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गुरुवार, 4 अगस्त 2022

पागलपन !

 पागलपन !

              मनुष्य की एक दिमागी हालत जिसके लिए वह खुद जिम्मेदार नहीं होता है।  फिर जिम्मेदार कौन है ? उसकी मस्तिष्क संरचना. हालात या फिर उसका परिवेश (जिसमें परिवार भी शामिल है) मंदबुध्दि को लोग पागल करार दे देते हैं, बगैर जाने कि कारण क्या हो सकता है ? ऑटिज्म वाले लोगों को भी बगैर उसके मर्ज से वाकिफ हुए उसको आधा पागल बोलते रहते हैं और सीज़ोफ्रेनिया के मरीजों को तो पूरा पागल या भूत प्रेत का साया वाला कह कर उपेक्षा करते हैं, उससे दूर भागते हैं बजाय इसके। कि  उनकी समस्या के लिए मनोचिकित्सक से सलाह लें। कई लोग तो अवसाद या तनाव की स्थिति में अंतर्मुखी लोगों को अगर मनोचिकित्सक के पास ले जाने पर उसको पागल समझने लगते हैं।  यहाँ तक कि वह व्यक्ति भी उस स्थिति में कहने लगता है कि मैं कोई पागल हूँ, जो मनोचिकित्सक के पास जाऊँ ? आम लोगों की दृष्टि में मनोचिकित्सक पागलों का डॉक्टर होता है।  

               समस्या यहीं तक नहीं है बल्कि समाज की एक विकृत मानसिकता का शिकार होने वाली महिलायें, लड़कियाँ और बच्चे भी होते है। वे जिन्हें पागल समझकर घर से निकाल दिया जाता है और सड़कों पर घूमने के लिए छोड़ दिया जाता है , वे हवस का शिकार होती हैं, गर्भवती होती हैं और सड़क पर घूमती रहती हैं. बच्चों और बड़ों के पत्थरों का शिकार होती हैं।  उन्हें तो घर वाले ही पागलखाने में भर्ती कराने की जहमत तक नहीं उठाते हैं बल्कि उसकी पहचान तक अपने से नहीं जोड़ना चाहते हैं और न ही सामाजिक संस्थाएँ  क्योंकि हमारे संविधान के अनुसार पागल और दिवालिया कुछ अधिकारों से वंचित होते हैं।  उनका कोई आधार कार्ड, पेन कार्ड या फिर वोटर कार्ड नहीं होता है तो उनकी कोई पहचान नहीं होती हैं। वे किसी भी अस्पताल में भर्ती होने के अधिकारी नहीं होते हैं तभी तो सड़कों पर घूमा करते हैं। 

             वह परिवार वाले जिनमें ऐसे बच्चे जन्म लेते हैं या फिर बाद में मानसिक बीमारी का शिकार हो जाते हैं, उनके पास प्रमाण होते हैं उनके नागरिक होने के, माता-पिता के और स्थान के।  जन्म प्रमाणपत्र तो हैं ही न। अगर नहीं पालना है तो उसको पागलखाने में भर्ती कर दीजिये।  बहुत हैं तो सड़क पर मारी मारी घूमते फिरने से अच्छा है कि उन्हें आप ख़त्म कर दीजिये ? इस बात पर आपत्ति की जाएगी क्यों? दहेज़ के नाम पर मार देते हैं, भ्रूण हत्या कर दी जाती है , दुष्कर्म करके मार दी जाती है, ऑनर किलिंग के नाम पर भी मारी जाती है - वह तो पढ़ी-लिखी स्वस्थ कमाऊ भी होती है न।  तब कोई आपत्ति क्यों नहीं है?  वो कुछ दिनों का विरोध या प्रदर्शन किसी हत्या के प्रति न्याय नहीं है।   समाज से निकली हुई, परिवार से छोड़ी हुई महिलाओं या पुरुषों का बाहर सड़क पर नग्न या अर्धनग्नावस्था में घूमते हुए देख कर हमको शर्म नहीं आती क्योंकि हमारी शर्म के मायने बदल गए हैं।  जब होश वाले लोग, स्वस्थ लोग अर्ध्यनग्न या पूर्ण नग्नावस्था में अपने फोटोशूट करवाकर सार्वजनिक कर सकते हैं और पत्रिकाएं उनको प्रायोजित करके प्रकाशित कर सकती हैं तो उनका घूमना तो सिरफिरों या हवस के मारों के लिए एक सुनहरा अवसर बन जाता है।  कभी कभी तो परिवार वाले उनसे छुटकारा पाना ही चाहते हैं और अगर किसी संस्था द्वारा या पुलिस द्वारा उन्हें परिवार तक पहुँचा ही दिया गया तो वे अपनाने से साफ इंकार कर देते हैं।  

              सवाल इस बात का है कि पागलखाने में कौन रहता है ? वे कौन से पागल है, जिन्हें अस्पताल की सुविधाएँ प्राप्त होती हैं , जिन्हें घर वाले स्वयं छोड़ आते हैं या फिर छुटकारा पाना चाहते हैं, जिनके ठीक होने संभावना होती है तो फिर उनके ठीक होने की संभावनाओं पर बगैर परीक्षण के प्रश्नचिह्न क्यों लग जाता है? 

            यह मानवीय संवेदनाओं पर उभरता हुआ सवाल है और इसको मानवाधिकार के क्षेत्र में लाना चाहिए और इस पर भी उसी तरह से विचार करना चाहिए जैसे कि अन्य समस्याओं पर किया जाता है। इसका निदान कौन खोज सकता है ? सामूहिक प्रयासों से ही खोजा जा सकता है।  अगर इसका उत्तर हाँ में है तो फिर मिलकर खोजें न - व्यक्तिगत प्रयासों से तो ये संभव नहीं है, कोई एक धनाढ्य मिल सकता है कि सबको प्रायोजित करके संस्था आरम्भ करे लेकिन समग्र के लिए होना संभव नहीं है क्योंकि एक व्यक्ति की अपनी सीमाएँ होती हैं।  सरकारी प्रयासों की जरूरत है क्योंकि ढेरों योजनाओं की तरह से इनके लिए भी आवास, भोजन और देखरेख के लिए लोगों की भी जरूरत होगी। 

        जैसे आवारा जानवरों के लिए आश्रय स्थल बनाये गए हैं , गायों  गौशाला खोले गए हैं तो इन बेचारे को भी इस समाज में एक सुरक्षित शरण स्थल की दरकार है , भले जन्मदाता उन्हें छोड़ दें लेकिन मानवता के नाते इस मुद्दे पर भी विचार जरूरी है।  एक मुहिम ऐसी भी शुरू की जाय।