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मंगलवार, 28 जून 2022

शाश्वत धर्म!

 शाश्वत_धर्म !


                                   हम धर्म की परिभाषा पंथ में खोजने में लगे हैं और पंथ अपने अपने धार्मिक ग्रंथों की दिशा में जा रहे हैं। वे शाश्वत तभी है , जबकि वे हर तरह से निष्पक्ष विद्वजनों द्वारा स्वीकार किये जा रहे हों। धर्म को तो सनातन धर्म में अलग -अलग पृष्ठभूमि में व्याख्यायित किया गया है।  हिन्दू, इस्लाम , ईसाई , सिख, जैन , बौद्ध और पारसी धर्म नहीं हैं बल्कि ये तो पंथ हैं और सारे पंथों का एक ही धर्म होता है वह है सनातन धर्म। जिसकी परिभाषा  अवसरानुकूल नहीं बदलती है और हर पंथ के द्वारा स्वीकार की जाती है। 

मानव_धर्म :- 

                        यह सभी को स्वीकार है कि अगर हम पंथ कट्टरता से मुक्त है तो इसको कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता है। ये सम्पूर्ण मानव जाति के द्वारा सम्पूर्ण प्राणि जगत के प्रति निभाए जाने वाला धर्म है। जो धर्म राष्ट्र के प्रति , समाज के प्रति जो निष्काम भाव से निर्वाह किया जाता है, वही मानव धर्म है और ये तन, मन और धन तीनों ही तरीकों से निभाया जाता है। इस बात को हर पंथ स्वीकार करता है और यही सर्वोच्च धर्म है।


                       इस मानव धर्म के अंतर्गत ही आता है जीवन दर्शन के कुछ और धर्म , जिनसे किसी भी पंथ के द्वारा इंकार नहीं किया जा सकता है। 

                    मातृ_धर्म :-  माँ इस सृष्टि में सबसे महत्वपूर्ण  होती है और उसके बिना ये सृष्टि संभव ही नहीं है। गर्भाधान से लेकर प्रसव तक की क्रिया स्वाभाविक होती है और इसी कारण माँ का स्थान सर्वोच्च है। चाहे वह एकल हो , निर्धन हो , धनी हो लेकिन अपने बच्चों के पेट भरने लिए वह काम करती है , मजदूरी करती है या फिर घर घर जाकर काम करे या फिर अपने घर में रहकर काम करे। उसकी इस महानता के लिए उसके प्रति अपने धर्म को निभाना संतान का मातृ धर्म है और इसको सभी पंथ स्वीकार करते हैं। 

                   पितृ_धर्म :-  सृष्टि के निर्माण में मातृ और पितृ दोनों की भूमिका समान होती है , एक के बिना ये संभव ही नहीं है।  वह माँ की तरह ही घर से बाहर रहकर उसके जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए , उसके भविष्य को बनाने के लिए दिन रात परिश्रम करता है।  समाज के लिए एक अच्छा नागरिक बनाने के लिए सुसंस्कृत  सुसंस्कारित बनाने के लिए भी सम्पूर्ण प्रयास करता है।  एक सुरक्षित भविष्य देने के लिए अपने वर्तमान को गिरवी रख  देता है। इस धर्म को कोई भी पंथ नकार नहीं सकता।

                    संतति_धर्म :-  सारे धर्म में संतति धर्म भी उतना ही महत्वपूर्ण है।  खासतौर पर पुत्र धर्म लेकिन पुत्री भी इससे अछूती नहीं है।  अगर पुत्र  नहीं है तो पुत्री वह सारे कार्य पूर्ण करे जो पुत्र करेगा, अन्यथा जिस परिवार में वह अपने विवाह के बाद जायेगी, उसे परिवार में पुत्री या पुत्रवधू होने का धर्म पूर्ण करेगी

राष्ट_धर्म :-  

                      अगर माँ जन्मदात्री है तो मानव शरीर का निर्माण जिस  प्राकृतिक अंश से बना है , वह पृथ्वी है और इस पृथ्वी जिस पर रहते हैं वह किसी न किसी देश या राष्ट्र की होती है, अपने राष्ट्र के प्रति हर निवासी का एक धर्म होता है।  इसकी संपत्ति हमारी है , इसके जंगल , धरती , हवा और पानी सब से ही जीवन चलता है और इसकी रक्षा करना भी किसी भी पंथ का व्यक्ति हो, उसकी जिम्मेदारी है।  शाश्वत धर्म इसको आचरण में लाने के लिए बात करते हैं। 

     जीव_धर्मः-  

              सारे जीव जिनमें जीवन है जिनमें मानव सर्वश्रेष्ठ माना जाता है उसका धर्म है कि वह पशु, पक्षी, वृक्ष और जल के स्रोतों के प्रति मानवीय धर्म को पूरा करें। जिन्हें प्रकृति ने जीवन दिया है, वे आपका भी पोषण कर रहे हैं , उनहें उजाड़ो मत। उनका जीवन हरण मत करो अन्यथा हमारा जीवन दूभर हो जायेगा।

             ये सारे पंथ किसी भी रूप में उपरोक्त धर्मों से इंकार नहीं कर सकते हैं।  क्योंकि कोई भी पंथ मानव धर्म से परे नहीं है क्योंकि पंथ मानव के हित के लिए बने हैं उनके द्वारा किसी का अहित होता है तो वो पंथ अनुकरणीय नहीं है। खून खराबा, जीव, हत्या,अत्याचार , राष्ट्र की संपत्ति का विनाश किसी भी पथ में स्वीकार्य नहीं है।  

                    इन सबसे अलग एक शाश्वत धर्म ही हमको स्वीकार करना होगा , अन्यथा न कोई पंथ रहेगा और न धर्म।

बुधवार, 15 जून 2022

विश्व वयोवृद्ध दुर्व्यवहार निरोधक दिवस !

              हमारे देश  में तो संयुक्त  परिवार की अवधारणा  के कारण आज जो वृद्धावस्था में है अपने   परिवार में उन लोगों ने अपने बुजुर्गों  बहुत इज्जत दी होगी और उनके सामने तो घर की पूरी की पूरी  कमान बुजुर्गों के हाथ में ही रहती थी।  मैंने देखा है घर में दादी से पूछ कर सारे काम होते थे। खेती से मिली नकद राशि  उनके पास ही रहती थी।  लेकिन  उनके सम्मान से पैसे के होने न होने का  कोई सम्बन्ध नहीं था। 

  1 .   वृद्ध माँ  आँखों से भी कम दिखलाई  देता है , अपने पेट में एक बड़े फोड़े होने के कारण एक नीम हकीम डॉक्टर के पास जाकर उसको  ऑपरेट  करवाती है। उस समय  पास कोई अपना नहीं होता बल्कि पड़ोस में रहने वाली  होती है।  वह ही उसको अपने घर दो घंटे लिटा कर रखती है और फिर अपने बेटे के साथ हाथ  कर घर तक छोड़ देती है।

 
2 .   74 वर्षीय माँ घर में झाडू पौंछा करती है क्योंकि बहू के पैरों में दर्द रहता है तो वो नहीं कर सकती है।  उस घर में उनका बेटा , पोता  और पोती 3 सदस्य कमाने वाले हैं   किसी को भी उस महिला के काम करने पर कोई ऐतराज नहीं है।  एक मेट आराम से रखी जा सकती है लेकिन  ?????????? 
 
3.    बूढ़े माँ - बाप को एकलौता बेटा अकेला छोड़ कर दूसरी जगह मकान लेकर रहने लगा क्योंकि पत्नी को उसके माता - पिता पसंद नहीं थे और फिर जायदाद वह सिर पर रख कर तो नहीं ले जायेंगे . मरने पर मिलेगा तो हमीं को फिर क्यों जीते जी अपना जीवन नर्क बनायें। 
 
4 .  पिता अपने बनाये हुए  घर में अकेले रहते हैं क्योंकि माँ का निधन हो चुका है।  तीन बेटे उच्च पदाधिकारी , बेटी डॉक्टर।  एक बेटा उसी शहर में रहता है लेकिन अलग क्योंकि पत्नी को बाबूजी का तानाशाही स्वभाव पसंद नहीं है।  आखिर वह एक राजपत्रित अधिकारी की पत्नी है।

                            आज हम पश्चिमी संस्कृति के  जिस रूप के पीछे  भाग रहे हैं उसमें हम वह नहीं अपना रहे हैं जो हमें अपनाना चाहिए।  अपनी सुख और सुविधा के लिए अपने अनुरूप  बातों को अपना रहे हैं।  आज मैंने  में पढ़ा कि 24 शहरों  में वृद्ध दुर्व्यवहार के लिए मदुरै  सबसे ऊपर है और कानपुर दूसरे नंबर पर है।  कानपुर में हर दूसरा बुजुर्ग अपने ही घर में अत्याचार का  शिकार हैं।  एक गैर सरकारी संगठन  कराये गए सर्वे के अनुसार ये  परिणाम   हैं। 
 
                 हर घर में बुजुर्ग हैं और कुछ लोग तो समाज के डर  से उन्हें घर से बेघर नहीं कर  हैं, लेकिन कुछ  लोग ये भी  कर देते हैं। एक से अधिक संतान वाले बुजुर्गों के लिए अपना कोई घर नहीं होता है बल्कि कुछ दिन इधर  और कुछ दिन  उधर में जीवन गुजरता रहता है।  उस पर भी अगर उनके पास अपनी पेंशन या  संपत्ति है तो बच्चे ये आकलन  करते रहते हैं कि  कहीं दूसरे को तो  ज्यादा नहीं दिया है और अगर ऐसा है तो  उनका जीना दूभर कर देते हैं।  उनके प्रति अपशब्द , गालियाँ या कटाक्ष आम बात मानी जा सकती है। कहीं कहीं तो उनको मार पीट का शिकार भी होना पड़ता है। 
                      इसके कारणों को देखने की कोशिश की तो पाया कि  आर्थिक तौर पर बच्चों पर  निर्भर माता - पिता अधिक उत्पीड़ित होते हैं।  इसका सीधा सा कारण है कि उस समय के अनुसार आय बहुत अधिक नहीं होती थी और बच्चे 2 - 3 या फिर 3 से भी अधिक होते थे। अपनी  आय में अपने माता - पिता के साथ अपने बच्चों के भरण पोषण  में सब कुछ खर्च  देते थे।  खुद के लिए कुछ भी नहीं रखते थे।  घर में सुविधाओं की ओर भी ध्यान  देने का समय उनके पास नहीं होता था।  बच्चों की स्कूल यूनिफार्म के अतिरिक्त दो चार जोड़ कपडे ही हुआ करते थे।  किसी तरह से खर्च पूरा करते थे ,  पत्नी के लिए जेवर  और कपड़े बाद की बात होती थी।  घर में कोई नौकर या मेट नहीं हुआ करते थे, सारे  काम गृहिणी ही देखती थी। सरकारी नौकरी भी थी तो  बहुत कम पेंशन  मिल रही है और वह भी बच्चों को सौंपनी पड़ती है।  कुछ बुजुर्ग रिटायर्ड होने के बाद पैसे मकान  बनवाने में लगा देते हैं। बेटों में बराबर बराबर बाँट दिया।  फिर खुद एक एक पैसे के लिए मुहताज होते हैं और जरूरत पर माँगने पर बेइज्जत किये जाते हैं। 
                      आज जब कि  बच्चों की आय कई कई गुना बढ़ गयी है ( भले ही इस जगह तक पहुँचाने के लिए पिता ने अपना कुछ भी अर्पित  किया हो ) और ये उनकी पत्नी की मेहरबानी मानी जाती है।
-- आप के पास था क्या ? सब कुछ  हमने जुटाया है। 
-- अपने जिन्दगी भर सिर्फ  खाने और खिलाने में उडा  दिया।  
-- इतने बच्चे पैदा करने की जरूरत  क्या थी ? 
-- हम अपने बच्चों की जरूरतें पूरी  करें या फिर आपको देखें।
-- इनको तो सिर्फ दिन भर खाने को चाहिए , कहाँ से आएगा इतना ?
-- कुछ तो अपने बुढ़ापे के लिए सोचा होता , खाने , कपड़े से लेकर दवा दारू तक का खर्च हम कहाँ से पूरा करें ? 
-- बेटियां आ जायेंगी तो बीमार नहीं होती नहीं तो बीमार ही बनी रहती हैं।
-- पता नहीं कब तक हमारा खून पियेंगे  ये , शायद  हमें खा कर ही मरेंगे।  
                          
              अधिकतर घरों में अगर बेटियां हैं तो बहुओं को उनका आना जाना फूटी आँखों नहीं  सुहाता है। अपनी माँ - बाप  से मिलने आने के लिए भी उनको सोचना पड़ता है। 
                   बुजुर्गों का शिथिल  होता हुआ शरीर भी उनके लिए एक समस्या बन जाता है।  अगर वे उनके चार काम करने में सहायक हों तो बहुत  अच्छा,  नहीं तो पड़े रोटियां  तोड़ना उनके लिए राम नाम की तरह होता है।  जिसे बहू और बेटा  दुहराते रहते हैं।  अब जीवन स्तर बढ़ने के साथ साथ जरूरतें इतनी बढ़ चुकी हैं कि उनके बेटे पूरा नहीं कर पा  रहे हैं।  घर से बाहर  की सारी  खीज घर में अगर पत्नी पर तो उतर नहीं सकती है तो माँ -बाप मिलते हैं तो किसी न किसी  रूप में वह कुंठा उन पर ही उतर जाती है। 
 
                     वे फिर भी चुपचाप सब कुछ सहते रहते हैं , अपने ऊपर हो रहे दुर्व्यवहार की बात किसी से कम ही  उजागर करते हैं क्योंकि कहते हैं - "चाहे जो पैर उघाड़ो इज्जत तो अपनी ही जायेगी न।" फिर कहने से क्या  फायदा ? बल्कि कहने से अगर ये बात उनके पास तक पहुँच गयी तो स्थिति और बदतर हो जायेगी . हम चुपचाप सब सह लेते हैं कि घर में शांति बनी रहे।  ज्यादातर घरों में बहुओं की कहर अधिक होता है और फिर शाम को बेटे के घर आने पर कान भरने की दिनचर्या से माँ बाप के लिए और भी जीना दूभर कर देता है।  पता  नहीं क्यों बेटों की अपने दिमाग का इस्तेमाल करने की आदत क्यों ख़त्म हो चुकी है ? 
 
                       माता-पिता को बीमार होने  पर दिखाने  के लिए उनके पास छुट्टी नहीं होती है और वहीं पत्नी के लिए छुट्टी भी ली जाती है और फिर खाना भी बाहर से ही खा कर  आते हैं।  अगर घर में  रहने वाले को बनाना आता है तो बना कर खा ले नहीं तो भूखा पड़ा रहे  वह तो बीमार होती है।
 
                     हमारी संवेदनाएं कहाँ  गयीं हैं या फिर बिलकुल मर चुकी हैं।  कह नहीं सकती हूँ , लेकिन इतना तो है कि हमारी संस्कृति पूरी तरह से पश्चिमी संस्कृति हॉवी हो चुकी है। रिश्ते ढोए जा रहे हैं।  वे भी रहना नहीं चाहते हैं लेकिन उनकी मजबूरी है कि  उनके लिए कोई ठिकाना नहीं है। 
 
                    आज वृद्धाश्रम इसका विकल्प बनते जा रहे हैं लेकिन क्या हर वृद्ध वहाँ  इसलिए है क्योंकि वे अपने बच्चों के बोझ बन चुके हैं। हमें उनके ह्रदय में अपने बड़ों के लिए संवेदनशीलता रखें और अब तो बुज़ुर्गों के प्रति दुर्व्यवहार करने वालों के लिए दण्ड का प्राविधान हो चूका है लेकिन वयोवृद्ध बहुत मजबूर होकर ही क़ानून की शरण लेते हैं।                     
 
                      * सारे  मामले मेरे अपने देखे हुए हैं।