्फ मानसिक बीमारी से ग्रसित होते हैं. ये मनोविज्ञान की भाषा में सेडिस्ट होते हैं. दूसरे को कष्ट देने में इनको सुख मिलता है और इस बीमारी से ग्रसित लोग खुद बहुत मजबूत नहीं होते हैं. अब हर स्तर पर ये लड़ाई लड़ने की जरूरत है. बच्चियों को पूरी सुरक्षा मिले और उससे आप घर में भी स्कूल के माहौल के बारे में जानकारी लेती रहें. क्योंकि इस तरह के लोग किसी न किसी तरीके से बच्चियों पर पहले से ही नजर रखते हैं और मौका पा कर ऐसा कृत्य कर बैठते हैं.
घर में अच्छे संस्कार सिर्फ लड़कियों को ही देने की जरूरत नहीं होती है बल्कि अपने लड़कों को भी अच्छे संस्कार दें ताकि वे सोहबत में भी ऐसे घिनौने कामों में लिप्त न पाए जाएँ. अपने घरों से शुरू करेंगे तो बहुत से घर इस स्वस्थ माहौल को बनाने में सक्षम होंगे. हम अपने स्तर पर प्रयास कर सकते हैं और फिर पूरे समाज को सुधारना तो सबके वश में ही है क्योंकि ये वहशी भी किसी माँ बाप के बेटे होते हैं और पता नहीं उनको कम से कम कोई माता पिता तो ऐसी शिक्षा नहीं दे सकता है हाँ उनकी सोहबत ही उन्हें गलत रास्ते पर ले जा सकती है.
उठा के हाथ में कब से मशाल बिठा हूँ ...
12 घंटे पहले