एक समय था जब कि घर की धुरी दादा दादी ही हुआ करते थे या उनके भी बुजुर्ग होते थे तो उनकी हर काम में सहमति या भागीदारी जरूरी थी। उनका आदेश भी सबके लिए सिर आँखों पर रहता था। शिक्षा के लिए जब जागरूकता आई तो बच्चों को घर से बहार शहर में पढ़ने के लिए भेजा जाने लगा और वे गाँव की संस्कृति से दूर शहरी संस्कृति की ओर आकृष्ट होने लगे। फिर वहीँ कमाने भी लगे। खास अवसरों पर घर आना होता था। विवाह के बाद पत्नी को भी कहीं शहर साथ ले जाकर रखने की प्रथा शुरू हुई और कहीं बहू गाँव में ही रही और पति शहर में। मौके या पर्व त्यौहार पर घर चला जाता था। जब लड़कियां भी शिक्षित होने लगी तो यह बंधन टूटने लगे और पति पत्नी दोनों ही शहर के वासी हो गए। पिछली पीढ़ी ऐसे ही चलती रही लेकिन जिस तेजी से एकल परिवारों का चलन बढ़ा कि सास ससुर गाँव या फिर जहाँ वे रहते थे वही तक सीमित हो गए क्योंकि नई पीढ़ी को उनके रहन सहन और आदतों के साथ सामंजस्य बिठाना मुश्किल लग रहा था। पीढ़ी अंतराल के कारण बुजुर्ग भी अपनी सोच नहीं बदल पाए , बच्चों के पास गए तो अपने समय की दुहाई देकर उनको टोकना शुरू कर दिया और कुछ तो चुपचाप सुन कर उनकी इज्जत का मान रखते रहे लेकिन कुछ ने उनको उनकी औकात दिखा दी।
जिनके पास अपना आशियाना था और गैरत थी वो वापस आ गए लेकिन कुछ तो उपेक्षित से कहीं भी रहने के लिए मजबूर हो गए। वो अगर पति पत्नी हुए तो शांति का जीवन मिला किन्तु क्या वे आपने बच्चों की चिंता से मुक्त हो पाए , लेकिन समय की हवा मान कर समझौता कर जीने लगे। बहू बेटे का मन हुआ तो कभी होली दिवाली आ गए नहीं तो वह भी नहीं।
शहर के खर्चे बढ़ने लगे और दोनों को कमाने की जरूरत पड़ी तो उन्हें आया या मेड लगा लेना ज्यादा सुविधा जनक लगा। किसी को क्रश में बच्चों को डालना ज्यादा अच्छा लगा लेकिन इससे बच्चों को एक सामान्य जीवन मिला ये तो नहीं कहा जा सकता है। बच्चों को माता पिता के सानिंध्य की जो जरूरत होती है वह कोई पूरी नहीं कर सकता है सिर्फ किसी अपने के। कुछ बड़े होने पर बच्चों को घर में अकेले रहने की आदत हो गयी। फिर उनको कंप्यूटर दे दिया गया और वे कार्टून फिल्म्स देखने लगे , गेम खेलने लगे। माँ बाप ने समझ कि अच्छा विकल्प मिल गया लेकिन ये भूल गए कि इसके अलावा भी एडवेंचर्स , आपराधिक फिल्में , पोर्न साइट्स और कई अन्य गतिविधियों से भी उनका परिचय होने लगा। वे बच्चे किशोर अवस्था की कच्ची उम्र में बहकने लगे और माँ- बाप से भी दूर होने लगे। ऐसे बच्चों को नौकर और चोकीदार जैसे लोग भी गलत आदतों का शिकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बच्चे संस्कारविहीन , उत्श्रृंखल और आजाद हो गए। बचपन से ही बुरी आदतों के शिकार होने लगे उनकी सहनशीलता में कमी आने लगी।
समय के साथ भौतिकता की दौड़ में और बढ़ती आपराधिक प्रवृत्तियों में बच्चों के जीवन असुरक्षित होने लगा। आये दिन विभिन्न प्रकार की परेशानियों के शिकार होने लगे। छोटे बच्चों का अपहरण , फिरौती और फिर हत्या की घटनाये आम होने लगी। नौकर या मेड को घर से निकाल दिया तो बदले की भावना में वह भी ऐसी वारदात को अंजाम देने लगे।
आज विश्व ग्रैंड पेरेंट्स डे क्यों मना रहे हैं क्योंकि अपनी जड़ों के बिना दुनियां की बदलती सोच के साथ बच्चों को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता है। आये दिन की आपराधिक गतिविधियों ने दिल दहला दिया है। दादा दादी या नाना नानी के सानिंध्य में बच्चे ज्यादा खुश देखे जाते हैं क्यों? क्योंकि उनको एक साथी मिलता है जिससे वे अपनी स्कूल की बातें , टीचर की बातें शेयर कर सकते हैं। कोई घर में होता है जो गोद में बिठा कर उन्हें खाना खिला सकता है या फिर कहानी सुना कर सुला सकता है। बुजुर्गों को भी मूल से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है - ये सिर्फ कहावत नहीं है बल्कि चरितार्थ है क्योंकि अपने बच्चों के बचपन को जीने का उनके पास समय नहीं होता है। पुरुष नौकरी और स्त्री घर के कामों में जूझती रहती है। दादा दादी बनाने के बाद ही बच्चे का हर काम कब वह एक शब्द बोला , कब उल्टा हुआ ? कब उसने बैठना सीखा और कब खड़े होकर चलना सीखा। ये सब बड़े प्रेम से देखते हैं और अपने बच्चों का बचपन उनमें जीते हैं।
घर में उनको सुरक्षित वातावरण मिलता है। संस्कार देने का काम हमेशा से बुजुर्ग ही करते आ रहे हैं और फिर परिवार में एक दूसरे के प्रति प्रेम का पाठ यहीं से तो सीखा जाता है। बच्चे अगर नौकरों के सहारे में रखे जाए तब भी बुजुर्गों की दृष्टि उन पर बराबर रहती है और उन्हें भी यह भय रहता है कि घर में उनको कोई देखने वाला है। यही कहा जा सकता है कि आ अब लौट चलें। अपनी उसी संयुक्त परिवार की पृष्ठभूमि में जहाँ छोटे से लेकर बड़े तक सब सुरक्षित हैं। हर सुख दुःख के साथी है और हमारी भारतीय परिवारों की जो छवि अन्य लोगों के सामने बानी हुई है उसको जीवित रखें।
जिनके पास अपना आशियाना था और गैरत थी वो वापस आ गए लेकिन कुछ तो उपेक्षित से कहीं भी रहने के लिए मजबूर हो गए। वो अगर पति पत्नी हुए तो शांति का जीवन मिला किन्तु क्या वे आपने बच्चों की चिंता से मुक्त हो पाए , लेकिन समय की हवा मान कर समझौता कर जीने लगे। बहू बेटे का मन हुआ तो कभी होली दिवाली आ गए नहीं तो वह भी नहीं।
शहर के खर्चे बढ़ने लगे और दोनों को कमाने की जरूरत पड़ी तो उन्हें आया या मेड लगा लेना ज्यादा सुविधा जनक लगा। किसी को क्रश में बच्चों को डालना ज्यादा अच्छा लगा लेकिन इससे बच्चों को एक सामान्य जीवन मिला ये तो नहीं कहा जा सकता है। बच्चों को माता पिता के सानिंध्य की जो जरूरत होती है वह कोई पूरी नहीं कर सकता है सिर्फ किसी अपने के। कुछ बड़े होने पर बच्चों को घर में अकेले रहने की आदत हो गयी। फिर उनको कंप्यूटर दे दिया गया और वे कार्टून फिल्म्स देखने लगे , गेम खेलने लगे। माँ बाप ने समझ कि अच्छा विकल्प मिल गया लेकिन ये भूल गए कि इसके अलावा भी एडवेंचर्स , आपराधिक फिल्में , पोर्न साइट्स और कई अन्य गतिविधियों से भी उनका परिचय होने लगा। वे बच्चे किशोर अवस्था की कच्ची उम्र में बहकने लगे और माँ- बाप से भी दूर होने लगे। ऐसे बच्चों को नौकर और चोकीदार जैसे लोग भी गलत आदतों का शिकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बच्चे संस्कारविहीन , उत्श्रृंखल और आजाद हो गए। बचपन से ही बुरी आदतों के शिकार होने लगे उनकी सहनशीलता में कमी आने लगी।
समय के साथ भौतिकता की दौड़ में और बढ़ती आपराधिक प्रवृत्तियों में बच्चों के जीवन असुरक्षित होने लगा। आये दिन विभिन्न प्रकार की परेशानियों के शिकार होने लगे। छोटे बच्चों का अपहरण , फिरौती और फिर हत्या की घटनाये आम होने लगी। नौकर या मेड को घर से निकाल दिया तो बदले की भावना में वह भी ऐसी वारदात को अंजाम देने लगे।
आज विश्व ग्रैंड पेरेंट्स डे क्यों मना रहे हैं क्योंकि अपनी जड़ों के बिना दुनियां की बदलती सोच के साथ बच्चों को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता है। आये दिन की आपराधिक गतिविधियों ने दिल दहला दिया है। दादा दादी या नाना नानी के सानिंध्य में बच्चे ज्यादा खुश देखे जाते हैं क्यों? क्योंकि उनको एक साथी मिलता है जिससे वे अपनी स्कूल की बातें , टीचर की बातें शेयर कर सकते हैं। कोई घर में होता है जो गोद में बिठा कर उन्हें खाना खिला सकता है या फिर कहानी सुना कर सुला सकता है। बुजुर्गों को भी मूल से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है - ये सिर्फ कहावत नहीं है बल्कि चरितार्थ है क्योंकि अपने बच्चों के बचपन को जीने का उनके पास समय नहीं होता है। पुरुष नौकरी और स्त्री घर के कामों में जूझती रहती है। दादा दादी बनाने के बाद ही बच्चे का हर काम कब वह एक शब्द बोला , कब उल्टा हुआ ? कब उसने बैठना सीखा और कब खड़े होकर चलना सीखा। ये सब बड़े प्रेम से देखते हैं और अपने बच्चों का बचपन उनमें जीते हैं।
घर में उनको सुरक्षित वातावरण मिलता है। संस्कार देने का काम हमेशा से बुजुर्ग ही करते आ रहे हैं और फिर परिवार में एक दूसरे के प्रति प्रेम का पाठ यहीं से तो सीखा जाता है। बच्चे अगर नौकरों के सहारे में रखे जाए तब भी बुजुर्गों की दृष्टि उन पर बराबर रहती है और उन्हें भी यह भय रहता है कि घर में उनको कोई देखने वाला है। यही कहा जा सकता है कि आ अब लौट चलें। अपनी उसी संयुक्त परिवार की पृष्ठभूमि में जहाँ छोटे से लेकर बड़े तक सब सुरक्षित हैं। हर सुख दुःख के साथी है और हमारी भारतीय परिवारों की जो छवि अन्य लोगों के सामने बानी हुई है उसको जीवित रखें।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (11-09-2017) को "सूखी मंजुल माला क्यों" (चर्चा अंक 2724) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सटीक।
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्म दिवस : काका हाथरसी, श्रीकांत शर्मा और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंआजकल तो विज्ञापन भी एकल परिवारों से संबंधित बनने लगे हैं ! यहां तक कि एक्सिस बैंक के एक इश्तहार में "माँ" ही अपने बेटे को अलग घर ले रहने की नसीहत दे रही है !
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