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सोमवार, 25 नवंबर 2013

अंतर्राष्टीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस २५ नवम्बर !

             सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि महिला हिंसा आज इतने विकराल रूप में सामने आ रही है कि  विश्व  पटल पर लाने वाली समस्या बन  खड़ी हो चुकी है . बड़े बड़े प्रगतिशील देश , आधुनिकता और समानता  हुंकार भरने वाले देश और इसी के लिए आगे बढ़कर भाषण देने वाले बड़े बड़े लोग इस काम को करने में पीछे नहीं रहते हैं।
                         डॉक्टर , वकील , जज , नेता, साधू-संत और मंत्री तक महिला हिंसा में लिप्त पाये जा रहे हैं।  ऐसा तब हो रहा है जब कि हमारे जैसे देश की नारी चुप रहना अधिक पसंद करती है कि व्यर्थ में उसकी ही बदनामी होगी।  वह चुपचाप सब कुछ सहती रहती है।  ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ गाँव , गरीब और अशिक्षित महिलाओं के बीच होने वाली भावना है बल्कि ये बड़े बड़े परिवारों में , अच्छा खासा कमाने वाली , समाज में अपना एक अलग रुतबा रखने वाली , उच्च  शिक्षित महिलायों के साथ भी हो रहा है . वह अपने संस्कारों के चलते , अपने बच्चों के भविष्य को देखते हुए और फिर पति की प्रतिष्ठा को ठेस लगेगी - ये सब  सोच कर सारी  हिंसा सहन करती रहती है।
                        महिला  हिंसा से मतलब सिर्फ शारीरिक हिंसा नहीं  है बल्कि बल्कि इसके अंतर्गत आती कई स्थितियां और जिनको आज भी नारी सह रही है क्योंकि हमारा समाज भी इस हिंसा को सहते रहने वाली महिला को बहुत सम्मान की दृष्टि से देखता है और इसमें पुरुषों से अधिक महिलाएं भी शामिल होती है।  ये जरूरी नहीं कि महिला हिंसा सिर्फ ससुराल में , पति से या  कार्यक्षेत्र में ही सह रही हो।  वह सिर्फ महिला होने के भी रूप में भुगत सकती है।
                       महिला हिंसा  अंतर्गत किसी भी प्रकार की हिंसा या प्रताड़ना को शामिल किया गया है फिर चाहे  वह शारीरिक , मानसिक , भावात्मक या फिर आर्थिक किसी भी रूप में  क्यों न हो ? उसे महिला हिंसा ही कहा जाएगा। हमारे समाज की जो भावनाएं महिलाओं के प्रति है , वे कितनी ही प्रगतिशील होने के दावे का ढिंढोरा क्यों न पीटें , वह इसमें सबसे पहले कारक बनती हैं। हमारी सामाजिक व्यवस्था ( पता नहीं कौन इसके जिम्मेदार  है ?) प्रताड़ित , परित्यक्त , तलाकशुदा , संतानहीन या फिर सिर्फ लड़कियों की माँ के प्रति अपना एक अलग रुख रखता है।  इस काम के लिए जिम्मेदार भी वही है और फिर महिला आयोग , महिला संगठन के प्रति लोगों के विचार सुने हैं - वे इनको महिलाओं को भड़काने वाला ,  घर तोड़ने वाला और समाज विरोधी करार देते हैं।  क्योंकि औरत की अपनी कोई पहचान नहीं होती - वह तो जिस कुलबहू बनती है उसी कीबन जाती है उसी के नाम से जानी जाती है।  फिर उसका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व कहाँ है ?
                        हम विश्व की नहीं सिर्फ भारत की बात करें तो आज भी ३५ प्रतिशत महिलायें ( इसमें बचपन से लेकर बात की जा रही है ) अपने माता-पिता के घर में भी हिंसा का शिकार होती हैं।  एक तो जन्म से ही उनको परिवार में दोयम दर्जे का स्थान देना अभी भी ८० प्रतिशत परिवारों की परंपरा में शामिल है। लड़कों की तुलना में उनकी जो उपेक्षा होती है वह उनको भावात्मक रूप से आहात करती है।  बड़े होने पर भी शिक्षा की दृष्टि से उनकी शिक्षा पर कम खर्च करने की सोची जाती है।  घर के अंदर के कामों में साडी जिम्मेदारी उनके सिर पर डाल  दी जाती है। उनके जन्म से ही परिवार वाले ही नहीं बल्कि  दूसरे लोग भी पराया धन , परायी अमानत कह कर परिचय करते हैं।
                    इस महिला हिंसा को सहने के लिए मजबूर क्यों है आज की नारी क्योंकि हमारी सामाजिक व्यवस्था और उसकी आर्थिक परतंत्रता या फिर अगर वह कमाती भी है तो जरूरी नहीं कि वह अपनी कमाई को अपने मन से खर्च कर ले।  ऐसा नहीं है कि आत्मनिर्भर महिलायें को प्रताड़ित नहीं किया जाता।  अभी तक तो एक सोच थी कि ज्यादातर घरों में काम करने वाली महिलाओं के पति ही उनके पैसे छीन कर उनको प्रताड़ित करते हैं लेकिन ऐसा नहीं है -  नौकरी वाली लड़की से शादी करना पसंद करते हैं क्योंकि उनके घर में दोहरी कमाई आएगी और एक कामधेनु उन्हें मिल रही होती है लेकिन कुछ घरों में तो सिर्फ कामधेनु ही समझी जाती है।  उसकी कमाई पर पति और सास ससुर का हक़ होता है।
                            एक अध्ययन के अनुसार ५० प्रतिशत महिलायें पति के द्वारा मार खा चुकी हैं।  रोज न सही लेकिन उनके मन का काम न होने पर हाथ उठाने में गुरेज नहीं करते और इसको वे सामान्य बात मानती है फिर इस हिंसा का तो कोई उपाय नहीं नहीं है। ५० प्रतिशत महिलायें और पुरुष इस बात को बुरा नहीं समझते हैं।
                           ये सब बातें तो तब की हैं जब कि वह एक परिवार में उसके सदस्य होने के नाते सह रही होती है और जी रही होती है।  ऐसा नहीं है कि उसकी आत्मा इस हिंसा के बाद रोती नहीं है लेकिन कभी बच्चों का मुंह देख कर , कभी माता पिता की इज्जत का हवाला देने के बाद और कभी छोटे भाई बहनों के भविष्य को देख कर आपने आंसुओं के गले के नीचे उतार कर सब कुछ सह लेती हैं।
                         इसके अलावा भी परित्यक्ता होने पर वह जिस हिंसा का शिकार होती है उसका जिम्मेदार भी हमारा समाज अधिक जिम्मेदार है।  उसके दर्द को समझने के स्थान पर उस पर परोक्ष रूप से लांछन लगाये जाते हैं क्योंकि पुरुष हर हाल में सही समझा जाता है।  इस का उन्मूलन कैसे हो सकेगा ? इस पर विचार भी होना चाहिए।
                        संतानहीन महिला भी समाज की दृष्टि में पूर्णरूप से दोषी समझी जाती है बगैर से जाने की इसका कारण क्या है ? ससुराल में उसका विकल्प लाने की बात भी सोची जाने  लगती है .  वंश तो उसको ही बढ़ाना होगा।  इस कारण के उन्मूलन की बात सोचने की पहल होनी चाहिए।  चाहे गोद लेकर या फिर और आधुनिक विकल्प भी सोचे जा सकते हैं और उस मानसिक प्रताड़ना से बचाया जा सकता है।
                         सिर्फ लड़कियों की माँ और लडके की माँ को अलग अलग तरीके से व्यवहृत होती है . इसके लिए भी परिवार वाले उनके प्रति विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित करने के अवसर खोजते रहते हैं और कभी कभी तो लड़की होने पर घर से भी निकाल देते है।
                        घर से लेकर बाहर तक किसी भी जगह वह यौन शोषण का शिकार तो बनती ही रही है और जैसे जैसे हमारे समाज ने प्रगति की है वैसे वैसे उसकी असुरक्षा जा रही है।  वह सिर्फ एक सामान समझी जाती है।  घर में पुरुष सदस्यों में अब कोई सीमा रेखा नहीं रह गयी है , पास पड़ोस में चाचा और भाई कहे जाने वाले लोग , स्कूल में सहपाठी ,   कार्य स्थल पर बॉस , सहकर्मी , इसके बाद उसके लिए संसार की कोई भी जगह महफूज़ नहीं है।  रोज रोज घटने वाली घटनाओं ने एक आतक का भाव उसके मन में भर दिया है।  अब पुरुष वर्ग इतना उदंड और वहशी हो चूका है कि उसके न उम्र का लिहाज रहा है और न ही किसी का खौफ बचा है।  जैसे जैसे क़ानून सख्त होने का प्रयास कर रहा है वैसे वैसे ही अपराधों की संख्या बढ़ रही है।  इसके पीछे एक कारन यह भी है कि अब निर्भीक होकर महिलायें अपने प्रति होने वाले हिंसा के मामलों को सामने लाने लगी हैं और इससे जो बेनकाब हो रहे हैं वे दुनियां में बहुत प्रतिष्ठित और सम्मानीय व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं .
                             आज के दिन हम अपने नारी वर्ग से जो इस बात के प्रति सजग है , न हिंसा को सहन करें और न औरों के सहते हुए देखें।  जरूरत बगावत की ही नहीं है बल्कि शांत और सौम्य तरीके से उससे जुड़े हुए लोगों को समझने की भी है।  अगर लोगों की सोच में सकारात्मक बदलाव आएगा तो वास्तव में महिला हिंसा उन्मूलन की दिशा में एक सफल कदम कहा जाएगा।

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

सावधान हो जाइये !

                   सावधान हो जाइये बगैर आपकी जानकारी के और आपके डिटेल्स कहीं  से भी प्राप्त करके कोई भी आपके नाम से बैंक में अकाउंट खोल सकता है।  मनचाहा पता और मनचाही जगह पर और  फिर उसके आधार पर क्रेडिट कार्ड भी ले सकता है और  लाखों की खरीदारी भी कर सकता है। पता तब चलेगा   चलेगा जब बैंक के रिकवरी नोटिस आपके पास आएगा।  
                                     कल मेरे पास एक फ़ोन दिल्ली से आया कि आपकी बेटी प्रज्ञा श्रीवास्तवा के ऊपर स्टेट बैंक का दो लाख सत्तर हजार  लोन है और मैं तीस हजारी कोर्ट से रोहित त्यागी बोल रहा हूँ।  रिकवेरी के लिए उनका वारंट निकला हुआ है।  मैंने डिटेल जानना चाहा तो उसके द्वारा दिया गया वर्किंग प्लेस और रेजिडेंस एड्रेस गलत था।  मैंने कहा कि  बेटी ने कभी यहाँ पर जॉब नहीं की और न ही वह इस एड्रेस पर रही है।  फिर उसने उसका पेन कार्ड नंबर और नॉमिनी में माँ का नाम रेखा देवी (जबकि मैं अपना नाम सिर्फ रेखा श्रीवास्तव ही प्रयोग करती हूँ ) और पिता का नाम आदित्य श्रीवास्तव बताया।  फिर बताया कि उसने इतने रुपये की खरीदारी की है। 
                                     मैंने उसको बताया कि मेरी बेटी यहाँ पर नहीं रहती है वह पुर्तगाल में है और न ही उसने कोई खरीदारी की है।  जो डेट्स खरीदारी की थी उस समय वह इंडिया में भी नहीं थी।  फिर भी वह बेटी का कांटेक्ट नम्बर मांग रहा था जो मैंने नहीं दिया।  लेकिन एक प्रश्न मेरे सामने छोड़ गया कि क्या ऐसे भी सम्भव है।  इस को किस क्राइम में रखा जा सकता है।  लेकिन हो बहुत कुछ सकता है इसलिए आप लोग भी सावधान रहिये।  पेन कार्ड नं हम कई जगह इस्तेमाल करते हैं और  माता पिता के नाम तो हर जगह पर इस्तेमाल होते हैं।  फ़ोटो आपकी नेट से किसी भी तरीके से ली जा सकती है।  इससे कैसे बचा जा सकता है ? 
ठीक वैसे ही जैसे अकाउंट हैक करके रुपये निकले जा सकते हैं वैसे ही नकली अकाउंट खोल कर कुछ भी किया जा सकता है।

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

क्या फेसबुक से ब्लॉग पर सक्रियता कम हो रही है ? (7)

                  हम कम लिखें या नियमित लेकिन ब्लॉग की अपनी एक अलग जगह है , जो स्थायी है और संचित रखने वाली भी है।  उससे अगर हम सिर्फ इसा लिए किनारा कर रहे हैं कि फेसबुक पर तुरंत प्रतिक्रिया प्राप्त होती है या फिर बहुत थोडा समय लेकर अपडेट  पढ़कर सिर्फ लाइक करके भी है लेकिन कभी कभी  कि लाइक  न भी लिखा हो , किसी के निधन की खबर हो उसको लाइक करके हम क्या साबित करते है? ये अपने अपने विचार हैं आगे आगे देखिये कोई  सोचता है क्या ?





भई सबसे पहली बात तो यह है कि अपने से कम शब्दों में सीधी बात कही नहीं जाती। या यूं कह लो, कि हमको यह कला आती ही नहीं है। शायद यही वजह है कि अब जैसे-जैसे फेसबुक  जैसे सोशल साइट पर सभी ब्लॉगर का ध्यान ब्लॉग से ज्यादा लगने लगा है। वैसे-वैसे हमारे ब्लॉग पर कमेंट आना बंद होते जा रहे हैं। और यह केवल हमारी समस्या नहीं है, अपितु बहुत से ब्लॉगर इस समस्या से जूझ रहे हैं, जिसके कारण अब उन्हें ब्लॉग से ऊब होने लगी है। इसके पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि ब्लॉग की अपेक्षा फेसबुक  पर ज्यादा जल्दी रिसपोन्स मिलता है। इसलिए अब ज्यादतर ब्लॉगर फेसबुक पर ज्यादा लिखना पसंद करते हैं और ब्लॉग पर
कम, मुझे तो कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि ब्लॉग पर लिखने की सुविधा होने कि वजह से अब ब्लॉग लिखने वाले बहुत ज्यादा हो गए हैं और पढ़ने वाले बहुत कम, यह मैं अपने गूगल चाचा की मैहरबानी के तहत कह रही हूँ । क्यूंकि गूगल प्लस पर और मेल पर मुझे लगभग हर रोज़ 20 से 25 मेल आते हैं। जहां मुझ से अपने अपने ब्लॉग लिंक के साथ कमेंट लिखने का अनुरोध किया जाता है। मगर मेरे कमेंट कर देने पर भी, वह
सभी लोग कभी मेरे ब्लॉग पर नज़र नहीं आते और ऐसा एक बार नहीं बहुत बार हो चुका है। इसलिए मैंने अब ऐसे मेल पर कमेंट करना बंद कर दिया है।


इसका मतलब यह नहीं है कि मुझे कमेंट का कोई लालच है। मगर इस बात से भी तो इंकार नहीं किया जा सकता ना कि एक सार्थक कमेंट ही एक ब्लॉगर की ऊर्जा है, उसका हौसला  है, कुछ और अच्छा लिखने और ज्यादा लिखने की प्रेरणा है। आज मुझे ब्लॉग लिखते हुए 3 साल से ज्यादा का समय हो गया है। पर मैंने अपने इस ब्लॉग के सफर में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 60 कमेंट ही देखें हैं और अब तो संख्या दिन प्रति दिन गिरती ही जा रही है। जिसके कारण अब ना तो लिखने में मन
लगता है और ना ही पढ़ने में, हालांकी अच्छे ब्लॉगर का लिखा मैं आज भी ज़रूर पढ़ती हूँ। मगर अब उन सभी की संख्या भी धीरे धीरे कम हो चली है। अब उनके भी ब्लॉग पोस्ट महीनो में एक बार दिखाई देते हैं।


ऐसे में शायद फेसबुक  ही एकमात्र ऐसा माध्यम है जहां लोग तुरंत लिखकर तुरंत टिप्पणी पा जाते हैं। सो वहाँ बने रहने का ज्यादा फायदा महसूस होता है। हालांकि  मेरा मानना तो यह है कि फेसबुक  एक सोशल साइट के साथ-साथ एक सोशल  क्लब के जैसा माध्यम हैं। जहां लोग हर रोज़ आकर अपने अपने मन की बात सांझा करते हैं ,बतियाते हैं और चले जाते हैं। यानि मनोरंजन का मनोरंजन और साथ में तुरत  फुरत
ज्ञान फ्री :-) यहाँ तक के कभी-कभी तो कोई समस्या होने पर यहाँ उस समस्या का समाधान भी आसानी से मिल जाता है। फिर भला अब ब्लॉग पर कोई क्यूँ आयेगा या जाएगा। ऊपर से राजनीति ने तो यूं भी कोई क्षेत्र नहीं बक्शा है। मैंने सुना है यहाँ भी राजनीति चलती है, जिसका असर ब्लॉगर पर साफ दिखाई देता है। जो पहले रेगुरल टिप्पणी करते थे वह अचानक ही शांत बैठे हैं। अब तो कभी भूले भटके भी उन ब्लॉगर की कोई प्रतिक्रिया अपने ब्लॉग पर देखने को नहीं मिलती।  कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने अचनाक ही आना प्रारम्भ किया और फिर एकदम से गायब हो गए जैसे किसी ने उनका हाथ पकड़ लिया हो कि अरे तुम वहाँ कैसे चले गए, वहाँ जा कर टिप्पणी लिखोगे तो समझो हमारे समूह से बाहर हो जाओगे :-)


ऐसे में केवल फेसबुक ही एकमात्र ऐसा माध्यम साबित हुआ है जहां किसी से किसी को कोई बैर नहीं है। सब अपनी मन मर्ज़ी के मालिक है। लेकिन इस सबके बावजूद भी मेरा सभी ब्लॉगर मित्रों से नम्र निवेदन है कि यदि आप सभी को अपने-अपने ब्लॉग  से प्रेम है, तो कृपया एक बार फिर अपने साथ-साथ दूसरों के ब्लॉग पर जाकर भी उन्हें पढ़िये उस पर अपने बहुमूल्य विचार प्रस्तुत कीजिये। ताकि एक बार फिर ब्लॉगर और ब्लॉग के बीच के आपसी संबंध पुनः मधुर होकर जीवित हो सके एवं सार्थक
विचारों का टिप्पणी के माध्यम से आदान प्रदान हो सके और उन्हें एक नयी दिशा के साथ-साथ न्याय मिल सके। याद रखिए हर ब्लॉगर अनमोल है। क्यूंकि कमियाँ सभी में होती हैं, किन्तु गुणों से भी इंकार नहीं किया जा सकता जय हिन्द ....   
-- पल्लवी सक्सेना
                                                                                                                                                   (क्रमशः )                                                                                                       
                                                                                                                                   

सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

क्या फेसबुक से ब्लॉग लेखन पर सक्रियता कम हो रही है ! (6 )

                               ये ये विषय बहुत  ज्वलंत बन  चुका  है क्योंकि  कहीं न कहीं हमारा  ब्लॉग लेखन प्रभावित अवश्य ही हो  रहा है। ……………… ! चलें  कुछ और साथियों के विचारों को जानें। 

                         इसमें कुशवंश जी का  चित्र उपलब्ध नहीं हो सका है। 

पुस्तकों के बाद यदि कहा जाए तो ब्लॉग लेखन साहित्य का एक शशक्त माध्यम बन के उभरा है और इसमे दो राय नाही है की इसने सभी को भरपूर सहयोग दिया उभारा और प्रशशा भी दी। ब्लॉगर ने भी इसे गंभीरता से लिया और ले रहे है। बस समय की कमी के चलते अब लोग फेस्बूक की ओर रुख कर रहे है और झटपट प्रतिक्रिया से अपनी साहित्यिक अभिरुचि प्रदर्शित कर रहे है । दोनों का महत्व इस एक वाक्य से समझा जा सकता है ।जो जिसमे खुश रहे वो ठीक। मगर एक बात तो बेहद महत्वपूर्ण है ब्लॉग से फ़ेस बूक की ओर गए लोग दोनों ही ओर हाथ पैर मार रहे है और गंभीर लोग निश्चित तौर से ब्लॉग की ओर लौटेंगे और ब्लॉगिंग को निरंतर समृध्ध करेंगे ।

-- कुश्वंश



 Rachna Singh

२००७ से हिंदी ब्लॉग जगत में हूँ , यहाँ पर ब्लॉग लेखन से ज्यादा नेट वर्किंग हैं और इसीलिये यहाँ पर फेस बुक पर ज्यादा लोग हैं। हाँ उनमे से कुछ पहले ब्लॉग भी लिखते थे पर वो सब ब्लॉग भी केवल और केवल एक दुसरे से अपने अपने नेटवर्क बढाने के लिये ही लिखते थे
ब्लॉग लेखन हिंदी में अब ज्यादा बेहतर हैं क्युकी वही लोग पढते और कमेन्ट देते हैं जो किसी मुद्दे से जुड़े हैं या ब्लॉग को एक निजी डायरी की तरह लिखते हैं
पहले हिंदी ब्लॉग में ग्रुप थे जो अब कम हो गए हैं क्युकी वो ग्रुप काल एक नेटवर्क के लिये बन जाते थे
अब ब्लॉग लेखन पहले से बहुत बेहतर और फेस बुक और ब्लॉग लेखन दो अलग अलग विधाए हैं और अलग अलग मकसद हैं

  -- रचना





आप सच कह रही हैं , धीरे धीरे लोग ब्लॉग से दूर हो गए फिर फेसबुक पर आ तो गए लेकिन लाइक कर के चल देते हैं या फिर टॉपिक को आगे पीछे हो जाते हैं।  विषय कहीं से शुरू होता है और कहीं पहुँच जाता है।  बहुत से महत्वपूर्ण विषय दरकिनार हो जाते हैं।   फेसबुक पर ये तो हैं कि बिना ज्यादा मशक्कत किये काफी लोगों की पोस्ट दिख जाती हैं जिनमें ज्वलंत मुद्दों पर भी आसानी से वक्तव्य दिए जा सकते हैं।  लेकिन उन विषयों का समय या यूँ कहिये की लाइफ़ एक या  रह पति है।   आने पर पोस्ट पिछड़ जाती है।  ब्लॉग ही एक ऐसा माध्यम है जिस पर विस्तृत और  वार्तालाप की जा सकती है।  
 -- अनामिका जी 


Aparna Sah 


ब्लॉग लिखना या फेसबुक के वाल पे लिखना एक विधा होते हुए भी दो चीज है। ब्लॉग भी अपना निजी होता है और वाल भी---पर वाल पे आप कुछ भी २-४ लाइन्स हल्का सा लिख सकते हैं पर ब्लॉग के साथ हीं गंभीरता,सार्थकता,मौलिकता की बात सामने आ जाती है। ब्लॉग की दुनिया काफी विस्तृत है,जितना अन्दर जाइये कम है पर कहा पैठ हो पाती है। फेसबुक के नशा के आगे ब्लॉग पे ज्यादा ध्यान लोग नहीं दे पातें हैं। लाइक-कमेंट की भी अपनी महत्ता है। कुछ लोग दोनों पे सामान रूप से पोस्ट डालते हैं। पर हाँ ये जरुरी है की ब्लॉग पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान दिया जाय क्योंकि ये आपके व्यक्तित्व और निजता की पहचान है। पुराने लोगों को भी नए को ग्रहण करने और सिखलाने की आवश्यकता है। नए-नए ब्लॉग को खूब पढने के लिए समय तो देना ही पड़ेगा--गहरे नहीं पैठने से मोती कहा से पायेंगे।

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

क्या फेसबुक से ब्लॉग पर सक्रियता कम हो रही है ? (5)

                  कहने को तो फुरसतिया जी नाम से लगते हैं  कि  बड़ी फुरसत में रहते होंगे,  लेकिन विषय पर उन्होंने अपने ब्लॉग से कथन उठाने  की अनुमति दी है।  सो विषय के अनुरूप हमने उनके विचारों को  लिया।
सफाई इसा लिए पेश कर रही हूँ कि  चोरनी का लेबल न लग जाय !



                 संकलक के अभाव में यह कहना मुश्किल है कि ब्लॉग बनने की गति क्या है और प्रतिदिन छपने वाली पोस्टों की संख्या क्या है लेकिन यह तय बात है कि ब्लॉग धड़ाधड़ अब भी बन रहे हैं और लोग पोस्टें भी लिख रहे हैं। फ़िर यह बात कैसे फ़ैली कि ब्लॉगिंग कम हो गयी है।
           हुआ शायद यह कि कुछ लोग जो पहले से लिख रहे थे और जिनके पाठक भी काफ़ी थे उनमें से कुछ लोगों का लिखना कम हुआ।  ब्लॉग पर अभिव्यक्ति थोड़ा ज्यादा मेहनत मांगती है। इसलिये और इसके अलावा और कारणों से भी लोग फ़ेसबुक पर ज्यादा सक्रिय दिखते हैं। इससे यह धारणा बना लिया जाना सहज ही है कि फ़ेसबुक/ट्विटर के चलते ब्लॉग लिखना कम हो गया है। थोड़ा कठिन है।
        आम आदमी की अभिव्यक्ति के लिये ब्लॉग जैसी सुविधायें और किसी माध्यम में नहीं है। आपकी बात अनगिनत लोगों तक पहुंचती है। जो मन आये और जित्ता मन आये लिखिये। अपने लिखे को दुबारा बांचिये। तिबारा ठीक करिये। लोग आपके पुराने लिखे को पढ़ेंगे। टिपियायेंगे। आपको एहसास दिलायेंगे कि आपके अच्छा सा लिखा है कभी। फ़ेसबुक और ट्विटर की प्रवृत्ति केवल आज की बात करने की है। बीती हुयी अभिव्यक्ति इन माध्यमों के लिये अमेरिकियों के लिये रेडइंडियन की तरह गैरजरूरी सी हो जाती है!
                 
               कुछ लोगों के न लिखने से यह सोचा जाना कि ब्लॉगिंग के दिन बीत गये शायद सही नहीं है। ब्लॉगिंग की प्रवृत्ति ही शायद ऐसी है कि लोग लिखना शुरु करते हैं ,उत्साह होने पर दनादन लिखते हैं, फ़िर किसी कारण कम लिखते हैं और फ़िर कम-ज्यादा लिखना चलता रहता है। अगर कुछ लोगों ने लिखना कम किया है तो ऐसे भी हैं जो कि एक-एक दिन में तीन-तीन,चार-चार पोस्ट लिख रहे हैं और सब एक से एक बिंदास! किसी माध्यम जुड़े कुछ लोगों की क्षमताओं को उस माध्यम की क्षमतायें मानना सही नहीं होगा।
मुझे नहीं लगता कि ब्लॉगिंग कि अभिव्यक्ति के किसी अन्य माध्यम से कोई खतरा है। फ़ेसबुक और ट्विटर से बिल्कुलै नहीं है। इन सबको ब्लॉगर अपने प्रचार के लिये प्रयोग करता है। इनसे काहे का खतरा जी! :)
ब्लॉगिंग आम आदमी की अभिव्यक्ति का सहज माध्यम है। आम आदमी इससे लगातार जुड़ रहा है। समय के साथ कुछ खास बन चुके लोगों के लिखने न लिखने से इसकी सेहत पर असर नहीं पड़ेगा। अपने सात साल के अनुभव में मैंने तमाम नये ब्लॉगरों को आते , उनको अच्छा , बहुत अच्छा लिखते और फ़िर लिखना बंद करते देखा है। लेकिन नये लोगों का आना और उनका अच्छा लिखने का सिलसिला बदस्तूर जारी है- पता लगते भले देर होती हो समुचित संकलक के अभाव में।
! :)

--अनूप शुक्ला



बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

क्या फेसबुक से ब्लॉग पर सक्रियता कम हो रही है ? (4)



                        विषय अच्छा है और इस पर  का भी उतना ही महत्व है जितना की इसको महसूस कर मन में रखने वालों में - अरे भाई आप भी  अपनी सोच को शब्दों में ढल कर हमें भेज दीजिये।  हम उसे  पढ़ाएंगे।  



vandana A dubey's profile photo 
अच्छा विषय उठाया है रेखा दी...
हिंदी ब्लॉगिंग ने अपने दस साल पूरे कर लिये....
तमाम उतार-चढाव के बीच. हिंदी ब्लॉगिंग की शुरुआती दिक्कतें, फिर उनसे निजात पाना..सब हम लोग पढते रहे हैं. कैसे-कैसे प्रयोग किये गये, ये भी. हिंदी ब्लॉगिंग अपने शुरुआती दौर से लेकर शायद 2010 तक अपने शबाब पर थी, लेकिन पिछले लगभग दो सालों से तमाम सक्रिय ब्लॉगर्स ने अपना ध्यान ब्लॉगिंग से हटा के फेसबुक पर केन्द्रित कर लिया है, ऐसा मुझे लगता है ( क्योंकि मेरे साथ खुद ऐसा हुआ) बीच-बीच में पोस्ट लिखी भी गयीं तो उन्हें उतने पाठक नहीं मिले, जितने पहले मिलते थे. पहले जहां एक-एक पोस्ट पर पचास-साठ कमेंट आते थे, वे दस-पन्द्रह में सिमट गये. वो भी अगर लिंक फेसबुक पर शेयर किया गया है तो. वरना इससे भी कम. 
तो मुझे लगता है कि हिंदी ब्लॉगिंग को सबसे ज़्यादा नुक्सान फेसबुक से हुआ. लोगों को फेसबुक ब्लॉग से कहीं अधिक सुविधाजनक लगने लगा. पोस्ट लिखी और फेसबुक पर शेयर कर दी . कमेंट्स करने वाले भी सुकून में आ गये. अब टिप्पणी करने की बजाय वे बस "लाइक" का बटन दबाने लगे. पोस्ट पढी हो या नहीं, लाइक करने में क्या जाता है? अगले को ओब्लाइज़ भी कर दिया..... पोस्ट पढने की मेहनत से भी बच गये. वरना पहले ध्यान से पोस्ट पढो, फिर उस पर सार्थक टिप्पणी लिखो.... अब ज़्यादा भला. लाइक करो और अधिक से अधिक लिख दो, " जा रहे हैं पढने..." अब पढो चाहे न पढो. 
फेसबुक की लोकप्रियता के आगे ब्लॉगिंग विवश सी नज़र आने लगी....... आखिर हम सब लिखने-पढने वाले लोग फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट के प्रति इतने आकर्षित क्यों हुए? क्या वजह है जो इस साइट ने पोती से लेकर दादी तक, सबको बांध रखा है? क्यों नियमित रूप से ब्लॉग लिखने वाले अब फेसबुक पर रोज़ अपना स्टेटस अपडेट करते भर नज़र आ रहे? बहुत ज़ाहिर से कारण हैं. 
१) तात्कालिक रूप से मुलाकात और बात
२) तात्कालिक सवाल-जवाब
३) एक लाइव बहस जैसा माहौल निर्मित हो पाना.
४) लाइक की सुविधा उपलब्ध होना
५) सबसे बड़ी सुविधा है, नोटिफ़िकेशन की.
नोटिफ़िकेशन की सुविधा के चलते हम अगर किसी का ज़िक्र करते हैं, तो उसे हायपर लिंक करने की सुविधा होती है वहां, जिससे चिन्हित व्यक्ति के पास सूचना पहुंच जाती है, और वो तत्काल उस जगह पर पहुंच के अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा देता है. ज़िक्र करने वाले को भी अच्छा लगता है, और उस व्यक्ति को भी, जिसका ज़िक्र किया गया. जबकि ब्लॉग में ऐसी कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है. मुझे लगता है, कि अगर ब्लॉग को भी नोटिफ़िकेशन की सुविधा उपलब्ध हो जाये तो फेसबुक पर अतिसक्रिय ब्लॉगर्स तत्काल ब्लॉग की ओर लौटेंगे. लोग अक्सर अपनी पोस्ट में अन्य साथियों का ज़िक्र करते हैं, कमेंट्स में भी पोस्ट लेखक जवाब देता है,लेकिन टिप्पणीकर्ता को खबर नहीं हो पाती.  अगर नोटिफिकेशन  की सुविधा ब्लॉग पर होगी, तो टिप्पणीकर्ताओं को तत्काल जानकारी होगी कि उन्हें पोस्ट लेखक ने या अन्य किसी ने कोई जवाब दिया है. चिट्ठा-चर्चा जैसे मंच को तो इस सुविधा की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है. जब भी चर्चा की जाती है, तो उसमें तमाम लिंक्स शामिल किये जाते हैं, लेकिन कितनों को पता चल पाता है कि उनकी चर्चा की गयी? नोटिफ़िकेशन की सुविधा होगी तो चर्चाकार को भी अभी से अधिक आनन्द आयेगा चर्चा करने में. फिर देखियेगा, कैसे तमाम निष्क्रिय बैठे चर्चाकार कैसे सक्रिय होते हैं .. और वे सारे ब्लॉग-लेखक हरकत में आ जायेंगे जो फ़िलहाल पोस्ट लिखने से जी चुराने लगे हैं, और जिन्हें छोटे-छोटे स्टेटस रास आने लगे हैं. 
वैसे भी सोशल नेटवर्किंग साइट्स की लोकप्रियता को ,  उनमें  सुविधाओं पर नज़र डालनी ही चाहिए।  और ब्लॉग को अधिक सुविधा- संपन्न बनाए जाने पर  विचार किया ही जाना चाहिए, जब  साइट्स की तरह ब्लॉग भी क्यों न संपन्न हो , आधुनिक तकनीक से ?

 --- वंदना अवस्थी दुबे                                                                          
                                                                                                                                                 (क्रमशः )

सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

क्या फेसबुक से ब्लॉग पर सक्रियता कम हो रही है ? ( 3 )

                           बहुत महत्वपूर्ण विषय  है ये और इसके विषय में मैं  सोचती हूँ और इसा के बारे में हमारे ब्लॉगर मित्र जो कहते हैं वो उनके अपने विचार और अपनी सोच है।  फिर भी वे भी इस बात से इनकार नहीं कर रहे हैं कि ऐसा हो रहा है वजह उसकी कोई भी हो।  आपके अपने जो भी विचार हों अगर हमें अवगत कराएँगे तो  प्रस्तुत करके अपने ब्लॉग और अपने प्रयास को सफल मानूंगी।  इन्तजार में ………… !




ब्लॉग और फेसबूक दोनों ही आम आदमी को अपने सृजन क्षमता, सोच को दिखाने का जरिया है जो मानसिक संतुष्टि देती है, जब वो अपनी सृजनता पर प्रत्युतर पता है, बेशक सराहा जाए या गलतियाँ निकली जाए। हाँ ये अलग बात है की फेसबूक अगर एक रफ कॉपी के तरह है तो ब्लॉग एक शानदार डायरी है। फेसबूक पर आप कुछ भी लिखें, उस पोस्ट से तुरंत जुड़ जाते हैं एक संपर्क उसपर कमेंट करने वाले के साथ बनता है, जिस से वो थोड़ी खुशी देती है, पर उसको सहेजना मुश्किल है, क्योंकि कुछ दिनों मे ही वो पोस्ट कहीं विलीन होती दिखने लगती है, इसके उलट ब्लॉग पोस्ट आपके लिए सहेजा हुआ रहता है, उसके कोमेंट्स को कभी भी पढ़ कर आप खुश हो सकते हैं। फिर ब्लॉग पर चूंकि हम सोच समझ कर एक विशेष पोस्ट डालते हैं तो उस से ज्यादा जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। अतः बेशक फेसबूक की लोकप्रियत जितनी भी हो, एक सृजनकर्ता रचनाकर के लिए ब्लॉग ज्यादा अहम है, और ब्लॉग पर समय ज्यादा देना चाहिए।

 मुकेश कुमार सिन्हा 



 Photo: दिसंबर २००७ मे '' दिल्ली आज तक '' पर -- यह रौशनी उन्ही के स्टूडियो की है !

 सोशल मीडिया प्रेमियों के लिये ब्लॉगिंग और फ़ेसबुक मे उतना ही अंतर हैं जितना क्रिकेट प्रेमियों के लिये टैस्ट मैच और टी ट्वेंटी मे. ब्लॉगिंग विचारों की अभिव्यक्ति का एक गंभीर माध्यम है. साथ ही मनोरंजन का भी उत्तम साधन है . यहाँ लेखक सभी तरह के विषयों पर गंभीर चर्चा कर सकते हैं. एक बार लिखी गई पोस्ट सदा के लिये अमर हो जाती है . वर्षों बाद भी किसी विषय विशेष पर लिखी गई पोस्ट को ढूंढ कर पढ़ा जा सकता है . यह रचनात्मकता को प्रोत्साहन देती है . लेकिन टैस्ट मैच की तरह ब्लॉगिंग मे भी समय की खपत ज्यादा होती है . शायद इसीलिये अधिकांश ब्लॉगर्स का ध्यान अब फ़ेसबुक की ओर मुड़ गया है . फ़ेसबुक तुरंत फुरंत माध्यम है जहां एक स्टेटस की उम्र क्षणिक ही होती है . साथ ही यहाँ गंभीर विचार विमर्श के लिये कम ही जगह है .फ़ेसबुक पर लोग मौज मस्ती ज्यादा करते हैं , काम की बातें कम . यहाँ अक्सर स्वमुग्धता ज्यादा देखने को मिलती है. अभिव्यक्ति से ज्यादा अपनी उपलब्धियों का प्रचार ज्यादा होता है. अक्सर कोई कवि , लेखक , कलाकर या अन्य विशेष योग्यता रखने वाला अपनी उपलब्धियों का गुण गान करता ज्यादा नज़र आता है . पता चला है कि फ़ेसबुक पर रहने से कई लोगों को अवसाद होने लगता है. लेकिन सही तरीके से इस्तेमाल किया जाये तो फ़ेसबुक जैसा माध्यम सामाजिक जागृति पैदा करने मे बहुत sahayak siddh हो सकता है .

-- तारिफ दराल




फेसबुक ने ब्लागिंग की सक्रियता को बढाने का कार्य किया है।  यह एक मिथ है कि फेसबुक की  ब्लाग लेखन कम हो गया है।  अगर फेसबुक न होता तो भी ब्लॉग लेखन में सचुरेशन की स्थिति आती।  ब्लागिंग में धीमापन उसका सहज स्वभाव है जबकि फेसबुक त्वरित ढंग से कार्य करता है। नए  ब्लागरो  में लेखन का उत्साह कुछ ज्यादा रहता है सो उनकी पोस्टे फटाफट आती रहती है और जब  व्यक्ति लम्बे समय तक लिखता रहता है तो उसे लेखन कार्य से थोड़े समय के लिए ऊबन होने लगती है और वह कुछ 'रिक्रियेशन' के लिए करता है इसका मतलब यह नही की वह लेखन छोड़ कर 'रिक्रियेशन' को लेखन का विकल्प बना लेगा।  ब्लाग पर देरी से पोस्ट का आना और फेसबुक पर उपस्थित रहना दोनों में कोई सम्बन्ध नही है।  लोग जो फेसबुक पर होते है मैंने उनको भी फेसबुक को छोड़ कर जाते देखा है।  ब्लागिंग का शानदार और चौकस  भविष्य है।  

--- पवन  मिश्रा

                                                                                                                              ( क्रमशः )

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

क्या फेसबुक से ब्लॉग पर सक्रियता कम हो रही है ? (2)



              पिछली पोस्ट पर हमने  अपने मित्रों के विचार इसा विषय पर पढ़े और अब आगे चलते हैं।  यद्यपि  दो मित्रों ने ब्लॉग  फेसबुक के बारे में ही विचार दिए  हैं लेकिन मैं  उनके विचारों का सम्मान करती हूँ अतः उनको भी शामिल कर रही हूँ।  




 जब परिवर्तन आता है तो उसके बहुत सारे कारण होते हैं। लेकिन लेखन में लेखक को उसके विचार मजबूर कर देते हैं लिखने के लिए। इसलिए जो वास्‍तव में लेखक है वह ब्‍लाग पर ही लिखेगा। प्रारम्‍भ में लेखक बनने की चाह में बहुत सारे लोग ब्‍लाग से जुड़ गए थे लेकिन फिर निरन्‍तरता नहीं रख पाए और वे फेसबुक पर चले गए। इसलिए ब्‍लागजगत में लेखन में कमी आयी है। यदि विमर्श बिना पूर्वाग्रह के होगा तब सार्थक होगा, लेकिन आज राजनैतिक पूर्वाग्रह से लिखने वाले बहुत हैं इसलिए भी कुछ लोग दूर हो गए हैं।

--अजित गुप्ता




मुझे एक बात समझ मे नही आती कि इन दिनोँ फेसवुक पर कई लोग ग्रुप बनाकर तरह-तरह के भ्रष्टाचार के खिलाफ खडे नजर आते है, जो खुद कई प्रकार के भ्रष्टाचार मे सुबह से शाम तक लिप्त रह्ते है, एक छोटा सा उदाहरण देखिये - एक प्रोफेसर पढाई से ज्यादा गुटवन्दी मे, अपने हित साधने मे समय बिताते देखे जाते हैँ, एक पत्रकार हर घोटालेबाजोँ के धन्धे मे प्रत्येक्ष और परोक्ष रूप से उसे मदद करता रह्ता है, बदले मे हिस्सा लेता है, सरकारी व्यक्ति अपनी डुयुटी मे फांकी मारता है और भी कई लोग- कई तबके के हैँ, जो फेसबुक पर पिँघल छाँटते हुए दिखाई देते है, किसी मित्र को यह बात समझ मे आए तो बडी कृपा होगी, मुझे भी समझाने का कष्ट करेँगे, आभारी रहुँगा.


--अरुण कुमार झा

 पहली बात जो लोग आफ़िस टाईम मे भी फ़ेस बुक पर लगे रहते हे, वो भी तो एक तरह से भ्रष्टाचार कर रहे हे... सब से पहले वो कसम ऊठाये कि आफ़िस समय मे अपना काम ईमान दारी से करेगे, कोई कागज पेंसिल घर नही ले जायेगे, ओर ना ही आफ़िस के समय वो आफ़िस के पीसी से फ़ेस बुक या ऎसी प्राईवेट जगह पर जायेगे...

--राज भाटिया



 आजकल यह चर्चा ज़ोर शोर से चल रही है कि फेसबुक ने हिन्दी ब्लोगिंग का सब से ज्यादा नुकसान किया है कारण यह कि लगभग सभी हिन्दी ब्लॉगर आजकल फेसबुक पर अधिक सक्रिय दिखते है और इस वजह से उन सब के ब्लॉग असक्रिय हुये जा रहे है | न कोई पोस्ट लिख रहा है न पढ़ रहा है ... फेसबुक पर तुरंत संवाद हो पाने के कारण ब्लॉग से लोगो की दूरी बनती जा रही है !
ऐसे माहौल मे एक सवाल सब के जहन मे आता है क्या हिन्दी ब्लोगिंग अपनों के ही हाथों मारी जाएगी !!??

दरअसल इस पूरे मामले मे गलती हम सब की ही है ... मान लीजिये हम दिन मे २ घंटा फेसबुक पर बिताते है ... ऐसे मे बड़े आराम से हम बगल की विंडो मे अपना ब्लॉग भी खोल कर रख सकते है ... फीड्स का अनुसरण करते हुये नयी आई हुई पोस्ट पढ़ सकते है ... और पढ़ते पढ़ते कमेन्ट देने का मन हुआ तो झट मन की बात कह दी पोस्ट पर ... एक बार इसी तरह सक्रिय होने पर धीरे धीरे खुद भी पोस्ट लिखने का मन भी होने लगेगा और हमारी असक्रियता कब सक्रियता मे बदल जाएगी पता भी नहीं चलेगा !

मैं खुद भी ऐसा ही करता हूँ ... साथ साथ ... ब्लॉग बुलेटिन की पोस्ट लगाने के कारण भी काफी पोस्टों को पढ़ना हो जाता है ... हाँ यह जरूर है कि आजकल कमेंट्स करना काफी कम हो गया है !

फेसबुक पर हम से ज़्यादातर लोग इसी ब्लोगिंग के चलते एक दूसरे से जुड़े है ... तो आइये इस जुड़ाव के आधार को बनाए रखें |

--
शिवम् मिश्रा


अभिव्यक्ति एक सशक्त माध्यम है अपने विचार दूसरों तक पहुँचाने का - चाहे वह कोई भी विधा हो- संगीत, नृत्य, पेंटिंग या लेखन !
अक्सर हमारा लिखा डायरी के पन्नों में सिमट कर रह जाता है , शायद इसलिए की हम उसे अन्यत्र भेजने की हिम्मत नहीं जुटा पाते . लेकिन ब्लॉग एक ऐसे सशक्त मंच के रूप में उभरा है जहाँ हम अपनी सोच ..अपनी भावनाएं..अपने विचार साझा कर सकते हैं .
अमूमन काफ़ी समय हम सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर व्यतीत करते हैं ...कितना अच्छा हो अगर हम अपने ब्लॉग के साथ साथ दूसरे ब्लॉग को भी महत्त्व दें ...थोडासा समय निकालकर ..उनपर जाकर मित्र लेखकों की सोच पर भी एक नज़र डालें, उन्हें पढ़ें, समझें और अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करें, उनका मनोबल बढाएं, जैसा की हम और मित्रों से अपेक्षा रखते हैं .
तभी तो सही मायनों में हमारा ब्लॉग लेखन सार्थक हो पायेगा .
.......ज़रा सोचिये ..!

       सरस दरबारी 

फेस बुक ने लोगों को एक बहुत बड़ी दुनिया से परिचित करवा दिया है इसने कई अजनबियों को एक परिवार की तरह बाँध दिया है। शुरू में ब्लॉग जगत के लोगों ने फेस बुक को बहुत तवज्जो नहीं दी लेकिन धीरे धीरे बैटन चर्चाओं का आकर्षण सिर चढ़ कर  और कई ब्लोगर्स जो हफ्ते में पांच से छह पोस्ट लिखते थे एक दो पोस्ट तक सिमट गए और इसकी जगह ले ली लाइक और चुटीली टिप्पणियों ने।  इससे निश्चित ही लेखन का स्तर गिरा  है साथ ही अपनी सोच के हिसाब से किसी बात को नए नज़रिए से देखने समझने और समझाने का क्रम भी कम हुआ है जो शोचनीय है। ब्लॉग परडाली गयीं पोस्ट एक सुरुचि पूर्ण दस्तावेज  के रूप में होती हैं और उसके साथ होते हैं लोगों के बेशकीमती विचार ,इसलिए  से ब्लॉग का साथ छोड़ना अपने लेखन के साथ अन्याय करना है।
-- कविता वर्मा
 एक चर्चा 

                                                                                                                           (क्रमशः)

बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

क्या फेसबुक से ब्लॉग पर सक्रियता कम हो रही है ?

              जिसे मैं महसूस कर  हूँ , उसे और भी हमारे साथी भी महसूस कर  हैं लेकिन महसूस करने से कुछ नहीं होता।  कुछ  इस  तरह से सोचा जाय कि  जो हम खोते जा रहे हैं,  उसके अस्तित्व को उसी तरह से जारी  रखें।
                      अरे अभी  शेष है मुद्दे पर आना।   ब्लॉगिंग के ऊपर फेसबुक ने डाका डाल  दिया है और ब्लोगर्स भी ब्लॉग के बजाय फेसबुक पर जाकर स्टेटस अपडेट कर देते हैं, वह भी कुछ ही पंक्तियों में और पढ़ने वाले भी उसको लाइक करके अपने फर्ज से मुक्त हो जाते हैं।  ये अवश्य है कि फेसबुक पर डाली हुई चीज करीब करीब उस हर इंसान की नजर से गुजर जाती है जो ऑनलाइन होता है बल्कि कहिये कि  फेसबुक पर सिर्फ वे लोग पढ़ सकते हैं जो आपके मित्रों में शामिल है  और अगर कुछ घंटों में इतने स्टेटस अपडेट  हो जाते हैं कि जो आगे बढ़ जाते हैं , उनको पढ़  पाना संभव नहीं हो पाता है और ब्लॉग की अपडेट उन्हें  तब ही मिलती है जब वे किसी भी  संकलक  पर जाएँ .  जहाँ पर उन्हें ताजे अपडेट मिलें। लेकिन किसी भी समस्या और विषय को ब्लॉग पर डालने से जितने सहज ढंग से उसको प्रस्तुत किया जा सकता है  फेसबुक पर अगर करें भी तो सारे लोग सारे अपडेट नहीं पढ़ पाते हैं और महत्वपूर्ण विषयों से वंचित रह जाते है।  ब्लॉग पर विषय  संचित और सुरक्षित रहते हैं और उसको  पढ़ने के लिए और उसे कहीं भी उल्लिखित करने के लिए कभी भी जोड़ा जा सकता है जब कि हम फेसबुक के साथ ऐसा नहीं कर पाते  हैं।


                      मैं खुद भी कुछ  ब्लॉग पर  रही हूँ लेकिन जब अपने से जुड़े ब्लॉग पर  नजर डाली तो पाया कि राजभाषा ब्लॉग जिस पर मैं भी कभी बहुत सक्रियता से लिखती थी और वह मुझे बहुत पसंद भी है, लेकिन उसकी आखिरी पोस्ट अप्रैल की पड़ी हुई थी तो मुझे लगा कि फेसबुक जैसी सोशल साईट ही ब्लॉग के प्रति ब्लॉगर की सक्रियता को कम करने लगी है।  हो सकता है कि वहम हो लेकिन सबसे इस पर विचार लेकर कुछ जाना तो जा ही सकता है।  इसी लिए आप सबको एक विषय पर अपने विचार लिखने का अनुरोध किया। जैसे जैसे विचार मिल रहे हैं ,   सबको प्रस्तुत  कर रही हूँ।  आप भी अपने विचार भेजें। 



आपने बिलकुल सही बात उठाई है, पर बात सिर्फ फेसबुक की नहीं है मेरे दृष्टिकोण से  …. लोग कुछ भी लिखने लगे हैं, और कुछ भी लिखे पर कमेंट्स देकर कमेंट्स की आशा रखते हैं और आशा पूरी भी होती है  …। इससे सही लिखनेवाले कमेंट्स से निर्विकार हो गए हैं और इस पर नज़र डालना ज़रूरी है ! 
ब्लॉगर अपने लिंक्स फेसबुक पर देते हैं ताकि आप पढ़ें - पर एक क्षण में लाइक बटन दबानेवाले नहीं समझते कि सही मायनों में लिखनेवाले इससे प्रभावित नहीं होते  . 
हमारे चाहने से कुछ नहीं होगा,क्योंकि जो पढ़ते हैं वे आज भी पढ़ते हैं - और जब प्रभावित होते हैं तो प्रतिक्रिया भी देते हैं - और कई बार समय,मानसिक स्थिति स्तब्ध भी बना देती है  . कमेंट्स के साथ seen  का भी चिन्ह है,जो बताता है कि कितनों ने पढ़ा हमें ! 
हम न जबरदस्ती किसी को पढने के लिए कह सकते हैं,न कमेंट्स देने को - खुद पर विश्वास मायने रखती है

 रश्मि प्रभा


आपका सोच सही हैं ब्लोग्स पर लिखा हर कोई नही पढता   वह  सबकी नजरो में आभी जाए तो यही होता हैं कि आप मेरे ब्लॉग पर आये तभी हम आपके ब्लॉग पर आयेंगे  .कम से कम मुझे तो यही लगता हैं   फेस बुक पर आप जितना भी अच्छा लिख ले हर कोई कमेंट नही करता  बस चलते चलते लाइक कर लेता हैं .मैंने देखा कई बार लोग पूरी पोस्ट पढ़ते भी नही हैं .....ब्लॉग अभिव्यक्ति का उत्तम माध्यम हैं और संजीदा भी   ,परन्तु क्षमा चाहती हूँ मैं भी ब्लोग्स पर सक्रीय होने की कोशिश करती हूँ परन्तु जितना होना चाहिए उतना नही हो पाती शायद मैं नवोदित हूँ इस क्षेत्र में इस लिय ...... हाँ आश्वासन देती हूँ मैं अपनी तरफ से कि अब से कम से कम रोजाना ब्लॉग का अवलोकन अवश्य करूंगी शुक्रिया आपने इस तरह ध्यान दि

 नीलिमा शर्मा




मुझे नहीं लगता कि फेसबुक से ब्लोगिंग पर कोई फर्क पड़ रहा है। बल्कि फेसबुक त्वरित गति से ब्लॉग पर ट्रेफिक बढ़ाने मे सहायता ही करता है। ब्लॉग और फेसबुक दोनों अभिव्यक्ति का माध्यम है और एक दूसरे  के पूरक हैं अलग नहीं। यह हम पर निर्भर है कि किस तरह इन दोनों माध्यम का प्रयोग करते हैं।
रही बात कमेंट्स की तो कमेंट्स आने से ज़्यादा महत्व इस बात का है कि जो हमने लिखा उसे कितने लोगों ने पढ़ा और इसका हिसाब ब्लॉग की statistics से आसानी चल सकता है।
फेसबुक ब्लॉग पर लगभग 70-80% ट्रेफिक बढ़ाता ही है इससे ब्लॉग को कोई खतरा नहीं है .


  यशवंत माथुर

समय और परिस्थिति सब नियंत्रित करती है.,मुझे जब जैसा समय मिलता है सक्रीय रहती हूँ,वैसे मेरा कार्य नए blogs खोजकर पढ़ना ही है...एक अच्छी पहल है .. राय जानने की
आभार

 अर्चना चावजी
 मेरे विचार इस मामले में कुछ भिन्न हैं. ब्लॉगस कोई नहीं पढता ऐसा नहीं है. अब भी अच्छे ब्लॉगस पढ़े जाते हैं. हाँ इतना अवश्य है कि अब ब्लॉग अपनी प्राकृतिक अवस्था में आ गया है. बीच में, चाहे किसी रेटिंग की वजह से हो या किसी और वजह से. हर कोई ब्लॉग लिखता नहीं था, बहुत से लोग ब्लॉग ठेला करते थे. रोज का रोज ठेलना, फिर चाहे वह किसी मेल से कॉपी पेस्ट किया हुआ मटेरियल हो या फिर आपस में दो लोगों की लड़ाई, गाली गलोच और भड़ास. अब वह सब छट कर फेसबुक पर चला गया है. ब्लॉग अब वही लिखता है जिसके पास वाकई कुछ लिखने या अभिव्यक्त करने को है. और तभी लिखता है जब उसका मन लिखने का हो, न कि रोज लिखना है कि तर्ज़ पर कुछ भी लिख दिया जाए.
फेसबुक पूरी दुनिया से जुड़ने का एक माध्यम है इससे इनकार नहीं किया जा सकता और वहां जब आप किसी ब्लॉग का लिंक देते हैं तो वह पूरी दुनिया के सामने होता है. यह सच है कि उसपर कुछ लोग बिना देखे ही लाइक क्लिक कर देते हैं, पर यह भी सच है कि उसे देखकर गंभीर पाठक भी ब्लॉग तक आता है और आपके ब्लॉग की रीडरशिप बढ़ती है. 
गंभीर लेखन आज भी ब्लॉग पर होता है और गंभीर पाठक आज भी उसे पढता है. ब्लॉग की अहमियत आज भी कम नहीं हुई है.
हाँ हलकी फुलकी बातों और टिप्पणियों के लिए फेसबुक बुरा नहीं.

शिखा वार्ष्णेय ,


मैं भी इस बात से सहमत हूँ कि फेसबुक की वजह से पूरा ब्लॉग-जगत इस बात से झूझ रहा है ...यहाँ आने वाले पाठकों की संख्या में कमी आई है ..और फेसबुक के स्टेट्स पर सिर्फ लाइक कर देते से इती-श्री कर देना लिखने और पढ़ने वालो पर सारा सर वार है ..वहाँ का लिखा हुआ इतनी जल्दी खो जाता है कि फिर से उसे खोजने में बहुत वक्त लगता है ....पर फेसबुक से पहचान मिलती है और मिली है इस बात को भी नाकारा नहीं जा सकता |

मेरे जैसे बहुत से लोग है जो वहाँ बहुत सक्रिय नहीं है ...हम लोगों के ब्लॉग या वेब साइड अपने पाठक ढूढं रही है |नीलिमा की बात सही है ..बिना कॉमंट किये कोई भी अपने ब्लॉग पर नहीं आता |सच में कुछ वक्त से सभी ब्लॉग अपने अपने पाठकों के लिए तरस रहें हैं और आगे चल के हालात और भी बुरे होने वाले हैं ...मुझे नहीं लगता कि वो वक्त फिर से आएगा जब सब लोग ब्लॉग लिख भी रहें थे और पढ़ भी रहें थे |

अंजू चौधरी

                                                                                                                     (  क्रमशः)

शनिवार, 21 सितंबर 2013

पांच वर्ष ब्लोगिंग के !

                                      जीवन में लेखन के तो लगभग  पांच दशक होने वाले हैं।  वह बचपन की बाल जगत की कहानियों और कविताओं के काल से जोड़ रही हूँ।   छोटी जगह का आदमी अधिक जानकारी भी नहीं रखता है।  हाँ घर में पिता पढ़ने के  शौक़ीन थे सो सारी पत्र पत्रिकाएं घर में आती थीं।  लिखने की कला तो  विरासत में मिली और प्रोत्साहन भी मिला लेकिन ये मुझे बहुत बाद में पता चला कि  पापा भी लिखते थे लेकिन उनका लिखा कभी पढने  को नहीं मिला।  
                                      लिखने और छपने का काम भी जल्दी ही शुरू हो गया था। लेकिन पत्र पत्रिकाओं में छपने का मजा भी कुछ और ही था क्योंकि तब और कुछ तो था नहीं। मध्यमवर्गीय परिवार में बगैर नौकरी के अर्जन  आपने आप में एक  अलग सुख था। लेकिन तब इतना नहीं जानती थी कि  ये अपनी लिखी हुई हर चीज संभालकर रखनी चाहिए सो काफी  छपा हुआ इधर उधर हो गया और जो शादी के बाद साथ लायी थी वो मेरी अनुपस्थिति में रद्दी की भेंट चढ़ गया।  मेरी अप्रकाशित रचनाएँ भी।  तब मुक्तक नहीं भेजती थी ढेर  सारे मुक्तक और शेर सब कुछ।  
                                     जब ब्लॉग बनाया तो इतना रोना आया कि  काश मेरी सारी डायरी होती तो पता नहीं कितना डालने को मेरे पास होता।  खैर जो भी बचा था और जो भी फिर लिखा गया वह तो ब्लॉग में है।  ऐसा नहीं है मेरी बहनें  अब भी कहती हैं कि  क्या ब्लॉग पर लिखा करती हो ? पत्रिकाओं में क्यों नहीं भेजती ? पहले कितना अच्छा था ? सच तो ये है की पत्रिका उन्हें आसानी से हासिल हो जाती है और ब्लॉग पर जाना और पढना अभी तक सबको आता नहीं है और फिर समय भी नहीं है।  लेकिन अब भेजने में झंझट लगने लगा है क्योंकि ब्लॉग पर तुरंत लिखो और तुरंत प्रकाशित  कर दिया।  अभिव्यक्ति का एक अलग माध्यम है , जिसमें किसी संपादक की पसंद या नापसंद का कोई झंझट ही नहीं ( संपादक बंधुओं से क्षमा याचना सहित ) . वैसे प्रिंट मीडिया में भी अपनी अलग राजनीति होती है।  अब वो जमाना नहीं है - पहले मैंने कभी संपादक को कवर लैटर भी नहीं लिखा।  अपनी रचना लिफाफे में बंद की और सीधे भेज दी।  वहां से स्वीकृति पत्र मिला बस और उसके बाद चेक।  इसमें कुछ भी न सही लेकिन सब कुछ अपने हाथ में है।  लिखो डालो और पब्लिश कर दो.  ढेर सारे  मंच भी  हैं जहाँ अपने और साथियों की रचनाओं के विषय में जानकारी  मिलती रहती है।  
                                  आज अपने पांच वर्ष पूरे करने पर मैं ब्लॉग के बारे अधिक जानकारी देने के लिए अपनी मित्रों रश्मि रविजा , रचना सिंह , संगीता स्वरूप को धन्यवाद कहना चाहूंगी , जिनसे मैंने बहुत कुछ सीख कर आगे कदम रखे।  फिर लेखन में और मेरी श्रृंखलाओं में मेरे सभी मित्रों ने समय समय पर मेरे विषय को लेकर जो अपने विचार या अनुभव दिए उन सबके को भी मेरा हार्दिक धन्यवाद ! 
                                 मेरी कविताओं को लेकर अपने संपादन में छपने वाले संग्रह में स्थान देने के लिए मुकेश कुमार  सिन्हा,सत्यम शिवम् और रश्मि प्रभा जी को मेरा हार्दिक धन्यवाद ! 
                                
                                  चेहरा तो मेरा मेरे पास था जन्म से ही ,
                                  भाव भरे मन में विधाता ही था शायद ,
                                  थामी कलम इन हाथों में वो पिता ने दी ,
                                  तराशा किसी ने नहीं , बस जो लिखा था 
                                  उसी तरह पन्नों पर उतरा और रख दिया। 
                                   ये वक़्त ही था  पहले पन्ने से पन्नों पर 
                                   फिर पन्नों से इस मंच तक चली आई। 
                                    पढ़ा, सराहा या फिर पोस्ट मार्टम किया
                                   साथ रहे मेरे सभी मित्र और बहन- भाई।  


                    बस आपके साथ , स्नेह और सहयोग से शेष जीवन में ब्लॉग पर लिखने की प्रेरणा देते रहें और आलोचना या समालोचना हो भी  निःसंकोच अपने विचार हम तक जरूर भेजें।

शनिवार, 14 सितंबर 2013

हिंदी दिवस : औपचारिकता भर !

                                      १४ सितम्बर हिंदी  दिवस  घोषित किसने किया -  हमारी सरकार ने क्योंकि  आजादी के इतने वर्षों बाद भी सरकारी स्तर पर उसको उसकी जगह दिला पाने में असमर्थ रही  है  और रही  नहीं है बल्कि आज भी है. तभी अपनी नाकामी पर परदा डालने के लिए हिंदी माह , हिंदी पखवारा , हिंदी सप्ताह और हिंदी दिवस अपने प्रयासों को प्रदर्शित करने का एक प्रयास मात्र है।जब कि देश को राजभाषा की दुर्दशा पर कहने का एक  अवसर प्रदान किया जाता है।  
                                      सरकारी प्रयासों से इसमें कुछ  होने वाला नहीं  है ,  वह सिर्फ एक औपचारिकता मात्र है। अभी पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय  ने किसी जानकारी को हिंदी में देने से इनकार  कर दिया ,  आखिर क्यों ?  क्या हमारे लिए अपनी राजभाषा में कोई सरकारी  सूचना प्राप्त करने की मांग करना न्यायसंगत  नहीं है।  जब हमारे सरकारी तंत्र में यह रवैया चल रहा है  फिर इस हिंदी के दिवस , सप्ताह , पखवारा या माह का क्या औचित्य है ?
                           आज के दिन  हिंदी की वकालत  करते हुए हिंदी में  काम  करने को बढ़ावा देने की बात करते हैं और दिवस के गुजरते ही  सब बातें एक साल के लिए दफन कर  जाती है। जब हमारी सरकारी  नीतियां ऐसी हैं  हिंदी की दुर्दशा के लिए किसी और को दोषी कैसे  कह सकते हैं ? कम वाले आमदनी वाले अभिभावक भी बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढाना पसंद करते हैं और फिर उसके लिए ट्यूशन भी रखने के लिए मजबूर  होते हैं।   क्यों करते हैं ऐसा क्योंकि वे अंग्रेजी के महिमा मंडन से  परिचित होते हैं।  अंग्रेजी माध्यम से  बुरा  नहीं है लेकिन स्कूल में हिंदी की उपेक्षा और पाठ्यक्रम में उसके विषयवस्तु का ठीक से चयन न करना ही इसका सबसे बड़ा कारण है .  जब संसद में हिंदी  भाषी प्रदेश के सांसद अंग्रेजी में बोल कर अपने आपको विद्वान सिद्ध करने की कोशिश करते हैं और प्रधानमंत्री अपनी मेधा से हिंदी में  भाषण देने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं  तो फिर हिंदी भाषी लोग अपने लिए कहाँ जगह खोजें ? आम आदमी चिल्लाता रहे कि  हिंदी को  आगे लाओ लेकिन सरकारी तंत्र आज भी अंग्रेजों का मुंहताज है।  जहाँ तक मुझे पता है की करीब करीब सभी संस्थानों में हिंदी प्रभाग और हिंदी अधिकारी का पद होता है लेकिन वहां वह हिंदी को बढ़ावा देने के लिए होता है यह तो वहां  पता चल सकेगा ?
                        सरकार क्या कर रही है और उसके क्या करना चाहिए ?  बस इतना कि अपने बच्चों को घर में हिंदी ही बोलने को कहें और उनको इसा भाषा में अपने ज्ञान को भी बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें।  वे स्कूल या कॉलेज के अलावा घर में अधिक सुधारे जा सकते हैं।  
                        स्कूल में हिंदी ज्ञान के  नाम पर  चुटकुला नहीं कहेंगे बल्कि ये वास्तविकता है कि प्राइमरी स्कूल में कुछ अधिकारी औचक निरीक्षण के लिए गए तो वहां पर बच्चे मातृभूमि शब्द शुद्ध नहीं लिख पाए और फिर जब  शिक्षिका जी ने लिखा तो वह भी गलत था।  अधिकारी ने  खुद लिख कर कहा - मैडम आप तो सही  जानकारी रखिये नहीं तो इन बच्चों को क्या पढ़ाएंगी? 
                       ये हमारी शिक्षा  के नाम पर  एक बदनुमा दाग के अलावा कुछ भी नहीं है।  

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

भिक्षुक एक वर्ग !

                        


              भिक्षा वृत्ति सबसे निकृष्ट और हेय रही है लेकिन फिर भी हम माँगने वालों को पालते ही  रहते हैं ( वैसे मैं शारीरिक रूप से सक्षम , युवा वर्ग और बच्चों को कभी  भीख नहीं देती ) . हम ही उन्हें इस वृत्ति के लिए बढ़ावा  देते हैं।  उनकी कमाई एक मेहनतकश से कई गुना ज्यादा है।  उन्हें वो सारी चीजें सहज उपलब्ध है जिन्हें एक मेहनतकश पूरे माह  के बाद भी हासिल नहीं कर पाता है।
                                कानपुर में ७ भिक्षुक गृह है और वे सारे के सारे खाली हैं।   सरकारी सहायता बदस्तूर मिल रही है लेकिन वह जा कहाँ रही है ? इसके बारे मे  मुझे पता नहीं है लेकिन एक बात बता दूं कि ये भिक्षुक अपने अपने घरों में रहते हैं और इनके घर कोई  झोपड़ी नहीं है बल्कि अच्छे खासे मकान  हैं और वह भी सारी  सुख सुविधाओं से युक्त भी हैं।ऐसे ही नहीं जागा ये विचार --  कई घटनाओं और लोगों को देखने के बाद सोचा कि कैसा है ये वर्ग जो औरों की मेहनत या फिर किसी भी तरीके  किये गए पैसे पर ये लोग ऐश कर रहे हैं। 

                    कानपुर का एक प्रसिद्ध मंदिर पनकी की बात कर रही हूँ।  जहाँ पर मंगलवार को हजारों की संख्या में दर्शनार्थी आते हैं और रोज भी जाते हैं।  इस मंदिर में सैकड़ों की संख्या में भिखारी बैठे होते हैं वह भी सपरिवार -   माँ - बाप , बेटे - बेटी , नाती - पोते सभी।   मेरी नजर एक लड़की पर पड़ी , वह नव विवाहिता  लेकिन कम उम्र की अच्छी साड़ी पहने , पूरे साज श्रृंगार से और एक छोटे के बच्चे को गोद में लिए बैठी भीख  मांग थी . वही पास में उसके घर के लोग थे।  चूंकि  लम्बी लाइन थी और दर्शन मुझे भी करने ही थे सो खड़े खड़े ये भी देख रही थी।  तब लगा कि  यहाँ आने वाला हर व्यक्ति तो नहीं लेकिन १० में से ४ तो  पैसे , प्रसाद , लंच पैक , कपडे आदि देते हैं।  मैं नहीं कहती कि  ये सब न किया जाय लेकिन दान या इस तरह की चीजें देने के लिए पात्रता भी  देखनी चाहिए।  इन सभी भिखारियों में करीब करीब ८० प्रतिशत बिलकुल स्वस्थ और कार्य करने की दशा में होते हैं लेकिन वे कार्य नहीं करना चाहते क्योंकि अगर उनको एक जगह पर बैठे हुए एक दिन में कई सौ रुपये , आटा , फल , मिठाई और अन्य खाद्य पदार्थ मिल रहे हैं तो फिर -- 'अल्लाह दे खाने को तो ठेंगा जाय कमाने को ' यह  कहावत चरितार्थ होती है. 
                  नवरात्रि में माता जी के हर मंदिर में लाखों लोग रोज दर्शन करते हैं , जहाँ पर करोड़ों का प्रसाद रोज बिकता है और वही पर लाखों भिखारी भी अपनी थैली भर रहे होते हैं।  ऐसे एक मंदिर के बाहर माँगने वाले सड़क के  दोनों और बैठे होते हैं।   बच्चे बूढ़े और जवान सभी होते हैं , ऐसा नहीं है उनमें अपाहिज ,  कुष्ठ रोगी , अत्यंत वृद्ध और असमर्थ बेसहारा लोग भी होते हैं।  इनके घर में बाकायदा खाना पका कर आने वाले सदस्य और उनके स्थान को घेर कर पहले से बैठे हुए लोग होते हैं। एक परिवार का वार्तालाप ऐसे ही माहौल में  मैंने सुना था -- 
लड़की - चल तू जा , मैं खाना कर रख आई हूँ तब तक मैं यहाँ बैठती हूँ। 
 लड़का - कहे की तरकारी बनायीं है ?
लड़की - आलू   टमाटर की। डब्बा में रोटी और चावल रखा है , जल्दी खा कर आ फिर बप्पा जइहें। 
                                  उस लड़की की उम्र २० साल की रही होगी और जाने वाले लड़के की १५ साल।  उनके बप्पा किस उम्र के होंगे ? यानि की सभी के सभी मेहनत करके कमाने काबिल लेकिन जब उनको दूसरे की कमाई  का सुख लेना ही नसीब में हो तो फिर क्यों हाथ पैर हिलाए जाएँ।  
                      ऐसा नहीं है इनके  घूम घूम कर भीख मांगने वालों के बीच भी इलाके का करार होता है कि  ये हमारा इलाका है और इसमें इन दिनों में हम भीख माँगने हम ही जायेंगे।  कोई दूसरा नहीं जा सकता है।  इनके साथ आता रखने के लिए अलग थैला , चावल रखने के लिए अलग और कभी कभी तो ये  आलू दे दो कह कर सब्जी का भी इंतजाम कर लेते हैं।  जितना आटा  एक आदमी एक महीने में खाता होगा उतनी इनकी एक दिन की कमाई हो जाती है।  वर्षों से सुनती आ रही हूँ - एक भिखारी सड़क से निकलेगा - बेटा रूपया दो रुपया दे इस गरीब को।  धीरे धीरे ये माँगने की सीमा अब ५ से १० रुपये की हो गयी है।  हम तो घर में बैठे ही उनकी आवाज सुना करते हैं।  वैसे भाई मंहगाई का जमाना है तो उनकी मांग भी तो बढ़ेगी न , नहीं तो गुजर कैसे होगी ? 
                           सच कहूं इनको भिखारी हमने बनाया है , जिनकी रोज की आमदनी एक मजदूर से या कहो की एक बाबू से अधिक हो तो वह क्यों परिश्रम करेंगे ? हमारी धार्मिक भावनाओं का फायदा उठा कर ये हरामखोरी की आदत का  शिकार हो गए हैं।  रोज ही दिन में एक आध बार जवान औरतें , अधेड़ औरतें अपने बच्चों के भूखे होने का हवाला देकर रोटी मांगती हैं , पैसे मांगती हैं लेकिन अगर उनसे कहा की कुछ काम क्यों नहीं करती ? तो इस विषय में कुछ भी नहीं बोलना होता है काम के नाम पर चुपचाप अपना झोला उठा कर चल देंगी।  इनमें गैरत जैसी कोई चीज होती ही नहीं है , नहीं तो कितने बूढ़े और बच्चों को रिक्शा चलते देखा है , बोझ ढोते देखा है। इस मुफ्त की खाने वाले वर्ग के प्रति तो सोचने की जरूरत है - किसी और से क्यों कहें ? सिर्फ हम अपने को ही इसा दिशा में जागरूक बना लें।  अगर कुछ देना ही है तो फिर ऐसे व्यक्ति को दें जो कमाने के काबिल न हो।  चलने फिरने में लाचार हो , अत्यंत बूढा , अपाहिज हो।  बच्चों को तो भीख कभी न दें।  इनमें से बहुत  से बच्चे गिरोह द्वारा अपहृत करके उनको भीख मंगवाने का काम करवाते हैं।  वे लोग तो और उच्च कोटि के भिखारी हैं जो दूसरों को प्रयोग करके खुद आलिशान घरों में रहकर हमारी भावनाओं का फायदा उठाया करते हैं।  इस तरफ भी सजग होकर कुछ सामाजिक दायित्वों के प्रति जिम्मेदार बनें।  लोगों को भीख देकर अकर्मण्य न बनायें बल्कि उनको अगर काम के लिए प्रोत्साहित किया जाय तो समाज में कुछ तो  परिवर्तन लाया जा सकता है।  लोगों की खून पसीने की कमी दूसरे तो न खाएं ( वैसे खिलाने वाले हम ही होते हैं। )  

रविवार, 25 अगस्त 2013

काउंसलिंग जरूरी है लेकिन किसकी ?

                         हम प्रगति करते हुए अंतरिक्ष  तक पहुँच गए है और वहां तक पहुँचाने वाले शोध में देश के हर कोने के वैज्ञानिक जुटे हुए हैं और हम विश्व पटल पर भारतीय मूल की मेधा  को भी जब चमकते हुए तारे की तरह देखते हैं तो गर्व से हमारा सिर ऊँचा उठ जाता है . वहां हर हाथ सिर्फ अपने काम में जुटा होता है  क्योंकि   मेधा किसी जाति , धर्म या  या फिर वर्ग की धरोहर नहीं होती है और न हम उस जगह ये पूछते हैं कि अमुख वैज्ञानिक किस "जाति " का है . लेकिन हम इस जाति के चक्रव्यूह में कुछ ऐसे फंसे दिखते है कि हमारी शिक्षा , सोच और प्रगतिशील होने के सारे मायने बेकार हो जाते हैं .
                     हम अपने एक मित्र परिवार के यहाँ आये हुए थे क्योंकि उन्होंने हमें एक विशेष मुद्दे पर विचार विमर्श के लिए ही हमें बुलाया था .  अच्छी पढा लिखा और प्रतिष्ठित परिवार है .  उनके परिवार के सभी बच्चे उच्च शिक्षित और अच्छे पदों पर कार्य कर रहे हैं . युवा सोच और हमारी सोच अगर मिलती नहीं है तो ये दोष हमारी सोच का है . हमें समय के अनुसार बदलना जरूरी है . झूठी  मान प्रतिष्ठा को सम्मान का प्रश्न बना कर कुछ हासिल तो नहीं किया जा सकता है लेकिन खो बहुत कुछ सकते हैं . उस परिवार का एक बेटा अपनी पसंद की लड़की से शादी करने  के लिए परिवार की  सहमति चाह रहा था।   लड़की उनकी जाति  की नहीं है  और किसी उच्च जाति की भी नहीं है ।  बस यही छोटी जाति की  दीवार उस परिवार के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बना हुआ है ।  लोग क्या कहेंगे ?  सबको मुंह कैसे दिखायेंगे ? समाज में क्या इज्जत रह जायेगी ? आदि आदि। 
उस परिवार के लोगों की सोच पर मैं कुछ कहने की स्थिति में नहीं थी।  उस लड़की का परिवार प्रतिष्ठित परिवार था।  लड़की स्वयं इंजीनियर थी , पिता एक डॉक्टर और माँ एक कॉलेज में प्रिंसिपल, लेकिन वे इस समाज में उच्च कही जाने वाली जाति से नहीं थे। मैं सब कुछ समझ चुकी थी लेकिन अपने मित्र परिवार की सोच को बदलने के लिए पूरा प्रयास कर उन्हें इस शादी के लिए राजी करना मैंने अपने लिए एक चुनौती समझ कर ले लिया।  
                      किसी दकियानूसी सोच को  बदलना इतना आसन नहीं होता है लेकिन असंभव भी तो नहीं होता है। उनके लिए कितना मुश्किल है  ये समझना और मेरे लिए समझाना। फिर भी पूरी भूमिका तैयार करनी है और इसके लिए एक या दो बार नहीं बल्कि कई बार अपने तर्कों से उनको सहमत करने का प्रयास करना पड़ेगा और मैं इसके लिए तैयार भी हूँ।  
                  मैंने इस जाति व्यवस्था के उद्भव से लेकर  आज तक के आधार को ही उन्हें समझाने  के लिए सोची।  मैंने उनके घर हफ्ते में एक बार जाती हूँ  और पहले उस बच्चे से मिलती लेकिन अकेले में उनकी नजर में समझाने की दृष्टि - लेकिन मेरी नजर से उसे कुछ समझाना ही नहीं था।  फिर उनके साथ बैठती।  
             इस जाति व्यवस्था का आधार प्राचीन काल में कर्म के अनुसार ही बनाया गया था।  समाज का विभाजन इसी तरह से किया गया था लेकिन सभी जातियां एक दूसरे पर निर्भर रहा करती थी किसी का किसी के बिना काम नहीं  चल सकता था।  चाहे ब्राहमण हो या वैश्य या क्षत्रिय - सभी के चप्पल और जूते चर्मकार ही तैयार करते थे।  सफाई का काम करने वाले जमादार कहे जाते थे।  कुम्हार से ही मिटटी के पात्र  मिलते थे , उन्हें कोई और नहीं बना सकता था और ये कला  उन्हें अपने परिवार से ही प्राप्त होती थी और वे अपने पैतृक कार्य को करते हुए अपने जीवन को चलाते थे।  उनका कर्म क्योंकि सबकी सेवा से जुड़ा था इसलिए वे शूद्र की श्रेणी में रखे गए।  उनको गाँव या बस्ती से बाहर रहने के लिए जगह दी जाती थी।  लेकिन उस काल में भी ये जन्म से जुड़ा हुआ काम नहीं था .  सिर्फ कर्म से जुडा हुआ था।  कालांतर में इसको जातिवाद के रूप में उच्च जातियों ने जब उनको हेय  दृष्टि से देखना आरभ्य कर दिया . उनका शोषण और उनको अस्पृश्य बनाने की चाल भी इसी का परिणाम बनी।  
                    हम कर्म की दृष्टि से आज भी देख सकते हैं।  आज एक ब्राहमण परिवार का बेटा लेदर टेक्नोलॉजी में पढाई करता है और फिर बड़ी बड़ी कंपनी में काम करने लगते हैं।  वहां वे काम क्या करते हैं ? उसी चमड़े का काम न - जिस चमड़े का काम करते हुए चर्मकार हमेशा के लिए निम्न जाति में शामिल कर दिए गए।  आज हजारों लोग सभी जातियों के टेनरी में काम कर रहे हैं।  शू कंपनी में काम करते हैं और उनका सारा काम उसी से जुडा हुआ है फिर वे क्यों और कैसे उच्च जाति  के कहे जाते हैं?  उन्हें कर्म के अनुसार चर्मकार ही कहना चाहिए न।  आज  सफाईकर्मियों की भर्ती  होती है तो वहां पर काम के लिए आने वाले हर जाति के लोग होते हैं और नियुक्ति होने पर वही काम करते हैं लेकिन हम उन्हें शूद्र या जमादार क्यों नहीं कहते हैं ? वे उस काम को करते हुए भी ब्राहमण बने रहते हैं और जो काम पीढ़ियों पहले छोड़ चुके हैं उन्हें  ये समाज और हम आज भी अछूत या अनुसूचित जाति  की श्रेणी में क्यों रखे हुए हैं ? हम प्रगतिशील होने का दावा करते हैं और कल की तरह अपनी  बेटियों को घर में बंद रखने की बजाय कॉलेज से लेकर विदेश तक पढ़ने के लिए भेजने में कोई ऐतराज नहीं करते हैं , इस जगह हमारी सोच प्रगतिशील हो जाती है लेकिन  अपनी पसंद से शादी करने की बात करती है तो हमें उस लडके की जाति  से इतना सरोकार होता है कि  हमारी  प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं।
              हम खुद पढ़े लिखे हैं लेकिन इस बात पर हम पिछड़े हुए कैसे बन जाते हैं ? हमारी सोच क्यों नहीं बदल पाती है ? अंतरजातीय विवाह तो कर सकते हैं लेकिन अगर लड़का या लड़की अपने से उच्च जाति  की हो - यहाँ उच्च से उनका आशय अपने से ऊँची जाति यानि कि ब्राह्मण हो तो चलेगा, यानि कि जिन्हें वे अपने से ऊँचा समझते हैं।  मुझे तरस आता है अपने इस समाज के लोगों की इस स्वार्थी सोच पर - हम कहाँ प्रगतिशील कहें और कहाँ पिछड़ा हुआ इसको जानना बहुत मुश्किल ही है।  फिर इस फर्क को दूर करने में हमारी राजनीति और राजनैतिक दल भी बहुत कुछ भूमिका निभा रहे  है.  जिसने जन्म से ही अनुसूचित होने की प्रथा को बरक़रार रखा है।  मेरी दृष्टि से वास्तव में वे इस श्रेणी में आते हैं जो इस तरह के कर्म करते हैं।  अगर रोजी की दृष्टि से ब्राह्मण रेलवे में नौकरी पाने के लिए सफाई कर्मी का काम करता है तो वह वास्तव में अनुसूचित कहा जाना चाहिए क्योंकि वह वही काम कर रहा है जिसे सदियों पहले करने वालों के वंशज आज भी उस कलंक को धो नहीं पाए हैं।  अब अवसरवादिता के चलते हमें ब्राहमण तो बने रहना चाहते हैं लेकिन उनकी जगहों पर काबिज होने का लोभ संभरण नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि हमें सरकारी नौकरी चाहिए।  फिर काम चाहे जो भी हो लेकिन उस काम को करने वाले पर लगा हुआ तमगा उन्हें स्वीकार नहीं है।  यही दोहरी सोच हमारे समाज को आगे नहीं बढ़ने दे रही है।  
      अब आप बतलाइए कि हमारे मित्र परिवार को काउंसिलिंग की जरूरत है या फिर उनके बेटे को।  मैं तो उन्हें इसी आईने से उनको समझाने  की सोच रही हूँ और अगर उनको समझाने में सफल रही तब भी उस बेटे की शादी के बाद आप सबको बताऊँगी। और अगर असफल हुई तब भी बताऊँगी .
                    
                        

बुधवार, 14 अगस्त 2013

स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर !

                                       


                    देश  राजनीतिक गतिविधियों से कुछ सरोकार रखना हर देशवासी का हक है . देश हमारा है और जमीन हमारी माँ है . इस माँ की आन, बान और शान की रक्षा  हजारों सैनिक सिर्फ अपने राज्य की नहीं रक्षा के लिए नहीं बल्कि पूरे देश की  सरहदों पर रात दिन आखें टिकाये खड़े  रहते हैं . सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि देश की आतंरिक आपदाओं , प्राकृतिक आपदाओं , आतंकी घटनाओं के होने पर अपने जीवन को दांव पर लगा कर अनगिनत जीवनों को बचाने में लगे रहते हैं . हम भी अपने देश के सैनिकों जैसे भावनाएं अपने मन में विकसित क्यों नहीं कर पाते  हैं .

                                     हमारा प्रयास अपने देश को बचाने  का होना चाहिए . क्या देश और देशवासियों के हित में है  ये निर्णय संसद में बैठे चंद जनप्रतिनिधि करते हैं  भले ही वह जन के हित में हो  न हो . वे  चंद ताकतवर लोगों  के हाथ में अपनी कमान देकर बैठे होते है और वे सिर्फ कठपुतली होते हैं . कितने तो कभी देश या जनहित के प्रश्न को लेकर संसद में कभी खड़े भी नहीं होते हैं . देश के भविष्य पर एक प्रश्न चिह्न सा लग जाता है . किसी भी दृष्टि से देखें -- हम अनुसन्धान बहुत बड़े बड़े भले कर लें लेकिन अगर देश का आम आदमी भूख , अत्याचार और भ्रष्टाचार से त्राहि त्राहि कर रही हो तो देश सम्पन्न नहीं कहा जा सकता है . जो क़ानून बनाते हैं वे नहीं जानते हैं की आम आदमी कैसे जी रहा है ? वो क्या सोचता है - इससे उनको वास्ता नहीं है . और तो और जिस देश की जनता के बल पर संसद में बैठे हैं क्या उन्हें देश वासियों की भावनाओं से कोई लेना देना है ? शायद कुछ लोगों को तो बिलकुल ही नहीं , मैं सबकी बात नहीं  कुछ तो लगता है की इस दुनियां में जीते ही नहीं है और भाषा तो उनकी इतनी अधिक मधुर होती हैं कि उनको मंच से उठा कर बाहर  करने का मन करता है .
                                   आजादी के 66   बाद भी हम एक अच्छे पडोसी होने के धर्म को निभाते चले आ रहे हैं और इस धर्म के निर्वाह में अपने कितने सैनिकों को गवां चुके हैं और कितने वहां की जेलों में आतनाएं सह रहे हैं और हमें उनके वहां होने की खबर तक नहीं है और अगर खबर है तो उनके वापस लाने से कोई वास्ता नहीं है . इस दिशा में पहल करने की कोई जरूरत ही नहीं समझती है हमारी सरकारें . जब भी पाकिस्तान सीमाओं पर कोई घिनौनी हरकत अंजाम देता है तो ये हमारे रक्षामंत्री सही और जिम्मेदार मंत्री पडोसी होने के धर्म को निभाने की बात करते और कुछ तो उसे पाकिस्तान कीगलती मानते ही नहीं है । ये बयानों को सुनकर सिर शर्म से झुक जाता है .  इन लोगों ने हमारे सैनिकों को सीमा पर हाथ बांध कर  खड़ा कर रखा है कि  मर जाना लेकिन हमारे आदेश न हो अपने हाथ भी मत हिलाना . दुश्मन के हौसले बुलंद होते जा रहे हैं , जब सीमा पर हम कठपुतली की तरह अपनी सेना का प्रयोग कर रहे हैं तो वे हमारी कायरता समझते हैं . वे सैनिकों को मार रहे होते हैं और हम उन्हें रियायती गैस देने के बारे में सोच कर अपने अच्छे पडोसी होने के धर्म का निर्वाह करने की सोच रहे होते हैं . हमारे पडोसी चाहे पाकिस्तान हो, चीन हो अपनी नापाक हरकतों से हमारे सब्र की परीक्षा लेते रहते हैं और हम सिर्फ उनके काम की 'भर्त्सना ' कर पाते हैं या फिर उनके कामों की कड़े शब्दों में विरोध दर्ज कर लेते हैं वो भी अपने ही रजिस्टर में . इस के बाद देश के संचालकों की जिम्मेदारी ख़त्म . 
            देश की रक्षा की कमान अगर सेना के हाथ में है तो उन्हें अपनी परिस्थितियों के अनुरूप निर्णय लेने का पूरा पूरा अधिकार होना चाहिये  ताकि उनकी शहादत व्यर्थ न जाए . वे बता दें कि  हम कठपुतली नहीं है . अरे हमारे नेताओं और मंत्रियों को तो उनकी शहादत का सम्मान करना तक नहीं आता है . जिम्मेदार मत्री पद संभालने वाले शायद सर्वाधिक संवेदनाहीन होते हैं क्योंकि बिहार के मंत्री महोदय का वक्तव्य कितनी सैनिकों की माताओं के दिल को छलनी कर गया इसे वह क्या समझेंगे क्योंकि मरने वालों में कोई उनका बेटा  नहीं था और अगर उनमें कोई उनकी बिरादरी वाले का बेटा  भी होता तो शायद ऐसे शब्द उनके मुंह से न निकलते . इस दुनियां में सिर्फ जवान ही मरने के लिए पैदा नहीं होते नेता जी मरना तो आपको भी है और इस धरती पर पैदा होने वाला हर इंसान  मरेगा,  लेकिन कुछ सड़क हादसों में मरते हैं , कुछ अस्पतालों और कुछ प्राकृतिक आपदाओं में गुम हो जाते हैं . लेकिन ऐसे वीर जब सीमा पर अपनी शहादत देते हैं तो ये अमर हो जाते हैं और इन्हें इस देश का हर नागरिक सम्मान के साथ सिर झुक कर नमन करता है . 

                  स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर अपने सभी शहीद जवानों को शत शत नमन और श्रद्धांजलि !.        

रविवार, 11 अगस्त 2013

नाग पंचमी और बाबूजी का जन्मदिन !

               नाग पंचमी पौराणिक  महत्व रखनेवाला पर्व है और इसको हम सदियों से मनाते चले  आ रहे हैं , लेकिन जैसा की नाम से ज्ञात होता है कि इसका सीधा सम्बन्ध नागों से ही है लेकिन कहीं कहीं इसको दूसरे रूप में भी मानते आ रहे हैं -- एक वह रूप जो सदियों से लड़कियों की तिरस्कार की भावना को प्रकट करता है और इसमें "गुडियाँ पीटने की प्रथा ." प्रचलित है . वैसे तो ये प्रथा अलग अलग क्षेत्रों से जुडी हुई है क्योंकि मेरे जन्मस्थली बुंदेलखंड में ये विशुद्ध रूप से नागों का त्यौहार ही माना जाता था जो कि एक सार्थक सन्देश लिए होता था कि वे भी हमारे लिए पूज्य हैं और कहीं न कहीं हमारे हित का संरक्षण करते हैं . इनका खेतों में निवास फसलों को संरक्षित करने के लिए भी होता है .
                    मैंने कानपुर  में ही गुड़ियाँ पीटने का त्यौहार मानते देखा है जिसका सीधा सीधा सम्बन्ध लड़कियों के तिरस्कार से जुडा है . लड़कियाँ आज लड़कों से कई गुना आगे  हैं सिर्फ कार्य में नहीं बल्कि आचार - विचार , गुणों और पारिवारिक मूल्यों के प्रति भी अधिक संवेदनशील रहती हैं और हम  प्रथा की सार्थकता को जाने बिना आज भी पीट रहे हैं . 


बाबूजी और मेरी छोटी बेटी प्रियंका
                    मेरे जीवन में इस पर्व का एक और महत्वपुर कारण से विशेष महत्व रखता है क्योंकि आज के दिन हमारे बाबूजी (ससुरजी ) का जन्मदिन होता था और जब तक वे रहे हम इसको उनके साथ मानते थे और अब जब नहीं है तो उनकी यादों के साथ . कानपुर  के होते हुए भी गुड़ियाँ पीटने की प्रथा हमारे परिवार में नहीं रही क्योंकि इस परिवार में कई पीढ़ियों से लड़कियाँ थीं ही नहीं . फिर जब लड़कियों ने आना शुरू किया तो उनके दोनों बेटों  को पांच बेटियां हुई और बेटा एक भी नहीं . लेकिन उन्हें इस बात का कभी कोई मलाल नहीं था . उन्होंने कभी हम दोनों ( मैं और मेरी जेठानी ) को कभी कुछ नहीं कहा . न ही उनका मन कभी दुखी नजर आया . हर बेटी के होने पर सारे संस्कारों को  धूम धाम से करते रहे . जो बच्ची छोटी होती वह उनकी रानी रानी होती और बाकि सब तो प्यारी होती थी . वह भी अपनी पोतियों को बहुत प्यारे थे . 
                       मेरे लिए आज का दिन उनके जन्मदिन के रूप में अधिक प्रिय है . हम आज उन्हें याद करके ही उनकी अप्रत्यक्ष उपस्थिति का अहसास कर लेते हैं .

शनिवार, 10 अगस्त 2013

समाज क्या कहेगा ?




                     समाज क्या कहेगा? ये एक जुमला है जो सदियों से सुनते चले आ रहे हैं और युगों से ये समाज नाम की संस्था विद्यमान है और आज भी है ।  सीता का परित्याग हुआ किस लिए ? सिर्फ समाज के कहने के भय से - क्योंकि राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे और वे ऐसा कुछ कर  ही नहीं सकते थे क्योंकि  उन्हें समाज के आक्षेप का प्रतिकार करना ही नहीं था। सीता को निर्वासित जीवन जीने के लिए इस समाज ने मजबूर किया और फिर सीता का निर्वाण ।
                   ये समाज क्या कहेगा ? का ही परिणाम था की कुंती का दानवीर कर्ण का सामाजिक तौर पर  पुत्र के रूप में स्वीकार न कर पाना . समाज का स्वरूप तब भी यही था और आज भी यही है । कितने अजन्मे बच्चे मार दिए जाते है , लावारिस फेंक दिए जाते हैं और तब भी यह समाज चुप नहीं रहता है । सामाजिक मूल्यों में कुछ  परिवर्तन लगातार हो रहा है और यह परिवर्तन आज समाज के स्वरूप में क्रान्तिकारी  परिवर्तन परिलक्षित  होने लगा है।
                   युग बीता और युग के साथ ही  समाज में बदलते जीवन मूल्यों को लोगों ने धीमी गति से ही सही स्वीकार करना आरम्भ कर दिया है . लेकिन इस समाज का हौवा आज भी इतना बड़ा है कि इसके भय से समाज के ही अंग मानव कहाँ से कहाँ तक सोच कर क्या कुछ नहीं कर डालता है ? कभी इस विषय में हमने सोचने की जरूरत समझी  ही नहीं सामाजिक परिवर्तन जरूरी है और हो रहे हैं लेकिन जो इस परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं उनके लिए क्या करना होगा ? जिनके लिए झूठी मान मर्यादा और शान उनके लिए जीने मरने का प्रश्न बन जाता है। जाति और धर्म की बेड़ियों में जकड़े हम अपने ही अंशों की हत्या कर रहे हैं , समाज तब भी नहीं छोड़ेगा ।
                    ये समाज क्या कहेगा ? के प्रश्न को हम अपने मन से ही एक हौवा बना कर सामने रखते है और फिर उससे डर डर कर खुद ही कुछ कल्पनाएँ करके परेशान  होते रहते हैं। मैंने इस बात को सोच सोच कर परेशान  होने  वाले लोगों की काउंसलिंग की और कुछ तो उनमें से समझ सके कि ये समाज हमसे ही बना है और इसकी  जिन मान्यताओं और धारणाओं में परिवर्तन हो रहा है उसको करने वाले हमारे जैसे ही इस समाज के सदस्य है और ऐसा नहीं कि  उन्हें समाज की परवाह नहीं है बल्कि वे अपने विवेक  से सामाजिक मूल्यों अपने परिवार के सदस्यों के प्रति समान रूप से संवेदनशील होकर सोचते हैं। जहाँ मूल्यों के खातिर घर की  ख़ुशी कुर्बान होती नजर आती है, वहाँँ वे समाज की परवाह नहीं करते हैं क्योंकि ये समाज कल उनका साथ नहीं देगा। उनके अपने बच्चे , पत्नी ही उनके साथ होंगे। अगर वे अपने बेटे को 'समाज क्या कहेगा ?' सोचकर  घर से निकाल लेते हैं या अपने सम्बन्ध उससे ख़त्म कर लेते हैं तो समाज उनकी पीठ नहीं थपथपाएगा बल्कि उनको ही दोष देगा कि अपने अहम् के पीछे अपनी औलाद को छोड़ दिया। आप बचेंगे किसी भी तरीके से नहीं क्योकि समाज को कुछ तो कहना है और वह कहेगा ही!
                            समाज क्या कहेगा ? को लेकर कुछ  अपनी रातों की नीद गवां बैठते हैं , अगर वे खुद स्ट्राँँग नहीं है तो फिर वे उससे बचने के लिए नशे का सहारा भी  लगते हैं और खुद को धोखा देते हैं। कभी कभी तो इसके लिए वे डिप्रेशन का शिकार भी हो जाते हैं।हाँ आज भी अंतर्जातीय और अंतर्धर्मीय विवाह लोगों के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन कर खड़ा हो जाता है।  पता नहीं लोग किस प्रतिष्ठा की बात करते हैं , ये प्रतिष्ठा का प्रश्न सिर्फ उन लोगों के लिए होता है जो अपने मन से कमजोर होते हैं। अगर आपके बेटे ने अंतर्जातीय विवाह कर लििया कौन सा गुनाह किया है ? उसका जीवन उसके सामने होता है और अगर उसको कोई लड़की अपने विचारों के अनुरूप समझ आती है तो विचार और संस्कार किसी जाति या धर्म की बपौती नहीं है। वह लड़की दूसरे धर्म और जाति के होते हुए भी समझदार और सामंजस्य स्थापित करने वाली हो सकती है। 
        आप अपना जीवन अपने तरीके से जी चुके फिर अपने बेटे को उसके तरीके से जीने दीजिये। आप की भी यही कामना  होती है कि  वह अपने जीवन में सुखी रहे फिर उस सुख का आधार खोजने के लिए आप उसको अधिकृत क्यों नहीं कर पाते हैं ? क्यों चाहते हैं कि  वह आपकी पसंद से ही शादी करे ताकि आप अपने समाज में सिर  उठा कर कह सकें कि  देखा मेरा बेटा  इतना पढ़ लिख कर भी मेरी बात मानता था लेकिन क्या आपकी पसंद गलत नहीं हो सकती है। उनकी पसंद अगर गलत होती है तो वे उसको निभाने के लिए पूरा पूरा प्रयास करते हैं लेकिन अगर आपकी पसंद गलत निकलती है तो वे आपको उसका जिम्मेदार ठहराने में जरा सी भी देर नहीं लगाते  हैं। अगर उसका घर टूटा तो दुखी आप होंगे , समाज तब भी कुछ न कुछ कहेगा लेकिन आपकी को शाबाशी देने नहीं आएगा और न ही आपके दुःख को बाँँटने के लिए आगे आएगा वह तब भी कुछ न कुछ कहेगा अवश्य ही . 
                                   मैंने लोगों को ये भी कहते सुना है कि  मैं समाज में लोगों को या मुंह दिखाऊंगा ? आप ने कौन सी चोरी की है ?  किसके घर को लूटा है या फिर किसी की हत्या की है ? अपने निर्णय के लिए खुद को मजबूत बना कर खड़ा करने का काम आपका ही है। ये समाज उसका साथ देता है जो खुद मजबूत होते हैं और किसी के सवाल के उत्तर में अपने आत्मविश्वास और दृढ़ता को बनाये रखते हैं। कमजोर लोगों का साथ ये समाज नहीं देता - ये कमजोर पैसे से कमजोर वाली बात नहीं है बल्कि अपनी दृढ़ता और आत्मविश्वास वाली बात है। आप दृढ हो तो कोई आपसे सवाल ही नहीं करेगा बल्कि आपके निर्णय की तारीफ ही करेगा और वाकई इस समाज में जो समझदार सदस्य है, वे सदैव लोगों के सुखी जीवन की कामना करते हैं। वे भी इस समाज के सदस्य होने के नाते आप सभी से जुड़े होते है।

                       ये समाज क्या कहेगा ? जन्म देता है --लोगों को आत्महत्या करने की भावना को। अपनी चाहतों को पूरा न कर पाने की मजबूरी कभी माता -पिता के इज्जत का वास्ता देने और कभी इस समाज और परिवार का डर  दिखाने पर वे अपनी बात को कहने का साहस  ही नहीं कर पाते हैं और विरोध की बात सोच कर ही वे अंतर्मुखी होने के कारण  खुद को आत्महत्या के निर्णय तक पहुंचा देते हैं। तब भी ये समाज तमाम सारे  प्रश्न करता है और उसके जाने के बाद कितने लांछन लगाने  में भी पीछे नहीं हटता है तब क्या मिलता है ? सिर्फ अपनी बात न कह पाने से और समाज के डर से एक जिन्दगी असमय ही ख़त्म हो जाती है। आपके हाथ अफसोस आता है ।

                     ये समाज क्या कहेगा ? जन्म देता है ऑनर किलिंग को , इसके पीछे अपने को बहुत प्रतिष्ठित मानने वाले लोग अपने बेटी या बेटे के लिए अनुचित स्तर  का वर या वधू देखने पर अपनी इज्जत को धूमिल होते देखते हैं और फिर उस इज्जत को बचाने  के लिए वे बेटे के लिए उस लड़की को , बेटी के लिए उस लड़के को और कभी कभी दोनों को ही ख़त्म करवा  देते हैं। ऐसा नहीं है कि  तब समाज उनकी पीठ ठोकता है कि उन्होंने समाज की खातिर बहुत अच्छा किया , वे बदनाम तब भी होते हैं अपने स्वजन को खोकर भी और उसकी भरपाई ये समाज कभी नहीं करेगा। लोग कितनी देर आलोचना करेंगे ? थोड़ी देर न या अगर वे रोज रोज करेंगे तब भी वे आपके बच्चों को वापस नहीं ला सकते हैं। आपके निर्णय से पूरा परिवार ही सहमत नहीं होता खासतौर पर बच्चों की माँ तो कभी नहीं। आप समाज के बहुत हिमायती है तो उन लोगों को अपनी जिन्दगी जीने के लिए छोड़ दीजिये। आप अगर किसी को जिन्दगी दे नहीं सकते तो लेने का आपको कोई हक नहीं होता। इसके उत्तर में मैंने लोगों के मुंह से सुना है कि उनको जिन्दगी भी हमने ही दी थी और अगर वे हमारी मर्जी से नहीं जी सकते तो उन्हें जीने का कोई हक नहीं है लेकिन आप ये भूल जाते हैं कि जिन लोगों ने आपको जिन्दगी दी थी क्या आप ने ठीक वैसे ही जिया जैसे कि वे चाहते थे ? हरगिज नहीं क्योंकि जनरेशन गैप को कभी ख़त्म नहीं कर सकते हैं। 
                      ये समाज वह कहता है जो आप चाहते हैं , सामाजिक मूल्यों की अवमानना मत कीजिये लेकिन सामाजिक रूढ़ियों , पुरातन सोच और अन्धविश्वास को अपने जीवन में स्थान मत दीजिये। उसको मानवता के मूल्यों से सदैव सुसज्जित रखिये। बच्चों को भी वह संस्कार दीजिये , जो मानव जाति के लिए अनुकूल हों समाज आपसे बना है और पीछे मुड़ कर देखिये , ये कल क्या कहता था ? जिसे इसने कल गलत कहा था , उसको आज सही मान रहा है किस लिए ? क्योंकि ये समाज हमारी सोच को ही स्वीकार करता है और अगर हमारी सोच किसी के हित पर आघात नहीं करती , किसी को दुःख नहीं पहुंचाती है और सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन तो समय समय पर होते ही  रहते हैं और फिर वे समाज के लिए सामान्य रूप से स्वीकृत हो जाते हैं .