जब ब्लॉग तक पहुंची हूँ, तो मन हुआ कि संस्मरण की एक श्रृंखला जो यादों में बसी है और मेरे लेखन से जुड़ी है सब से बाँट लूं. बहुत कुछ सीखा और बहुत कुछ पाया इस लेखन से , किन्तु कैसे शुरू हुआ और कैसे कैसे लोगों से निपट कर यहाँ तक हूँ, यह भी एक रोचक दास्ताँ है.
पढ़ना मेरे परिवार में एक व्यसन की तरह से था. पापा , माँ और दादी सभी पढ़ने के शौक़ीन थे. सबसे बड़ी बात ये थी कि मेरी दादी पढ़ लेती थी लेकिन अगर पृष्ठ शेष हो तो उसे नहीं ढूढ़ पाती थी हमसे कहती कि इसका पृष्ठ ढूढ़ दो. मेरे पापा के एक मित्र के पास पत्रिकाओं की एजेंसी थी सो वे सारी पत्रिकाएं मुफ्त में दिया करते थे और उस समय जो आज भी मेरी स्मृति में हैं - साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, सारिका, माया, मनोरमा,कादम्बिनी, नवनीत, हिंदी डाइजेस्ट, साथी, अरुण थी जो साहित्यिक और स्तरीय पत्रिकाएं थी. फिल्मी दुनियाँ में पहले सुचित्रा ( जो बाद में "माधुरी" के नाम से आई), फिल्मी कलियाँ, सुषमा, रंगभूमि, फिल्मफेयर थी, जो मुझे याद हैं. इनको चाटते चाटते अच्छे खासे ज्ञानी हो गए थे. अपनी उम्र से अधिक समझदार और दुनियादार.वैसे पढ़ना तो पता था की खानदानी रोग था , लेकिन लेखन पापा से मिला और तारीफ की बात ये हैं कि हमें ये बात बहुत बाद में पता चली , लेकिन पापा का लिखा हुआ कभी पढ़ने को नहीं मिला।
मेरी लेखनी चली जब मैं १० साल की थी. मेरी पहली कहानी "ऋण " दैनिक जागरण के बाल जगत स्तम्भ में छपी थी, गरिमियों कि छुट्टी में हम सभी ननिहाल चले जाते थे. वहाँ से लौट कर आये तो पापा ने मुझे वह अखबार दिया और मेरी पीठ थपथपाई क्योंकि ये काम मैं बिना बताये ही किया करती थी. फिर मुझे भी बहुत ख़ुशी हुई. फिर इसी तरह से कई कहानियां निकलीं. जिनमें शेष स्वतंत्रता सेनानियों पर अधिक थी, जिनमें उसके महत्वपूर्ण संस्मरण मैंने बाल जगत के लिए ही लिखे थे.
जब स्कूल में पहुँची तो आदत तो नहीं छूटी थी, १५ अगस्त को स्कूल में डिबेट प्रतियोगिता रखी गयी. उस समय खाद्य समस्या एक बहुत बड़ा प्रश्न था. यही विषय रखा, मेरी जितनी पत्रिकाएं तो किसी के यहाँ आती नहीं थी, मैंने एक लेख तैयार किया और अपने क्लास कि मोनिटर को दे दिया कि तुम इसको बोल देना. उसे पढ़कर नहीं बोलना था. इत्तफाक से १५ अगस्त बारिश होने लगी और घोषणा की गयी कि हाल में हो रहे कार्यक्रम में वही क्लास आयेंगे जो कि इस में भाग ले रहे हैं. अब इज्जत का प्रश्न था. सब ने कहा चलते हैं देखेंगे. मेरी क्लास से किसी ने मेरा नाम वहाँ दे दिया. जब नाम बुलाया गया तो मुझे तो काटो खून नहीं , लेकिन मैंने पढ़ा था और लिखा था सो सब पता था, लड़कियों ने ठेलठाल कर स्टेज पर भेज दिया और मैं वहाँ बोल कर आ गयी , फिर नीचे बैठ कर खूब रोई तुम लोगों ने मेरा नाम क्यों दिया? लेकिन इससे मेरा नाम कॉलेज में हो गया. फिर तो हर डिबेट में भाग लेना ही होता था.
उन दिनों आज की तरह से कंप्यूटर तो थे नहीं , सो ऑरकुट, फेसबुक या अन्य सोशल मीडिया के साधन होते ही नहीं थे . हाँ पत्र ही सबसे बड़े साधन थे. मेरे यहाँ उस समय "नेशनल हेराल्ड" पेपर आता था और उसमें एक कालम होता था "पेन फ्रेंड" का उसमें रूचि आने लगी और उसे ही मेरी एक फ्रेंड बनी "प्रतिमा श्रीवास्तव" जो कानपुर की थी. मेरे पत्रों के लिखने के ढंग से उसने मुझसे कहा कि "तुम कविता लिखो, तुम कविता लिख सकती हो", वह आज भी मेरी बहुत अच्छी मित्र है और लेखिका भी है. इस विधा के बारे में मैंने पहले नहीं सोचा था. फिर लिखने की कोशिश की. और लिख लिख कर डायरी में इकठ्ठा करती जाती. वह हर साल दिसंबर कि छुट्टी में उरई मेरे पास जाती थी. फिर उनमें करेक्शन करती.
मेरा पूरा घर फिल्मों के भी उतने शौक़ीन थे, शायद ही बचपन में कोई फ़िल्म जाती हो , जो हम न देखते हों. जो न देख पाते फिल्मी पत्रिकाओं में उनकी पूरी कहानी नाट्य रूप में दी जाती थी और उनसे काम चला लेती. मीनाकुमारी मेरी पसंदीदा अभिनेत्री थी. ३० मार्च १९७२ को उनका निधन हुआ और इससे मैं बहुत ही दुखी थी. मैंने माधुरी में एक संवेदना पत्र लिखा और वह पत्र छपा. उसमें पता भी छपा था फिर क्या था? बहुत सारे पत्र आने शुरू हो गए. किसी को बहन बनाना था कोई दोस्ती करना चाहता था. हम सब भाई बहन के लिए ये नया अनुभव था सब मिलकर बैठकर पत्र पढ़ते . उनमें से चार लड़के सबने चुने . एक अमर जो मथुरा का था, एक योगेन्द्र जो बीकानेर का था, एक विनोद वह भी बीकानेर का था और एक अजय जो बसंतपुर , बिहार का था. चारों वही किशोरों वाली उम्र के, मैं ही कहाँ बड़ी थी। लेकिन वे सब मुझसे भी छोटे थे. एक लड़की भी फ्रेंड बनी "उमा श्रीवास्तव" जो दोहद गुजरात से थी. जिससे वर्षों पत्र व्यवहार चला. एक बार वह सपरिवार मुझसे मिलने उरई भी आई क्योंकि उसके पापा रेलवे में थे. इसी तरह से भाइयों से भी मेरी कई साल तक राखी भेजना और पत्र व्यवहार चलता रहा. लेकिन भाइयों से कभी मिली नहीं. उनमें से जिनके फोटो मेरे पास थे आज भी मेरे पुराने अल्बम में लगे हुए हैं. वे सब भूल गए होंगे लेकिन मुझे आज भी याद हैं.
{ क्रमशः }
पढ़ना मेरे परिवार में एक व्यसन की तरह से था. पापा , माँ और दादी सभी पढ़ने के शौक़ीन थे. सबसे बड़ी बात ये थी कि मेरी दादी पढ़ लेती थी लेकिन अगर पृष्ठ शेष हो तो उसे नहीं ढूढ़ पाती थी हमसे कहती कि इसका पृष्ठ ढूढ़ दो. मेरे पापा के एक मित्र के पास पत्रिकाओं की एजेंसी थी सो वे सारी पत्रिकाएं मुफ्त में दिया करते थे और उस समय जो आज भी मेरी स्मृति में हैं - साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, सारिका, माया, मनोरमा,कादम्बिनी, नवनीत, हिंदी डाइजेस्ट, साथी, अरुण थी जो साहित्यिक और स्तरीय पत्रिकाएं थी. फिल्मी दुनियाँ में पहले सुचित्रा ( जो बाद में "माधुरी" के नाम से आई), फिल्मी कलियाँ, सुषमा, रंगभूमि, फिल्मफेयर थी, जो मुझे याद हैं. इनको चाटते चाटते अच्छे खासे ज्ञानी हो गए थे. अपनी उम्र से अधिक समझदार और दुनियादार.वैसे पढ़ना तो पता था की खानदानी रोग था , लेकिन लेखन पापा से मिला और तारीफ की बात ये हैं कि हमें ये बात बहुत बाद में पता चली , लेकिन पापा का लिखा हुआ कभी पढ़ने को नहीं मिला।
मेरी लेखनी चली जब मैं १० साल की थी. मेरी पहली कहानी "ऋण " दैनिक जागरण के बाल जगत स्तम्भ में छपी थी, गरिमियों कि छुट्टी में हम सभी ननिहाल चले जाते थे. वहाँ से लौट कर आये तो पापा ने मुझे वह अखबार दिया और मेरी पीठ थपथपाई क्योंकि ये काम मैं बिना बताये ही किया करती थी. फिर मुझे भी बहुत ख़ुशी हुई. फिर इसी तरह से कई कहानियां निकलीं. जिनमें शेष स्वतंत्रता सेनानियों पर अधिक थी, जिनमें उसके महत्वपूर्ण संस्मरण मैंने बाल जगत के लिए ही लिखे थे.
जब स्कूल में पहुँची तो आदत तो नहीं छूटी थी, १५ अगस्त को स्कूल में डिबेट प्रतियोगिता रखी गयी. उस समय खाद्य समस्या एक बहुत बड़ा प्रश्न था. यही विषय रखा, मेरी जितनी पत्रिकाएं तो किसी के यहाँ आती नहीं थी, मैंने एक लेख तैयार किया और अपने क्लास कि मोनिटर को दे दिया कि तुम इसको बोल देना. उसे पढ़कर नहीं बोलना था. इत्तफाक से १५ अगस्त बारिश होने लगी और घोषणा की गयी कि हाल में हो रहे कार्यक्रम में वही क्लास आयेंगे जो कि इस में भाग ले रहे हैं. अब इज्जत का प्रश्न था. सब ने कहा चलते हैं देखेंगे. मेरी क्लास से किसी ने मेरा नाम वहाँ दे दिया. जब नाम बुलाया गया तो मुझे तो काटो खून नहीं , लेकिन मैंने पढ़ा था और लिखा था सो सब पता था, लड़कियों ने ठेलठाल कर स्टेज पर भेज दिया और मैं वहाँ बोल कर आ गयी , फिर नीचे बैठ कर खूब रोई तुम लोगों ने मेरा नाम क्यों दिया? लेकिन इससे मेरा नाम कॉलेज में हो गया. फिर तो हर डिबेट में भाग लेना ही होता था.
उन दिनों आज की तरह से कंप्यूटर तो थे नहीं , सो ऑरकुट, फेसबुक या अन्य सोशल मीडिया के साधन होते ही नहीं थे . हाँ पत्र ही सबसे बड़े साधन थे. मेरे यहाँ उस समय "नेशनल हेराल्ड" पेपर आता था और उसमें एक कालम होता था "पेन फ्रेंड" का उसमें रूचि आने लगी और उसे ही मेरी एक फ्रेंड बनी "प्रतिमा श्रीवास्तव" जो कानपुर की थी. मेरे पत्रों के लिखने के ढंग से उसने मुझसे कहा कि "तुम कविता लिखो, तुम कविता लिख सकती हो", वह आज भी मेरी बहुत अच्छी मित्र है और लेखिका भी है. इस विधा के बारे में मैंने पहले नहीं सोचा था. फिर लिखने की कोशिश की. और लिख लिख कर डायरी में इकठ्ठा करती जाती. वह हर साल दिसंबर कि छुट्टी में उरई मेरे पास जाती थी. फिर उनमें करेक्शन करती.
मेरा पूरा घर फिल्मों के भी उतने शौक़ीन थे, शायद ही बचपन में कोई फ़िल्म जाती हो , जो हम न देखते हों. जो न देख पाते फिल्मी पत्रिकाओं में उनकी पूरी कहानी नाट्य रूप में दी जाती थी और उनसे काम चला लेती. मीनाकुमारी मेरी पसंदीदा अभिनेत्री थी. ३० मार्च १९७२ को उनका निधन हुआ और इससे मैं बहुत ही दुखी थी. मैंने माधुरी में एक संवेदना पत्र लिखा और वह पत्र छपा. उसमें पता भी छपा था फिर क्या था? बहुत सारे पत्र आने शुरू हो गए. किसी को बहन बनाना था कोई दोस्ती करना चाहता था. हम सब भाई बहन के लिए ये नया अनुभव था सब मिलकर बैठकर पत्र पढ़ते . उनमें से चार लड़के सबने चुने . एक अमर जो मथुरा का था, एक योगेन्द्र जो बीकानेर का था, एक विनोद वह भी बीकानेर का था और एक अजय जो बसंतपुर , बिहार का था. चारों वही किशोरों वाली उम्र के, मैं ही कहाँ बड़ी थी। लेकिन वे सब मुझसे भी छोटे थे. एक लड़की भी फ्रेंड बनी "उमा श्रीवास्तव" जो दोहद गुजरात से थी. जिससे वर्षों पत्र व्यवहार चला. एक बार वह सपरिवार मुझसे मिलने उरई भी आई क्योंकि उसके पापा रेलवे में थे. इसी तरह से भाइयों से भी मेरी कई साल तक राखी भेजना और पत्र व्यवहार चलता रहा. लेकिन भाइयों से कभी मिली नहीं. उनमें से जिनके फोटो मेरे पास थे आज भी मेरे पुराने अल्बम में लगे हुए हैं. वे सब भूल गए होंगे लेकिन मुझे आज भी याद हैं.
{ क्रमशः }