सोशल मीडिया जिसने हर उम्र के लोगों को अपना दीवाना बना रखा है , वह सिर्फ लोगों को ही नहीं बल्कि साहित्य में भी सेंध लगा रहा है। इसने मानवीय संबंधो , लेखन , साहित्य सृजन और पठन पाठन को बुरी तरह से प्रभावित का रखा है। हमारे आपसी सम्बन्ध घर परिवार , पति पत्नी , माँ बच्चों के मध्य सीमित हो गए हैं। किसी को किसी की चिंता नहीं है और इसी लिए मानवीय संबंध ख़त्म होते चले जा रहे हैं। किताबें लिखने के बजाय , पूरी कविता के बजाय चार लाइनें लिखी और वाल पर चेप दी और फिर शुरू होता है लाइक और कमेंट को गिनने का सिलसिला और कमेंट के उत्तर देने का सिलसिला। वैसे इन कमेंट और लाइक की कोई अहमियत नहीं होती है क्योंकि ये तो लेन देन वाला व्यवहार हो चुका है। तू मुझे सराहे और मैं तुझे भी होता है। लेकिन इसमें स्थायित्व फिर भी नहीं होता है। लिखा हुआ चाहे जितना भी महत्वपूर्ण क्यों न हो , समय के साथ पोस्ट के ढेर में नीचे चला जाता है और फिर न लिखने वाले को याद रहता है और न पढ़ने वाले को। इसके अपवाद भी है बल्कि वास्तव में जिस कलम में दम है और तन्मयता से रचा हुआ साहित्य चाहे ब्लॉग पर हो या सोशल मीडिया पर या प्रिंट मीडिया पर सब सराहे जाते हैं। फिर भी मैं उन गंभीर लेखों की बात करूंगी कि जितना सृजन वे कर सकते हैं ,उतना कर नहीं पाते हैं क्योंकि इस फेसबुक और ट्विटर पर सबकी नजर रहती है।
वास्तव में अगर एक बार फेसबुक खोलकर बैठ गए तो गृहणी भी सारे काम पड़े रहें उसी में उलझ कर रह जाती है। एक के बाद एक स्टेटस वो तो क्रम ख़त्म होता ही नहीं है , समय चलता रहता है और काम पड़ा रहे वैसे मैं भी इसका अपवाद नहीं हूँ। जन्मदिन चाहे मित्र का हो या फिर उनके बेटे बेटी पोते पोती किसी का भी हो शुभकामनाएं देना तो बनता है न , किसी किसी दिन तो 25 लोगों का जन्मदिन पड़ जाता है और फिर आप उन सब को सिर्फ एक लाइन में शुभकामनाएं भेजिए कुल हो गई 25 लाइने - इतने में तो एक लघुकथा या एक कविता का सृजन हो जाता। इस समय अपनी शक्ति का उपयोग आप किसी भी तरह से कर सकते हैं। मिली हुई शुभकामनाओं की बाकायदा गणना की जाती हैं। मैंने देखा भी है और सुना भी है।
कितना समय हम सोशल मीडिया पर व्यतीत करते है और उससे कुछ ज्ञान और कुछ अच्छा पढ़ने को मिलता है लेकिन वह मात्र 5 या 10 प्रतिशत होता है। उससे अपना लेखन तो नहीं हो जाता है। विचार ग्रहण कीजिये और फिर अपनी कलम चलाइये। कहीं भी डालिये अपने ब्लॉग पर , डायरी में , या सोशल मीडिया पर कम से कम लिखना तो सार्थक होगा। लेकिन एक बात यह सत्य है कि रचनात्मकता के लिए इस सोशल मीडिया से विमुख होना ही पड़ेगा। ये मेरी अपनी सोच है , कुछ लोग साथ साथ सब कुछ कर सकते हैं लेकिन मैं नहीं कर सकती। मुझे याद है कि रश्मि रविजा ने जब अपनी उपन्यास "कांच के शामियाने " लिखी थी तो फेसबुक से काफी दिन बहुत दूर रही थी। यही काम वंदना अवस्थी दुबे ने भी किया था। कोई सृजन इतना आसान नहीं है कि इधर उधर घूमते रहें और फिर भी सृजन हो जाए। गाहे बगाहे झाँक लिया वह बात और है। मेरा अपना अनुभव भी यही कहता है कि भले ही आपके पास सामग्री तैयार रखी हो, लेकिन उसको सम्पादित करते पुस्तकाकार लाने में पूर्ण समर्पण से काम करना पड़ेगा। मेरे पास भी अपनी दो कविता संग्रह और एक लघुकथा संग्रह की सामग्री संचित है लेकिन उसको सम्पादित करने के लिए समय नहीं दे पा रही हूँ। वैसे मैं भी बहुत ज्यादा समय नहीं देती हूँ लेकिन जब तक इस के व्यामोह से मुक्त नहीं होंगे कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आने वाला है। तो कुल मिला कर ये सोशल मीडिया साहित्य सृजन और पठन पाठन में सेंध लगाने का काम कर रहा है और इसके साथ ही व्यक्ति की सामाजिकता को भी प्रभावित कर रहा है।
सोशल मीडिया ने साहित्य चोरी की एक नयी लत लगा दी है । किसी को किसी का कुछ भी पसन्द आया अपने नाम से छपवा लिया , पकड़ गये तो क्षमा याचना नहीं तो दादागीरी - आप कर क्या लेंगें ? कोई कॉपी राइट काम नहीं करता है । हमें स्वयं सावधान होने की जरूरत है और सृजन की दिशा तभी खुलेगी जब इससे दूरी बना ली जाय।
वास्तव में अगर एक बार फेसबुक खोलकर बैठ गए तो गृहणी भी सारे काम पड़े रहें उसी में उलझ कर रह जाती है। एक के बाद एक स्टेटस वो तो क्रम ख़त्म होता ही नहीं है , समय चलता रहता है और काम पड़ा रहे वैसे मैं भी इसका अपवाद नहीं हूँ। जन्मदिन चाहे मित्र का हो या फिर उनके बेटे बेटी पोते पोती किसी का भी हो शुभकामनाएं देना तो बनता है न , किसी किसी दिन तो 25 लोगों का जन्मदिन पड़ जाता है और फिर आप उन सब को सिर्फ एक लाइन में शुभकामनाएं भेजिए कुल हो गई 25 लाइने - इतने में तो एक लघुकथा या एक कविता का सृजन हो जाता। इस समय अपनी शक्ति का उपयोग आप किसी भी तरह से कर सकते हैं। मिली हुई शुभकामनाओं की बाकायदा गणना की जाती हैं। मैंने देखा भी है और सुना भी है।
कितना समय हम सोशल मीडिया पर व्यतीत करते है और उससे कुछ ज्ञान और कुछ अच्छा पढ़ने को मिलता है लेकिन वह मात्र 5 या 10 प्रतिशत होता है। उससे अपना लेखन तो नहीं हो जाता है। विचार ग्रहण कीजिये और फिर अपनी कलम चलाइये। कहीं भी डालिये अपने ब्लॉग पर , डायरी में , या सोशल मीडिया पर कम से कम लिखना तो सार्थक होगा। लेकिन एक बात यह सत्य है कि रचनात्मकता के लिए इस सोशल मीडिया से विमुख होना ही पड़ेगा। ये मेरी अपनी सोच है , कुछ लोग साथ साथ सब कुछ कर सकते हैं लेकिन मैं नहीं कर सकती। मुझे याद है कि रश्मि रविजा ने जब अपनी उपन्यास "कांच के शामियाने " लिखी थी तो फेसबुक से काफी दिन बहुत दूर रही थी। यही काम वंदना अवस्थी दुबे ने भी किया था। कोई सृजन इतना आसान नहीं है कि इधर उधर घूमते रहें और फिर भी सृजन हो जाए। गाहे बगाहे झाँक लिया वह बात और है। मेरा अपना अनुभव भी यही कहता है कि भले ही आपके पास सामग्री तैयार रखी हो, लेकिन उसको सम्पादित करते पुस्तकाकार लाने में पूर्ण समर्पण से काम करना पड़ेगा। मेरे पास भी अपनी दो कविता संग्रह और एक लघुकथा संग्रह की सामग्री संचित है लेकिन उसको सम्पादित करने के लिए समय नहीं दे पा रही हूँ। वैसे मैं भी बहुत ज्यादा समय नहीं देती हूँ लेकिन जब तक इस के व्यामोह से मुक्त नहीं होंगे कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आने वाला है। तो कुल मिला कर ये सोशल मीडिया साहित्य सृजन और पठन पाठन में सेंध लगाने का काम कर रहा है और इसके साथ ही व्यक्ति की सामाजिकता को भी प्रभावित कर रहा है।
सोशल मीडिया ने साहित्य चोरी की एक नयी लत लगा दी है । किसी को किसी का कुछ भी पसन्द आया अपने नाम से छपवा लिया , पकड़ गये तो क्षमा याचना नहीं तो दादागीरी - आप कर क्या लेंगें ? कोई कॉपी राइट काम नहीं करता है । हमें स्वयं सावधान होने की जरूरत है और सृजन की दिशा तभी खुलेगी जब इससे दूरी बना ली जाय।
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