www.hamarivani.com

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

दशहरे पर !

                                



         आज दशहरे पर हर  वर्ष की तरह इस वर्ष भी हर शहर  में और कई जगह पर रावण के पुतलों को जलाया जाएगा और  परंपरागत रूप से घर के बड़े बच्चों को ये कहते हुए सुने जा सकते हैं कि  ये तो बुराई के अंत और भलाई की बुराई के ऊपर विजय का पर्व है,  इसी लिए बुराई  के प्रतीक रावण  को भलाई के प्रतीक राम जी इसको जलाते हैं। 
                           रावण एक प्रतीक है और जब ये प्रतीक था तो सिर्फ और सिर्फ एक ही रावण था . उसके अन्दर पलने वाली हर बुराई उसके अन्दर के विद्वान पर भारी पड़ी थी और फिर उसका अंत हुआ . लेकिन कभी हमने सोचा है कि रावण तो आज भी जिन्दा है और आज वह एक नहीं है बल्कि आज तो हर जगह बहुत रूपों में हर इंसान में कहीं न कहीं जरूर  मिल जाता है। अगर रावण की बुराइयों से हम अपने अन्दर पलने वाली आदतों और बुराइयों से तुलना करें तो कहीं न कहीं कुछ तो जरूर सबमें मिल ही जाता है। अब राम भी हम है और रावण भी . फिर हम पर निर्भर करता है कि  हम किस तरह से अपने अंतर में पलने वाले रावण को ख़त्म करने की दिशा में प्रयास करें। राम तो पूरी तरह से इस युग में कोई शायद ही होगा और होगा भी तो वह मानव की श्रेणी में रखा जा  सकता है। 
                         रावण के  कई रूप बिखरे पड़े हैं कि  हर कोई दूसरे को देख कर अपने को राम और उसको रावण साबित करने में लगा रहता है। इस जगह अगर हम सभी , सभी न भी सही कुछ लोग जो वाकई इस समाज में शुभचिंतक इंसान कहे जाते हैं।  लेकिन हर कोई सम्पूर्ण नहीं होता फिर भी ऐसा नहीं है कि  हम अपनी कमजोरियों या अपने दोषों को न जानते हों फिर हम ही तो हैं जो उन पर विजय पा सकते हैं। ये तो निश्चित है कि असंभव कुछ भी नहीं है। 
                     रावण  की तरह हम लोगों में भी तो स्वयं को सर्वोच्च और सर्वश्रेष्ठ समझने की बुराइ समाई  होती है और अपने इस गुण के कारण  दूसरों को नीचा दिखाने और अपमानित करने की भावना से भी भरे होते हैं जो रावण का भी एक रूप है। इसी रावण  को तो हमें पराजितकर अपने को इससे मुक्त करने का प्रयास करना ही आज के दिन की सार्थकता हो  सकती है।  
                    रावण का एक रूप ये भी है कि उसको जीवन में अपनी प्रशस्ति को ही सुनना पसंद था , उसके विरुद्ध उसे सच सुनना भी गवारा नहीं था। कहीं हमारे अन्दर भी तो ऐसा ही दुर्गुण नहीं है। अगर हमें अपनी प्रशंसा पसंद आती है तो आलोचना सुनकर हम अपनी कमियों से वाकिफ होते हैं . अपनी आलोचना को खुले मन से स्वीकार करना और उसका अपने आप में विश्लेषण करके उससे मुक्ति पाने का संकल्प ही लेना ही हमारे लिए उस रावण पर विजय पाने का अवसर होगा।
                      रावण के एक रूप है -  नारी के देवी स्वरूप का अपमान करना, जीवन में पत्नी एक होती है शेष सभी चाहे वह बेटी के रूप में हो , बहन के रूप में हो या फिर किसी अनजान महिला के रूप में लेकिन उसके प्रति कलुषित विचार मन में रखना उसी का ही एक रूप है। रावण का यह रूप सर्वाधिक समाज में दिखाई दे रहा है . वह भी हम जैसे लोग हैं -  जो उसकी अस्मत को मान नहीं देते बल्कि उससे खेलने का प्रयास करते हैं या उनके प्रति मानसिक तौर पर ही सही दूषित विचार मन में रखते हैं।  इस पर विजय पाना या फिर लोगों को इस रावण के प्रति आगाह करना भी एक सार्थक प्रयास होगा। 
                      रावण के एक रूप है भ्रष्टाचार से लिप्त होना - यह तो घर से लेकर बाहर  निकलने पर हर कदम पर हमें देखने को मिलता है। छोटे से छोटे अवसर को भी लोग छोड़ते नहीं है . उनके खजानों में करोड़ों रुपये और संपत्ति भी कम दिखाई देती है। उनके अन्दर बैठा हुआ रावण उन्हें ये नहीं समझने देता है कि ऐसी संपत्ति जिसे हम चोरी से संग्रह करके रख रहे हैं , उसको कभी अपने लिए प्रयोग नहीं कर पायेंगे फिर वो किस लिए संग्रह कर रहे हैं?  सिर्फ उस संपत्ति पर एक नाग की तरह  बैठने के लिए। अगर हम इस भाव से मुक्त हो सकें तो दशहरे की सार्थकता बढ़ सकती है। 
                    रावण का एक स्वरूप है बाहुबल का अभिमान - यह तो सारी बुराइयों का स्रोत है लेकिन रावण तो श्रेष्ठ विद्वान और धर्मचारी भी था। आज उस रावण  के सद्गुणों को नहीं बल्कि उसके दुर्गुणों को ही अपना कर अपने को स्वयम्भू समझने की जो भूल मानव कर चूका है वह उसके लिए एक दिन अंत का कारण बन जाता है। जीवन में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसका क्षय न हो और क्षय होने पर खुद अपनी ही दृष्टि में वह इतना बेबस हो जाता है कि  उसको अपने पर पश्चाताप करने का अवसर नहीं मिलता है।
                    इसा विजय दशमी को सार्थक बनाने के लिए हर कोई अपने अन्दर बैठे रावण को मार भागने में सफल  हो और खुद उस पर विजय पाकर एक सुन्दर और सुखद जीवन की और एक कदम बढ़ने की पहल कर लोगों को प्रेरित करें । ऐसे ही अगर कुछ लोग ही इस दिशा में सक्रिय  हों तो फिर जीवन जीवन होगा। जीवन का उद्देश्य भी बदल जायेगा और हम सही अर्थों में खुद को मानव बन मानवता के हित में एक सफल प्रयोग करते हुए पाए जायेंगे .

               विजयादशमी पर अपने अन्दर के रावण के पुतले को जला कर खुद को उससे मुक्त करें .  

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

1962 के युद्ध की कुछ धुंधली यादें !

                                20 अक्टूबर 1962 को चीन ने भारत के ऊपर आक्रमण कर उसे युद्ध की विभीषिका में धकेल दिया था . भारत चीन की सीमायें जहाँ हैं वहां पर सर्दी का हर समय आलम बहुत बुरा रहता है, यहाँ का तापमान सदैव ही माइनस में होता है। । वे उसके आदी  हुआ करते है और हमारे जैसे देश में हर सैनिक में इतनी सर्दी सहने का माद्दा  न था।  लेकिन हमारे सैनिक अपनी जान की बाजी लगाये दुश्मनों का सामना करते रहे। वहां पर रसद और हथियार पहुँचाने में भी इतनी कठिनाई होती थी कि सैनिकों के पास इसका अभाव बना रहता था। उनके पास लड़ने के लिए पर्याप्त हथियार भी नहीं होते थे।  खाने के लिए सामग्री उपलब्ध नहीं होती थी .  खाली  पेट ही वे सीमा पर डटे रहते थे। 

चीन सीमा पर हमारे सैनिक  ( चित्र गूगल के साभार  )


                              उस समय मैं बहुत ही छोटी थी लेकिन घर के माहौल के अनुसार चूंकि घर में पत्र और पत्रिकाओं का नियमित आगमन हम सभी भाई बहनों को इन सब खबरों से अवगत कराये रहता था। उस समय सीमा पर कितनी सर्दी होगी ? उस साल उरई में भी इतनी सर्दी पड़  रही थी कि  खुले रखी बाल्टियों में बर्फ जम जाया करती थी। घर में लकड़ी के बड़े बड़े  लक्कड़  हर समय जला करते थे ताकि सर्दी से बचा जा सके . 
                              उस सर्दी में सैनिक किसी छावनी से उरई से होते हुए झाँसी की ओर  मिलेट्री की गाड़ियों में भर कर जाया करते थे . हमारा घर सड़क के किनारे था और हम दूसरी मंजिल पर रहते थे। घर के सामने  बनी छत पर एक बड़ा सा खुला हुआ हिस्सा था,  जिससे हम लोग खड़े होकर सड़क का नजारा देखा करते थे। दिन में जब सैनिकों की गाड़ियों  निकलना शुरू होती तो लगातार निकलती रहती . हम भाई बहन उस खिड़की में खड़े हो जाते और सैनिकों से जयहिन्द किया करते थे। उनमें से जो आगे खुले हुए ऊपर के हिस्से में बनी जगह में खड़े होकर देखता रहता वे हमें देख कर जयहिन्द का उत्तर दिया करते थे। हम लगातार उसी मुद्रा में खड़े रहते और गाड़ियाँ निकलती रहती , सैनिक उत्तर देते रहते , कभी कोई सैनिक नहीं देख पाता  या उत्तर नहीं देता तो हमारा मुंह लटक जाया करता था देखो न इसने हमसे जयहिन्द नहीं किया। वह समय था जब राष्ट्रीय  रक्षा कोष के लिए पैसा दिया जा रहा था . हम अपनी गोलक से निकाल  कर पापा को पैसे देते कि  आप इन्हें जमा करवा दें .

                   हमारे बड़े बूढ़े यही कहा करते थे की हमारे सैनिक वहां मरे जा रहे हैं क्योंकि चीन वाले तो उस सर्दी के आदी  है और हमारे सैनिकों के लिए ये भारी पड़ रहा है और उन लोगों ने लड़ाई सर्दी में इसी लिए छेडी  है जिससे कि  आधे सैनिक तो इस सर्दी से ही भर जायेंगे  और ये हकीकत भी थी।   आज 50 वर्षों के होने पर आज की नयी पीढी उस युद्ध के बारे में जानती , तक नहीं है क्योंकि उस युद्ध का जिक्र कहीं पाठ्यक्रम में मिलता ही नहीं है। मैं उन सभी शहीदों को नमन करती हूँ जो उस युद्ध में दुश्मन की साजिश में मारे गए या फिर प्रकृति के कहर से . ये देश और देशवासी उनके सदैव ऋणी  रहेंगे . भारतमाता भी अपने लालों पर गर्व करती है।
                            
                                         जय हिन्द , जय भारत 
                   
                   

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

बाबूजी की 21वीं पुण्यतिथि !



                        20 अक्टूबर 1991 - वह दिन था जिस दिन बाबूजी (ससुर जी ) ने भी हमें अकेले छोड़ दिया था . शायद कोई ऐसा दुर्भाग्यशाली होगा जिसने अपने दोनों पिताओं को सिर्फ 2 माह 10 दिन के अंतर से खो दिया हो . मैं हूँ न - जिसने खोया है . 

                    कुछ तो ऐसा होता है जिसके लिए हम उनके जाने के बाद भी याद करते हैं। मेरे बाबूजी बड़े ही सिद्धांतवादी थे। उन्होंने जीवन भर कानपुर के बड़े सरकारी अस्पताल में फार्मासिस्ट की नौकरी की और ऐसे विभाग में रहे जहाँ उनके साथियों ने अपने कार्यकाल में ही बड़ी बड़ी कोठियां खड़ी कर ली और वे रिटायर्मेंट के बाद समय के अन्दर क्वार्टर खाली कर किराये के मकान  में आ गए अपने लिए एक मकान  भी नहीं बनवा  सके थे।
                   लड़कियों के जन्म को लेकर आज नहीं बल्कि ये परंपरा तो पुराने समय से चली आ रही है कि एक दो तक ठीक है लेकिन उससे अधिक तो घर वाले हाय तौबा मचाने लगते थे। मेरे बाबूजी के कोई बेटी न थी बस दो बेटे थे , सो मेरी जेठानी को जब पहली बेटी हुई तो सारे  घर में खुशियाँ इतनी मनाई गयीं कि  जैसे कोई लाटरी खुल गयी हो। उसके बाद दूसरी बेटी लेकिन बाबूजी ने कभी ये नहीं कहा कि  फिर बेटी आ गयी। दोनों उनके लिए जान से प्यारी थी। फिर मेरी शादी हुई और मेरी भी पहली बेटी हुई - हम विश्वविद्यालय कैम्पस में रहते थे . जिसने सुना चुप लगा गया कोई बाबूजी से पूछने भी नहीं आया . बाबूजी बोले -  'अरे पोती मेरे घर आई है सब लोगों को साँप क्यों सूंघ गया?  ' उन्होंने उसी धूम धाम से मुंडन किया सबको बुलाया . फिर कुछ साल बाद मेरी दूसरी बेटी।  बाबूजी ने अपने दिल में भले ही सोचा हो लेकिन कभी हम लोगों से इस बारे में एक शब्द नहीं कहा . जो बच्ची सबसे छोटी होती उनकी "रानी रानी " होती और सुबह उठ कर लाओ हमें दे जाओ हम जरा उससे बातें करेंगे . वह बोल न पाती हो बाबा जी उससे बतियाते रहते और हम अपने काम कर डालते . 
इसके कुछ साल बाद फिर मेरे जेठानी जी को बेटी हुई। हमारे परिवार में 5 बेटियां हो गयीं और लोगों ने हमें ताने दिए लेकिन उन्होंने कभी कुछ भी नहीं कहा।  हमारा संयुक्त परिवार रहा और जो आज भी हैं, भले ही अब परिवार के नाम पर सारे  बच्चे बाहर  या शादी हो चुकी है हम चार लोग भर है। तब भी उन्होंने कुछ नहीं कहा। बस एक दिन बोले - 'तुम लोग कितना कमाओगे ? चिंता मत करना ये लक्ष्मी है,  हो सकता है कि इनके भाग्य से हम कमा  रहे हैं। ' जब पेंशन लेने जाते छुटकी के लिए खिलौने और बाकी लोगों के लिए कुछ न कुछ लेकर आते। ऐसा नहीं वे बच्चियों को जान देते तो बच्चे भी उन्हें बहुत प्यार करते  - उनके कैंसर के आखिरी स्थिति में मेरे पति ने बच्चों को बता दिया था कि ' अब बाबा ज्यादा दिन नहीं रहेंगे।  ' छोटों की बात जाने दीजिये मेरी जेठानी की बड़ी बेटी जो उस समय हाई  स्कूल में पढ़ रही थी एकदम चुप हो गयी थी और जब इन्हें अकेले में पाती  तो कहती ,' चाचा प्लीज बाबा को बचा लीजिये न। ' उसकी बात सुनकर हम लोग भी रो देते थे। 
बाबा और मेरी छोटी बेटी प्रियंका 


                      मेरी बड़ी  बेटी ने उनके न रहने के बाद  उनके डेन्चर को फेंकने नहीं दिया। मम्मी सब बाबा को ले गए इसको नहीं ले जाने देंगे . ये मेरे पास रहेगा और वह आज भी एक डिब्बे में सहेजा रखा है। अगर उन्होंने अपनी पोतियों को इतना प्यार दिया तो वे भी उन्हें बहुत प्यार करती थी । ये सब बातें होती हैं जो हमें अपने बुजुर्गों से जोड़ कर रखती हैं। 
                     मैं उन्हें शत शत नमन करती हूँ और कहती हूँ कि  लड़कियों के प्रति ईश्वर  हर इंसान में ऐसी ही भावना भरे . 

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

या देवी सर्वभूतेषु !


                      नवरात्रि में हम सभी हिन्दू धर्म के मानने वाले इन शुभ दिनों में देवी की आराधना विशेष ढंग से करते हैं और इन दिनों में कन्या को देवी मान कर पूजते हैं . इन दिनों में दुर्गा सप्तशती का विशेष रूप से लोग पाठ  करते हैं और इसके देवी के श्लोकों को उच्च स्वर में ध्वनि  सहित पाठ  भी करते हैं। लेकिन इसके अर्थ के अनुरूप आज के सन्दर्भ में  सब अर्थ बदल गए क्योंकि देवी ने तो सभी मानवों में एक जैसे  ही गुण दिए थे लेकिन हमने उनको अपने अनुरूप विकसित कर स्वयंभू बन उनकी सत्ता को भी चुनौती देने लगे हैं। 

                    या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता , नमस्तस्यै  नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः .

इसके अर्थ के अनुरूप अब शक्ति सिर्फ कुछ ही लोगों के अन्दर शेष रह गयी है शेष तो शोषित हैं न उनके द्वारा और शोषक ही उच्च स्वर में इन मन्त्रों को उच्चारित करते हैं।  ( ये बात सब पर लागू नहीं होती। अतः इसे अन्यथा न लें )

                   या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता , नमस्तस्यै  नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः .

      अगर देवी  सभी प्राणिओं  में माँ के रूप में स्थित हों तो फिर कन्या भ्रूण हत्या, कन्या के साथ बलात्कार और  घर से बेघर करने वाले लोग  इस दुनियां में होते ही नहीं क्योंकि माँ का रूप जीवन दायिनी और ममता भरा  होता है। 

                 या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता , नमस्तस्यै  नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः .

        अगर  सभी मानवों में दया होती तो फिर इस विश्व में फैले हुए अत्याचार और अनाचार से मानव जाति त्राहि माम न  कर रही होती। इतनी हत्याएं और आतंकी हादसे न होते। लोग अपने ही घर के लोगों के खून के प्यासे  न होते।  किस दृष्टि से माँ दया रूप में  दिख रही हैं।
                 या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता , नमस्तस्यै  नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः .

          यही तो एक ऐसी चीज  है जो सभी प्राणियों में सिर्फ मनुष्य के पास  है लेकिन फिर भी अन्य प्राणी तो बुद्धि से कम होते हुए भी अपनी जाति के प्रति सहृदयता का व्यवहार करते हैं। मनुष्य इस गुण के रूप में  धारण करते हुए भी आपका ही  अपहरण करने पर अमादा न  रहता है।ये  कैसी बुद्धि है माँ? 
                     
                  या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता , नमस्तस्यै  नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः          
                 
        अज विश्व में सिर्फ आपका यही रूप ही तो  भाता है , अपने अंतर में झांक कर तुझे पाने की चाह  किसी को नहीं है . वह अपनी जेबों और तिजोरियों में खोजता फिर रहा है और फिर जो आपके रूप में विराजमान है उन्हें भी  खोता जा रहा है।

                    या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता , नमस्तस्यै  नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः .

           तुष्टि रूप में तुझे पा  लेता तो शायद  आज की दुनियां में जो कुछ भी हो रहा है ,  हत्या , लूटपाट , डकैती और सबसे बड़ा घोटालों का जो सिलसिला चल रहा है वह तो होना ही नहीं चाहिए तुष्टि तो शायद इंसान अपने विकास के मार्ग में एक रोड़ा मानता आ रहा है। 
                  
                     या देवी सर्वभूतेषु शांतिरूपेण संस्थिता , नमस्तस्यै  नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः .

                 इसकी खोज में तो  संत पर्वतों और कंदराओं की खाक छानते रहते हैं और अपने अंतर में  आपके इस रूप को नहीं  देख पाते  हैं।कैसा अजीब है आपका ये रूप और इसीलिए न वह सुख शांति से खुद  रहता है और न ही औरों को रहने  देता है।

                क्या हमारी श्रद्धा से जुड़े  ये सारे भाव अपने अर्थ को खोते चले जा  रहे हैं। वही एक इंसान सुबह उठकर नौ दिन तक सात्विक भोजन से लेकर आचरण के साथ  सब कुछ करना स्वीकार  कर लेता है और फिर भी अपने अंतर में देवी प्रदत्त इन गुणों को खोज नहीं पाता   है . 

                माँ हमें शक्ति बुद्धि, तुष्टि , शांति प्रदान  करें  और उन्हें भी जो इस बात से नावाकिफ  है कि  वे कर क्या रहे हैं?
                 

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस !

चित्र गूगल के साभार 
                     

                       मानव में मष्तिष्क ही एक ऐसी चीज है जो उन्हें सम्पूर्ण प्राणियों में श्रेष्ठ बनाता है। इसी मष्तिष्क से इंसान धरती से  तक के अध्ययन ही नहीं बल्कि असंभव मानी  जाने वाली उपलब्धियों को प्राप्त कर पा  रहा है।
                          आज विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस के अवसर पर इस विषय में कुछ कहने और बताने के बारे में सोचा है क्योंकि आज भी इतनी प्रगति के बाद में हमारे मेडिकल के क्षेत्र में ही इस मानसिक स्वास्थ्य की गुत्थियों को सुलझाने में विशेषज्ञ कहे जाने वाले लोग भी समझ नहीं पा  रहे हैं . इस विषय में जब तक बच्चे के विषय में जानकारी प्राप्त होती तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। चिकित्सा विज्ञानं में मानसिक स्वास्थ्य से सम्बन्धी कोई विशेष शिक्षा सम्बद्ध नहीं है बल्कि डॉक्टर भी इसके विषय में पूरी तरह से वाकिफ नहीं होते हैं। 

                          इस विषय  में अध्ययन  करते और उसके निदान के विषय में शोध की दिशा में  प्रयासरत होने के नाते स्पष्ट रूप  कह सकती हूँ कि  ये जरूरी नहीं की कि  बाल रोग चिकित्सक चिकित्सक  को इस विषय में जानकारी  होती  है , हाँ वे अपने विषय के तो विशेषज्ञ होते है लेकिन इस विषय को नहीं समझ पाते हैं।*

                          मानसिक स्वास्थ्य   के बारे में कहा जा सकता है कि जब बच्चा पैदा होता है तो वह सामान्य ही दिखलाई देता  है .  उसका विकास धीरे धीरे होने पर  घर  वाले कम ध्यान देते हैं।  बुजुर्ग और घर के बड़े  अपने  अनुभव के आधार पर कहने  लगते हैं कि कोई कोई बच्चा देर से चलता या बोलता है या फिर   बाकी क्रियायों के विषय में सुस्त होता है। उनके पास इस विषय में उदहारण भी तैयार होते हैं कि  उसका बच्चा इतने दिन में  बोला या  चला लेकिन वे ये  जाते हैं की उनके समय और आज के समय में बच्चों के विकास और उनकी आई क्यू में बहुत अंतर हो  चुका  है। एक सामान्य बच्चा  से विकास की और अग्रसर होता है। अज आज भी बच्चे के दो साल तक उसके सामान्य विकास का  किया जाता है और जब वे इसा और सजग होते हैं तो बाल रोग विशेषज्ञ के पास जाते हैं और बाल रोग विशेषज्ञ में इतनी जागरूकता और जानकारी का पूर्ण ज्ञान नहीं होता है और फिर भी वे बच्चे को अपने हाथ से मरीज निकल न जाय जाय  उसके ऊपर अपने  प्रयोग करते  रहते हैं। बहुत  स्थिति हुई तो बच्चे को बगैर उसके विषय में  ज्ञान  उसको एम आर  (Mentally  Retarded  ) घोषित कर देते हैं। इसके बाद उनको ये भी नहीं पता  होता है कि बच्चों को कहाँ और कैसे  भेजा जाता है ? वे जो बच्चे अधिक सक्रिय होते हैं , उनको  स्ट्रोइड दे  देते हैं जिससे बच्चा या तो सोता रहता है या फिर वह निष्क्रिय पड़  जाता है . इसको उसके माता पिता ये  समझते है कि  बच्चे में सुधार हो रहा है , जबकि  ऐसा कुछ भी नहीं होता है। बच्चे के माता पिता डॉक्टर को भगवान  समझ कर विश्वास करते रहते हैं और डॉक्टर उस विश्वास का फायदा  उठाते रहते  है।
                         मानसिक  अस्वस्थता की कई श्रेणी होती हैं।  बच्चों को एक श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। इसका सीधा  सम्बन्ध मनोचिकित्सक से हो सकता है . इस विषय की जानकारी वह रखता है , लेकिन  समाज में मनोचिकित्सक से इलाज कराने  में आदमी पागल घोषित कर दिया जाता है या फिर मनोचिकित्सक को पागलों का डॉक्टर। हम बहुत  आगे बढ़ चुके हैं और निरंतर बढ़ भी रहे हैं लेकिन हम विश्वास पूर्वक ये नहीं कह सकते हैं कि  हमें हर क्षेत्र में पूर्ण ज्ञान है। 
                         बच्चे में 1 साल से पूर्व  मानसिक स्थिति को समझने  का पैमाना नहीं है, हाँ अगर शारीरिक  लक्षण प्रकट हो रहे हैं तब इस दिशा में हम सक्रिय हो  जाते हैं।  फिर भी हम मानसिक तौर पर अस्वस्थता को पकड़ने का प्रयास नहीं कर पाते  हैं और कर भी नहीं  सकते हैं।यह बात स्पष्ट तौर पर कही  जा सकती  है कि  यह बच्चों की अस्वस्थता की डिग्री पर निर्भर करता है कि  उसके  सुधार  होने की कितनी संभावना है ? इस  तरह के बच्चों को स्पेशल चाइल्ड  कहते हैं .
                            इसके लिए और किसी  शहर  की बात तो  नहीं कह सकती  हूँ लेकिन इस दिशा में दिल्ली में कई सेंटर हैं  पर इसके विषय में  बच्चों पर काम  हो रहा है और  उनकी स्थिति में सुधार  हो रहा है। इस दिशा में   सब से सार्थक कदम ये हो सकता है कि  इस स्थिति की ओर  भी ध्यान दिया जाय और हर  अस्पताल में और  मेडिकल कॉलेज में इस क्षेत्र में प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। वहां पर ऐसे बच्चों के लिए भी  जगह होनी चाहिए और इसके विशेषज्ञ होने चाहिए।

*ये लेख  मानसिक  स्वास्थ्य के लिए  कार्यरत विशेषज्ञ डॉ  प्रियंका  श्रीवास्तव से प्राप्त जानकारी के आधार पर लिखा  गया है।

सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

दो अक्टूबर !

             
 

        " दो अक्टूबर " देश के लिए   महत्वपूर्ण दिवस है  क्योंकि  इस दिन ने हमें एक नहीं इस देश को दो महापुरुष दिए हैं .

                            महात्मा गाँधी एक नाम नहीं बल्कि एक  विचारधारा  और एक सिद्धांत का नाम है।  एक  विचारधारा जिसने सिर्फ हमें ही नहीं बल्कि विश्व के तमाम महान लोगों ने  इस दिशा में किये गए कामों के  प्रेरणास्रोत  गाँधी के दर्शन को ही  माना है . इसके लिए चाहे हम जो भी कहें , आप जब गाँधी के दर्शन को बीती कल की बातें मानने लगे हैं क्योंकि अब लोगों के आदर्श और दर्शन पर भौतिकता का मुलम्मा चढ़ गया है और वे बातें अब कोई भी मायने नहीं रखती हैं। इसने वर्षों में सत्य की जगह झूठ और फरेब  ने ले ली है . अहिंसा का मोल सिर्फ कमजोर लोगों के लिए बचा है क्योंकि वे दबंगों से लड़ कर जीत नहीं सकते हैं और इसके लिए वे सिर्फ अहिंसा की बात करते  भी है और शोषित भी होते हैं।  अब तो वे भी इस बात को नहीं मानते  जो गाँधी के राजघाट पर  आज के दिन पुष्पांजलि  अर्पित करने जाते  हैं। हमारे सारी  सरकारी संस्थाओं में टंगी  गाँधी जी की तस्वीर नौ नौ आंसूं रोती  है क्योंकि अब तो जहाँ से  शासन चलता है , वह संसद भी हिंसा से अछूती नहीं रही ,  देश इस दर्शन को कितना समझ पायेगा?  अब तो आज के नेता ही युवा पीढी के दिग्दर्शक  बन चुके हैं . गाँधी फिर से नहीं आयेंगे इस देश को हमारी मानसिक गुलामी से आजाद कराने , अब तो  देश की छवि देखनी है तो विश्व के सबसे भ्रष्ट देशों में 
 उसकी बढती हुई श्रेणी देखनी  होगी।




                       दूसरे महा पुरुष   लालबहादुर शास्त्री जो  सही अर्थों में देश के सपूत थे। जिनका जीवन एक आदर्श बना था . जब  रेल मंत्री बने  तो रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए  त्यागपत्र दे दिए। दो साल  भी वे नहीं रहे इस देश के प्रधानमंत्री लेकिन उनके सम्पूर्ण जीवन को देखे तो देश का सबसे गरीब प्रधानमंत्री बने और अपने चंद महीनों के कार्यकाल  में ही इतिहास रच गए . शायद वे देश के पहले प्रधानमंत्री होगें  जो ऋणी ही इसा दुनियां को छोड़ गए। 

                          अज दोनों महापुरुषों के जन्मदिन पर मैं शत शत प्रणाम करती हूँ . अगर इनके आदर्शों को हम थोडा सा भी अपना सकें तो देश और मानवजाति के प्रति हमारी पहली जिम्मेदारी का वहन करना होगा