#रास्ते_खुद_बनाने_पड़ते_हैं !
सच कहूँ अभी Surekha Gupta जी की आपबीती पढ़ी तो अपनी यादें भी फुदकने लगी और मन आया कि जिंदगी वक्त नहीं देगी , चल छीन लेते है और आज तो लिखना ही है ।
पैदा उरई जैसे कस्बे में हुई और अपने घर में तो सब शेर होते हैं । हमारा इण्टर कॉलेज और डिग्री कॉलेज ठीक घर के सामने तो कदम उतने ही चले । लड़कियाँ अकेली कहीं नहीं जाती थीं , बाजार जाना है तो माँ के साथ या छोटी बहन के साथ । बाकी घर में पढ़ाई और लिखाई ।
शादी हुई कानपुर में और ससुराल रही कानपुर विश्वविद्यालय का परिसर । एक तो विश्वविद्यालय ही शहर से दूर जंगल में बसा था । जीटी रोड तक अंदर से पैदल आओ । वैसे इनके पास दोपहिया वाहन था। पर जब कदम बाहर निकलने को हुए तो हम सड़क पर खड़े थे । बी.एड. में एडमीशन हुआ , हमें तो कॉलेज मालूम नहीं था । प्रवेश प्रक्रिया तो बगैर जाये पूरी हो गयी ।
जिस दिन से कक्षाएँ शुरू होनी थी , इनका टूर था , अब नक्शा बनाकर दे गये GPS कहेंगे 1981 का । विश्वविद्यालय गेट से टैम्पो ली तो नक्शे के अनुसार चुन्नीगंज उतरे और तीर के अनुसार बाईं ओर मुड़कर सीधे जाना , जब तक दायीं ओर डीडब्ल्यूटी कॉलेज न दिख जाय । चलते चलते थक गये तब कॉलेज मिला और फिर तो रोज का रुटीन हो गया लेकिन ज्यादा दिन नहीं चल सका क्योंकि बी.एड. तो हमको करना ही नहीं था , नहीं तो उरई में मेरिट में नाम आने के बाद भी मैंने नहीं किया था । बेटी दो महीने की थी , जाना और आना पूरा दिन लग जाता । तय रहा कि वही पास में अस्थायी निवास खोजा जाय ताकि समय न लगे ।
विक्टोरिया मिल के पास मिल मजदूरों के बीच एक कमरा बरामदा मिला , सासु माँ मेरे साथ चली और जेठ जी ससुर जी के पास विश्वविद्यालय निवास पर रहे । लंच टाइम में लम्बे लम्बे डग भर कर घर आती बेटी को फीड कराती और तुरंत वापस कॉलेज । लंबा रास्ता छोड़कर शॉर्टकट खोजा और घर जल्दी आ जाती ।
इसके बाद 1984 में हम इंदिरा नगर शिफ्ट हो गये और वह भी जीटी रोड से काफी दूर । कल्यानपुर तक पैदल आइये फिर शहर की ओर टैम्पो मिलता था । फिर नौकरी मिली जुहारी देवी गर्ल्स डिग्री कॉलेज में । पहले दिन फिर पतिदेव की मीटिंग नक्शा थमा कर चले गये । उस तरफ कभी जाना भी नहीं हुआ था । चल दिये GPS के साथ पूछते पाछते पहुँच ही गये ।
छः महीने बाद ही आईआईटी में नौकरी मिल गयी । वह काफी पास था और सीधे गेट तक टैम्पो और फिर रिक्शा । तो जिंदगी में सारे रास्ते खुद ही खोजने पड़ते हैं , चाहे जितनी भीड़ हो ।
मंजिलें तो सबको मिलती हैं , कभी हथेली पर रखी और कभी पीछा करते करते छाले पड़ जाते हैं । हौसले बुलंद हों तो हार नहीं होती ।