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सोमवार, 10 दिसंबर 2018

भारतीय समाज में विवाह !

                              भारतीय समाज में विवाह एक महत्वपूर्ण संस्था है बल्कि दूसरे शब्दों में कहें तो परिवार की नींव यही है । वैसे तो ये मानव जाति में विवाह का अस्तित्व पाया जाता है लेकिन जितनी विविधता हमारे समाज में पायी जाती है , उतनी कहीं और नहीं मिलेगी ।  एक ही देश में इतनी विभिन्नता और एक ही संस्था में विचारणीय और विस्मय का विषय हो सकता है लेकिन उनमें एक ही सम्बद्धता पायी जाती है और वह है परिवार संस्था में अटूट गठबंधन और सृष्टि के लिए एक सामाजिक , भावात्मक , आध्यात्मिक बंधन।  हर रीति इसी उम्मीद के साथ  पूरी की जाती है कि  विवाह चिरस्थायी और प्रेमपूर्ण जीवन का मार्ग है।
                 विवाह में कुछ रिवाज होते हैं और जो प्रदेशों के अनुसार पृथक पृथक होते हैं और उन विभिन्नताओं में एक ही उद्देश्य निहित होता है कि युगल एक प्रेमपूर्ण पारिवारिक जीवन का निर्वाह करते हुए सृष्टि में अपना सहयोग देते रहेंगे। हम कुछ अलग रिवाजों को देखेंगे :--
 महाराष्ट्रीय विवाह :- 
               मराठी संस्कृति के अनुसार विवाह में लडके वालों को बड़ा और लड़की वालों को बेचारा कभी नहीं समझा जाता है।  उसे भी वही सम्मान मिलता है जो और स्थानों पर सिर्फ वर पक्ष को मिलता है। सबसे बड़ी रस्म जो वधु को सम्मान देती है वह है कन्या के पैर वर पक्ष के दंपत्ति में से पुरुष जल डालता है और स्त्री पैर धोती है और उसको साफ कपडे से पौंछ कर रोली में पानी डाल कर कन्या के पैरों में रंग लगाती है।
                  कन्या पक्ष से भी उसके माता पिता इसी क्रिया को दोहराते हैं और वर के पैर धोये जाते हैं और उनको पौंछा जाता है और रंग लगाया जाता है।
   श्रीमंती पूजा :--               विवाह के एक रात पूर्व श्रीमंती पूजा होती है , जिसमें वर और कन्या दोनों शामिल किये जाते हैं और कन्या पक्ष वर को और वर पक्ष कन्या की पूजा करके कपडे मेवा आदि देते हैं।  विवाह यहाँ पर दिन में होता है और वर एक रेशमी धोती  और दुपट्टा धारण करता है और उसी में उसकी सप्तपदी आदि पूर्ण होती है।
 बिडीची पंगत :--                    एक विशेष रस्म होती है कि एक विशेष भोज दिया जाता है , जिसको बिडीची पंगत कहते हैं।  इसमें भोज स्थल तक पहुँचने के लिए बहुत सुन्दर फूलों का कालीन बिछाया जाता है,  जिस पर चल कर वर वधु और उसके घर वाले उस भोज के लिए जाते हैं और इसमें भोजन में छप्पन भोग की तरह सबके लिए विभिन्न व्यंजन तैयार करके परोसे जाते हैं और उसे समय वधु को कविता की कुछ पंक्तियाँ अपने पति के नाम को लेकर बोलनी होती हैं ,  तभी भोजन आरम्भ होता है।
आशीर्वाद :--                     विवाह के बाद वर बधू आशीर्वाद के लिए बैठते हैं और इसमें  सारे इष्ट मित्र और सगे सम्बन्धी शामिल होते हैं और वे आशीर्वाद के लिए वर वधु का सिर आपस में टकराते हैं और उन्हें आशीष देते हुए चले जाते हैं।  
 गृहप्रवेश :--                     वधु के विदाई के बाद गृह प्रवेश के समय वह अपने साथ माँ अन्नपूर्णा और लड्डू गोपाल की चाँदी की मूर्तियां लेकर गृह प्रवेश करती है।  इसका आशय कि घर धन धान्य से पूर्ण रहे और घर में बाल गोपाल के रूप में एक संरक्षक का आगमन भी हो।

बंगाली विवाह :
                 
 दोधी मंगल :--       विवाह के दिन, सूर्योदय होने के पूर्व, दोधी मंगल विधि निभाई जाती है। इसमें आठ से दस विवाहित स्त्रियाँ, वर वधू के साथ तालाब के पास जाती हैं और देवी गंगा को आमंत्रित करती हैं तथा कलश भर कर, जल अपने साथ ले जाती हैं, जिसे वर—वधू के स्नान हेतु, उपयोग में लाया जाता है। 
बऊ  भात :--      वधू का शंख नादों से घर में स्वागत किया जाता है। वधू, दूध से भरे कलश को पैर से गिराकर, घर में प्रवेश करती है। वधू अपने पति के घर, कुछ नहीं खाती, उसका भोजन पड़ोसी के घर से आता है। अगले दिन बऊ भात की रस्म निभाते हुए, वधू को नई थाली में खाना परोसा जाता है। शाम में सह—भोज का आयोजन किया जाता है, जिसमें वधू पांरपरिक बंगाली साड़ी तथा वर धोती धारण करता है।    

   पंजाबी विवाह :--

                               पंजाबी विवाह में एक सबसे अलग रस्म होती है वह है चूड़े की रस्म होती है।  चूड़े कन्या के ननिहाल से आता है और इसमें लाल और सफेद रंग के २१ चूड़े होते हैं, जिन्हें पहनते वक़्त कन्या की आँखें बंद कर देती है ताकि वह शादी के पहले चूड़े को न देखे।  चूड़ों को पहना कर उसको रूमाल से बाँध दिया जाता है ताकि वधु उनको न देखे।  चूड़ों को शादी से पूर्व देखना अशुभ माना जाता है।  शादी से पूर्ववधु की सहेलियां चूड़ों में कलीरे बांधती हैं और वे कलीरे उसकी सहेलियों के ऊपर हाथ हिला हिला कर गिराने का प्रयास करती है और जिसके सर पर गलीरे टूट कर गिर जाती हैं तो उसकी शादी जल्द होती है।

पूर्वांचल का विवाह :-
                                         पूर्वांचल में बिहार , झारखण्ड और उत्तर प्रदेश  का पूर्वी क्षेत्र भी आता है।  इसमें कुछ रस्में सबसे अलग होती हैं।  इसमें वर और वधु दोनों के ही स्वागत के लिए वर के गृह प्रवेश के समय दो टोकरी ली जाती है और वर के पैरों के आगे रखी जाती है और वह उन्हें मे पैर रखते हुए अंदर प्रवेश करता है।  वह भूमि पर पैर न रखे।
                 ठीक यही क्रिया वधु के घर आने पर गृह प्रवेश के वक़्त की जाती है , घर की लक्ष्मी भूमि पर पैर  रखते हुए अंदर प्रवेश नहीं कराते हैं। ये घर में वर और वधु को देने वाले सम्मान का प्रतीक होता है।
                    एक विशेष बात यहाँ पर और पायी जाती है कि यहाँ पर मांग में सिन्दूर डालने की रस्म के समय सिन्दूर नाक से पूरी मांग भरते हुए जाती है।  इस प्रकार से मांग वहां पर हर पूजा , व्रत में भरी जाती है।

राजस्थानी विवाह :
                                   विवाह  के समय वर जब बारात लेकर कन्या के घर पहुँचता है तो घोड़ी पर बैठे हुए ही घर के दरवाज़े पर बँधे हुए तोरण को तलवार से छूता है जिसे तोरण मारना कहते हैं। तोरण एक प्रकार का मांगलिक चिह्न है।  यह वर के शौर्य और वीरता का प्रतीक माना जाता है।


तमिल विवाह:--   

                       तमिल विवाह को तभी पूर्ण माना जाता है , जब कि  उनके बीच मालाओं का आदान प्रदान हो जाता है।  तमिल विवाह में वर और वधु एक नहीं तीन मालाएं पहने होते हैं और इनमें एक विशेष माला होती है, खूबसूरत फूलों की गूँथी हुई माला , जिसका वर और वधु सबसे पहले एक दूसरे को पहनते हैं और बाद में अपनी शेष मालाएं भी आपस में बदल लेते हैं।  इन वर मालाओं का आदान प्रदान ही विवाह संपन्न होने का प्रतीक है।
                            वहां पर मंगलसूत्र पहनाने का विशेष मुहूर्त होता है और सी के अनुसार बाकि रस्मों के लिए समय तय किया जाता है। मंगलसूत्र बांधने के समय वधु अपने पिता की गोद  में बैठी होती है और वर उसको मंगलसूत्र पुष्प और अक्षत की वर्षा के बीच पहनता है।

कन्नड़ विवाह :--  
                     कर्नाटक में विवाह बहुत ही सादगी से और शांतिपूर्ण ढंग से सम्पन्न होते हैं और विवाह की सारी रस्में दिन में ही सम्पन्न होती है।  सिर्फ अपने लिए ही नहीं बल्कि वधु पक्ष के लिए भी बालों में फूलों के गजरे लगाने के लिए मंगाए जाते हैं।

काशी यात्रा :--    कन्नड़ विवाह में एक रस्म सबसे अच्छी और मनोरंजक होती है।  इसमें वर अपने घर वालों से क्रोधित होकर एक छड़ी , छाता और धोती पहन कर घर से काशी यात्रा के लिए निकल पड़ता है कि उसके लिए कोई वधु नहीं खोजता है और तब माँ बेटे को मन कर ले जाती है कि  वह उसके विवाह को सम्पन्न कराएगी।

 देवकार्य :--  विवाह कार्य गणपति के समक्ष सम्पन्न होता है और सब मंगलकारी हो ऐसी कामना वहां उपस्थित परिजनों के द्वारा की जाती।   विवाह कार्य के दौरान शहनाई की धुन गूंजती रहती है।  कार्य पूर्ण होने पर वर वधु दोनों एक दूसरे के सिर पर अक्षत डालते हैं , जो मंगला कामनाओं का ही प्रतीक होता है।

बुंदेलखंडी विवाह :--   
                          
मंडप गड़ाई :--             बुंदेलखंड प्रभाग में उत्तर प्रदेश का कुछ इलाका और कुछ मध्य प्रदेश का इलाका आता है और यहाँ पर कुछ विशेष रस्में  होती हैं जो अन्य राज्यों में नहीं होती हैं।  वैसे तो विवाह हंसी मजाक के बीच सभी जगह सम्पन्न होता है लेकिन यहाँ पर एक रस्म  होती है मंडप गाड़ने की।  पंडित द्वारा  बताये विशेष मुहूर्त पर ही इसको गाड़ा जाता है और इस कार्य को घर के मान्य यानि कि वर या वधु के जीजा या फूफा गाड़ते हैं।  इसके बदले उनको नेग दिया जाता है और उसके बाद हल्दी , पानी और उसमें तेल और चूना नीला कर पतला घोल बना कर उसमें दोनों हाथ को डूबा कर घर की महिलायें सब लुरुषों की पीठ पर थाप लगाती हैं और इसा समय कौन कैसे कपडे पहने है इसका कोई ध्यान नहीं रखा जाता है।
 समधी को गालियां :-- आज से दो टीन दशक पहले शादी में एक दिन बारात रुकती थी और उस दिन बारातियों को कच्चा खाना अर्थात कढ़ी , चावल रोटी आदि का भोजन बधू के घर में कराया जाता था और फिर घर की महिलायें उनके लिए व्यंग्य पूर्ण गालियां गाती थीं और बदले में समधी उनको नेग देते थे।  

                         जैसे देश में अनेकता में एकता है ठीक उसी तरह से रस्मों में भी विभिन्नता पाई जाती है फिर भी सब भारतीय संस्कृति का एक अंश हैं. 
                            

शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

नया शिक्षा सत्र : सतर्कता एवं सुरक्षा !

                          वर्तमान समय  बच्चों , अभिभावकों , शिक्षकों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होता है।  वैसे तो अब शिक्षा सत्र के बदल जाने से  कुछ परिवर्तन आ ही गया है लेकिन फिर भी एक लम्बी छुट्टी के बाद बच्चों को स्कूल आने पर कुछ नया उत्साह रहता है। यद्यपि सत्र अप्रैल से शुरू होने लगा है लेकिन जुलाई का महीना भी प्रवेश की दृष्टि से , नए स्कूल की दृष्टि से और नए माहौल में नए बच्चों के लिए महत्वपूर्ण होता है।
                            अबोध बच्चों को एक नया ज्ञान और दिशा शिक्षक को देनी होती है और बच्चों के लिए घर की चहारदीवारी से निकल कर और माँ को छोड़ कर कहीं और, किसी और के साथ रहना और रुकना थोड़ा मुश्किल होता है लेकिन समय के साथ शिक्षक माँ बन कर , दोस्त बन कर और भाई बहन की भूमिका निभा कर बच्चों को स्कूल में मन लगाने में सहायक होती है।
                            आज के सन्दर्भ में जब कि स्कूल , शिक्षा , शिक्षक , बच्चों की सुरक्षा , स्कूल वाहन , उस वाहन के चालक , स्कूक का पाठेतर कर्मचारी , स्कूल की इन सब के बारे  जिम्मेदारी को सुनिश्चित करना बहुत जरूरी हो गया है।  अभिभावक आपने नौनिहालों को घर से स्कूल की सुरक्षा में भेजते हैं तो घर से निकल कर घर पर आने तक की जिम्मेदारी सम्बद्ध लोगों की बनती है।  इसके लिए अभिभावकों , स्कूल , शिक्षक की जिम्मेदारियों को किस तरह से सुनिश्चित करना है , इसको एक विहंगम दृष्टि डाल कर देखेंगे।

1.  अभिभावक की सतर्कता :  स्कूल बच्चे को एक सुनहरे भविष्य को देने का वो रास्ता है जिसमें रहकर वह बहुत कुछ सीख कर आगे बढ़ता है , लेकिन आप को अपने बच्चे को प्रवेश देने से पहले इन बातों को ध्यान रखना होगा :--

(i )    स्कूल के पिछले सालों की साख के बारे में पता कर लें।  वहां के शिक्षक /शिक्षिकाओं की शैक्षिक पृष्ठभूमि के विषय में जानकारी लें। 
(ii ) स्कूल का अगर अपना वाहन है तो उसके चालक और परिचालक के अतिरिक्त और उसमें  जो सहायक रहता हो , उसकी पृष्ठभूमि के विषय में जानकारी लें।  उनकी आदतों के विषय में जानकारी लें कि उनमें से कोई मादक पदार्थों का सेवन करने वाला न हो। 
(iii )  स्कूल वाहन के विषय में भी जानकारी  रखें।  वह कितना पुराना है ? उसमें आवश्यकता से अधिक बच्चे तो  नहीं ले जाए जा रहे हैं। छोटे वाहन जैसे वैन , ऑटो रिक्शा , बैटरी रिक्शा या विशेष रूप से तैयार करवाए गए स्कूल रिक्शे की भी पूरी जानकारी होनी चाहिए।  पुराने वाहन कमजोर और सुरक्षा तिथि के बाद भी आवश्यकता से अधिक बच्चे भर कर चलाये जाते हैं वे खतरे से खाली नहीं होते, इनमें दुर्घटना की संभावना अधिक होती है।।  
(vi ) आप अपने बच्चे को भी पूरी तरह से सतर्क रहने के लिए कहें।  अबोध बच्चे कभी कभी वाहन चालकों या स्कूल के कर्मचारियों के द्वारा विभिन्न तरीके से शोषित किये जा सकते हैं , अतः उन्हें इस दिशा में समझा कर रखें। 
(v ) स्कूल छुट्टी में बच्चों के जाने के बारे में कितने सतर्क हैं।  वहां के सतर्कता विभाग के मोबाइल नंबर लेकर रखें।  अपने बच्चे को छुट्टी में अगर वह स्कूल वाहन से नहीं आता है तो आने के साधन और व्यक्ति के विषय में पूरा विवरण वहां जमा कर रखें ताकि कोई गलती न हो। 

स्कूल की सतर्कता :-
                               स्कूल की भी एक गहन जिम्मेदारी होती है , उन बच्चों के प्रति जो स्कूल में आते हैं।  उनकी सुरक्षा , उनका स्वास्थ्य , उनका भविष्य और उनका चरित्र निर्माण सब उनकी जिम्मेदारी है।  इसके लिए स्कूल के जिम्मेदार लोगों को तीव्र सतर्कता बरतनी चाहिए।  वे इस देश के भविष्य को एक आकार देने के प्रति जवाबदेह होते हैं।  सिर्फ निजी स्वार्थ और लाभ का साधन स्कूल नहीं होते हैं।  

(i )  बच्चों के प्रति स्कूल वैसे तो सभी  सावधानी बरत रहे हैं कि बच्चों को स्कूल की छुट्टी से पहले या बाद में किसी भी अपरिचित के साथ न भेजा जाय।  अभिभावकों के विषय में जानकारी दर्ज करके रखते हैं कि बच्चे को वाहन न होने की स्थिति में किसके साथ भेजा जाय । बस होने की स्थिति में शिक्षक या शिक्षिका इसके लिए जिम्मेदार हों और बस में अपने सामने बच्चों को बस के अंदर बिठायें। 
(ii )  जहाँ तक संभव हो हर बस में एक शिक्षिका का होना भी जरूरी हो ताकि बच्चे अगर कोई तकलीफ या भय महसूस करें तो उनसे कह सकें। शिक्षिका के होने से बस के चालक और परिचालक पर अंकुश रहता है। न वे मादक द्रव लेते हैं और न ही बस में तेज ध्वनि में संगीत चला कर बस चलाते हैं। जो कि दुर्घटना का प्रमुख कारण बन जाता है। 
(iii )  बच्चों पर अनावश्यक पुस्तकों का बोझ न बढ़ाएं।  शिक्षण पद्धति इस प्रकार की होनी चाहिए ताकि अभिभावकों को अलग से कोचिंग का अनावश्यक भार न उठाना पड़े। होमवर्क का अनावश्यक भार भी न हो , जिससे कि बच्चों के लिए खेलने कूदने का समय भी मिल सके। 
(vi ) शिक्षकों द्वारा बच्चों के आर्थिक स्तर को लेकर भेदभाव न किया जाय।  बच्चों को  भेदभाव का सामना स्कूल में किसी भी स्तर पर न करना पड़े क्योंकि यहीं से बच्चों में हीन भावना और उच्चता की भावना का विकास होने लगता है। 
(v )  विद्यालय में नैतिक शिक्षा और शारीरिक शिक्षा को भी महत्वपूर्ण स्थान देना चाहिए।  बच्चों  के विकास में शिक्षण के साथ साथ इन गतिविधियों का भी महत्वपूर्ण स्थान भूमिका होती है
  छात्रों की भूमिका :- स्कूल में अभिभावक या स्कूल के अतिरिक्त छात्रों का भी कुछ दायित्व होता है।  वे छात्र जो ऊँची कक्षाओं में होते हैं , उन्हें छोटे बच्चों का सहयोग करना चाहिए  न कि रैगिंग जैसी निंदनीय व्यवहार का उन्हें शिकार बनाया जाय।  आपकी तरह से वे भी शिक्षा ग्रहण करने आये हैं तो उनका मार्गदर्शन करके उन्हें भी आगे का मार्ग दिखाना चाहिए।  स्कूल को एक परिवार की तरह मानना चाहिए जिसमें बड़े आदर्श  प्रस्तुत करते हैं। 
                      स्कूल चाहे छोटे हों या बड़े , सरकारी हों या फिर निजी उनका स्तर और सुविधाएँ देख कर ही बच्चों को प्रवेश दिलवाएं।  ये कल के भविष्य है , इन्हें समुचित विकास और ज्ञान वाली शिक्षा मिलनी चाहिए।  

साहित्य में सेंध लगाता सोशल मीडिया !

                                           सोशल मीडिया जिसने हर उम्र के लोगों को अपना दीवाना बना रखा है , वह सिर्फ लोगों को ही नहीं बल्कि साहित्य में भी सेंध लगा रहा है।  इसने मानवीय संबंधो , लेखन , साहित्य सृजन और पठन पाठन को बुरी तरह से प्रभावित का रखा है।  हमारे आपसी सम्बन्ध घर परिवार , पति पत्नी , माँ बच्चों के मध्य सीमित हो गए हैं।  किसी को किसी की चिंता  नहीं है और इसी लिए मानवीय संबंध ख़त्म होते चले जा रहे हैं।  किताबें लिखने के बजाय , पूरी कविता के बजाय चार लाइनें लिखी और वाल पर चेप दी और फिर शुरू होता है लाइक और कमेंट को गिनने का सिलसिला और कमेंट के उत्तर देने का सिलसिला।  वैसे इन कमेंट और लाइक की कोई अहमियत नहीं होती है क्योंकि ये तो लेन देन वाला व्यवहार हो  चुका है।  तू मुझे सराहे और मैं तुझे भी होता है।  लेकिन इसमें स्थायित्व फिर भी  नहीं होता है।  लिखा हुआ चाहे जितना भी महत्वपूर्ण क्यों न हो , समय के साथ पोस्ट के ढेर में नीचे चला जाता है और फिर न लिखने वाले को याद रहता है और न पढ़ने वाले को। इसके अपवाद भी है बल्कि वास्तव में जिस कलम में दम  है और तन्मयता से रचा हुआ साहित्य चाहे ब्लॉग पर हो या सोशल मीडिया पर या प्रिंट मीडिया पर सब सराहे जाते हैं।  फिर भी मैं उन गंभीर लेखों की बात करूंगी कि जितना सृजन वे कर सकते हैं ,उतना कर नहीं  पाते हैं क्योंकि इस फेसबुक और ट्विटर पर सबकी नजर रहती है।
                  वास्तव में अगर एक बार फेसबुक खोलकर बैठ गए तो गृहणी भी सारे काम पड़े रहें उसी में उलझ कर रह जाती है।  एक के बाद एक स्टेटस वो तो क्रम ख़त्म होता ही नहीं है , समय चलता रहता है और काम पड़ा रहे वैसे मैं भी इसका अपवाद नहीं हूँ। जन्मदिन चाहे मित्र का हो या फिर उनके बेटे बेटी पोते पोती किसी का भी हो शुभकामनाएं देना तो बनता है न , किसी किसी दिन तो 25 लोगों का जन्मदिन पड़  जाता है और फिर आप उन सब को सिर्फ एक लाइन में शुभकामनाएं भेजिए कुल हो गई 25 लाइने  - इतने में तो एक लघुकथा या एक कविता का सृजन हो जाता।  इस समय अपनी शक्ति का उपयोग आप किसी भी तरह से कर सकते हैं। मिली हुई शुभकामनाओं की बाकायदा गणना की जाती हैं।  मैंने देखा भी है और सुना भी है।
                       कितना समय हम सोशल मीडिया पर व्यतीत करते है और उससे कुछ ज्ञान और कुछ अच्छा पढ़ने को मिलता है लेकिन वह मात्र 5 या 10 प्रतिशत होता है।  उससे अपना लेखन तो नहीं हो जाता है।  विचार ग्रहण कीजिये और फिर अपनी कलम चलाइये।  कहीं भी डालिये अपने ब्लॉग पर , डायरी में , या सोशल मीडिया पर कम से कम लिखना तो सार्थक होगा।  लेकिन एक बात यह सत्य है कि रचनात्मकता के लिए इस सोशल मीडिया से विमुख होना ही पड़ेगा।  ये मेरी अपनी सोच है , कुछ लोग साथ साथ सब कुछ कर सकते हैं लेकिन मैं नहीं कर सकती।  मुझे याद है कि रश्मि रविजा ने जब अपनी उपन्यास "कांच के शामियाने " लिखी थी तो फेसबुक से काफी दिन बहुत दूर रही थी।  यही काम वंदना अवस्थी दुबे ने भी किया था।  कोई सृजन इतना आसान नहीं है कि इधर उधर घूमते रहें और फिर भी सृजन हो जाए।  गाहे  बगाहे झाँक  लिया वह बात और है।  मेरा अपना अनुभव भी यही  कहता है कि भले ही आपके पास सामग्री तैयार रखी हो, लेकिन उसको सम्पादित करते पुस्तकाकार लाने में पूर्ण समर्पण से काम करना पड़ेगा।  मेरे पास भी अपनी दो कविता संग्रह और एक लघुकथा संग्रह की सामग्री संचित है लेकिन उसको सम्पादित करने के लिए समय नहीं दे पा रही हूँ।  वैसे मैं भी बहुत ज्यादा समय नहीं देती हूँ लेकिन जब तक इस के व्यामोह से मुक्त नहीं होंगे कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आने वाला है।  तो कुल मिला कर ये सोशल मीडिया साहित्य सृजन और पठन पाठन में सेंध लगाने का काम कर रहा है और इसके साथ ही व्यक्ति की सामाजिकता को भी प्रभावित कर रहा है।
                             सोशल मीडिया ने साहित्य चोरी की एक नयी लत लगा दी है । किसी को किसी का कुछ भी पसन्द आया अपने नाम से छपवा लिया , पकड़ गये तो क्षमा याचना नहीं तो दादागीरी - आप कर क्या लेंगें ? कोई कॉपी राइट काम नहीं करता है । हमें स्वयं सावधान  होने की जरूरत है और सृजन की दिशा तभी खुलेगी जब इससे दूरी बना ली जाय।  

गुरुवार, 1 फ़रवरी 2018

विवाह :तेरे कितने रूप !

                        विवाह एक सामाजिक संस्था ही नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति के अनुसार एक महत्वपूर्ण संस्कार है।   ये सृष्टि को सतत चलाने वाला संस्कार अपना स्वरूप बदल रहा है ,   युगों से चली आ रही अवधारणा अब दरकने लगी है।  संस्था आज भी है और शायद मानव जीवन के साथ रहेगी भी । आज के परिवेश में यह नहीं सोचा जा रहा है कि जो विवाह बंधन में बंध रहे है , वे एक सुखद और सफल जीवन व्यतीत करेंगे । शिक्षा , महत्वकांक्षा और आधुनिकता की चाह ने इसके स्थायित्व को प्रभावित किया है। सदियों से चली आ रही कट्टरता अब शिथिल होने लगी है और समय के अनुरूप उसके सुखद परिणाम भी सामने आ रहे है। 
                    
                         इस विषय में कुछ प्रबुद्ध महिलाओं के विचार प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. विभिन्न परिवेश से सम्बन्ध रखने वाले लोगों के विचार भी कुछ नया परिणाम ही सामने रखेंगे. --

 डॉ. गायत्री सिंह - अर्मापुर डिग्री कॉलेज की प्राचार्य -  विवाह संस्था अभी भारत में जीवित है लेकिन हाई प्रोफाइल सोसाइटी में जरूर बदलाव के साथ ववाह के प्रति आस्था भी कम हुई है।
       वैदिक रीति से भावनात्मक लगांव ज्यादा रहता है, जब कि  कोर्ट मैरिज से शुरुआत होकर  वापस कोर्ट पर ही रिश्ता टूट भी जाता है। हर जगह ये बात लागू नहीं हो रही है। 
       अंतर्जातीय विवाह का स्थायित्व परिवेश और पारिवारिक स्थिति पर निर्भर करता है। अन्यथा यह ऑनर किलिंग में भी बदल जाता  है।
           लिव इन से सबसे अधिक नुक्सान महिलाओं का हो रहा है और संस्कृति में रची बसी परिवार संस्था को इससे खतरा उत्पन्न हो रहा है।   जिम्मेदारियों से भागना और उन्मुक्त जीवन जीने की जो भावना नयी पीढ़ी में पनप रही है वह सबके लिए ही घातक और अनैतिक भी है।


विभा रानी  - इंडियन आयल अधिकारी , मुंबई - विवाह  से एक भावात्मक रिश्ता बनता है और उसमें स्थायित्व भी होता है।चाहे जिस तरह से करें मन में अगर भावात्मक लगाव है तो वह सफल है।
           विवाह किसी भी पद्धति से हो। शादी भावनाओं से होती है। पद्धति उसे सम्पन्न करने का एक तरीका है। कहाँ तो लोग बिना विवाह के जीवन भर साथ रहते हैं और उनमें आपसी सामंजस्य रहता है।  विवाह एक सामाजिक स्वीकृति है और वह जरूरी भी है।   
             कोई अंतर नही है,  परिवार राजी तो किसी की कोई मजाल नहीं उंगली उठाने की। मेरी और मेरी बेटी की शादी अंतरजातीय और अंतर धार्मिक है। हम दोनों खुश हैं।
           दो वयस्क अपना जीवन जैसा चाहें गुजारने के लिए आज़ाद हैं। ऐसे सवाल केवल विवाद पैदा करते हैं और हमारी मानसिक संकीर्णता को बताते हैं।


शारदा अग्रवाल -  डीवी डिग्री कॉलेज , उरई -- हाँ विवाह संस्कार आज भी जीवित है और रहेगा क्योंकि हम आज भी विवाह से पूर्व कुंडली का मिलान करते हैं। सारे रीति रिवाज पूर्ण करते हैं क्योंकि इसके पीछे  होने से दंपत्ति के भावी जीवन में सुख शांति की कामना होती है।
        वैदिक रीति से विवाह होने पर एक मानसिक संतुष्टि मिलती है और सामाजिक स्वीकृति भी।  परिवार को समाज की नैतिकता का सम्मान करने की शिक्षा भी मिलती है। 
          अंतर्जातीय विवाह से समाज में परम्पराओं का ह्रास हो रहा है क्योंकि दो अलग अलग जातियों में भेद होता है और इससे परिवार को एक दूसरे को स्वीकार करने में परेशानी तो होती ही है।  सामान्य रूप से अंतर्जातीय विवाह कोई भी परिवार ख़ुशी ख़ुशी तो नहीं ही करता है।
          लिव इन भारतीय संस्कृति के खिलाफ है बल्कि हमारे सदियों से चले आ रहे संस्कारों के खिलाफ साजिश है। कोई स्थयित्व नहीं है बल्कि एक स्वच्छंद जीवन को हवा देने वाला है।


संगीता गाँधी - साहित्यकार , नई दिल्ली -- विवाह पवित्र संस्कार है। जैसे जैसे पाश्चात्य प्रभाव बढ़ रहा है ये संस्था अपना महत्व खोने लगी है।   आज का युवा इन सबसे पहले अपने कैरियर को देखता है और  विवाह संस्था की उपेक्षा करने लगे हैं।
           विवाह चाहे वैदिक रीति से हो या कोर्ट मैरिज दोनों ही विवाह के प्रकार है।  भावात्मक बंधन मन की अवस्था है।स्थायित्व में रीति कोई मायने नहीं रखती है।
          अंतर्जातीय  और सजातीय विवाह में स्थायित्व पर असर तब आता है जब निर्णय बहुत जल्दबाजी में लिया गया हो।  लेकिन अगर परिवार की सहमति है तो उनके  स्थायित्व की संभावना होती है नहीं तो भावात्मक कमजोरी इसके टूटने की बात भी सामने ला रहा है ।
            लिव इन परिवार और विवाह संस्था दोनों के लिए घातक है , विशेष रूप से स्त्रियों की स्थिति इसमें दयनीय हो जाती है , मतभेद होने पर पुरुष को परिवार स्वीकार कर लेता है  लेकिन स्त्री को जल्दी स्वीकार करने की प्रवृत्ति अभी,भी समाज में नहीं है और इससे पैदा हुए बच्चे त्रसित होते हैं।
 
   
चित्रा देसाई - साहित्यकार एवं अभिवक्ता , मुंबई --    विवाह संस्था पर संकट बिलकुल नजर आ रहा है क्योंकि रिश्ते के बंधन में कोई बंधना ही नहीं चाहता है।  सिर्फ मैं के लिए कुछ भी कर सकते हैं  , कभी कभी तो अपनी रुचियों और शौक के लिए बच्चों को भी अनदेखा कर दिया जाता है।
          वैदिक रीति से विवाह में और कोर्ट मैरिज में बहुत फर्क है।  कोर्ट मैरिज में एक एंटीसेप्टिक माहौल नजर आता है , जहाँ कुछ भी ऐसा नहीं है कि रिश्तों को निभाने के पक्ष में मुझे ज्यादा फर्क नजर नहीं आता है क्योंकि एक समझदारी के बाद ही कोर्ट मैरिज करते हैं।
              अंतर्जातीय विवाह आज के परिवेश में बढ़ रहे हैं और समाज द्वारा स्वीकार भी किये जा रहे हैं , उससे विवाह संस्था के स्थायित्व पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ रहा है क्योंकि अंतर्जातीय विवाह तभी होते हैं जब दो लोगों में अच्छा सामंजस्य होता है। 
               लिव इन का प्रभाव विवाह के साथ साथ परिवार संस्था पर भी पड़  रहा है।  इसमें कोई  कमिटमेंट , जिम्मेदारी या बंधन नहीं होता है और वे स्वतन्त्र होते हैं कभी भी साथ छोड़ देने के लिए। जब कि विवाह में एक सामाजिक और पारिवारिक दबाव रहता है 



संध्या शर्मा : लेखिका , नागपुर --भारतीय संस्कृति के अनुसार विवाह कोई शारीरिक या सामाजिक अनुबंध मात्र नहीं है , यहाँ दाम्पत्य को एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना का रूप दिया गया है और इसी लिए कहा गया है -  ' धन्यो गृहस्थाश्रमः ' . अनेक परिवर्तन के बाद भी विवाह हमारे समाज में हमेशा जीवित रहेगा।
      यदि वर वधु के बीच आपसी सामंजस्य  है तो विवाह चाहे वैदिक रीति से हो या फिर कोर्ट मैरिज भावात्मक बंधन में कोई अंतर उत्पन्न नहीं होता।
            सजातीय विवाह को हम प्राथमिकता देते हैं  , अंतर्जातीय विवाह होते ही तब हैं जब कि वर और वधु दोनों पहले से परिचित हों और आपसी सामंजस्य हो।  ये अधिक सफल माने जा सकते हैं क्योंकि इनमें परिपक्वता के बाद निर्णय लेते हैं।
              लिव इन सदियों से चली आ रही रखैल व्यवस्था का आधुनिक रूप है , जिसे बड़े ही आधुनिक रूप में युवाओं के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है।    इससे परिवार नहीं बनता बच्चों के हो जाने पर उनकी जिम्मेदारी लेने कोई भी तैयार नहीं होता।