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रविवार, 20 दिसंबर 2020

ये अनमोल रिश्ते !

 ये अनमोल रिश्ता!



                                जीवन में कुछ रिश्ते तो जन्म से बन जाते हैं और कुछ रिश्ते बस भावात्मक रूप से बने होते हैं और वे रिश्ते जो कि मेरे जीवन में इस साल मिले तो मेरा मन गदगद हो गया है। वो रिश्ता जो पापा और चाचा से जुड़े थे। उसे पैतृक घर और स्थान से जुड़े थे। जब मिला तो लगा कि पापा से ही मिल रही हूँ। 

                                ये फेसबुक की ही कृपा कहूँगी कि मुझे श्री रामशंकर द्विवेदी चाचाजी से मिलवाया। मैं उन्हें कितना जानती थी कि वे मेरे पापा पैतृक नगर जालौन में घर के पास ही रहते थे और आगरा विश्वविद्यालय के टॉपर  थे। उसे समय में जब वह उरई में आगरा विश्वविद्यालय में ही लगता है। मैं बहुत छोटी थी - पापा ने ही बताया था कि घर के आगे से डिग्री कॉलेज जाते हैं कि ये कितने विद्वान हैं। वह छवि अभी भी मेरी आँखों के सामने है। धोती कुरता पहने हुए और एक हाथ में धोती का कोना पकड़े हुए जाते हुए वे कॉलेज के प्रोफेसर थे। कभी उसे समय पर गहन परिचय नहीं मिला। फिर फेसबुक पर मैंने उन्हें पाया और उनकी पूरी प्रोफाइल पढ़ी तो समझ गयी और मैंने उन्हें मैसेंजर पर बात की। पापा का नाम सुनकर उन्होंने बहुत सारी बातें बता डाली पापा के बारे में और तय किया कि अबकी बार जब भी उरई आऊँगी जरूर मिलूंगी।  

                                 उस समय के बाद तो कभी न देखा न उनके बारे में जानकारी मिली।  आज उनकी विद्वता के समक्ष सिर झुक जाता है , इस उम्र में भी उनका लेखन जारी है और  अब तक उनकी प्रकाशित पुस्तकों की संख्या अनगिनत है और उनकी सक्रियता और विद्वता देख कर लगता है कि अभी बहुत कुछ माँ सरस्वती के इस वरद पुत्र को लिखना शेष है।                               

                               ये सौभाग्य मिला नवम्बर २०२० में ,  घर के पास ही उनका घर है और कानपुर निकलने के ठीक पहले मैं उनसे मिलने गयी।  मैं अपनी किताब उनको देने के लिए लेकर गयी थी। उनके घर पहुंची तो उनके बेटे से कह दिया वे घर पर नहीं है तो मैं अपनी किताब देकर चली आयी कि ये उनको दे दीजिएगा।  वह घर पर ही थे और जैसे ही उनको किताब दी होगी उन्होंने  पीछे से बेटे को भेजा कि उन लोगों को  बुलाकर लाओ।  हम वापस चल दिए और उन्हें देख कर अभिभूत  हो गयी।  पापा की याद आ गयी।  

                            फिर तो मैं बहुत देर तक रही।  उन्होंने अपने बचपन की यादें दुहराईं।  वे मेरे छोटे चाचा के मित्र थे और कहें कि पास पास घर होने से और हम उम्र भी उन्हें के थे।  वे बातें जो न कभी हमें पापा ने बतलायीं और न ही कोई औचित्य ही था।  चाचा जी ने पापा और मेरे दोनों चाचाओं के विषय में ढेर से यादें खोल कर सामने रख दीं। अपने बचपन की यादें - साथ साथ रहने के समय कैसे वक्त गुजारते थे ?  तब कोई  प्रतिस्पर्धा नहीं होती थी और न ही आर्थिक स्तर की कोई दीवारें थी।  एक लम्बे अरसे से वे चाचा लोगों से भी नहीं मिले थे।  उनके मित्र चाचाजी का तो निधन हो चुका है लेकिन पापा से छोटे भाई बड़े चाचाजी का हाथ अभी  हमारे सिर पर  है।  उनसे हमने वादा किया कि  अगली बार उन्हें जरूर मिलवाएंगे। उन्होंने भी वादा किया कि जब वे कानपुर आएंगे तो मेरे घर जरूर आएंगे। 

                         ये रिश्ता मेरे लिए अनमोल है और हम छोटे  शहर वाले रिश्तों को जीते हैं , कोई अंकल , आंटी नहीं होता बल्कि चाचा, बुआ , भाई और भाभी होते हैं। हम चाहे फेसबुक पर हों या फिर किसी और तरह से जुड़े हों , मिले हों या न मिले हों लेकिन हमारे रिश्ते देश दुनियां में मिलते हैं और हम उतने ही अपनत्व से उनको स्वीकार करते हैं। हमें गर्व है अपनी संस्कृति और रिश्तों को प्यार देने वाले अपने बुजुर्गों , हमउम्र और छोटों पर।  

रविवार, 6 दिसंबर 2020

कोरोना वैक्सीन !

  कोरोना वैक्सीन 


                                  विगत महीनों से  कोरोना ने पूरे विश्व को अपनी अँगुलियों  पर नचा रखा  है और वह इंसान जिसने  कि सम्पूर्ण प्रकृति से  लेकर नक्षत्रों तक को अपने अनुसन्धान  का विषय ही नहीं बनाया बल्कि उन पर अपनी सफलता भी दर्ज की। लेकिन एक वायरस के आगे कठपुतली बन गया।  इसके लिए वैक्सीन सबसे बड़ी ढाल बनने जा रही है और उसके लिए पूरे विश्व में प्रयास चल रहे हैं। 

                                 सारे लोग उसके लिए बेसब्री से इन्तजार से इन्तजार कर रहे हैं।  लोगों ने कोरोना का सही हल मान लिया है , कुछ लोगों  विवाह जैसे कार्य आगे बढ़ा दिए कि वैक्सीन आ जाए तब करेंगे ताकि बड़े बुजुर्ग सभी शामिल हो सकें लेकिन ये भूल गए कि  वह कोई अलादीन का चिराग नहीं है कि आते ही सबको सुरक्षित कर देगी। उसकी सफलता भी देश , वातावरण और स्थानिक स्थितियों पर भी निर्भर करेगा।  हर व्यक्ति ये चाहता है कि वैक्सीन सफल हो और होगी भी लेकिन कितनी ये तो समय ही बताएगा।  

                              अब जब कि  वैक्सीन का ट्रायल शुरू हो चुका है तो उसके परिणामों का इन्तजार और अभी काम शुरू हुआ ही था कि एक झटका लगा आम आदमी की बात होती तो पता  नहीं चलता लेकिन जब एक मंत्री को ये वैक्सीन लगी और उसके दूसरी खुराक के लगने से पहले ही वह कोरोना से ग्रसित  हो गए।  इन सबकी एक निश्चित प्रक्रिया होती है और उसके पूर्ण होने के पश्चात् उसकी सफलता आँकी जा सकती है। हम बेफिक्र कभी भी नहीं जी सकते हैं क्योंकि ये वायरस अपने रूप और लक्षणों को भी बराबर बदलते रहते हैं। कभी ये होने पर  भी बराबर निगेटिव आता रहता है और इस गलतफहमी में मरीज मौत के मुंह  चला जाता है। कभी तो ये मरीज के छूने या फिर संपर्क में आने पर ग्रस लेता है और कभी बराबर साथ रहने बाद भी सुरक्षित रह जाता है।  कभी कभी पूरा का पूरा परिवार ग्रसित हो जाता है और ठीक भी हो जाता है।  कभी कभी सारी सावधानी के बाद भी वह ग्रसित हो जाता है।  विगत दिनों में 600 डॉक्टर्स के इस से ग्रस्त  होकर मरने का आंकड़ा सामने है , इसके साथ ही कितने कोरोना योद्धा इससे ग्रस्त होने के बाद भी लोगों की सेवा में लगे लगे ही अपने जीवन की पारी हार गए।  

                                  इस वैक्सीन के भरोसे रहना अपने को भुलावे में डालने जैसा ही है। वातावरण में बढ़ता प्रदूषण , कोरोना के वायरस के बदलते स्वरूप ने अपने आधिपत्य को अभी भी कायम रखा है।  परीक्षण में आज भी परिणाम सही प्राप्त ही हो रहे हैं ये हम पूरे विश्वास के साथ नहीं कह सकते हैं। वैक्सीन का  तैयार होना और लगाने के लिए सबसे अधिक जरूरतमंद व्यक्तियों को चुनना भी एक कठिन कार्य है।  हमें किसी भी भुलावे में नहीं रहना है।  अपने को इससे बचाने के लिए वह सारी सावधानियां जो हम बरतते चले आ रहे हैं , उन्हें जीवन को सही तरीके से चलाते रहने के लिए मास्क , सैनिटाइज़र और सामाजिक दूरी का पालन हमेशा के लिए अपना कर चलना होगा।  वैक्सीन की सफलता के बाद भी इन को अपनाना बुरा नहीं है। 

                                  ये भी कहते हुए लोगों को सुना है कि जितना  सावधानी बरती जाती है , उतना ही इसका खतरा बढ़ता है , नहीं तो फेरी वालों , भिखारियों और रिक्शे वालों को कोरोना होते कभी न देखा गया है।  अपना जीवन आपका अपने लिए और इसको कैसे जीना है ? ये आपकी अपनी जिम्मेदारी है।  आपका परिवार आपका है और उसके लिए  स्वयं को सुरक्षित रखना और उन्हें भी सुरक्षित रहना आपके ऊपर है। वैक्सीन मिल जाए तो बहुत अच्छा लेकिन इसके साथ ही आप अपनी सुरक्षा के लिए सतर्क रहें तभी बचाव है। वैक्सीन कोई गारंटी वाली  चीज नहीं है कि वह आपको पूरी पूरी सुरक्षा देगी। जीवन शैली  अपनाये रहना होगा कि हम सुरक्षित रहें और दूसरों को भी रहने की दिशा की और प्रेरित करें। 

                               

मंगलवार, 15 सितंबर 2020

हिंदी दिवस और हमारे इरादे !

     
 
                      हमने आज तक देखा कि हिंदी के प्रति बड़ी बड़ी बातें , बड़े बड़े संगठनों और फिर दम तोड़ते उनके इरादे , वादे और हौसले।  हिंदी की नींव  गीतों , कविताओं और कहानियों पर नहीं टिकी  है।  उसको अगर    हम भाषा की जड़ों में खाद पानी देने का कार्य आरम्भ करने की सोचे तो  सिर्फ एक वर्ग विशेष के नारे लगाने से हित  नहीं हो सकता है। हमें अलग तरीके से पहल नहीं करनी होगी।  पहले तो पूरे देश में हिंदी को लागू करने से पहले सभी भारतीय भाषाओँ का सम्मान और उनको समझने और समझाने की पहल करनी होगी।  हम सिर्फ हिंदी की ही बात क्यों करते हैं ? हमें अन्य भारतीय भाषाओँ को आत्मसात करने की बात करनी चाहिए और तभी देश के सभी कोनों से हिंदी , संस्कृत और अन्य भाषाओँ के प्रति रूचि नजर आएगी।
                          हिंदी सिर्फ वर्ग विशेष या सरकार का प्रयास नहीं हो ,   बल्कि इसके सभी के सहयोग की जरूरत है।  इस देश में रहने वाले क्यों भाषाई लकीरों को खींच कर अपने अपने पाले बनायें।  सब एक साथ आएं और सबके पुनर्जीवन का प्रयास करें. चाहे वह आंचलिक भाषाएँ हों या फिर हिंदी।  आंचलिक भाषाओँ को साथ लेकर आगे बढ़ना होगा और तभी सभी हिंदी को आत्मसात कर पाएंगे। जब अपने स्तर पर ही सही विदेशों में बसे भारतीय हिंदी को स्थापित करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील हैं तो फिर देश में ही प्रशासनिक स्तर पर इतनी उदासीनता क्यों दिखलाई देती है ? निम्न मध्यम आय वर्ग के लोग बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ने के लिए जी जान लगा रहे हैं।  अपना पेट काट रहे हैं , ओवरटाइम कर रहे हैं लेकिन बच्चे को वहीँ पढ़ाना  है।  आखिर कब तक ? जब वे बड़ी कक्षाओं में पहुँचते हैं तो उनकी जरूरतों और बढ़ने लगती हैं
                        इसमें सर्वप्रथम समस्त भाषाओँ के व्याकरण के समन्वयन से कार्य आरभ्य हुआ  और इसके लिए स्वर, व्यंजन , अंक प्रणाली से कार्य आरम्भ किया गया।  हम भूल चुके बारहखड़ी की प्रासंगिकता इस समय सिद्ध हुई की दक्षिण की भाषाएँ जो देव नागरी लिपि में नहीं है , उनकी मात्रा प्रणाली से हमारा परिचय इसी माध्यम से हो सकेगा। 
                      हम पूरे देश में हिंदी थोपने की बात नहीं कर रहे है और न अंग्रेजी को भागने की बल्कि सभी को हम साथ लेकर चलें तो देश में सर्वाधिक प्रयोग होने वाली हिंदी स्वतः आगे बढ़ जाएगी और स्वीकार की जायेगी।  हो सकता है कि इसमें समय लगे लेकिन आजादी से लेकर आज तक जो समय हम खो चुके हैं उससे कम समय में हम हिंदी पर गर्व कर रहे होंगे। 
                             हर बार सवाल उठता है कि दक्षिण भारत में हिंदी का विरोध होता है लेकिन ऐसा नहीं है , कई बार मैंने भी दक्षिण भारतीय लोगों के साथ काम किया है और वे सब टूटी फूटी ही सही हिंदी बोलते हैं और  अपनी बात समझा सकते हैं।  हाँ इस मुद्दे को राजनैतिक रंग लेकर भाषाई विवाद को हमेशा के लिए जिन्दा रखने वाले पूरे देश को एक होता हुआ देखना ही नहीं चाहते हैं।  हमें पूरे देश में हिंदी के प्रति प्रेम और ग्राह्यता  लाने के लिए पाठ्यक्रम में पूरे देश में हिंदी को अनिवार्य भाषा बनाने के लिए प्राथमिक स्तर  से ही कदम उठाना होगा और एक भारतीय भाषा की अनिवार्यता भी रखनी होगी ताकि पूरे देश में ये भाव पैदा हो कि उसके साथ ही शेष भाषाओँ को भी प्राथमिकता दी जा रही है और वे हिंदी को बेझिझक अपना सकेंगे।
                  एक बार हाथ तो बढ़ाएँ पूरा देश एकसूत्र में बँधा होगा ।
 
 

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

रास्ते खुद बनाने पड़ते हैं !

 #रास्ते_खुद_बनाने_पड़ते_हैं !


             सच  कहूँ अभी एक लेखिका बहन की आपबीती सुनी  तो अपनी यादें भी फुदकने लगी और मन आया कि जिंदगी वक्त नहीं देगी , चल छीन लेते है और आज तो लिखना ही है । नहीं तो सोचते सोचते महीनों गुजर जाते हैं और फिर दिमाग के एक कोने में बसे बसे अपना अस्तित्व भी खो देती है।          

        पैदा उरई जैसे कस्बे में हुई और अपने घर में तो सब शेर होते हैं । हमारा इण्टर कॉलेज और डिग्री कॉलेज ठीक घर के सामने था तो कदम उतने ही चले । तब लड़कियाँ अकेली कहीं नहीं जाती थीं , बाजार जाना है तो माँ के साथ या छोटी बहन के साथ । बाकी घर में पढ़ाई और लिखाई । स

यानी लड़कियों पर माँ बाप की  ही नजर नहीं रहती थी बल्कि पास पड़ोस वाले सब सजग रहते थे।    

         1980 कानपुर में शादी हुई और ससुराल रही कानपुर विश्वविद्यालय का परिसर। एक तो विश्वविद्यालय ही शहर से दूर जंगल में बसा था ।  कैम्पस से जीटी रोड तक पैदल आओ । वैसे इनके पास दोपहिया वाहन था। पर जब कदम बाहर निकलने को हुए तो हम सड़क पर खड़े थे क्योंकि इनका टूरिंग जॉब था तो हमारे किसी भी मौके पर ये बाहर ही होते । बी.एड. में एडमीशन हुआ , हमें तो कॉलेज मालूम नहीं था । प्रवेश प्रक्रिया तो बगैर गए पूरी हो गयी क्योंकि उसी वक्त मेरी बड़ी बेटी का जन्म हुआ था।  

             एक महीने के बाद ही जिस दिन से कक्षाएँ शुरू होनी थी , इनका टूर था।  अब नक्शा बनाकर दे गये GPS  कहेंगे 1981 का । विश्वविद्यालय गेट से टैम्पो ली तो नक्शे के अनुसार चुन्नीगंज उतरे और तीर के अनुसार बाईं ओर मुड़कर सीधे जाना , जब तक दायीं ओर डीडब्ल्यूटी कॉलेज न दिख जाय । चलते चलते थक गये तब कॉलेज मिला और फिर तो रोज का रुटीन हो गया लेकिन ज्यादा दिन नहीं चल सका क्योंकि बी.एड. तो हमको करना ही नहीं था , तभी तो शादी से पहले  उरई में मेरिट में नाम आने के बाद भी मैंने नहीं किया था। बेटी दो महीने की थी , जाना और आना पूरा दिन लग जाता । तय रहा कि वही पास में अस्थायी निवास खोजा जाय ताकि समय न लगे ।

          विक्टोरिया मिल के पास मिल मजदूरों के बीच एक कमरा बरामदा मिला , सासु माँ मेरे साथ चली और जेठ जी ससुर जी के पास विश्वविद्यालय निवास पर रहे । छोटी बच्ची को छोड़ कर जाना और कई बार क्लास में ही मेरा ब्लॉउज गीला होने लगता।  लंच टाइम में लम्बे लम्बे डग भर कर घर आती बेटी को फीड कराती और तुरंत वापस कॉलेज । लंबा रास्ता छोड़कर शॉर्टकट खोजा और घर जल्दी आ जाती।

        इसके बाद 1984 में हम इंदिरा नगर शिफ्ट हो गये और वह भी जीटी रोड से काफी दूर। कल्यानपुर तक पैदल आइये  फिर शहर की ओर टैम्पो मिलता था ।  फिर नौकरी मिली जुहारी देवी गर्ल्स डिग्री कॉलेज में । पहले दिन फिर पतिदेव की मीटिंग नक्शा थमा कर चले गये । उस तरफ कभी जाना भी नहीं हुआ था । चल दिये GPS के साथ पूछते पाछते पहुँच ही गये। तारीफ की बात ये थी कि  हाथ पकड़ कर चलने वाली उसी के सहारे कॉलेज भी पहुँच गयी और ज्वाइन कर लिया। कानपुर का एक कोना इंदिरानगर और दूसरा कोना जुहारी देवी कॉलेज था।

                  छः महीने बाद ही आईआईटी में नौकरी मिल गयी । वह काफी पास था और कल्याणपुर से सीधे गेट तक टैम्पो और फिर रिक्शा । तो जिंदगी में सारे रास्ते खुद ही खोजने पड़ते हैं , चाहे जितनी भीड़ हो। ी हुई

          मंजिलें तो सबको मिलती हैं , कभी हथेली पर रखी और कभी पीछा करते करते छाले पड़ जाते हैं । हौसले बुलंद हों तो  हार नहीं होती । 





रविवार, 26 जुलाई 2020


कारगिल विजय दिवस !      

                   भारत पाकिस्तान के बीच होने वाले युद्धों की शृंखला में 1965, 1971 के युद्धों में मुँह की खाने के बाद भी वह अपनी आतंकी गतिविधियों से बाज नहीं आया । घुसपैठ के नाम पर पाकिस्तान की नापाक गतिविधियां हमेशा चलती रहती हैं लेकिन शांति का छद्म आवरण ओढ़कर दोनों देशों के बीच फरवरी 1999 में लाहौर घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए गये , जिसमें कश्मीर मुद्दे को दोनों पक्षों द्वारा शांतिपूर्ण ढंग से हल करने का वादा किया गया था ।
          इसके बाद भी पाकिस्तान हर बार की तरह वादा खिलाफी करके अपनी नापाक हरकतों से बाज नहीं आया और उसने चोरी छुपे अपने सैनिकों को नियंत्रण रेखा के पार भेजने का दुस्साहस भी करने लगा और अपने इस काम को उन्होंने "ऑपरेशन बद्र" नाम दिया । उनका इस कार्य के पीछे की मंशा कश्मीर और लद्दाख के बीच की कड़ी को तोड़ना और सियाचिन ग्लेशियर से भारतीय सेना से हटा कर खुद कब्जा करने के बाद एक और विवाद खड़ा करके इसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की थी ।
            भारत ने इसे साधारण घुसपैठ मानकर सोचा कि इन्हें कुछ दिनों में ही पीछे धकेल दिया जायगा । जब नियंत्रण रेखा पर पहुँचने के बाद पता चला कि उनकी सीमा में साधारण घुसपैठ नहीं थी बल्कि एक बड़े युद्ध की तैयारी कर रखी थी । वास्तविकता से वाकिफ होने के बाद भारत सरकार ने ऑपरेशन विजय नाम से 2,00,000 सैनिकों को भेजा गया ।
         कारगिल युद्ध मई 1999 को आरम्भ हुआ और लगभग दो महीने बाद 26 जुलाई 1999 को हमारे लगभग 527  सैनिकों की शहादत और 1300 जवानों को घायल करने के बाद समाप्त हुआ । इन जवानों में सब नवयुवा सैनिक थे , जिन्होंने जीवन के छोटे सी अवधि में इतना सब कर  डाला कि सम्पूर्ण विश्व में तारीफ की गई । इन सभी शहीदों ने भारतीय सेना की शौर्य या बलिदान की सदियों से चली आ रही परम्परा को कायम रखा , जिसकी सौगंध हर जवान वर्दी पहन कर राष्ट्रीय ध्वज के समक्ष लेता है । एक जुनून होता है इन वीरों में । जब दुश्मन इनके सामने होता है तो इनको सिर्फ करो या मारो की घुन सवार होती है और सिर पर कफन बाँध कर ही चलते हैं।  सभी का जज्बा देखने काबिल होता है।
               इन सभी जवानों के सरहद पर जाने से पहले अपने माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी बच्चों से जल्दी ही आने का वादा किया होगा , और वापस आये भी लेकिन तिरंगे में लिपटे हुए , जिसकी रक्षा करने हुए वे बलिदान हुए और नाम भारत के इतिहास में लिखवा कर अमर हो गये । हर भारतीय का रोम रोम उनका कर्जदार है और हमेशा रहेगा।

 श्रीमद्भगवद गीता के द्वितीय अध्याय के 37 वे श्लोक में  कृष्ण का अर्जुन को दिया गया सन्देश :

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।2.37।।


(या तो तू युद्ध में बलिदान देकर स्वर्ग को प्राप्त करेगा अथवा विजयश्री प्राप्त कर पृथ्वी का राज्य भोगेगा।)

गीता के इसी श्लोक को प्रेरणा मानकर भारत के शूरवीरों ने कारगिल युद्ध में दुश्मन को पाँव पीछे खींचने के लिए मजबूर कर दिया था।
      यह विजय दिवस उन शहीदों को याद कर अपने श्रद्धा-सुमन अर्पण करने का है,  जो अपना जीवन को दाँव पर लगा कर  मातृभूमि की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। हिमालय से ऊँचा था साहस उनका हम उनको शत शत नमन करते हैं।  कुछ उन वीरों के विषय में संक्षिप्त में जान लेते हैं , जिन्होंने अपने को न्योछावर कर अपने परिवार, बटालियन , देश का नाम ऊँचा किया।

कैप्टेन मनोज कुमार पांडेय :
जन्म : 25 जून 1975, सीतापुर, उत्तर प्रदेश
शहीद हुए : 3 जुलाई 1999 (24 वर्षीय)
यूनिट : 11 गोरखा राइफल की पहली बटालियन (1/11 जीआर)
मरणोपरांत परम वीर चक्र
शौर्य गाथा:

 1/11 गोरखा राइफल्स के लेफ्टिनेंट मनोज पांडेय की बहादुरी की इबारत आज भी बटालिक सेक्टर के ‘जुबार टॉप’ पर लिखी है। अपनी गोरखा पलटन लेकर दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में ‘काली माता की जय’ के नारे के साथ उन्होंने दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए। अत्यंत दुर्गम क्षेत्र में लड़ते हुए मनोज पांडेय ने दुश्मनों के कई बंकर नष्ट कर दिए।

           कारगिल युद्ध के दौरान 11 जून को उन्होंने बटालिक सेक्टर से दुश्मन सैनिकों को खदेड़ दिया। उनके नेतृत्व में सैनिकों ने जुबार टॉप पर कब्जा किया। वहां दुश्मन की गोलीबारी के बीच भी आगे बढ़ते रहे। कंधे और पैर में गोली लगने के बावजूद दुश्मन के पहले बंकर में घुसे। हैंड-टू-हैंड कॉम्बैट में दो दुश्मनों को मार गिराया और पहला बंकर नष्ट किया। उनके साहस से प्रभावित होकर सैनिकों ने दुश्मन पर धावा बोल दिया। अपने घावों की परवाह किए बिना वे एक बंकर से दूसरे बंकर में हमला करते गए।

                      गम्भीर रूप से घायल होने के बावजूद मनोज अंतिम क्षण तक लड़ते रहे। भारतीय सेना की ‘साथी को पीछे ना छोडने की परम्परा’ का मरते दम तक पालन करने वाले मनोज पांडेय को उनके शौर्य व बलिदान के लिए मरणोपरांत ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया गया।


राइफलमैन संजय कुमार 
जन्म: 3 मार्च, 1976 को विलासपुर हिमाचल
यूनिट :13 JAK RIF
परमवीर चक्र
राइफलमैन संजय कुमार का जन्म 3 मार्च, 1976 को विलासपुर हिमाचल प्रदेश के एक गांव में हुआ था। मैट्रिक पास करने के तुरंत बाद वह 26 जुलाई 1996 को फौज में शामिल हो गए। कारगिल युद्ध के दाैरान संजय 4 जुलाई 1999 को फ्लैट टॉप प्वाइंट 4875 की ओर कूच करने के लिए राइफल मैन संजय ने इच्छा जताई की कि वह अपनी टुकड़ी के साथ अगली पंक्ति में रहेंगे।
संजय जब हमले के लिए आगे बढ़े तो एक जगह से दुश्मन ओटोमेटिक गन ने जबरदस्त गोलीबारी शुरू कर दी और टुकड़ी का आगे बढ़ना कठिन हो गया। ऐसे में स्थिति की गंभीरता को देखते हुए संजय ने तय किया कि उस ठि
राइफल मैन इस मुठभेड़ में खुद भी लहूलुहान हो गए थे, लेकिन अपनी ओर से बेपरवाह वह दुश्मन पर टूट पड़े। इस आकस्मिक आक्रमण से दुश्मन बौखला कर भाग खड़ा हुआ और इस भगदड़ में दुश्मन अपनी यूनीवर्सल मशीनगन भी छोड़ गया। संजय कुमार ने वह गन भी हथियाई और उससे दुश्मन का ही सफाया शुरू कर दिया।
संजय के इस चमत्कारिक कारनामे को देखकर उसकी टुकड़ी के दूसरे जवान बहुत उत्साहित हुए और उन्होंने बेहद फुर्ती से दुश्मन के दूसरे ठिकानों पर धावा बोल दिया। इस दौर में संजय कुमार खून से लथपथ हो गए थे लेकिन वह रण छोड़ने को तैयार नहीं थे और वह तब तक दुश्मन से जूझते रहे थे, जब तक वह प्वाइंट फ्लैट टॉप दुश्मन से पूरी तरह खाली नहीं हो गया। इस तरह राइफल मैन संजय कुमार ने अपने अभियान में जीत हासिल की।
ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव 
जन्म: 10 मई 1980, उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर
यूनिट : 18वीं ग्रेनेडियर्स
ग्रेनेडियर, बाद में सूबेदार मेजर
परमवीर चक्र
सबसे कम आयु में ‘परमवीर चक्र’ प्राप्त करने वाले इस वीर योद्धा योगेंद्र सिंह यादव का जन्म उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जनपद के औरंगाबाद अहीर गांव में 10 मई, 1980 को हुआ था। 27 दिसंबर, 1996 को सेना की 18 ग्रेनेडियर बटालियन में भर्ती हुए योगेंद्र की पारिवारिक पृष्ठभूमि भी सेना की ही रही है, जिसके चलते वो इस ओर तत्पर हुए। उनके पिता भी करन सिंह यादव भी भूतपूर्व सैनिक थे वह कुमायूं रेजिमेंट से जुड़े हुए थे और 1965 तथा 1971 की लड़ाइयों में हिस्सा लिया था।
कारगिल युद्ध में योगेंद्र का बड़ा योगदान है। उनकी कमांडो प्लाटून 'घटक' कहलाती थी। उसके पास टाइगर हिल पर कब्जा करने के क्रम में लक्ष्य यह था कि वह ऊपरी चोटी पर बने दुश्मन के तीन बंकर काबू करके अपने कब्जे में ले। इस काम को अंजाम देने के लिए 16,500 फीट ऊंची बर्फ से ढकी, सीधी चढ़ाई वाली चोटी पार करना जरूरी था।
इस बहादुरी और जोखिम भरे काम को करने का जिम्मा स्वेच्छापूर्णक योगेंद्र ने लिया और अपना रस्सा उठाकर अभियान पर चल पड़े। वह आधी ऊंचाई पर ही पहुंचे थे कि दुश्मन के बंकर से मशीनगन गोलियां उगलने लगीं और उनके दागे गए राकेट से भारत की इस टुकड़ी का प्लाटून कमांडर तथा उनके दो साथी मारे गए। स्थिति की गंभीरता को समझकर योगेंद्र ने जिम्मा संभाला और आगे बढ़ते बढ़ते चले गए। दुश्मन की गोलाबारी जारी थी। योगेंद्र लगातार ऊपर की ओर बढ़ रहे थे कि तभी एक गोली उनके कंधे पर और दो गोलियां जांघ व पेट के पास लगीं लेकिन वह रुके नहीं और बढ़ते ही रहे। उनके सामने अभी खड़ी ऊंचाई के साठ फीट और बचे थे।
उन्होंने हिम्मत करके वह चढ़ाई पूरी की और दुश्मन के बंकर की ओर रेंगकर गए और एक ग्रेनेड फेंक कर उनके चार सैनिकों को वहीं ढेर कर दिया। अपने घावों की परवाह किए बिना यादव ने दूसरे बंकर की ओर रुख किया और उधर भी ग्रेनेड फेंक दिया। उस निशाने पर भी पाकिस्तान के तीन जवान आए और उनका काम तमाम हो गया। तभी उनके पीछे आ रही टुकड़ी उनसे आकर मिल गई।
आमने-सामने की मुठभेड़ शुरू हो चुकी थी और उस मुठभेड़ में बचे-खुचे जवान भी टाइगर हिल की भेंट चढ़ गए। टाइगर हिल फतह हो गया था और उसमें योगेंद्र सिंह का बड़ा योगदान था। अपनी वीरता के लिए ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह ने परमजजवीर चक्र का सम्मान पाया और वह अपने प्राण देश के भविष्य के लिए भी बचा कर रखने में सफल हुए यह उनका ही नहीं देश का भी सौभाग्य है।

कैप्टन विक्रम बत्रा
जन्म: 9 सितंबर, 1974, पालमपुर, हिमाचल प्रदेश
शहीद हुए : 7 जुलाई, 1999 (24 वर्ष)
यूनिट : 13 जेएंडके राइफल
परम वीर चक्र
शौर्य गाथा: इंडियन मिलिट्री एकेडमी से पासआउट होने के बाद 6 दिसंबर, 1997 को लेफ्टिनेंट के तौर पर सेना में भर्ती हुए। कारगिल युद्ध के दौरान उनकी बटालियन 13 जम्मू एंड कश्मीर रायफल 6 जून को द्रास पहुंची। 19 जून को कैप्टन बत्रा को प्वाइंट 5140 को फिर से अपने कब्जे में लेने का निदेश मिला। ऊंचाई पर बैठे दुश्मन के लगातार हमलों के बावजूद उन्होंने दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए और पोजीशन पर कब्जा किया। उनका अगला अभियान था 17,000 फीट की ऊंचाई पर प्वाइंट 4875 पर कब्जा करना। पाकिस्तानी फौज 16,000 फीट की ऊंचाई पर थीं और बर्फ से ढ़कीं चट्टानें 80 डिग्री के कोण पर तिरछी थीं।
7 जुलाई की रात वे और उनके सिपाहियों ने चढ़ाई शुरू की। अब तक वे दुश्मन खेमे में भी शेरशाह के नाम से मशहूर हो गए थे। साथी अफसर अनुज नायर के साथ हमला किया। एक जूनियर की मदद को आगे आने पर दुश्मनों ने उनपर गोलियां चलाईं, उन्होंने ग्रेनेड फेंककर पांच को मार गिराया लेकिन एक गोली आकर सीधा उनके सीने में लगी। अगली सुबह तक 4875 चोटी पर भारत का झंडा फहरा रहा था। इसे विक्रम बत्रा टॉप नाम दिया गया। उन्हें परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया।

कैप्टन अनुज नायर
जन्म : 28 अगस्त, 1975 दिल्ली
शहीद हुए : 7 जुलाई, 1999 (24 वर्ष)
यूनिट : 17 जाट रेजीमेंट
मरणोपरांत महावीर चक्र
शौर्य गाथा: इंडियन मिलिट्री एकेडमी से पासआउट होने के बाद जून, 1997 में जाट रेजिमेंट की 17वीं बटालियन में भर्ती हुए। कारगिल युद्ध के दौरान उनका पहला अभियान था प्वाइंट 4875 पर कब्जा करना। यह चोटी टाइगर हिल की पश्चिमी ओर थी और सामरिक लिहाज से बेहद जरूरी। इसपर कब्जा करना भारतीय सेना की प्राथमिकता थी। अभियान की शुरुआत में ही नैयर के कंपनी कमांडर जख्मी हो गए। हमलावर दस्ते को दो भागों में बांटा गया। एक का नेतृत्व कैप्टन विक्रम बत्रा ने किया और दूसरे का कैप्टन अनुज ने। कैप्टन अनुज की टीम में सात सैनिक थे, जिनके साथ मिलकर उन्होंने दुश्मन पर चौतरफा वार किया।
कैप्टन अनुज ने अकेले नौ पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराया और तीन दुश्मन बंकर ध्वस्त किए। चौथे बंकर पर हमला करते समय दुश्मन ने उनकी तरफ रॉकेट से चलने वाली ग्रेनेड फेंका जो सीधा उनपर गिरा। बुरी तरह जख्मी होने के बाद भी वे बचे हुए सैनिकों का नेतृत्व करते रहे। शहीद होने से पहले उन्होंने आखिरी बंकर को भी तबाह कर दिया। दो दिन बाद दुश्मन सेना ने फिर से चोटी पर हमला किया जिसका जवाब कैप्टन विक्रम बत्रा की टीम ने दिया। कैप्टन नायर को मरणोपरांत महावीर चक्र प्रदान किया गया।

कैप्टन नीकेजाकुओ कैंगुरूसे
जन्म: 15 जुलाई, 1974 नरहेमा, कोहिमा जिला, नगालैंड
शहीद हुए : 28 जून, 1999
यूनिट : 2 राजपूताना राइफल
मरणोपरांत महावीर चक्र
शौर्य गाथा: 12 दिसंबर, 1998 में सेना में भर्ती हुए। जब कारगिल युद्ध शुरू हुआ, वे राजपूताना रायफल बटालियन में जूनियर कमांडर थे। उनकी दृढ़ता और दिलेरी के कारण उन्हें अपनी बटालियन के घातक प्लाटून का नेतृत्व सौंपा गया। 28 जून की रात कैप्टन कैंगुरूसे के प्लाटून को ब्लैक रॉक नामक टीले से दुश्मन को खदेड़ने की जिम्मेदारी मिली। टीले पर चढ़ाई के दौरान ऊपर से दुश्मन के लगातार हमले में कई सैनिक शहीद हुए और खुद कैप्टन को कमर में गोली लगी, लेकिन वे रुके नहीं।
ऊपर पहुंचकर वे एक पत्थर की आड़ में टीले के किनारे लटके रहे। 16,000 फीट ऊंचाई और -10 डिग्री तापमान में बर्फ पर लगातार उनके जूते फिसल रहे थे। लौटकर नीचे आना ज्यादा आसान था, लेकिन वे अपने जूते उतारकर नंगे पैर टीले पर चढ़े और आरपीजी रॉकेट लांचर से सात पाकिस्तानी बंकरों पर हमला किया। दो दुश्मनों को कमांडो चाकू से मार गिराया और दो को अपनी रायफल से। दुश्मनों की गोलियों से छलनी होकर वे टीले से नीचे आ गिरे, लेकिन इतना कर गए कि उनके प्लाटून ने टीले पर कब्जा कर लिया। इस दिलेरी के लिए उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।

स्क्वाड्रन लीडर अजय आहूजा
जन्म: 22 मई, 1963 कोटा, राजस्थान
शहीद हुए : 27 मई 1999
यूनिट : गोल्डन ऐरोज, स्क्वाड्रन नंबर 17
मरणोपरांत वीर चक्र
शौर्य गाथा: नेशनल डिफेंस एकेडमी से पासआउट होने के बाद 14 जून, 1985 को फाइटर पायलट के तौर पर भारतीय वायु सेना में भर्ती हुए। कारगिल युद्ध के दौरान नियंत्रण रेखा के इस तरफ की स्थिति का जायजा लेने के लिए ऑपरेशन सफेद सागर लांच किया गया। इसमें शामिल फ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता के मिग-27एल विमान के इंजन में आग लगने के बाद वह उसमें से बाहर कूदे।
स्क्वाड्रन लीडर आहूजा अपने मिग-21एमएफ विमान में दुश्मन की पोजीशन के ऊपर उड़ान भरते रहे ताकि बचाव दल को नचिकेता की लोकेशन की जानकारी देते रहें। उन्हें अच्छी तरह पता था कि दुश्मन कभी भी उन पर सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल दाग सकता है। हुआ भी ऐसा ही, कुछ ही देर में उनके विमान पर एमआइएम-92 स्ट्रिंगर से वार हुआ। वे अपने विमान से बाहर कूदे। अब वायु सेना को एक नहीं दो बचाव अभियानों को अंजाम देना था। लेकिन वायु सेना को उनकी लोकेशन की जानकारी नहीं मिली। पाकिस्तानी सैनिकों ने उन्हें बंदी बनाकर बेरहमी से उनकी हत्या कर दी। उनके पार्थिव शरीर पर कई गंभीर घावों के निशान दिखे। उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया।

हवलदार यश वीर सिंह तोमर
जन्म: 04 जनवरी, 1960 सिरसाली, उत्तर प्रदेश
शहीद हुए : 13 जून, 1999
यूनिट : 2 राजपूताना राइफल
मरणोपरांत वीर चक्र
शौर्य गाथा: कारगिल युद्ध के दौरान 18 ग्रेनेडियर्स को तोलोलिंग चोटी पर कब्जा करने का निर्देश मिला। ग्रेनेडियर्स के कई विफल प्रयासों के बाद राजपूताना रायफल की दूसरी बटालियन को हमले के लिए आगे किया गया। ग्रेनेडियर्स ने तीन प्वाइंट से राजपूताना को कवर दिया। मेजर विवेक गुप्ता के नेतृत्व में 90 सैनिक अंतिम हमले के लिए आगे बढ़े। इसी पलटन में यश वीर भी शामिल थे। यह पलटन प्वाइंट 4950 को अपने कब्जे में लेने के आखिरी चरण में थी।
12 जून को पाकिस्तान की तरफ से भारी गोलाबारी के बीच जब भारतीय सैनिक एक एक कर शहीद हो रहे थे, तो हवलदार यश वीर सिंह ने ग्रेनेड लेकर पाकिस्तानी बंकरों पर धावा बोला। उन्होंने बंकरों पर 18 ग्रेनेड फेंके और दुश्मनों को मार गिराया। उनके साहस को देखकर दुश्मनों के छक्के छूट गए। उनके पैर उखड़ने शळ्रू ही हुए थे कि इस दौरान वे गंभीर रूप से जख्मी हुए और शहीद हो गए। जब उनका शरीर मिला तो उसके एक हाथ में रायफल और दूसरे में ग्रेनेड थे। तोलोलिंग फतह करने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा। उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया।

कैप्टन सौरभ कालिया
जन्म: 29 जून, 1976 अमृतसर, पंजाब
शहीद हुए : 9 जून, 1999
यूनिट : 4 जाट रेजीमेंट
शौर्य गाथा: कंबाइंड डिफेंस सर्विसेज के जरिए दिसंबर, 1998 में इंडियन मिलिट्री एकेडमी में भर्ती हुए। जाट रेजिमेंट की चौथी बटालियन में पहली पोस्टिंग कारगिल में मिली। जनवरी, 1999 में उन्होंने कारगिल में रिपोर्ट किया। मई के शुरुआती दो हफ्तों में कारगिल के ककसर लांग्पा क्षेत्र में गश्त लगाते हुए उन्होंने बड़ी संख्या में पाकिस्तानी सैनिकों और विदेशी आतंकियों को एलओसी के इस तरफ देखा।
15 मई को अपने पांच साथियों- सिपाही अर्जुन राम, भंवर लाल बगारिया, भीका राम, मूला राम और नरेश सिंह के साथ लद्दाख की पहाड़ियों पर बजरंग पोस्ट की तरफ गश्त लगाने गए। वहां पाकिस्तानी सेना की तरफ से अंधाधुंध फार्यंरग का जवाब देने के बाद उनके गोला- बारूद खत्म हो गए। इससे पहले की भारतीय सैनिक वहां मदद लेकर पहुंच पाते, पाकिस्तानी सैनिकों ने उन्हें बंदी बना लिया। पाकिस्तानी रेडियो स्कार्दू ने खबर चलाई कि कैप्टन सौरभ कालिया को बंदी बना लिया गया है। उन्हें 15 मई से 7 जून (23 दिन) तक बंदी रखा गया और घृणित अमानवीय बर्ताव किया गया। 9 जून को उनके शरीर को भारतीय सेना को सौंपा गया।

मेजर राजेश सिंह अधिकारी
जन्म: 25 दिसंबर, 1970 नैनीताल, उत्तराखंड
शहीद हुए : 30 मई, 1999 (उम्र 28 वर्ष)
यूनिट : 18 ग्रेनेडियर्स
मरणोपरांत वीर चक्र 
शौर्य गाथा: इंडियन मिलिट्री एकेडमी से 11 दिसंबर, 1993 को सेना में भर्ती हुए। कारगिल युद्ध के दौरान 30 मई को उनकी यूनिट को 16,000 फीट की ऊंचाई पर तोलोलिंग चोटी पर कब्जा करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। यह पोजीशन भारतीय सेना के लिए बेहद अहम थी क्योंकि यहीं पर भारतीय सेना बंकर बनाकर टाइगर हिल पर बैठे दुश्मनों पर निशाना साध सकती थी। जब मेजर अधिकारी अपने सैनिकों के साथ लक्ष्य की ओर बढ़ रहे थे तो दुश्मनों ने दो बंकरों से उनपर हमला करना शुरू किया।
12 जून को पाकिस्तान की तरफ से भारी गोलाबारी के बीच जब भारतीय सैनिक एक एक कर शहीद हो रहे थे, तो हवलदार यश वीर सिंह ने ग्रेनेड लेकर पाकिस्तानी बंकरों पर धावा बोला। उन्होंने बंकरों पर 18 ग्रेनेड फेंके और दुश्मनों को मार गिराया। उनके साहस को देखकर दुश्मनों के छक्के छूट गए। जब उनका शरीर मिला तो उसके एक हाथ में रायफल और दूसरे में ग्रेनेड थे। तोलोलिंग फतह करने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा। उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया।

 
* शहीदों के विषय में जानकारी का स्रोत गूगल है।


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गुरुवार, 23 जुलाई 2020

हरियाली तीज !


                 



  हरियाली तीज का उत्सव सावन के महीने में शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। यह नाग पंचंमी के दो दिन पहले होता है और यह उत्सव भी सावन  के अन्य उत्सवों की तरह से महिलाओं का उत्सव है। सावन में जब सम्पूर्ण प्रकृति हरी हरी दिखलाई देती है और ऐसे में किसी का भी मन उस प्रकृति के बीच नाचने और गाने का करता है। इसमें स्वभाव के अनुसार महिलायें उल्लसित मन से इस तीज पर सज संवर कर , हाथों और पैरों में मेंहदी सजा कर अधिकतर हरी या रंग बिरंगी साड़ियों में और आभूषणों से सजी पेड़ों पर पड़े झूले पर झूलती हुई आपस में चुहल करती उत्सव को और हास परिहास से पूर्ण बनाती हैं।
                    सुहागन स्त्रियों के लिए यह व्रत काफी मायने रखता है। आस्था, उमंग, सौंदर्य और प्रेम का यह उत्सव शिव-पार्वती के पुनर्मिलन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। चारों तरफ हरियाली होने के कारण इसे हरियाली तीज कहते हैं। रिमझिम फुहारों के बीच तन-मन जैसे नृत्य करने लगता है। महिलाएं झूला झूलती हैं, लोकगीत गाती हैं और खुशियां मनाती हैं। इस उत्सव में हर उम्र की महिलायें और लडकियाँ शामिल होती है।  नव विवाहित युवतियां प्रथम सावन में मायके आकर इस हरियाली तीज में सम्मिलित होने की परम्परा है। हर‌ियाली तीज के द‌िन सुहागन स्‍त्र‌ियां हरे रंग का ऋृंगार करती हैं। नवविवाहिता लड़कियां अगर अपने मायके में होती है तो ससुराल से उनके लिए श्रृंगार का सामान , आभूषण , सजे हुए कपड़े और मिठाई आदि भेजी जाती है और अगर वह अपनी ससुराल में होती है तो मायके से उसके लिए यही सब सामान भेजा जाता है , जिसे वह अपनी सास या घर की अन्य बुजुर्ग महिलाओं को देकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करती हैं।  उत्तर प्रदेश में जो सामान वधु या बेटी के लिए भेजा जाता है उसे श्रावणी कहते हैं।             
                               हरियाली  तीज के अनेक भागों में मनाई जाती है, परन्तु राजस्थान के जयपुर में इसका विशेष महत्त्व है। तीज का आगमन भीषण ग्रीष्म ऋतु के बाद पुनर्जीवन व पुनर्शक्ति के रूप में होता है। यदि इस दिन वर्षा हो, तो यह और भी स्मरणीय हो उठती है। लोग तीज जुलूस में ठंडी बौछार की कामना करते हैं। ग्रीष्म ऋतु के समाप्त होने पर काले - कजरारे मेघों को आकाश में घुमड़ता देखकर पावस के प्रारम्भ में पपीहे की पुकार और वर्षा की फुहार से आभ्यंतर आनन्दित हो उठता है। ऐसे में भारतीय लोक जीवन  हरियाली तीज का पर्वोत्सव मनाता है।

रविवार, 21 जून 2020

बालिका संरक्षण गृह क्यों संदिग्ध हैं ?

                    आज फिर वही खेल सामने आया और यह कोई पहली बार नहीं हुआ है । पूरा इतिहास है हमारे सामने  कि बाल संरक्षण गृह में रहने वाली नाबालिग बच्चियों में से 57 कोरोना पॉजिटिव पाई गयीं , ये कहीं जाती नहीं है फिर भी इससे लज्जाजनक बात तो ये है कि उन में से 2 नाबालिग बच्चियाँ  गर्भवती है और इनमें कहा जा रहा है कि दोनों बच्चियाँ आने से पहले से गर्भवती थीं । उनमें एक एच आईवी पॉजिटिव है और दूसरी हेपेटाइटिस सी से ग्रसित है । संबंधित अधिकारी इस विषय में चुप्पी साधे हैं तो एक प्रश्नचिह्न खड़ा है ।
         ये कानपुर की ही घटना है । इन 57 बच्चियों के भी परीक्षण की जरूरत है कि उनमें से कितनी अन्य संक्रमण की शिकार नहीं है ? इनको कहीं भेजा जाता है या फिर उनके शोषण के लिए वहाँ किसी को बुलाया जाता है । कौन कौन शामिल है ?  यहाँ बात कोरोना की ही नहीं है बल्कि इन बच्चियों के शोषण का है । संरक्षण गृह की संरक्षिका,  वहाँ का स्टाफ या फिर रसूख वाले लोगों के दबाव में बच्चियों का.शोषण किया जाता है । सरकारी नियंत्रण का क्या है ?
         अगस्त 2014 में  मुज्जफरपुर आश्रय गृह के बाद , अपने इतिहास को दुहराता  अगस्त , 2018 देवरिया आश्रय गृह का लड़कियों के होते यौन शोषण ने अब प्रश्न खड़ा कर दिया है कि क्या ये संवासिनी गृह , अनाथालय , बालिका सुधार गृह , नारी कल्याण केंद्र , वृद्धाश्रम , बाल संरक्षण गृह सब के सब ऐसे यौन शोषण  के ही अड्डे बने हुए हैं।  एक बार हुई घटना के बाद क्यों नहीं सबक लिया जाता है।  क्या गुनाह है उन लड़कियों का , वे सिर्फ अनाथ हैं या किसी जाने अनजाने अपराध में या साजिश में अपराधी घोषित हुईं ,  घर के अत्याचार से तंग आकर घर से भाग आईं  , लेकिन उन्हें इन सबसे कोई सरोकार न था। रसूख के चलते बच्चियों की मेडिकल रिपोर्ट साफ सुथरी दिखाई गयीं ।
                            कुछ साल पहले 2012 का इलाहबाद के बालिका संरक्षण गृह में नाबालिग बच्चियों के यौन शोषण की बात सामने आयी थी और उसके पीछे भी बहुत सारे प्रश्न खड़े हो गए थे लेकिन फिर आगे क्या हुआ ? इसके बारे में कोई भी पता नहीं है।  वहां की  वार्डेन अपने घर में रहती थी और बच्चियां पुरुष नौकरों के सहारे छोड़ दी जाती थीं। सरकारी संस्थाओं में ये हाल है कि वार्डेन के पद पर काम करने वाली महिला संरक्षण गृह से दूर अपने घर में सो रही है और बच्चियां पुरुषों के हवाले करके।  जिम्मेदार लोगों को सिर्फ और सिर्फ अपने वेतन से मतलब होता है। शायद  उनकी संवेदनाएं भी मर चुकी होती हैं।  प्रश्न यह है कि बच्चियों की संरक्षा का दायित्व महिलाओं को क्यों नहीं सौप गया था ? ऐसा किस्सा कानपुर में भी हुआ था , जब संवासिनी आश्रम छोड़ कर भागने लगती हैं तो फिर खलबली मच जाती है।   रसूखदार लोगों के चल रहे बाल गृह एक धंधा मात्र है सरकारी पैसे को हड़पने का और अपने काले धन को सफेद बनाने का।
                                   जून २०१६ को कानपु र के निकट रनियां में एक बाल संरक्षण गृह शांति देवी मेमोरियल  संस्था द्वारा संचालित  शिशु गृह एवं बाल गृह में से शिशु गृह में ५ बच्चियों की कुपोषण के कारण मौत हो गयी थी और तब उसको बंद करने का आदेश दिया गया था और बच्चियों को दूसरी जगह भेज दिया गया था।
                    बाल गृह में भी 23 अगस्त 2016 को 7 वर्षीय मासूम की मौत हो गयी।   यहाँ पर पालने वाले बच्चों के प्रति कौन जिम्मेदार होता है ? ये केंद्र बगैर निरीक्षण के कैसे चलते रहते हैं ? राज्य की भी कोई जिम्मेदारी होती है या नहीं। कितने आयोग चल रहे हैं ? मानव संसाधन मंत्रालय , महिला एवं बाल विकास मंत्रालय और भी कई परियोजनाओं के अन्तर्गत इस तरह की संस्थाएं को अनुदान मिलता है लेकिन इसके बाद क्या कोई उत्तरदायित्व नहीं बनता है कि वे जाने इन में पालने वाले या संरक्षित किये जाने वाले बच्चों का हाल क्या है ? उनके रहने , खाने और चिकित्सा व्यवस्था कैसी है ? एक टीम को इसके लिए नियुक्त किया जाना चाहिए जो समय समय पर इनका निरीक्षण करे। बशर्ते कि  वे भी इन संस्थाओं की तरह पैसा बनाने का काम न करते हों।                                                 
कैसा जीवन बिताती हैं ? --
                                   इन संरक्षण गृहों में वे कैसा जीवन बिताती हैं , ये जाने की न कोई महिला आयोग कभी जानने की कोशिश करता है और न ही सरकार का कोई भी विभाग ऐसा है।  उनसे गृहों में साफ सफाई , बाकी घरेलू  काम करवाए जाते हैं  , जबकि सरकार की तरफ से इन गृह संचालकों को एक मोटी रकम मिलती है इनके भरण पोषण के लिए। वह कहाँ जाती है ? इसका कोई हिसाब किताब कहीं माँगा जाता है या फिर रसूख वाले और दबंगों को ये काम दिया जाता है। इस काम में सिर्फ पुरुष ही दोषी हों ऐसा नहीं है बल्कि महिलाये भी ऊपर के अफसरों को खुश करने के लिए और अपनी आमदनी बनाये रखने के लिए लड़कियों को प्रयोग करती हैं।
                                                            आश्रम या गृह- समाज सेवा का प्रतीक माने जाते हैं  जैसे -- सरकारी नारी कल्याण केंद्र , वृद्धाश्रम , बाल सुधार केंद्र या बालिका सुधार गृह , अनाथालय , संवासिनी गृह और बाल संरक्षण गृह का नाम सुनकर ये ही लगता है।  लेकिन इनको चलाने वाले एनजीओ में होने वाली गतिविधियों से यही समझ आता है कि कुछ लोग जोड़ तोड़ कर सरकारी सहायता प्राप्त कर दुनियां का दिखावा करके एनजीओ खोल लेते हैं और फिर उसे बना लेते हैं अपनी मोटी आमदनी का एक साधन। सब कुछ कागजों पर चलता रहता है , जब तक कि कोई बड़ी वारदात सामने नहीं आती है।  उसके पीछे का खेल एक दिन सामने आता है।एक एनजीओ को तो मैं भी अपने ही देखते देखते करोड़पति होने की साक्षी हूँ बल्कि कहें हमारे घर से दो किमी की दूरी पर है। वर्षों में उसी के सामने से ऑफिस जाती रही हूँ और वह सिर्फ ईंटों से बने स्कूल के मालिक ने कुछ ही सालों में इंटर कॉलेज , फिर डिग्री कॉलेज और साथ ही संवासिनी आवास तक बना डाले और फिर जब संवासिनी की मौत हुई और उसपर की गयी लीपापोती ने सब कुछ सामने ला दिया।
                           ये सिर्फ एक एनजीओ की कहानी नहीं है बल्कि ऐसे कितने ही और मिलेंगे। ,ये तो निजी आश्रम तो बनाये ही इसी लिए जा रहे हैं कि  वह इनके नाम पर सरकारी अनुदान लेने की नीयत होती है।  साम दाम दंड भेद सब  अपना कर पैसे वाले बनाने का काम बहुत तेजी से चल निकला है। इन तथाकथित समाज सेवकों के दोनों हाथ में लड्डू होते हैं , समाज में प्रतिष्ठा , प्रशासन में हनक और हर महकमें में पैठ।  धन आने के रास्ते खुद बा खुद खुलते चले जाते हैं। इन पर सरकार का कोई अंकुश नहीं होता है क्योंकि मिलने वाले अनुदान में सरकारी विभागों का भी हिस्सा होता है और फिर कौन किससे हिसाब माँगेगा या फिर निरीक्षण करने आएगा।  सारी खाना पूरी कागजों पर होती रहती है।

अनुदान के बाद निरीक्षण 
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                           बाल संरक्षण गृह के नाम पर भी लोग अपना व्यवसाय चला रहे हैं। इसमें सभी शक के दायरे में नहीं आते हैं, लेकिन इन संरक्षण गृहो का जीवन अगर अंदर झांक कर कोई देखना चाहे तो संभव नहीं है और इसके लिए सहायक महिला आयोग , मानव संसाधन मंत्रालय , मानवाधिकार आयोग सब कहाँ सोते रहते हैं ? किसी की कोई भी जिम्मेदारी नहीं बनती है।  अगर संरक्षण गृह खोले गए हैं तो उनका  निरीक्षण भी उनका ही दायित्व बनता है।  एक दिन न सही महीनों और सालों में तो उन पर दृष्टिपात करना ही चाहिए।  वह हो इस लिए नहीं पाता  है क्योंकि पहुँच ही सारी कार्यवाही कागजों पर पूरी करवा देती है और फिर ये संरक्षण गृह यातना गृह बने होते हैं। इनका रख रखाव और साफ सफाई , खाना पीना सब कुछ ऐसा कि जिसे आम आदमी के खाने काबिल भी न हो। सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार कहा था कि उत्तर प्रदेश में महिला आयोग जैसी कोई चीज है भी या नहीं क्योंकि हर जगह अराजकता के बाद भी इस आयोग को कभी सक्रिय होते नहीं देखा जाता है।  निराश्रितों , संवासिनियों , अबोध बालिकाओं में संरक्षण किसका होता है ? इसके बारे में सिर्फ कागजात साक्षी होते हैं। 

 सरकार का दायित्व 
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        बीमार कर देने वाला वातावरण और बदबू और सीलन से भरे हुए कमरे जिनमें वह बच्चे कैसे जीते हैं ? ये जानने की कोई भी जरूरत नहीं समझता है। निजी एनजीओ की बात तो हम बाद में करेंगे पहले हम सरकारी सरंक्षण ग्रहों की बात कर लें।  इनमें से आये दिन संवासनियां मौका मिलते ही भाग जाती हैं।  बाल संरक्षण गृहों से भी बच्चों के भागने की खबर मिलती रहती है।  अगर यहाँ पर उन्हें वह वातावरण मिलता है जिसके लिए उनको भेजा गया है तो वे अनाथ या संरक्षणहीन बच्चे  क्यों भागेंगे ? सब जगह ऐसा होता हो ये मैं नहीं कह सकती लेकिन अव्यवस्था और विवादित रखरखाव् पर सरकार को दृष्टि तो रखनी ही चाहिए।  किसी को तो ये सब चीजें संज्ञान में रख कर इनके प्रति जिम्मेदार होना चाहिए।               
                   इतनी सारी अनियमितताओं के बाद भी किसी की नींद खुलती नहीं है।  सरकारें आती और जाती रहती हैं लेकिन ये सब उसी तरह से चलती रहती हैं क्योंकि सरकार इस बात से अवगत ही नहीं है कि  कहाँ कहाँ और कितना अनुदान जा रहा है।  विभागों में सब कुछ निश्चित है कि  कितने अनुदान पर कितने प्रतिशत देना होगा।  वहां से चेक जारी ही तब होता है जब आप अग्रिम राशि के रूप में उन्हें चेक दे दें।


शुक्रवार, 12 जून 2020

कभी यही हमारा जीवन था !

        जब से कोरोना वायरस का हमारे देश मेंं प्रवेश हुआ , एक साथ बहुत सारी चीजों के लिए सतर्क हो गए लेकिन हमारे ग्रामीण जीवन में किसी विशेष चीज को करने की आवश्यकता नहीं पड़ी क्योंकि उन सब चीजों को उन्होंने पहले ही अपना रखा है । अपने बचपन में या युवावस्था में अपने घरों में, अपने गाँँवों में यह सब चीजें हमने पहले से ही देखी है । यह चीजें हमारी संस्कृति में शायद हमारे जीवन में शामिल थीं ऋऔर हमारे आचरण को एक अलग दिशा देती थी। इससे हमें किसी और चीज से बचने की परहेज करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी, जिसे हम क्वॉरेंटाइन हैं।
        ..     क्वॉरेंटाइन हमारे ग्रामीण जीवन में हमारे माता-पिता के जीवन काल से ही चला आ रहा है :--

         व्यक्तिगत  क्वॉरेंटाइन :--

           हमारे घरों में प्रसव  होने पर ही प्रसूता को सबसे अलग कर दिया जाता था। उसे इस नाम से कभी नहीं समझा जाता था, कहा जाता था कि इस घर में सूतक लगा है । प्रसूता को सबसे अलग रखा जाता था , उसको कोई छू नहीं सकता था , साफ सफाई के लिए साथ ही किसी भी प्रकार के संक्रमण से बचाने के लिए प्रसूता और बच्चे के कमरे में  बराबर आग जला कर रखी जाती थी । विशेष  कार्य के लिए अगर कोई प्रसूता के पास जाता , उसे छूना होता तो बाहर आकर नहाना होता था।  हम  जानते हैं ये अवधि किसी घर में 12 दिन , किसी घर में सवा महीने तक प्रसूता रसोई या पूजा आदि कार्य नहीं कर सकती थी । ऐसा उसको शारीरिक आराम देने के लिए , उसको किसी संक्रमण से बचाने के लिए पहले से ही ये व्यवस्था बनाई गई थी ।  प्रसूता को गरम जड़ी बूटियों वाला पानी ही दिया जाता था । खाने में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए गरम ड्राई फ्रूट गुड़ के साथ लड्डू और कतली बना कर दिया जाता था ।

 परिवार का होम क्वॉरेंटाइन :-
 
               इसी तरह किसी परिवार में मृत्यु होने पर उस परिवार के घर में खाना पीना बनना वर्जित होता है और आस पड़ोस के लोग उन लोगों के लिए खाने-पीने की सामग्री बनाकर देते थे । इस दिशा में वह लोग उनके घर से कुछ नहीं लेते थे बल्कि उस परिवार के लोग दूसरों के यहाँँ प्रवेश नहीं करते हैं । उस समय भी एक तरह से उस परिवार को क्वॉरेंटाइन कर दिया जाता था। मृत्यु के इस काल को भी सूतक काल कहा जाता है। शांति हवन या तेरहवीं के पश्चात ही वे लोग  सामाजिक जीवन मैं शामिल हो पाते थे । चाहे जहाँँ भी,  चाहे जिस तरह भी मृत्यु क्यों न हुई हो,  घर में पूरी साफ सफाई की जाती थी -  जैसे कोरोना के रोगी को छूने की अनुमति नहीं होती है , उसी तरह दिवंगत के कपड़े , बिस्तर आदि  घर से बाहर फेंक दिया जाता है। घर की लिपाई पुताई शायद इसी उद्देश्य की जाती है कि किसी भी तरह का संक्रमण घर में ना रह जाए। दीवारों को चूने से पुताई की जाती थी और जमीन के कच्चे फर्श को गोबर और मिट्टी मिलाकर पोता जाता था जिससे सफाई बरकरार रहे पक्के मकानो में भी शव के हटते ही घर की धुलाई की जाती है ।

सोशल डिस्टेंसिंग :-

             जो आज के समय में आवश्यक मानी जा रही  है । वह हम सदियों से प्रयोग करते आ रहे  हैं। अजनबी आने वाले व्यक्ति को अभिवादन करके स्वागत करने की प्रथा हमारे यहां थी, लेकिन तब दूर से ही 'राम-राम', पाँय लागूँ , जय राम जी की ' कहकर होता था । फिर नमस्कार, प्रणाम आदि भी दूर से ही किया जाता था । चौपाल पर भी गाँव के लोग दूर दूर ही बैठते थे । ये उनके जीवन चर्या का अंग सदैव रहता था।

व्यक्तिगत सफाई :-

            कोरोना से बचने के लिए घर में घुसते ही सबसे पहले जूते चप्पल बाहर छोड़ना, फिर हाथ पैर मुंह धोना और बाहर की कपड़े उतार कर नहा कर ही अंदर प्रवेश करना जैसे आवश्यक है , उसी तरह से हमारे ग्रामीण परिवेश में आज भी और हमारे जीवन में पारंपरिक तौर पर कहीं से भी आने पर जूते चप्पल बाहर निकालना हाथ पैर मुंह धो के घर के अंदर प्रवेश करना आवश्यक है और इससे हमारी विभिन्न प्रकार के रोगों से बचत होती रही । जब पश्चिमी संस्कृति ने  हमारे जीवन में कदम रखा और हमने अपने को सुशिक्षित और सुसंस्कृत कहलाने के लिए अपनी पुरानी परंपराओं को तोड़ना शुरू कर दिया ताकि हम आधुनिक कहला सकें ।  पैर में चप्पल हर समय रहती है । जबकि पहले चप्पल घर में हर समय पहनना आवश्यक नहीं था । अभिवादन नमस्कार की जगह हाथ मिलाने ने ले लिया । इस प्रकार के कार्य हमने जब करने छोड़ दिए और हम प्रगतिशील कहलाने लगे तभी एक झटका लगा कोरोना के आने से हमको अपनी प्राचीन संस्कृति ग्रामीण संस्कृति याद आने लगी और हम फिर हाथ जोड़कर नमस्कार करें , अपने जूते चप्पल को बाहर छोड़ने हाथ पैर धो कर घर के अंदर प्रवेश करने की परंपरा को अपनाने लगे। हमारे लिए कुछ नया नहीं बल्कि हम तो यह सदियों से देखते और करते चले आ रहे हैं , कभी भी बगैर हाथ पैर धोए खाना खाने के लिए नहीं बैठा जाता और भोजन भी रसोई के पास जमीन में चटाई पर बैठकर , चौकी पर बैठकर खाते थे। तब हमें कभी भी किसी भी निसंक्रमण जरूरत नहीं पड़ी । हम सुरक्षित है और हमारे पूर्वजों की आयु 100 वर्ष तक की होती थी और उन्हें इसी प्रकार की कोई गंभीर बीमारी नहीं देखी गई।
कोरोना के कारण घर में कैद होकर रह गए , क्योंकि जिसे हम सामाजिक जीवन कहते हैं -- पार्टियाँँ , डाँस पार्टी,  होटल और रेस्तरां में जाकर लंच डिनर लेना ।  मॉल में जाकर शॉपिंग करना और शाम को खाना खाते हुए घर आना। बाहर खाना खाते हुए भले ही हम चम्मच से खाएं लेकिन वहाँँ  लोगों को कभी भी हाथ धोकर आते हुए नहीं देखा। टेबल पर अपने ऑर्डर को पूरा करने के लिए बैठे रहते हैं और फिर खाकर ही घर आते हैं । आज के लोगों का जीवन स्तर बन चुका था । लेकिन आज वह अपनों से मिलते हुए भी डरता है , पता नहीं कब क्या हो जाए ?

अंतिम क्रिया :--

              हमारी यह कल्पना हमारा शरीर पांच तत्वों से बना हुआ है और शव के  शवदाह करने से शरीर उन्हें उन्हें पंचतत्व में विलीन हो जाता है और उसकी अस्थियों को जल में प्रवाहित करके अपना कार्य पूर्ण किया जाता था  यह सिर्फ हिंदू संस्कृति की विशेषता और विश्वास था,  लेकिन इसको कोरोना ही नहीं बल्कि मरीजों को के शवदाह करने की बात सामने आई तो जो लोग शवों को दफनाते थे , वे भी सबको शवदाह गृह में जाकर अंतिम संस्कार कर रहे हैं । बल्कि अब तो शव छूने या उसके पास जाने की अनुमति नहीं होती है और कहीं-कहीं तो शव को लेने से इंकार कर देते हैं  यह विडंबना है उन लोगों की जो कि यदि अंतिम संस्कार सनातन धर्म के अनुसार नहीं होती है तो आत्मा भटकती रहती है।

गुरुवार, 4 जून 2020

विश्व पर्यावरण दिवस !

विश्व पर्यावरण दिवस !

   विश्व पर्यावरण दिवस की आवश्यकता संयुक्त राष्ट्र संघ ने महसूस की और इसी लिए प्रतिवर्ष 5 जून को इस दिवस को मनाने के लिए निश्चित किया गया । विश्व में लगभग 100 देश विश्व पर्यावरण दिवस मनाते हैं । धरती से हरियाली के स्थान पर बड़ी बड़ी बहुमंजिली इमारतें दिखाई दे रहीं हैं ।

         नेशनल हाईवे के निर्माण के नाम पर मीलों लंबे रास्ते एक कतरा छाँव से रहित है। पथिक पहले तो पैदल ही चलते थे पेड़ों के नीचे सुस्ताकर कुँए का शीतल जल पीकर आगे की रास्ता लेते थे । अब तो कुछ शेष नहीं तो अगर हम वृक्षों को नहीं रहने देंगे तो वह हमें कहाँ से और कैसे छाया देंगे?

      मानव सुख की कीमत
 
                               दिन पर दिन आगे बढ़ रही  हमारी वैज्ञानिक प्रगति और नए संसाधनों से हम सुख तो उठा रहे हैं, लेकिन अपने लिए पर्यावरण में विष भी घोल रहे हैं। हाँ हम ही घोल रहे हैं। प्रकृति के कहर से बचने के लिए हम अब कूलर को छोड़ कर किसी तरह से ए सी खरीद कर ठंडक का सुख उठाने लगे हैं, लेकिन उस ए सी  से निकलकर विपरीत दिशा में जाने वाली गैस उत्सर्जन से पर्यावरण को और प्रदूषित कर रहे हैं। सभी तो एसी नहीं लगवा  सकते हैं। लेकिन इससे उत्सर्जित होने वाली गैसें दूर दूर तक लगे पोधों को सुखाने के लिए पर्याप्त है । पेड़ों पर शरण न मिली तो पक्षी कहाँ जायेंगे । इस भयंकर गर्मी से और वृक्षों के लगातार कम होने से पशु और पक्षी भी अपने जीवन से हाथ धोते चले जा रहे हैं।

   खेतों का व्यावसायिक प्रयोग होने लगा है कुछ क्षणों का सुख समझ कर हम अपनी ही साल दर साल आजीविका देने वाले खेतों को बेच कर शहर में बसने का सपना पूरा करने लगे हैं लेकिन वो कितने दिन का सुख है। वे न भी बेचें तो हमारी सर्कार हाइवे और सड़क बनाने के नाम पर जबरन मुआवजा के नाम पर पैसे देकर खेतों को अधिकार में ले रहे है और उनके लिए कोई व्यवसाय भी नहीं होता है। 
 
    जिन खेतों में लहलहाती फसलें ,
     अब उन पर इमारतें उग रही हैं ।
                                   - अज्ञात
     ये पंक्तिया हमें आइना दिखा रही हैं ।
                        
          हम  लम्बे लम्बे भाषणों को सुनते चले आ रहे हैं और सरकार भी प्रकृति को बचाने के लिए मीटिंग करती है , लम्बे चौड़े प्लान बनाती है और फिर वह फाइलों में दब कर दम तोड़ जाते है क्योंकि शहर और गाँव से लगे हुए खेत और बाग़ अब अपार्टमेंट और फैक्ट्री लगाने के लिए उजाड़े  जाने लगे हैं।  अगर उनका मालिक नहीं भी बेचता है तो उनको इसके लिए विभिन्न तरीकों  से मजबूर कर दिया जाता है कि वे उनको बेच दें और मुआवजा लेकर हमेशा के लिए अपनी रोजी-रोटी और अपनी धरती माँ से नाता तोड़ लें। कुछ ख़ुशी से और कुछ मजबूर हो कर ऐसा कर रहे है। ऊँची ऊँची इमारतें और इन इमारतों में जितने भी हिस्से या फ्लैट बने होते हैं उतने ही ए सी लगे होते हैं , कभी कभी तो एक फ्लैट में दो से लेकर चार तक एसी होते हैं । उनकी क्षमता के अनुरूप उनसे गैस उत्सर्जित होती है और वायुमंडल में फैल जाती है । हम सौदा करते हैं अपने फायदे के लिए, लेकिन ये भूल रहे है कि हम उसी पर्यावरण में  विष घोल रहे है ,जिसमें उन्हें ही नहीं बल्कि हमें भी रहना है। उन्हें गर्मी से दो चार नहीं होना पड़ता है क्योंकि घर में एसी , कार में एसी और फिर ऑफिस में भी एसी । गर्मी से बचने के लिए वे ठंडक खरीद सकते हैं लेकिन एक गर्मी से मरते हुए प्राणी को जीवन नहीं दे सकते हैं। इस विषाक्त होते पर्यावरण को वे की भी कीमत लेकर शुद्ध नहीं कर सकते हैं।
               
    मोबाइल टावर : -

         मोबाइल के लिए टावर लगवाने का धंधा भी खूब तेजी से पनपा  और प्लाट , खेत और घर की छतों पर काबिज हो गए लोग बगैर ये जाने कि इसका जनसामान्य के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है ? उससे मिलने वाले लाभ को देखते हैं और फिर रोते भी हैं कि  ये गर्मी पता नहीं क्या करेगी ? इन टावरों निकलने वाली तरंगें स्वास्थ्य के लिए कितनी घातक है ? ये भी हर इंसान नहीं जानता है लेकिन जब इन टावरों में आग लगने लगी तो पूरी की पूरी बिल्डिंग के लोगों का जीवन दांव पर लग जाता है। इन बड़ी बड़ी बिल्डिंगों में पेड़ पौधे लगाने के बारे में कुछ ही लोग सोचते हैं और जो सोचते हैं वे छतों पर ही बगीचा  बना कर हरियाली  फैला रहे है।

      जैविक चिकित्सकीय कचरा :-
   
          पर्यावरण को दूषित करने वाला आज सर्वाधिक जैविक चिकित्सकीय कचरा बन रहा है । जिस तेजी से नर्सिंग होम खुलते चले जा रहे है , उतना ही कचरे का निष्कासन बढ़ रहा है । उसके निस्तारण के प्रति कोई भी सजग नहीं है । सिर्फ कुछ सौ रूपयों के पीछे ये कचरा निस्तारण करने वाली संस्थाओं को न देकर अस्पतालों के पीछे या थोड़ी दूर पर फेंक दिया जाता है । ये जीवन रक्षण केन्द्र है या बीमारी फैलाने का स्रोत ? इसमें घातक बीमारियों के फैलाने वाले तत्व भी होते हैं। जानवर इनको इधर उधर फैला देते हैं और वह वाहनों में फँस कर मीलों तक फैलतचला जाता  न है ।

                     हम औरों को दोष क्यों दें ? अगर हम बहुत बारीकी से देखें तो ये पायेंगे कि  हम पर्यावरण को किस तरह प्रदूषित कर रहे हैं और इसको कैसे रोक सकते हैं ? सिर्फ और सिर्फ अपने ही प्रयास से कुछ तो कर ही सकते हैं . यहाँ ये सोचने की जरूरत नहीं है कि और लोगों को चिंता नहीं है तो फिर हम ही क्यों करें? क्योंकि आपका घर और वातावरण आप ही देखेंगे न . चलिए कुछ सामान्य से प्रयास कर पर्यावरण दिवस पर उसको सार्थक बना ही लें क्योंकि हमको भी इसमें ही जीना है और इससे ज्यादा हम अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या देकर जाएँगे ?

* अगर हमारे घर में जगह है तो वहां नहीं तो जहाँ पर बेकार जमीन दिखे वहां पर पौधे लगाने के बारे में सोचें।  सरकार वृक्षारोपण के नाम पर बहुत कुछ करती है लेकिन वे सिर्फ खाना पूरी करते हैं और सिर्फ फाइलों में आंकड़े दिखाने के लिए। आप लगे हुए वृक्षों को सुरक्षित रखने के लिए प्रयास कर सकते है।

* अगर आपके पास खुली जगह है तो फिर गर्मियों में एसी चला कर सोने के स्थान पर बाहर  खुले में सोने का आनंद लेना सीखें तो फिर कितनी ऊर्जा और गैस उत्सर्जन से प्रकृति और पर्यावरण को बचाया जा सकता है .

*  डिस्पोजल वस्तुओं का प्रयोग करने से बेहतर होगा कि  पहले की तरह से धातु बर्तनों का प्रयोग किया जाए या फिर मिट्टी से बने पात्रों को , जो वास्तव में शुद्धता को कायम रखते हैं,  प्रयोग कर सकते हैं। वे प्रयोग के बाद भी पर्यावरण के लिए घातक नहीं होते हैं।

* अगर संभव है तो सौर ऊर्जा का प्रयोग करने का प्रयास किया जाय, जिससे हमारी जरूरत तो पूरी होती ही है और साथ ही प्राकृतिक ऊर्जा का सदुपयोग भी होता है।

* फल और सब्जी के छिलकों को बाहृर सड़ने  के लिए नहीं बल्कि उन्हें एक बर्तन में इकठ्ठा कर जानवरों को खिला दें . या फिर उनको एक बड़े गमले में मिट्टी  के साथ डालती जाएँ कुछ दिनों में वह खाद बन कर हमारे हमारे पौधों को जीवन देने लगेगा .

* गाड़ी जहाँ तक हो डीजल और पेट्रोल के साथ CNG और LPG से चलने के विकल्प वाली लें ताकि कुछ प्रदूषण को रोका जा सके। अगर थोड़े दूर जाने के लिए पैदल या फिर सार्वजनिक साधनों का प्रयोग करें तो पर्यावरण के हित में होगा और आपके हित में भी।

* अपने घर के आस पास अगर पार्क हो तो उसको हरा भरा बनाये रखने में सहयोग दें न कि  उन्हें उजाड़ने में . पौधे सूख रहे हों तो उनके स्थान पर आप पौधे लगा दें। सुबह शाम टहलने के साथ उनमें पानी भी डालने का काम कर सकते हैं , यह हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है।
          इस पर्यावरण दिवस को सार्धक बनाने के लिए जल संरक्षण दिवस , पृथ्वी दिवस , प्राकृतिक संपदा संरक्षण , वृक्षारोपण , कृषि योग्य भूमि की बिक्री निषेध को भी अपनाना होगा ।

बुधवार, 3 जून 2020

खिताबों की लूट है , लूट सके तो लूट ....!



            भई हम तो किसी काबिल नहीं , कमोबेश पचपन साल हो रहे है कलम उठाये हुए और मिला क्या ठेंगा ? फिर मिले भी क्यों ?  बड़ी सिद्धांतों वाले टके के तीन बिकते हैं ।
         या तो चलते पुर्जे हो या इतनी हिम्मत हो कि हर सभा, समारोह, गोष्ठियों में पहुँच जाओ और घूम घूम कर सबको अपना परिचय दो और एक आध किताब छपवा कर सबको बाँटो , फिर उसी किताब से कुछ रचनाओं को अलग करके एक किताब और छपवा लो । कुल मिलाकर खेल पैसे का है । दो पैसे देकर नामी गिरामी नेता टाइप कलमकारों को बुला लो । दूसरी किताब आ गई । चार लोग जान गये तो अपनी संस्था बना लो।
           कुछ विश्वविद्यालय तो पैसे लेकर मानद उपाधि भी देने लगे । उपलब्धियों की बात नहीं है । बात तो जुगाड़ की है , सो चौकस होना चाहिए । टेंट में हो रुपइया तो चाहे जो खरीदो । एकदम बाढ़ सी आ गई , जो देखो डॉक्टर लगाये घूम रहा है। एक डॉक्टर साहब मिले एक मौके पर बोलने खड़े और गाँधीजी के तीन बंदरों को भूल गये और बोल गये बुरा न बोलो, बुरा न सुनो और बुरा न कहो । बच्चे मुँह दबा कर हँस रहे थे । पर डॉक्टर साहब गलत तो हो ही नहीं सकते । एक डॉक्टर साहिबा हैं , एक समारोह में हाथ फटकार फटकार कर कविता पाठ कर रहीं थी और वह रही हमारी थी लेकिन कह तो न हीं सकते थे , सब कहते कि कौन खेत की मूली हो ? डॉक्टर साहिबा काबिल है और तुम जे मियाँ मसूर की दाल ।
   .   बेचारे शोध करने वाले तो चुल्लू भर पानी में डूब मरें ( अगर मेहनत से किया हो ।) आइआइटी जैसी संस्था हो तो शोध में सात साल भी लग जाते है और फिर भी वो डॉ. नहीं लगाते हैं । सबके नाम के आगे प्रो. ही लगा होता है।
        बेचारे चिकित्सा क्षेत्र वाले भी चाहे जितनी डिग्री जोड़ लें , कहा उन्हें  वही डॉ. ही जायेगा । अब तो वही कहेंगे सब धान बाइस पसेरी । ये भी पता नहीं कि खरीदी या मानद उपाधियाँ नाम से पहले नहीं लगाते ।
        कुछ साल पहले शोध ग्रंथ ठेके पर लिखे जाते थे । गाइड ने पैसे लिए और शोधग्रंथ तैयार करवा कर हस्ताक्षर कर दिए और उपाधि किसी और को मिल गई ।
            हाँ तो जब सोशल मीडिया का जोर हुआ तो ढेर सारे समूह बने और प्रमाण पत्र बाँटने का चलन शुरू हो गया । हर दूसरे व्यक्ति के पास कई कई समूहों के सम्मान पत्र चेंपे मिल जाते है।
        अब ये जो कोरोना फैला तो फिर सेवा करने वाले तो कितने सेवा करते करते चल बसे लेकिन कोरोना वॉरियर्स का तमगा लेने के लिए बचे ही नहीं । ये लिखने वाले घर में बैठे लिख दिए दो चार लेख और जीत लिए कोरोना वॉरियर्स का खिताब । जलन इस लिए हो रही कि हम तो खूब लिखे कौनो पूछन न आया । दो-दो हजार दें तो एक नहीं कंई संस्था कोरोना वॉरियर्स बनाने को तैयार बैठी हैं। अब क्या कहें न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी ।
      फ्री राशन की तरह कहीं बँट रहे हों तो सूचित किया जाय । दो घंटे लाइन में लग कर ले लेंगे और फिर चेंपेंगे नहीं गले में लटका कर घूमेंगे । भाई बंधु जरा ध्यान रखना नहीं तो ऊपर जाकर क्या मुँह दिखायेंगे ? बेइज्जती तो आप सब की भी होगी कि पैसे देकर किताब में शामिल हुए और कई बार हुए और कोई रसीद तक न लगा पाये । गुमनाम चले गये ।

बुधवार, 27 मई 2020

जागरूक माँ बनें !

                              माँ बनना हर स्त्री के लिए गौरव की बात होती है और स्वस्थ संतान की कामना भी हर माँ करती है। मैंने लगातार बच्चों के विकास को देखते हुए इस बात पर दृष्टि रखी हुई है। समय और विचारों के अनुरूप साथ ही अपने करियर के प्रति जागरूकता ने विवाह की उम्र बढ़ा दी है।  आज 80 फीसदी माताएं नौकरीपेशा होती हैं।  इस स्थिति में उनको करीब करीब 8 -9 घंटे तक  ऑफिस में काम करना होता है और इनमें भी अधिकतर लैपटॉप , कंप्यूटर और मोबाइल के संपर्क में रहती हैं । इनका उनके शारीरिक रूप से उन पर प्रभाव होता है।  कभी कभी वह शिफ्ट में भी काम कर रही होती हैं।
                        ऐसा नहीं है कि उनके लिए छुट्टियों का प्रावधान नहीं है लेकिन अधिकतर माताएँँ मिलने वाली छुट्टियों को डिलीवरी के बाद लेना चाहती हैं और लेती भी हैं।  वे इस बात से वाकिफ नहीं होती हैं कि उनके आराम करने से ही गर्भस्थ शिशु को आराम मिलता है।  प्रसव के ठीक पहले एक महीने में बच्चे का पूर्ण विकास हो चुका होता है और उसको हर चीज की बहुत  जरूरत होती है।  लैपटॉप, मोबाइल से निकलने वाली रेडिएशन भी उनको प्रभावित करता है।

प्रसव पूर्व माँ की जीवन शैली :--

                                                 आज की आधुनिक कही जाने वाली पीढ़ी अपने से बड़ों की सलाह को दकियानूसी बातें मानती है. क्योंकि उनके हाथ में जो मोबाइल होता है और उस पर मिलने वाली जानकारी ही उनके लिए मील का पत्थर बन जाती है और गूगल बाबा सबसे ज्ञानी होते हैं। वे इस बात से अनभिज्ञ होती हैं कि  हमारी संस्कृति में चले आ रहे कुछ अनुभव निरर्थक तो नहीं होते हैं।  उनका कोई आधार होता है और वे समय के साथ प्रभावित भी करते हैं।

संरक्षकों की सतर्कता :--

                                               प्रसव के तुरंत बाद प्राकृतिक रूप से शिशु रोता है और इस रोने के पीछे जो लॉजिक है वह पुराने समय में बच्चे बाहर आकर घबरा जाता है और जोर जोर से रोने लगता है लेकिन इसका मुख्य सम्बन्ध बच्चे के सम्पूर्ण जीवन से होता है।  गर्भ में शिशु माँ से ही भोजन और साँँस ग्रहण करता है लेकिन गर्भ से बाहर आते ही उसका रोना शिशु के जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है।  बच्चे के रोने से ऑक्सीजन अंदर ग्रहण करता है और उससे उसके मस्तिष्क की जो रक्तवाहिनी सम्पूर्ण शरीर के लिए जाती हैं वे खुल जाती हैं और रक्त प्रवाह सम्पूर्ण शरीर में सुचारु रूप से होने लगता है , जो शिशु के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
                 कभी कभी शिशु के रोने में कुछ समय लगता है तो डॉक्टर और नर्स बच्चे को मार कर रुलाने का प्रयास करते हैं और यदि समय रहते ये काम हो जाता है तो कोई खतरा नहीं होता लेकिन अगर अंतराल बढ़ जाता है तो जहाँ जहाँ से सम्बंधित रक्तवाहिनियां सुचारु रूप से खुल नहीं पाती हैं , वे अंग असामान्यता के शिकार हो जाते हैं।  इस स्थिति में संरक्षकों को सतर्क रहना होता है और बच्चे पर नजर रखते हुए समय से डॉक्टरों से सलाह लेनी चाहिए।

बुजुर्गों की सोच :--

                             प्रसूता के प्रति घर में बुजुर्गों का रुख कैसा है ? ये एक महत्वपूर्ण मुद्दा होता है।  कहीं पर बड़ों की बातों में पिता या माँ कोई दखल नहीं दे पाते हैं और वे अपने अनुभवी होने की दलील से सबको चुप करा देते हैं।  इस स्थिति में बच्चे के बड़े होने के साथ साथ माँ और पिता को सतर्क रहने की जरूरत होती है। बच्चे की प्रगति में बुजुर्ग हस्क्षेप करते हैं लेकिन माँ को ये ध्यान रखना चाहिए कि  समय के साथ और बदलते प्राकृतिक परिवर्तन से शारीरिक व मानसिक मानकों में परिवर्तन हो रहे हैं और उन पर नजर रखते हुए सतर्क रहना होता।  अगर बच्चे में कोई भी असामान्यता दिखलाई देती हैं तो विशेषज्ञ से राय ले लेना होता है। यद्यपि बच्चे की दादी और नानी अपने अनुभव बाँँटने लगती हैं कि हमारे बच्चे तो ऐसे थे और भी चीजें हैं :-

बच्चे के चेतनता :--
                                  इस  विषय में उनका कहना होता है
कि इस उम्र में हमारे बच्चे भी नहा धोकर घंटों सोया करते थे।  बच्चों को सोना अच्छी बात है। लेकिन समय के साथ साथ सब कुछ परिवर्तित हो रहा है , तब बच्चों की माँ को नियमित चेकअप और अल्ट्रासॉउन्ड और डॉक्टर की बराबर नजर नहीं रहती थी।  सरकारी अस्पताल में भी डॉक्टर के बुलाने के बाद भी दिखाने के लिए  नहीं जाती थी बल्कि सिर्फ डिलीवरी कार्ड बनवाने के दिखाने जाती थी और फिर डिलीवरी के लिए।  आज बच्चों की सक्रियता बढ़ रही है और उनके  कार्य कलाप भी।  इस पर माँ को ध्यान देना चाहिए।

बच्चे की प्रतिक्रिया :--

                                बच्चे कुछ ही महीने होने पर अपनी प्रतिक्रिया शुरू कर देते हैं।  उनसे हँसकर बात करने पर वे भी हँसकर उत्तर देने लगते हैं।  आपके बुलाने पर सिर घुमा कर देखने का प्रयास करते हैं और अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उनकी इस बात को गंभीरता से लेना चाहिए। डॉक्टर से सलाह लेना चाहिए। उनके विकास के लिए प्रति महीने होने वाले विकास का एक प्रामाणिक चार्ट है , जिसे आगे प्रस्तुत किया जाएगा।


रविवार, 24 मई 2020

प्रवासियों का दर्द !


           कोरोना ने सम्पूर्ण देश में ऐसे पैर पसारे कि हर तरफ त्राहि त्राहि मच रही है। लम्बे लॉक डाउन ने उनको खाने पीने के लिए मजबूर कर दिया , जब भूखों मरने की नौबत आ गयी तो उन्हें घर याद आया और सोचा कि  अगर मरना ही है तो अपने घर पहुँच कर अपनों के बीच मरेंगे।  उनकी जिजीविषा ही  थी , जो उनको बिना साधनों के सैकड़ों मील के दूरी पैदल नापने के लिए तैयार हो गए।  चल दिए अपने सारे साजो सामान लेकर।  गर्भवती पत्नी , दुधमुंहे बच्चे , वृद्ध माता - पिता को लेकर जहाँ से जो साधन मिला चले आ  रहे हैं।

                        इनके सामने कल अपने घर पहुँच कर भी ढेरों समस्याओं का सामना करने का एक भयावह सवाल खड़ा होगा ।    अभी तो एक नरक से छूट कर अपने घर की शीतल छाँव में पहुँच कर चैन की साँस लेंगे, कम से कम पेट भर कर खाना तो नसीब होगा। इसी तरह के सपनों में डूबे सभी चले जा रहे थे , घर की डगर बहुत दूर लग रही थी लेकिन मन में  खुशी तो थी।

अपनों का बदला रुख :-  
                                       अपना आशियाना छोड़ कर वह लोग आ रहे हैं यह सूचना तो उनको मिल ही चुकी है लेकिन  घर में अफरा तफरी मची हुई होगी कि ये लोग जितना लम्बा रास्ता तय करके आ रहे हैं --
- कहीं कोरोना किसी के साथ न आ जाय?
- हमारे अपने भी तो बाल बच्चे हैं , कहीं कुछ हो गया तो हम क्या करेंगे ?
- पता नहीं कितने लोग साथ आ रहे होंगे ?
- क्या पता  उनमें किसी कोरोना न हो फिर हम क्या करेंगे ?
- क्या उतनी आत्मीयता से मिल पायेंगे ?
                आने वाले इन सारे  प्रश्नों के बारे में सैकड़ों मील की पैदल  या  विभिन्न साधनों से आ रहे हैं , एक शांति लिए मन में कि घर पहुँच जाएँ तब चैन की सांस लेंगे। वो जिस  चैैन की साँस की आशा लेकर आ रहे हैं वह मिलेगी या नहीं। ये तो उनका भाग्य ही निश्चित करेगा ।

  कोरन्टाइन की अवधि :-
                                      कोरंटाइन की अवधि भी किसी अग्नि  परीक्षा से कम न थी. अपने गाँव शहर से बाहर किसी भी जगह  रखा जाएगा , जहाँ न खाने पीने का की समय होगा और न रहने सोने की पर्याप्त व्यवस्था। एक लम्बी अग्नि परीक्षा। इस वक़्त न वे  बाहर के ही हैं और न ही घर गाँव के।  कब वह पहुँच पाएंगे ?  उन्हें लग रहा था कि वे इस देश के निवासी ही नहीं हैं।  फिर भी घर जमीन तक पहुँचने में अभी कुछ और बाकी था। 

घर का कोरन्टाइन :- 

                              घर पहुँच कर सब   घर  बाहर ही मिले और उसको कह दिया गया कि वह ऊपर बनवाए हुए कमरे में अपने सामान सहित चले जाएँ।  
- देखो अभी अभी तुम बाहर आ रहे हो, पता नहीं कितने लोगों के साथ में सफर करके आ रहे हो तो अभी फिलहाल कुछ दिनों तक तो तुमको हम सबसे दूर रहना ही चाहिए। 
- खाना तुम्हें ऊपर ही मिल जाया करेगा।  पूरे घर में घूमने के जरूरत नहीं है। 
-  फिर तुम्हें कौन सा यहाँ हमेशा रहना है , बीमारी ख़त्म हो जायेगी तो वापस चले ही जाना है। 
                       कितने कष्टों से जूझते हुए वह लोग घर आये थे और घर में आकर ये नया कोरन्टाइन भी झेलना पड़ेगा इसकी तो कल्पना भी नहीं की थी।  वहाँँ से चले थे कि  बस अब और नहीं अपने घर में चलकर ही रहेंगे। अपनी मेहनत को घर में लगा कर काम कर लेंगे तो फिर दर दर नहीं भटकना पड़ेगा। पर यहाँ पर अछूतों जैसा व्यवहार कर रहे हैं घर वाले।  ये पक्का आँगन , कमरे , कुँए की जगत सब कुछ उसके भेजे पैसे से ही बने हैं लेकिन लग ये रहा है कि वे अवांछित मेहमान होंं।                              

सम्बन्धों में दरार :-
                             यह वही घर और  माता-पिता और भाई, बहन हैं , जो इससे पहले घर आने पर आगे पीछे घूमते रहते थे। किसी को भाई के कपड़े पसंद है तो ले लिए , भाभी की साड़ी जिसे पसंद आई ले ली कि वे वहाँ  जाकर और ले लेंगे । आज सब कटे कटे फिर रहे हैं। अब वापस नहीं जाना है । ये सुन कर सब चुप हैं


                         

         इस महामारी के काल में जब इंसान के लिए खाने पीने का ठिकाना न रहे तो वह वापस तो अपने घर ही आएगा। लेकिन और भाई जो खेती पर ऐश कर रहे थे , भाई के आने से उनका हिस्सा भी लगेगा , ये सोचकर दुखी थे । बार बार सभी उसको यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि महामारी ठीक होने तक वह गाँव में रहे फिर वापस चले जाएँ।  वहाँँ ज्यादा कमाई है और यहाँ पर खेती में क्या होता है ? सैकड़ो मील पैदल , ट्रक, ट्रैक्टर पता नहीं कैसे कैसे सफर की ? अभी पैरों के छाले रिस ही रहे थे कि दिल के छाले पड़ने लगे । उसे जमीन पर घर पर उसका भी तो अधिकार बनता है लेकिन जिस चीज को कुछ लोग पूरे अधिकार से प्रयोग कर रहे थे और उसका कोई दूसरा भी प्रयोग करने वाला आ जाय तो अगले  को खलेगा ही। जो सैकड़ों मील की सफर करके किसी तरह से घर पहुंचा हो और घर में वो पहले वाला  सम्मान और प्यार अपने लोगों से न मिले तो स्वाभाविक है कि उसके लिए दूसरा झटका सहना आसान नहीं हो सकता है।  ये त्रासदी भी सहना आसान नहीं है।

भविष्य का प्रश्न :-
                           अब जो घर लौटे हैं तो वापस जाने के लिए नहीं । शहर की चकाचौंध गाँव वालों को समझ आती है । वहाँ की हाड़ तोड़ मेहनत किसे दिखेगी ? अब गाँव में स्कूल हैं, सड़कें हैं तो दुकान भी डाल लेंगे तो वहाँ से अच्छे तब भी रह लेंगे।  न मकान का किराया लगना है ।  खाने पीने के लिए खेती से मिल ही जाएगा।  बहुत दिनों तक घर और घर वालों से दूर रह लिए, अब  अपनी घर जमीन पर ही रहेंगे।  खुदा न खास्ता कोरोना हो जाता तो ये पत्नी , बच्चे तो कहीं के न रहते।  कहाँ किस अस्पताल में पड़ा होता और अगर मर मरा जाता तो फिर किसी को शक्ल भी देखने को न मिलती। यही रोड के किनारे कोई दुकान डाल लूँगा।   इतनी कमाई तो हो ही जायेगी कि सारे खर्चे आराम से निबट जायेगे। अगर दुकान न चली तो फिर क्या करेंगे? घर पहुँच कर भी उन लोगों को चैन नहीं मिल रहा है। एक यक्ष प्रश्न अभी प्रवासी मजदूरों के सामने भयानक रूप लिए आज खड़ा है और जब तक हल न मिले ये खड़ा ही रहेगा।
              सरकारी प्रयास कितना काम दे पायेंगी ? इसके लिए इंतजार करना पड़ेगा । अभी सब भविष्य के गर्भ में है ।



शुक्रवार, 15 मई 2020

विश्व परिवार दिवस !

आज विश्व परिवार दिवस है और यह भी पाश्चात्य सभ्यता से परिचय के बाद मनाने की हमारे देश में आवश्यकता हुई क्योंकि हम सदैव से संयुक्त परिवार और वृहत् परिवार को मान्यता देते रहे और इसीलिए परिवार की यह परिकल्पना विदेशों में बहुत ही इज्जत के साथ  देखी जाती है,  लेकिन जैसे-जैसे हम विदेशी सभ्यता के संपर्क में आए और हमारे ऊपर  उच्च शिक्षा के बाद शहरी संस्कृति का प्रभाव पड़ा तो नई पीढ़ी ने एकल परिवार की परिभाषा  समझी।  वे संयुक्त परिवार  की बजाए एकल परिवार में ज्यादा सुख खोजने लगे,  ऐसे में हमारे देश की प्राचीन संस्कृति की धरोहर संयुक्त परिवार टूटने लगे । उनके बीच जो प्रेम और सद्भावना थी उसका ह्रास होने लगा, धीरे धीरे सुख और दुख सभी में शामिल होने के लिए लोगों ने भागीदारी से कटना आरंभ कर दिया और हमारी उस परिवार की जो छवि थी वह धूमिल हो गई। लेकिन हमारी जहाँ जहाँ जड़ें हैं, शाखाएं चाहे जितनी दूर-दूर तक फैल जाए हमें अपना जीवन अपनी जड़ों से ही प्राप्त होता है । उनके बिना हम जी नहीं सकते । 
          आज जब एक भयंकर स्थिति ने  संपूर्ण विश्व को घेर रखा है तो लॉक डाउन के कारण और घर से बाहर निकले परिवारों को फिर से अपना घर याद आने लगा और धरती मां या जन्मभूमि कभी इतनी निष्ठुर नहीं होती कि  यदि उनके बच्चे उन्हें छोड़कर चले जाएं और संकट में वे लौटें तो उन्हें शरण देने से इनकार कर दे और इसी का परिणाम है कि हजारों लाखों की संख्या में प्रवासी अपने घर की ओर चल दिए  क्योंकि उनको विश्वास है  कि मजदूर या कामगर वापस अपने घर की ओर आ रहे हैं , पैदल चलकर, ट्रेनों में भरकर, बसों में भरकर या जिसको जो भी साधन मिला वह अपनाकर  जन्म भूमि की ओर चल दिए। उनको यह विश्वास था कि उन्हें अपने परिवार में शरण मिलेगी और उनके भूखे मरने की  नौबत नहीं आएगी चाहे पूरा परिवार आधी आधी रोटी खाए लेकिन परिवार के हर सदस्य को खाना मिलेगा, कपड़े मिलेंगे और एक छत के नीचे छाया मिलेगी । हो सकता है घर के अंदर परिवार की  तीन या चार पीढ़ियाँ आज की आपको मिले और उनके अंदर मतभेद भले ही हो लेकिन मनभेद नहीं हो । जब व्यक्ति अपना-अपना स्वार्थ देखने लगता है तंभी परिवार में दरार आना शुरू हो जाती  और परिवार बिखरने लगता है , लेकिन आपातकाल में वही परिवार किसी न किसी रूप में साथ देता है और जो साथ नहीं देता है वह अपने को इस दुनिया की भीड़ में अकेला खड़ा हुआ पाता है । आज जबकि इंसान के जीवन कोई भी निश्चित नहीं रह गई तब वह वापस अपनी जड़ों की ओर भागने लगा है क्योंकि अगर परदेश में उसको कुछ हो जाता है तो उसका परिवार घर में शरण पाएगा और महानगरों की सड़कों पर उसको ठोकर नहीं खानी पड़ेगी । इसीलिए परिवार को  महत्व दिया जाता है ।
          विश्व की इस त्रासदी ने कुछ भी न किया हो , इंसान को अपनी जड़ों से मिला दिया है ।

गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

श्रमिक दिवस ! (कानपुर के संदर्भ में )


                 आज का दिन  कितने नाम से पुकारा जाता है ? मई दिवस , श्रमिक दिवस और महाराष्ट्र दिवस।  अगर विश्व के दृष्टिकोण  देखें तो मजदूर दिवस ही कहा जाएगा।  हम कितने उदार हैं ? हमारा दिल भी इतना बड़ा है कि हमने पूरा का पूरा दिन उन लोगों के नाम कर दिया।  सरकार ने तो अपने कर्मचारियों को छुट्टी दे दी लेकिन क्या वाकई ये दिन उन लोगों के लिए नहीं तय है जो अनियमित मजदूर हैं।  इस दिन की दरकार तो वास्तव में उन्हीं लोगों के लिए हैं - चाहे वे रिक्शा चला रहे हों या फिर बोझा ढो रहे हों।   आज के दिन मैं कानपुर की बंद मिलों और उनके मजदूरों की याद कर उनके चल रहे संघर्ष को सलाम करना चाहूंगी।         
               कभी कानपुर भारत का मैनचेस्टर कहा जाता था और यहाँ पर पूरे उत्तर भारत से मजदूर काम करने आते थे और फिर यही बस गए। कहते हैं न रोजी से रोजा होता है। यहाँ पर दो एल्गिन मिल, विक्टोरिया मिल , लाल इमली , म्योर मिल , जे के कॉटन मिल , स्वदेशी कॉटन मिल , लक्ष्मी रतन कॉटन मिल , जे के जूट मिल और भी कई मिलों में हजारों मजदूर काम करते थे। रोजी रोटी के लिए कई पालिओं में काम करते थे। सिविल लाइन्स का वह इलाका मिलों के नाम ही था। रोजी रोटी के लिए यहाँ पर काम करने वाले मजदूर या बड़े पदोंपर काम करने वाले अपने गाँव से लोगों को बुला बुला कर नौकरी में लगवा देते थे। जिस समय शाम को मिल का छुट्टी या लंच का हूटर बजता था तो मजदूरों की भीड़ इस तरह से निकलती थी जैसे कि बाँध का पानी छोड़ दिया गया हो। ज्यादातर मजदूरों का प्रयास यही रहता था कि मिल के पास ही कमरा ले लें।वह समय अच्छा था - मेहनत के बाद पैसा मिलता तो था कोई उसमें बिचौलिया तो नहीं था। 

बंद पड़ी एल्गिन मिल

                            वह मिलें बंद हुई , एक एक करके सब बंद हो गयीं। वह सरकारी साजिश थी या कुछ और मजदूर सड़क पर आ गए कुछ दिन उधार लेकर खर्च करते रहे इस आशा में कि मिल फिर से खुलेगी लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। वे अपनी लड़ाई आज भी लड़ रहे हैं , कितने दुनियां छोड़ कर जा चुके हैं और कितने उस कगार पर खड़े हैं। मजदूरों की पत्नियां घरों में काम करके गुजर करने लगीं। कभी पति की कमाई पर बड़े ठाठ से रहती थीं। 
                            इन सब में लाल इमली आज भी कुछ कुछ काम कर रही है और मजदूर काम न सही मिल जाते जरूर हैं। इस उम्मीद में कि हो सकता है सरकार फिर से इन्हें शुरू कर दे. इनका कौन पुरसा हाल है।



एल्गिन मिल खंडहर हो रही है और सरकार उसकी बिल्डिंग को कई तरीके से प्रयोग कर रही है लेकिन उस बंद मिल के मजदूर आज भी क्रमिक अनशन पर बैठे हुए हैं। कितनी सरकारें आई और गयीं लेकिन ये आज भी वैसे ही हैं। यह चित्र बयान कर रहा है कि उनके अनशन का ये 3165 वाँ दिन है।बताती चलूँ मैंने भी  इस मिल के पास सिविल लाइन्स में कुछ वर्ष गुजारे हैं। वर्ष १९८२-८३ का समय मैंने इन मजदूरों के बीच रहकर गुजारा है। तब उनके ठाठ और आज कभी गुजरती हूँ वहां से सब कुछ बदल गया है। मिलें खंडहर में बदल चुकी है ।

कभी जवान थे वक्त ने हड्डी का ढांचा बना के रख दिया
                              

         
वीरान पड़ा म्योर मिल का प्रवेश द्वार


रविवार, 26 अप्रैल 2020

अक्षय तृतीया !





                         हमारे अन्दर परोपकार की भावना का ह्रास हो रहा है और निजी स्वार्थ की भावना बलवती होती चली जा रही है . सिर्फ हम आत्मनिरीक्षण करके देखें तो इनमें से कुछ खूबियाँ हमारे अपने अन्दर ही मिल जायेंगी .   भावनाओं के चलते हुए हमारे ऋषि - मुनियों ने वर्ष में कुछ ऐसे दिन रखे हैं जिनमें हम अपने संचित से कुछ दान कर पुण्य कमाते हैं . वैसे तो जरूरतमदों की सहायता करने के लिए किसी भी तिथि या पर्व की जरूरत नहीं होती है , निस्वार्थ भाव से किया गया दान और उस दान के सुपात्र का होना सबसे बड़ा पुण्य है. 
ऐसे ही पर्वों में वैशाख माह की शुक्ल पक्ष की तृतीया  को अक्षय तृतीया  कहा गया है और इस दिन दान , जप - तप , हवन और तीर्थ स्थानों पर जाने का अक्षय फल देने वाला पर्व कहा गया है . 
                    ग्रीष्म ऋतु  में पड़ने वाले इस पर्व पर दान का विशेष  महत्व है लेकिन इस पर्व पर शास्त्रों में वे वस्तुएं दान योग्य बताई गयीं है जिनसे मनुष्य पशु पक्षी गरमी से प्रकोप से बच सकें . इस दिन धार्मिक प्रवृत्ति वाले लोग सड़क के किनारे पानी के लिए प्याऊ लगवाते हैं . पक्षियों के लिए पेड़ की डाल पर मिटटी के बर्तनों में पानी भर कर टांग दिया जाता है . ग्रीष्म ऋतु  में सर्वप्रथम आवश्यकता पानी और उसके बाद सत्तू को महत्व दिया गया है. इस तृतीया से ठीक पहले अमावस्या को सत्तू का सेवन आवश्यक माना  गया है (उनके लिए जो इस बात को मानते हों ) वैसे  बच्चे आज कल पिज़्ज़ा , बर्गर , चाउमीन को ही जानते हैं . ये देशी फ़ास्ट फ़ूड है जो सदियों से चलता चला आ रहा है . इस दिन सत्तू के दान का भी बहुत महत्व है क्योंकि सत्तू की स्वभाव ठंडा होता  है और इसको पानी शक्कर या गुड के साथ घोल कर खाने से भूख के साथ गर्मी भी शांत होती है. 
इसके अतिरिक्त छाता , चप्पल , सुराही आदि गर्मी से बचाने  वाले जितने भी साधन होते हैं विशेष रूप से दान करने का विशेष पुण्य मिलता है और पुण्य न भी मिले एक मानव होते के नाते इस भीषण गर्मी में नंगे पैर धूप  में चलने वाले को चप्पल या छाता  मिल जाए तो उसकी जान को तो एक राहत  मिलेगी और यही राहत किसी गरीब की आत्मा से निकले हुए भाव, उस दानकर्ता की मानवता को एक प्रणाम है .
                          इस अक्षय तृतीया का महत्व इसी  रूप में जाना जाता है कि इस दिन किया गया दान , जप - ताप सभी अक्षय होता है और इससे प्राप्त पुण्य भी अक्षय होता  है लेकिन समय के साथ और मानव की बढती हुई लालसा ने इसके स्वरूप को समय के अनुसार बदल लिया और आज चाहे इसे हम मार्केटिंग का एक तरीका कहें कि बड़े बड़े विज्ञापनों द्वारा जन सामान्य को इस दिन सोने की खरीदारी करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और इस दिन विशेष छूट और लाभ का लालच देकर स्वयं के लिए संग्रह करने की प्रवृत्ति को भी प्रोत्साहन  दिया जाने लगा है और भाव अभी वही है कि  जो इस दिन जिस वास्तु का क्रय करेगा वह भी उसके लिए अक्षय बनी रहेगी .सोना खरीदो तो वह सदैव अक्षय रहेगा लेकिन अब ये औरों के लिए नहीं बल्कि अपनी जरूरत और अपनी संपत्ति को अक्षय रखने के लिए लिया जाता है. अपनी संपत्ति या स्वर्ण आभूषणों को अक्षय अवश्य रखिये लेकिन उस धन से कुछ प्रतिशत दान के लिए भी रखा जाय तो इसका अर्थ और भाव सार्थक होता नजर आयेगा . लेकिन इस पर्व का भाव और अर्थ कल और आज बदले है लेकिन वह व्यक्ति की बढाती हुई आर्थिक उपलब्धियों के अनुसार - एक सामान्य व्यक्ति आपको दान करता मिल जाएगा लेकिन एक संपन्न व्यक्ति बड़ी बड़ी कारों में ज्वेलर्स के यहाँ आभूषण खरीदते हुए मिल जाएंगे ।
         इस बार बड़ी आफत ये है कि लॉकडाउन के कारण आम आदमी सत्तू , शक्कर और छाता दान करने में तो असमर्थ है लेकिन अमीरों के लिए ऑन लाइन सोने या जेवरात की खरीदारी करने के पूरे अवसर हैं । वह अक्षय रहेगा लेकिन सबसे बड़े पुण्य के भागीदार वे हैं जो इस समय खाना खिलाने का काम कर रहे हैं ।
             अक्षय सिर्फ पुण्य, दान और जीव सेवा ही है , भौतिक वस्तुएं अक्षय नहीं हुआ करती ।

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

विश्व पृथ्वी दिवस !



"क्षिति जल पावक गगन समीरा"
                 ये पांच तत्त्व है जिनसे मिलकर हमारा शरीर बना है , इससे ही हमारा जीवन चलता है और वापस इन्हीं में उसको विलीन हो जाना है। धरती माँ इसको ऐसे ही नहीं कहा जाता है, ये माँ की तरह से हमको पालती है लेकिन कहा जाता है न कि एक माँ अपने कई बच्चों को पाल लेती है लेकिन जैसे जैसे उसके बच्चे बढ़ते जाते हैं,  माँ की दुर्गति सुनिश्चित हो जाती है। यही तो हो रहा है न, मानव जनसंख्या बढती जा रही है और पृथ्वी का विस्तार तो नहीं हो रहा है। मानव ये भी नहीं सोच पा रहा है कि हम अपनी बढती हुई जनसंख्या के साथ कहाँ रहेंगे? उसने विकल्प खोज लिया और उसने तो बहुमंजिली इमारतें बनाने की पहल शुरू कर दी और बसने लगे बगैर ये सोचे कि इस धरा पर बोझ चाहे हम एक दूसरे के ऊपर चढ़ कर रहे या फिर अकेले बराबर बढेगा।

                  उसके गर्भ को हमने खोखला करना शुरू कर दिया। इतना दोहन किया कि भू जल स्तर बराबर नीचे जाने लगा और हमने मशीनों की शक्ति बढ़ा कर पानी और नीचे और नीचे से खींचना शुरू कर दिया। परिणाम ये हुआ कि  जब पृथ्वी के ऊपर पानी की बर्बादी बढ़ रही है तो फिर नीचे जल कहाँ से आएगा? हम अपना आज देख रहे हैं और कल जो भावी पीढ़ी का होगा उसके लिए क्या छोड़ कर जा रहे हैं? उस भविष्यवाणी , कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा, को जीवंत करने के विकल्प। उसके विषय में हम अभी भी सोचने की जरूरत नहीं समझते हैं। जो समझते हैं और इस विषय में किसी को सजग करने का प्रयास करते हैं तो ये उपदेश अपने पास ही रखें , क्या हम ही अकेले बर्बादी कर रहे है? उन्हें रोकिये जो बहा रहे हैं। ये किसी एक की जिम्मेदारी नहीं है कि उसका सारा फायदा उसी को मिलने वाला है। ये शिक्षित समाज है और ऐसा नहीं है कि इन चीजों से वाकिफ नहीं है।हम  सब जानते  हैं लेकिंन जान कर अनजान बने रहते हैं और कल किसने देखा की तर्ज पर जी रहे हैं।
                     धरती कुछ नहीं कहती लेकिन क्या उसकी क्रोध की अग्नि से बढ़ता उसका तापमान हमारे लिए घातक नहीं बनता जा रहा है। तप्त पृथ्वी की ज्वाला ने मौसम के क्रम को बिगाड़ कर रख दिया है और इसी लिए ये साल के दस महीने में तपती ही रहती है। अब तो इतनी भी बारिश नहीं होती कि उसका आँचल भीग जाये और उसको तपन शांत हो जाए। नदियाँ अपने किनारे छोड़ने लगी हैं और कुछ तो विलुप्त होने की कगार पर आ गयी हैं।
                  भूकंप आया तो हम सिहर गए, उसके वैज्ञानिक कारणों की खोज में लग गए किन्तु खुद को तब भी नहीं संभाल पाए। धरती का संतुलन नहीं बनेगा तो भूकंप आना सुनिश्चित है। समुद्र में सुनामी आई और मानव उस समय खिलौने की तरह बह गए लेकिन जो बह गया वह उसकी नियति थी हम बच गए और हम इससे कुछ सीख भी नहीं पाए । फिर अपने ढर्रे पर चलने लगे।
                        जब उर्वरक नहीं आये थे , तब भी ये धरती सोना उगलती थी और फसलें लहलहाती थी। सब का पेट भी भरती थी। हम उन्नत उपज की चाह में उर्वरकों को ले आये और धरती को बंजर बना दिया। क्या मिला? फसल खूब होने लगी लेकिन खड़ी फसल में बेमौसम की आंधी, बरसात और ओले की वृष्टि ने सब कुछ तबाह कर अपने साथ हो रहे खिलवाड़ का एक सबक दे दिया। उर्वरकों से उगी फसल खाकर हम कैंसर जैसी बीमारी के शिकार होने लगे ।
                     जंगल पर जंगल उजड़ते जा रहे हैं और कागजों में सारी सुरक्षा बनी हुई है। वृक्षारोपण के नाम पर बहुत काम हो रहा है, लेकिन एक बार लगाने के बाद कितने बचे इसकी किसी को चिंता नहीं है। कहाँ से शुद्ध वायु और वर्षा की उम्मीद करें? पेड़ लगाने की भी सोची जाती है तो वह जिसे बाद में बेच कर धन कमाया जा सके। यूकेलिप्टस  जैसे पेड़ जो पानी भी सोखते हैं और इंसान के लिए लगे हुए न छाया देते है और न ही फल।
              अपनी कमियों का बखान बहुत हो चुका है अब अगर हम स्वयं संयमित होकर अपना जीवन बिताने की सोचें तो शायद इस धरती माँ को बचाने की दृष्टि में एक कदम बढ़ा सकते हैं। हम किसी को उपदेश क्यों दें? हम सिर्फ अपने लिए सोचें और अगर कोई पूछे तो उसको भी बता दें की अगर आप ऐसा करें तो हमारे और हमारी भावी पीढ़ी के भविष्य के लिए बहुत अच्छा होगा।
                    जल का प्रयोग अपनी जरूरत के अनुसार ही करें। अगर सबमर्सिबिल  लगा ही रखा है तो उसका सदुपयोग करें न कि दुरूपयोग करते हुए उससे घर की दीवारें और सड़क धोने में उसको बर्बाद करें। घर के सभी नलों को सावधानी से बंद रखें उनसे टपकता हुआ पानी भी बर्बादी की ही निशानी है। जल ही जीवन है इस बात को हमेशा याद रखें।
                  प्रदूषण की दृष्टि से भी पृथ्वी को सुरक्षित रखना होगा। हमारी आर्थिक सम्पन्नता बढती चली जा रही है और वह इस बात से दिखाई देती है कि घर के हर सदस्य के पास गाड़ी का होना। उससे उत्सर्जित होने वाली गैस के बारे में किसी ने नहीं सोचा है कि ये पर्यावरण को कितना विषैला बना रहा है। वायु प्रदूषण हमको रोगी और अल्पायु बना रहा है। बढती हुई गाड़ियों की संख्या से ध्वनि प्रदूषण को नाकारा नहीं जा सकता है। इस लिए गाड़ियों का उपयोग करने में सावधानी बरतें । एक गाड़ी में दो लोगों का काम चल सकता है तो उसको उसी तरह से प्रयोग करें।एक घर में कई कई एसी का होना कितने प्रदूषण का कारण बन रहा है ? लोग नहीं जानते ऐसा नहीं है बल्कि अपने जीवन स्तर को ऊँचा  दिखाने के लिए भी ऐसा किया जा रहा है।
                   वृक्ष पृथ्वी का श्रंगार भी हैं तो उनको अगर रोपें तो उनको बड़ा होने तक देखें भी, ताकि ये पृथ्वी पुनः हरी भरी हो सकें। आने वाली पीढ़ी को कुछ सिखायें और खुद अपनी बताई बातों पर चलें भी ।
                     पृथ्वी दिवस को सार्थक बनायें।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

ब्लॉगिंग : कल , आज और कल !

ब्लॉगिंग : कल , आज और कल !


                       जैसे किसी चीज का आरम्भ मंदिम गति से होता है और फिर वह एक चरम पर पहुँच जाता है और फिर अवसान, लेकिन ये ब्लॉगिंग कोई ऐसी कला नहीं है कि जिसको बिना किसी के चाहे अवसान हो जाये। जब  नया नया कंप्यूटर के साथ अंतरजाल शुरू हुआ तो ब्लॉगिंग भी अपने अस्तित्व में आयी।  सबसे पहले ब्लॉग का श्रेय आलोक कुमार जी को जाता है।   2003 में "नौ दो ग्यारह " नाम से ब्लॉग बनाया था लेकिन यूआरएल की समस्या के चलते उन्होंने अंकों( 9211 में) अपना ब्लॉग को पता दिया था।   धीरे धीरे लोगों ने खोज की और ब्लॉगर के संख्या में वृद्धि होने लगी। प्रारंभिक दिनों में ये कुछ धीमी ही रही लेकिन 2007 - 2008 तक ब्लॉगर की संख्या हजारों में पहुँच चुकी थी।
                       हम उसे ब्लॉगिंग का स्वर्णिम काल भी कह सकते हैं।  सारा सारा दिन ब्लॉग ही लिखे और पढ़े जाते थे।  पढ़ने की सूचना उसे समय ऑरकुट पर मिला करती थी।  साथी मित्र सूचना देते थे कि ये लिखा है जरा पढ़ो और राय दें।  ये मैं महिलाओं की बात कर रही हूँ क्योंकि तब एग्रीग्रेटर के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। एक एक   पोस्ट पर बहस का जो माहौल बनता था तो लगता था कि युद्ध हो जाएगा।  हम उस बहसबाजी में कम  ही पड़ते थे, लेकिन पढ़ सब को लेते थे क्योंकि हम पूरे समय बारे ब्लॉगर नहीं थे।  सिर्फ ऑफिस में ही वह भी खाली वक्त में होता था।  अपना डेस्कटॉप था तो कोई समस्या  नहीं थी।  घर में न लैपटॉप था और न तब स्मार्ट फ़ोन का जमाना था यानि कि इतने सामान्य लोगों के पास मोबाइल होते भी थे तो वही छोटे वाले।  सो घर पर देखने या देख पाने की कोई गुंजाईश भी नहीं रह जाती थी।  वापस दूसरे दिन जाकर ऑफिस में जाकर ही होता था दर्शन।  फिर भी बहुत लिखा जाता था सब लिखते थे और हम भी लिखते जरूर थे।  मैंने वर्ष 2008 में ब्लॉग बनाया था और उसको भी हमारी सखियों ने एक एक चरण पर काम करना सिखाया था।  ढेर सारे ब्लॉग खुद बना डाले थे।  हर काम के लिए अलग अलग ब्लॉग।  कविता , कहानियों , सामाजिक सरोकार , निजी राय और जीवन के कटु यथार्थ को बयान करने वाली घटनाओं के लिए।  बाद में सभी को चलाती रही और अभी भी सब जीवित हैं और उन पर लेख जाते रहे।  2009 -2012 तक खूब जम कर लिखा।  2010 में लैपटॉप लिया क्योंकि  अगस्त के महीने में मेरा एक्सीडेंट हुआ हाथ और पेर दोनों ही दुर्घटनाग्रस्त हुए।  न चलना संभव था और न हाथ से टाइप करना।  एक टाइपिस्ट को दो घंटे के लिए बुला लेती और मैं बोलती जाती और वह टाइप करती जाती।  वह वर्ष था जब कि मैं बिस्तर  पर थी और  ब्लॉग में सबसे ज्यादा रचनाएँ प्रकाशित हुई थी।
                             वह सभी के लिए सक्रियता वाला वर्ष था।  करीब करीब तीन हजार ब्लॉगर उस समय सक्रिय थे।  ब्लॉगिंग का स्वर्णकाल था।  इसके साथ ही फेसबुक अस्तित्व में आई और फिर उस पर धड़ाधड़ अकाउंट बनाने शुरू हो गए और लोगों ने उस पर भी अपने विचारों लोगों को  संक्षिप्त रूप में डालना ज्यादा सुविधाजनक लगा और ब्लॉग पर लिखने के स्थान पर लोगों ने फेसबुक को अच्छा मंच समझा और यहाँ शिफ्ट हो गए।  ऐसा नहीं कि ब्लॉगिंग बिलकुल ख़त्म हो गयी लिखने वाले ईमानदार ब्लॉगर उसपर लिखते रहे और फेसबुक पर भी डालते रहे।  मैं खुद अपनी कहूँ कि इस बीच एक पत्र से जुड़कर आलेख, कहानी और कवितायेँ वहां भेजनी शुरू कर दी और गलती ये की कि उनको ब्लॉग पर नहीं डाला।
                            इस बीच एक काम और होने लगा कुछ महत्वकांक्षी ब्लॉगर साथियों ने अपने मित्रों से लेकर साझा कविता संग्रह , कहानी संग्रह , लघुकथा  संग्रह का संपादन करना शुरू कर दिया।  ये काम भी अच्छा लगा क्योंकि ब्लॉग की दुनिया ब्लॉगर तक ही सीमित होती थी।  उससे इतर लोग उसमें काम ही पढ़ने आते थे लेकिन किताब के प्रकाशन में उसके अतिरिक्त भी लोगों को पढ़ने और लिखने का मौका मिलने लगा और फिर होड़ लग गयी।  साल में कई कई संग्रह आने लगे।  जिसने रचनाएँ माँगी दे दीं और जितने पैसे माँगे दे दिए।  किताब छप गई और मिल गयी।  इसी बीच मुलाकात हुई वरिष्ठ ब्लॉगर से उनको मैंने एक साझा संग्रह दिया तो उन्होंने ज्ञान दिया कि अपनी रचनाएं भी देती हैं , पैसे  भी देती हैं  और फिर मुफ़्त में किताब बाँटी भी।  क्या मिला ? इस काम को बंद कर दीजिये।  कुछ अक्ल आ गयी लेकिन फिर बहुत आत्मीय और करीबी लोगों ने अगर रचनाएँ मांगी तो दीं और पैसे भी।  किताब भी आयीं लेकिन वो संतुष्टि नहीं मिली।
                            फिर से ब्लॉगिंग शुरू करने का विचार ठांठे मारने लगा। ब्लॉगर साथियों से मित्रता तो आजीवन की हो चुकी थी।  वे फेसबुक पर भी मिले तो आभासी मित्र से न लगे और उन्हीं  ने राय दी कि कितनी सारी परिचर्चाएं आयोजित की थीं उनको संग्रह के रूप में छपवा डालो और वैसा ही किया।  हाँ सहयोग राशि  जो कटु अनुभव था सो मैंने वह काम नहीं किया।  संस्मरण सब से लिए। कुछ और नए लोगों को भी शामिल कर लिया। जब पुस्तक छप कर आ गयी तो फिर तय किया कि गृह नगर के स्थान पर दिल्ली में ब्लॉगर साथी ज्यादा हैं तो उनकी किताब उन सबके बीच ही विमोचन रखा जाय और सिर्फ विमोचन ही नहीं बल्कि "ब्लॉगिंग : कल , आज और कल" पर परिचर्चा भी रखी गयी सभी वरिष्ठ ब्लॉगर साथियों ने भरपूर सहयोग दिया और जो विचारों का आदान प्रदान हुआ उससे ब्लॉगिंग के लिए एक नयी आशा का संचार हुआ और वहां पर सब ने फिर से ब्लॉगिंग के लिए समर्पित प्रयास करने का वचन दिया और उसको पूरा करने के लिए जुट गए।  अब हम आज गंभीर होकर कल को संवारेंगे।  अभी हमें आने वाली पीढ़ी को भी इस ब्लॉगिंग से जोड़ना है और हर लिखने वाला जो मेरे संपर्क में है अभी तक ब्लॉगर तो नहीं है लेकिन प्रतिबद्ध है।  कल जरूर सुनहरा होगा ऐसी आशा करती हूँ।
                          आने वाला कल तभी सफल होगा जब हम लिखने के साथ साथ पढ़ेंगे भी।  ब्लॉग सिर्फ लिखने के लिए नहीं होता है बल्कि पढ़ने के लिए भी होता है।  हर लेख , कहानी , कविता कुछ कहती है और हमें ज्ञान के रूप में हमारे संवेदनशील मन को कुछ दे जाती है।  कल को सवाँरने में कल और आज के साथी आने वाले कल की भूमिका बनाएंगे और नयी पौध को तैयार करेंगे तभी इस को हम अमर कर सकेंगे.
                             
                   फिर लगा कि फेसबुक , पेपर या कहीं और लिख कर हम डाल तो सकते हैं , प्रकाशन और पैसे भी मिलते हैं लेकिन ब्लॉगिंग अपनी एक निजी संपत्ति है, जिसको जब चाहे तब आप देख और पढ़ सकते हैं।  कोई खोज नहीं और कोई संकोच नहीं।  फिर वापस ब्लॉगिंग को  जारी रखने के बारे में विचार आया तो  जुट गये और नए नए विषयों पर लिखने की सोची है।  आगे हरि इच्छा।