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शनिवार, 30 सितंबर 2017

एक नयी दिशा की ओर :कन्या भोज .!


                            इस वर्ष नवरात्रि के दिनों में हमेशा की तरह कन्यायें खिलानी थी और इसके लिए मेरी मानस पुत्री रंजना यादव  ने मुझसे एक ऐसी कार्यशाला करने का प्रस्ताव रखा कि मुझे उसकी सोच में एक नयी दिशा दिखाई दी।  बच्चों को सब कुछ मुझे ही समझाना था।  पहले सभी बच्चों को जो 3 वर्ष से ऊपर से लेकर १२ वर्ष तक के लडके और लड़कियां थीं।  उनको पहले हमने एक वीडियों दिखाया जो अंग्रेजी में था और सभी बच्चे अंग्रेजी नहीं समझ सकते थे सो उनको चित्र्र का सन्दर्भ देते हुए अच्छे स्पर्श (good touch ) और बुरे स्पर्श (bad touch ) के विषय में बतलाया और उनके निजी अंगों (private parts ) के विषय में जानकारी दी।    Image may contain: text

           समाज की वर्तमान स्थिति से सभी वाकिफ है।  बच्चे चाहे बेटी हो या बेटे सभी असुरक्षित है बल्कि उम्र से बहुत बड़े लोगों से उनको ज्यादा खतरा बना हुआ है।  नवरात्रि में हम कन्या पूजन करते है लेकिन कन्या मिलाना मुश्किल हो जाता है और कई घरों में तो भेजने से इंकार कर दिया जाता है।  आखिर क्यों  ? क्योंकि अब किसी को किसी पर भरोसा जो नहीं रहा। कन्या को भी लोग सिर्फ एक मादा के रूप में देखने जो लगे हैं।  दोष किसका है ? हमारा ही है और इससे हम लड़ दूसरे तरीके से सकते हैं , हमें सिर्फ सोचने की जरूरत है कि हम उन्हें सुरक्षित रखने के लिए कैसे माहौल तैयार करें।
                            ऐसा नहीं है बाल यौन शोषण हमारे ज़माने में भी था लेकिन बाहर काम घर के अंदर अधिक था।  कितने किस्से सामने आ जाते हैं ? आज जब कि हमारी पीढ़ी वरिष्ठों की श्रेणी में कड़ी है , तब हमें इसका रूप बहुत भयावह दिखाई देने लगा है क्योंकि अब लिंग और उम्र का कोई दायरा सुरक्षित नहीं रह गया है।

                             बच्चे इन सब चीजों से परिचित नहीं होते हैं और फिर किसी दूसरे के द्वारा स्पर्श किये जाने पर कुछ बता नहीं पाते हैं और एक दो बार की छोटी घटनाओं के बाद लोग बड़ी घटना को अंजाम दे देते हैं।  इसलिए उनको इससे अवगत कराना बहुत जरूरी था। फिर कि उनके निजी अंगों को छूने का हक़ किसको होता है ? उनके इस विषय में परिवार के बाबा दादी , मम्मी पापा और दीदी भैया के बाद टीचर वह भी अगर महिला है तो।  डॉक्टर भी मम्मी की उपस्थिति में ही छू सकता है।
                             इसके अतिरिक्त भी बच्चो को इस बात से आगाह किया कि वे किसी भी अनजान व्यक्ति या फिर दूर के रिश्तेदार पडोसी आदि के यह कहने पर कि मेरे साथ चलो मैं तुम्हें आइसक्रीम या चॉकलेट खिलाने ले चलता हूँ बगैर अपनी मम्मी और पापा की अनुमति के कभी नहीं जाना है।


                              अगर स्कूल में टॉयलेट के लिए जाना हो तो कभी पढाई के समय के बीच जाना नहीं चाहिए क्योंकि ये जगह पीछे की तरफ एकांत में होती है और उसे समय कोई टीचर या बच्चे बाहर नहीं होते हैं।  सिर्फ स्कूल के नौकर या गार्ड ही रहते हैं तो लंच के समय में  अपने और मित्रों के साथ जाना चाहिए।
               अगर स्कूल की वैनवाला , बसवाला या रिक्शावाला भी वह अकेला हो तो उसके यह कहने पर कि वह कुछ काम निपटा कर घर छोड़ देगा तो उसके लिए राजी न हो।  पडोसी आदि के घर कभी सिर्फ एक सदस्य के होने पर नहीं जाना चाहिए।
                             घर में अगर मम्मी पापा न हों और बच्चों को या बच्चे को घर में अकेला छोड़ कर कहीं गए हों तो उनके आने तक किसी के लिए भी दरवाजा नहीं खोलना चाहिए , भले ही वह कोई भी हो ( घर के सदस्य के अतिरिक्त )  या फिर कोई आकर कहता है कि मम्मी ने वहां बुलाया है तो भी नहीं।
                             बच्चों को पहली बार में दुष्कर्म के विषय में नहीं बताया बल्कि उनको कहा गया कि आज कल लोग अपहरण कर लेते हैं और फिर मम्मी पापा से पैसे मांगे हैं और न देने पर वह कुछ भी कर सकते हैं।  कभी मार देते हैं या फिर और लोगों को दे देते हैं।  भीख माँगने वाले लोगों के बीच छोड़ देते हैं।

                              इतना सब समझाने के बाद उन्होंने क्या समझा ? छोटे और बड़े सभी बच्चों से मैंने प्रश्न पूछे और उन बच्चों ने सही जानकारी प्रदान की यानि कि मैंने जो भी उन्हें समझाया था वह उनको कारण सहित याद रहा।
                              थोड़ा सा माहौल बदलने के लिए  पूछा कि कौन क्या बना चाहता है ? ज्यादातर बच्चों ने टीचर बनने की इच्छा जाहिर की और कुछ बच्चों के डॉक्टर , सिर्फ दो बच्चे ऐसे थे जिन्होंने साइंटिस्ट और बायो टेक्नोलॉजी में पढ़ने की इच्छा जाहिर की।  अभी उनकी दुनियां शायद इतनी  थी। लेकिन ऐसी कार्यशाला अगले और महीनों में करने का विचार है जिसमें कि बच्चों को संस्कार और अपनी संस्कृति से परिचय कराने के विषय में सोचा है।  सब नहीं तो कुछ ही सही अच्छी और सुरक्षित राह पर चलने के लिए सतर्क रहे यही कामना है।  


\                            इसके बाद कार्यशाला में उपस्थित 23 बच्चों को दही , जलेबी और समोसे खिलाये गए और उनको परंपरागत ढंग से रोली का टीका लगा कर स्नैक्स और रुपये देकर विदा कर दिया गया। कन्या भोज

गुरुवार, 21 सितंबर 2017

ब्लॉगिंग के 9 वर्ष !

                                                             ब्लॉगिंग के ९ वर्ष !
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                           आज से नौ वर्ष पहले इस विधा से परिचित हुई थी और तब शायद फेसबुक से इतनी  जुडी न थी क्योंकि स्मार्ट फ़ोन नहीं थे।  थे तो लेकिन मेरे पास न था और साथ ही आइआइटी की नौकरी में समय भी न था।  लेकिन ऑफिस के लंच  में मैं अपने ब्लॉग पर लेखन जारी रखती थी और काम उसी तरह से कुछ न कुछ चलता ही रहा।
                  फेसबुक और ट्विटर के आने से  लोगों को त्वरित कमेंट और प्रतिक्रिया  आती थी और लोगों को वह अधिक भा गया था और थोड़े में अधिक मिलना हमारी फिदरत है।  धीरे धीरे ब्लॉग का लिखना कम होता गया।  बंद तो बिलकुल भी नहीं किया लेकिन स्मार्ट फ़ोन ने उसकी गति को मंद कर दिया।  नौ वर्ष का समय बहुत लम्बा होता है। फिर से ब्लॉगिंग का जन्मदिन मनाया गया और १ जुलाई से इसको प्राणवायु लेकर जीवित रखने का संकल्प लिया और फिर से इसको लिखना आरम्भ कर दिया है।  बस इसके इस लम्बे सफर ने बहुत सारे अच्छे मित्र और मार्गदर्शक दिए और सबकी शुक्रगुजार हूँ कि अभिव्यक्ति को एक ऐसा मंच मिला जिस पर किसी संपादक , समूह  या व्यक्ति का कोई दबाव न था।
                   अपने साथ ही अपने ब्लॉगिंग से दूर हो गए मित्रों से अनुरोध है कि इस विधा को जारी रखें।  पुस्तके लिखे लेकिन  उनको इस ब्लॉग पर भी साझा करें।  कई ऐसे इलाके भी हैं जहाँ पर ऑनलाइन पुस्तकें नहीं पहुँच पाती है सो ऐसे लोगों को आसानी से पढ़ने का अवसर प्राप्त हो सके।  साथ ही आप अगर दिन में ४ घंटे फेसबुक को देते हैं तो सिर्फ आधा घंटा ब्लॉगिंग को भी दें ताकि ये जारी रहे।
                   एक बार फिर अपने उन सभी ब्लॉग मित्रों को हार्दिक आभार जिन्होंने ने तब से लेकर आज तक उस मित्रता को कायम रखा है फिर भी जो घनिष्ठता ब्लॉग के समय में थी वो फेसबुक में नहीं है।  तब सारे लोग लिखने और पढ़ने वाले ही होते थे और एक दूसरे से जुड़े हैं।  हमारा ब्लॉग परिवार ऐसे ही पल्लवित और पुष्पित हो रहे।

रविवार, 10 सितंबर 2017

आ अब लौट चलें ! ( विश्व ग्रैंड पेरेंट्स डे )

                                          एक समय था जब कि घर की धुरी दादा दादी ही हुआ करते थे या उनके भी बुजुर्ग होते थे तो उनकी हर काम में सहमति या भागीदारी जरूरी थी।  उनका आदेश भी सबके लिए सिर आँखों पर रहता था। शिक्षा के लिए जब जागरूकता आई तो बच्चों को घर से बहार शहर में पढ़ने के लिए भेजा जाने लगा और वे गाँव की संस्कृति से दूर शहरी संस्कृति की ओर  आकृष्ट होने लगे।  फिर वहीँ कमाने भी लगे।  खास अवसरों पर घर आना होता था।  विवाह के बाद पत्नी को भी कहीं शहर साथ ले जाकर रखने की प्रथा शुरू हुई और कहीं बहू गाँव में ही रही और पति शहर में।  मौके या पर्व त्यौहार पर घर चला जाता था। जब लड़कियां भी शिक्षित होने लगी तो यह बंधन टूटने लगे और पति पत्नी दोनों ही शहर के वासी हो गए। पिछली पीढ़ी ऐसे ही चलती रही लेकिन जिस तेजी से एकल परिवारों का चलन बढ़ा कि सास ससुर गाँव या फिर जहाँ वे रहते थे वही तक सीमित हो गए क्योंकि नई पीढ़ी को उनके रहन सहन और आदतों के साथ सामंजस्य बिठाना मुश्किल लग रहा था। पीढ़ी अंतराल के कारण बुजुर्ग भी अपनी सोच नहीं  बदल पाए , बच्चों के पास गए तो अपने समय की दुहाई देकर उनको टोकना शुरू कर दिया और कुछ तो चुपचाप सुन कर उनकी इज्जत का मान रखते रहे लेकिन कुछ ने उनको उनकी औकात दिखा दी।
                               जिनके पास अपना आशियाना था और गैरत थी वो वापस आ गए लेकिन कुछ तो उपेक्षित से कहीं भी रहने के लिए मजबूर हो गए।  वो अगर पति पत्नी हुए तो शांति का जीवन मिला किन्तु क्या वे आपने बच्चों की चिंता से मुक्त हो पाए , लेकिन समय की हवा मान कर समझौता कर जीने लगे।  बहू बेटे का मन हुआ तो कभी होली दिवाली आ गए नहीं तो वह भी नहीं।
                               शहर के खर्चे बढ़ने लगे और दोनों को कमाने की जरूरत पड़ी तो उन्हें आया या मेड लगा लेना ज्यादा सुविधा जनक लगा।  किसी को क्रश में बच्चों को डालना ज्यादा अच्छा लगा लेकिन इससे बच्चों को एक सामान्य जीवन मिला ये तो नहीं कहा जा सकता है। बच्चों को माता पिता के सानिंध्य की जो जरूरत होती है वह कोई पूरी नहीं कर सकता है सिर्फ किसी अपने के।  कुछ बड़े होने पर बच्चों को घर में अकेले रहने की आदत हो गयी।  फिर उनको कंप्यूटर  दे दिया गया और वे कार्टून फिल्म्स देखने लगे , गेम खेलने लगे।  माँ बाप ने समझ कि अच्छा विकल्प मिल गया लेकिन ये भूल गए कि इसके अलावा भी एडवेंचर्स , आपराधिक फिल्में , पोर्न साइट्स और कई अन्य गतिविधियों से भी उनका परिचय होने लगा। वे बच्चे किशोर अवस्था की कच्ची उम्र में बहकने लगे और माँ- बाप से भी दूर होने लगे।  ऐसे बच्चों को नौकर और चोकीदार जैसे लोग भी गलत आदतों का शिकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बच्चे संस्कारविहीन , उत्श्रृंखल और आजाद हो गए।  बचपन से ही बुरी आदतों के शिकार होने लगे उनकी सहनशीलता में कमी आने लगी।
                                     समय के साथ भौतिकता की दौड़ में और बढ़ती आपराधिक प्रवृत्तियों में बच्चों के जीवन असुरक्षित होने लगा।  आये दिन विभिन्न प्रकार की परेशानियों के शिकार होने लगे।  छोटे बच्चों का अपहरण , फिरौती और फिर हत्या की घटनाये आम होने लगी।  नौकर या मेड को घर से निकाल दिया तो बदले की भावना में वह भी ऐसी वारदात को अंजाम देने लगे।
                                      आज विश्व ग्रैंड पेरेंट्स डे क्यों मना  रहे हैं क्योंकि अपनी जड़ों के बिना दुनियां की बदलती सोच के साथ बच्चों को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता है।  आये दिन की आपराधिक गतिविधियों ने दिल दहला दिया है।  दादा दादी या नाना नानी के सानिंध्य में बच्चे ज्यादा खुश देखे जाते हैं क्यों? क्योंकि उनको एक साथी मिलता है जिससे वे अपनी स्कूल की बातें , टीचर की बातें शेयर कर सकते हैं।  कोई घर में होता है जो गोद  में बिठा कर उन्हें खाना खिला सकता है या फिर कहानी सुना कर सुला सकता है।  बुजुर्गों को भी मूल से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है - ये सिर्फ कहावत नहीं है बल्कि चरितार्थ है क्योंकि अपने बच्चों के बचपन को जीने का उनके पास समय नहीं होता है।  पुरुष नौकरी और स्त्री घर के कामों में जूझती रहती है।  दादा दादी बनाने के बाद ही बच्चे का हर काम कब वह एक शब्द बोला  , कब उल्टा हुआ ? कब उसने बैठना सीखा और कब खड़े होकर चलना सीखा।  ये सब बड़े प्रेम से देखते हैं और अपने बच्चों का बचपन उनमें जीते  हैं।
                                  घर में उनको सुरक्षित वातावरण मिलता है।  संस्कार देने का काम हमेशा से बुजुर्ग ही करते आ रहे हैं और फिर परिवार में एक दूसरे के प्रति प्रेम का पाठ यहीं से तो सीखा जाता है।  बच्चे अगर नौकरों के सहारे में रखे जाए तब भी बुजुर्गों की दृष्टि उन पर बराबर रहती है और उन्हें भी यह भय रहता है कि घर में उनको कोई देखने वाला है। यही कहा जा सकता है कि आ अब लौट चलें।  अपनी उसी संयुक्त परिवार की पृष्ठभूमि में जहाँ छोटे से लेकर बड़े तक सब सुरक्षित हैं।  हर सुख दुःख के साथी है और हमारी भारतीय परिवारों की जो छवि अन्य लोगों के सामने बानी हुई है उसको जीवित रखें।