विवाह एक सामाजिक संस्था ही नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति के अनुसार एक महत्वपूर्ण संस्कार है। ये सृष्टि को सतत चलाने वाला संस्कार अपना स्वरूप बदल रहा है , युगों से चली आ रही अवधारणा अब दरकने लगी है। संस्था आज भी है और शायद मानव जीवन के साथ रहेगी भी । आज के परिवेश में यह नहीं सोचा जा रहा है कि जो विवाह बंधन में बंध रहे है , वे एक सुखद और सफल जीवन व्यतीत करेंगे । शिक्षा , महत्वकांक्षा और आधुनिकता की चाह ने इसके स्थायित्व को प्रभावित किया है। सदियों से चली आ रही कट्टरता अब शिथिल होने लगी है और समय के अनुरूप उसके सुखद परिणाम भी सामने आ रहे है।
इस विषय में कुछ प्रबुद्ध महिलाओं के विचार प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. विभिन्न परिवेश से सम्बन्ध रखने वाले लोगों के विचार भी कुछ नया परिणाम ही सामने रखेंगे. --
डॉ. गायत्री सिंह - अर्मापुर डिग्री कॉलेज की प्राचार्य - विवाह संस्था अभी भारत में जीवित है लेकिन हाई प्रोफाइल सोसाइटी में जरूर बदलाव के साथ ववाह के प्रति आस्था भी कम हुई है।
वैदिक रीति से भावनात्मक लगांव ज्यादा रहता है, जब कि कोर्ट मैरिज से शुरुआत होकर वापस कोर्ट पर ही रिश्ता टूट भी जाता है। हर जगह ये बात लागू नहीं हो रही है।
अंतर्जातीय विवाह का स्थायित्व परिवेश और पारिवारिक स्थिति पर निर्भर करता है। अन्यथा यह ऑनर किलिंग में भी बदल जाता है।
लिव इन से सबसे अधिक नुक्सान महिलाओं का हो रहा है और संस्कृति में रची बसी परिवार संस्था को इससे खतरा उत्पन्न हो रहा है। जिम्मेदारियों से भागना और उन्मुक्त जीवन जीने की जो भावना नयी पीढ़ी में पनप रही है वह सबके लिए ही घातक और अनैतिक भी है।
विभा रानी - इंडियन आयल अधिकारी , मुंबई - विवाह से एक भावात्मक रिश्ता बनता है और उसमें स्थायित्व भी होता है।चाहे जिस तरह से करें मन में अगर भावात्मक लगाव है तो वह सफल है।
विवाह किसी भी पद्धति से हो। शादी भावनाओं से होती है। पद्धति उसे सम्पन्न करने का एक तरीका है। कहाँ तो लोग बिना विवाह के जीवन भर साथ रहते हैं और उनमें आपसी सामंजस्य रहता है। विवाह एक सामाजिक स्वीकृति है और वह जरूरी भी है।
कोई अंतर नही है, परिवार राजी तो किसी की कोई मजाल नहीं उंगली उठाने की। मेरी और मेरी बेटी की शादी अंतरजातीय और अंतर धार्मिक है। हम दोनों खुश हैं।
दो वयस्क अपना जीवन जैसा चाहें गुजारने के लिए आज़ाद हैं। ऐसे सवाल केवल विवाद पैदा करते हैं और हमारी मानसिक संकीर्णता को बताते हैं।
शारदा अग्रवाल - डीवी डिग्री कॉलेज , उरई -- हाँ विवाह संस्कार आज भी जीवित है और रहेगा क्योंकि हम आज भी विवाह से पूर्व कुंडली का मिलान करते हैं। सारे रीति रिवाज पूर्ण करते हैं क्योंकि इसके पीछे होने से दंपत्ति के भावी जीवन में सुख शांति की कामना होती है।
वैदिक रीति से विवाह होने पर एक मानसिक संतुष्टि मिलती है और सामाजिक स्वीकृति भी। परिवार को समाज की नैतिकता का सम्मान करने की शिक्षा भी मिलती है।
अंतर्जातीय विवाह से समाज में परम्पराओं का ह्रास हो रहा है क्योंकि दो अलग अलग जातियों में भेद होता है और इससे परिवार को एक दूसरे को स्वीकार करने में परेशानी तो होती ही है। सामान्य रूप से अंतर्जातीय विवाह कोई भी परिवार ख़ुशी ख़ुशी तो नहीं ही करता है।
लिव इन भारतीय संस्कृति के खिलाफ है बल्कि हमारे सदियों से चले आ रहे संस्कारों के खिलाफ साजिश है। कोई स्थयित्व नहीं है बल्कि एक स्वच्छंद जीवन को हवा देने वाला है।
संगीता गाँधी - साहित्यकार , नई दिल्ली -- विवाह पवित्र संस्कार है। जैसे जैसे पाश्चात्य प्रभाव बढ़ रहा है ये संस्था अपना महत्व खोने लगी है। आज का युवा इन सबसे पहले अपने कैरियर को देखता है और विवाह संस्था की उपेक्षा करने लगे हैं।
विवाह चाहे वैदिक रीति से हो या कोर्ट मैरिज दोनों ही विवाह के प्रकार है। भावात्मक बंधन मन की अवस्था है।स्थायित्व में रीति कोई मायने नहीं रखती है।
अंतर्जातीय और सजातीय विवाह में स्थायित्व पर असर तब आता है जब निर्णय बहुत जल्दबाजी में लिया गया हो। लेकिन अगर परिवार की सहमति है तो उनके स्थायित्व की संभावना होती है नहीं तो भावात्मक कमजोरी इसके टूटने की बात भी सामने ला रहा है ।
लिव इन परिवार और विवाह संस्था दोनों के लिए घातक है , विशेष रूप से स्त्रियों की स्थिति इसमें दयनीय हो जाती है , मतभेद होने पर पुरुष को परिवार स्वीकार कर लेता है लेकिन स्त्री को जल्दी स्वीकार करने की प्रवृत्ति अभी,भी समाज में नहीं है और इससे पैदा हुए बच्चे त्रसित होते हैं।
चित्रा देसाई - साहित्यकार एवं अभिवक्ता , मुंबई -- विवाह संस्था पर संकट बिलकुल नजर आ रहा है क्योंकि रिश्ते के बंधन में कोई बंधना ही नहीं चाहता है। सिर्फ मैं के लिए कुछ भी कर सकते हैं , कभी कभी तो अपनी रुचियों और शौक के लिए बच्चों को भी अनदेखा कर दिया जाता है।
वैदिक रीति से विवाह में और कोर्ट मैरिज में बहुत फर्क है। कोर्ट मैरिज में एक एंटीसेप्टिक माहौल नजर आता है , जहाँ कुछ भी ऐसा नहीं है कि रिश्तों को निभाने के पक्ष में मुझे ज्यादा फर्क नजर नहीं आता है क्योंकि एक समझदारी के बाद ही कोर्ट मैरिज करते हैं।
अंतर्जातीय विवाह आज के परिवेश में बढ़ रहे हैं और समाज द्वारा स्वीकार भी किये जा रहे हैं , उससे विवाह संस्था के स्थायित्व पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ रहा है क्योंकि अंतर्जातीय विवाह तभी होते हैं जब दो लोगों में अच्छा सामंजस्य होता है।
लिव इन का प्रभाव विवाह के साथ साथ परिवार संस्था पर भी पड़ रहा है। इसमें कोई कमिटमेंट , जिम्मेदारी या बंधन नहीं होता है और वे स्वतन्त्र होते हैं कभी भी साथ छोड़ देने के लिए। जब कि विवाह में एक सामाजिक और पारिवारिक दबाव रहता है
संध्या शर्मा : लेखिका , नागपुर --भारतीय संस्कृति के अनुसार विवाह कोई शारीरिक या सामाजिक अनुबंध मात्र नहीं है , यहाँ दाम्पत्य को एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना का रूप दिया गया है और इसी लिए कहा गया है - ' धन्यो गृहस्थाश्रमः ' . अनेक परिवर्तन के बाद भी विवाह हमारे समाज में हमेशा जीवित रहेगा।
यदि वर वधु के बीच आपसी सामंजस्य है तो विवाह चाहे वैदिक रीति से हो या फिर कोर्ट मैरिज भावात्मक बंधन में कोई अंतर उत्पन्न नहीं होता।
सजातीय विवाह को हम प्राथमिकता देते हैं , अंतर्जातीय विवाह होते ही तब हैं जब कि वर और वधु दोनों पहले से परिचित हों और आपसी सामंजस्य हो। ये अधिक सफल माने जा सकते हैं क्योंकि इनमें परिपक्वता के बाद निर्णय लेते हैं।
लिव इन सदियों से चली आ रही रखैल व्यवस्था का आधुनिक रूप है , जिसे बड़े ही आधुनिक रूप में युवाओं के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है। इससे परिवार नहीं बनता बच्चों के हो जाने पर उनकी जिम्मेदारी लेने कोई भी तैयार नहीं होता।
इस विषय में कुछ प्रबुद्ध महिलाओं के विचार प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. विभिन्न परिवेश से सम्बन्ध रखने वाले लोगों के विचार भी कुछ नया परिणाम ही सामने रखेंगे. --
डॉ. गायत्री सिंह - अर्मापुर डिग्री कॉलेज की प्राचार्य - विवाह संस्था अभी भारत में जीवित है लेकिन हाई प्रोफाइल सोसाइटी में जरूर बदलाव के साथ ववाह के प्रति आस्था भी कम हुई है।
वैदिक रीति से भावनात्मक लगांव ज्यादा रहता है, जब कि कोर्ट मैरिज से शुरुआत होकर वापस कोर्ट पर ही रिश्ता टूट भी जाता है। हर जगह ये बात लागू नहीं हो रही है।
अंतर्जातीय विवाह का स्थायित्व परिवेश और पारिवारिक स्थिति पर निर्भर करता है। अन्यथा यह ऑनर किलिंग में भी बदल जाता है।
लिव इन से सबसे अधिक नुक्सान महिलाओं का हो रहा है और संस्कृति में रची बसी परिवार संस्था को इससे खतरा उत्पन्न हो रहा है। जिम्मेदारियों से भागना और उन्मुक्त जीवन जीने की जो भावना नयी पीढ़ी में पनप रही है वह सबके लिए ही घातक और अनैतिक भी है।
विभा रानी - इंडियन आयल अधिकारी , मुंबई - विवाह से एक भावात्मक रिश्ता बनता है और उसमें स्थायित्व भी होता है।चाहे जिस तरह से करें मन में अगर भावात्मक लगाव है तो वह सफल है।
विवाह किसी भी पद्धति से हो। शादी भावनाओं से होती है। पद्धति उसे सम्पन्न करने का एक तरीका है। कहाँ तो लोग बिना विवाह के जीवन भर साथ रहते हैं और उनमें आपसी सामंजस्य रहता है। विवाह एक सामाजिक स्वीकृति है और वह जरूरी भी है।
कोई अंतर नही है, परिवार राजी तो किसी की कोई मजाल नहीं उंगली उठाने की। मेरी और मेरी बेटी की शादी अंतरजातीय और अंतर धार्मिक है। हम दोनों खुश हैं।
दो वयस्क अपना जीवन जैसा चाहें गुजारने के लिए आज़ाद हैं। ऐसे सवाल केवल विवाद पैदा करते हैं और हमारी मानसिक संकीर्णता को बताते हैं।
शारदा अग्रवाल - डीवी डिग्री कॉलेज , उरई -- हाँ विवाह संस्कार आज भी जीवित है और रहेगा क्योंकि हम आज भी विवाह से पूर्व कुंडली का मिलान करते हैं। सारे रीति रिवाज पूर्ण करते हैं क्योंकि इसके पीछे होने से दंपत्ति के भावी जीवन में सुख शांति की कामना होती है।
वैदिक रीति से विवाह होने पर एक मानसिक संतुष्टि मिलती है और सामाजिक स्वीकृति भी। परिवार को समाज की नैतिकता का सम्मान करने की शिक्षा भी मिलती है।
अंतर्जातीय विवाह से समाज में परम्पराओं का ह्रास हो रहा है क्योंकि दो अलग अलग जातियों में भेद होता है और इससे परिवार को एक दूसरे को स्वीकार करने में परेशानी तो होती ही है। सामान्य रूप से अंतर्जातीय विवाह कोई भी परिवार ख़ुशी ख़ुशी तो नहीं ही करता है।
लिव इन भारतीय संस्कृति के खिलाफ है बल्कि हमारे सदियों से चले आ रहे संस्कारों के खिलाफ साजिश है। कोई स्थयित्व नहीं है बल्कि एक स्वच्छंद जीवन को हवा देने वाला है।
संगीता गाँधी - साहित्यकार , नई दिल्ली -- विवाह पवित्र संस्कार है। जैसे जैसे पाश्चात्य प्रभाव बढ़ रहा है ये संस्था अपना महत्व खोने लगी है। आज का युवा इन सबसे पहले अपने कैरियर को देखता है और विवाह संस्था की उपेक्षा करने लगे हैं।
विवाह चाहे वैदिक रीति से हो या कोर्ट मैरिज दोनों ही विवाह के प्रकार है। भावात्मक बंधन मन की अवस्था है।स्थायित्व में रीति कोई मायने नहीं रखती है।
अंतर्जातीय और सजातीय विवाह में स्थायित्व पर असर तब आता है जब निर्णय बहुत जल्दबाजी में लिया गया हो। लेकिन अगर परिवार की सहमति है तो उनके स्थायित्व की संभावना होती है नहीं तो भावात्मक कमजोरी इसके टूटने की बात भी सामने ला रहा है ।
लिव इन परिवार और विवाह संस्था दोनों के लिए घातक है , विशेष रूप से स्त्रियों की स्थिति इसमें दयनीय हो जाती है , मतभेद होने पर पुरुष को परिवार स्वीकार कर लेता है लेकिन स्त्री को जल्दी स्वीकार करने की प्रवृत्ति अभी,भी समाज में नहीं है और इससे पैदा हुए बच्चे त्रसित होते हैं।
चित्रा देसाई - साहित्यकार एवं अभिवक्ता , मुंबई -- विवाह संस्था पर संकट बिलकुल नजर आ रहा है क्योंकि रिश्ते के बंधन में कोई बंधना ही नहीं चाहता है। सिर्फ मैं के लिए कुछ भी कर सकते हैं , कभी कभी तो अपनी रुचियों और शौक के लिए बच्चों को भी अनदेखा कर दिया जाता है।
वैदिक रीति से विवाह में और कोर्ट मैरिज में बहुत फर्क है। कोर्ट मैरिज में एक एंटीसेप्टिक माहौल नजर आता है , जहाँ कुछ भी ऐसा नहीं है कि रिश्तों को निभाने के पक्ष में मुझे ज्यादा फर्क नजर नहीं आता है क्योंकि एक समझदारी के बाद ही कोर्ट मैरिज करते हैं।
अंतर्जातीय विवाह आज के परिवेश में बढ़ रहे हैं और समाज द्वारा स्वीकार भी किये जा रहे हैं , उससे विवाह संस्था के स्थायित्व पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ रहा है क्योंकि अंतर्जातीय विवाह तभी होते हैं जब दो लोगों में अच्छा सामंजस्य होता है।
लिव इन का प्रभाव विवाह के साथ साथ परिवार संस्था पर भी पड़ रहा है। इसमें कोई कमिटमेंट , जिम्मेदारी या बंधन नहीं होता है और वे स्वतन्त्र होते हैं कभी भी साथ छोड़ देने के लिए। जब कि विवाह में एक सामाजिक और पारिवारिक दबाव रहता है
संध्या शर्मा : लेखिका , नागपुर --भारतीय संस्कृति के अनुसार विवाह कोई शारीरिक या सामाजिक अनुबंध मात्र नहीं है , यहाँ दाम्पत्य को एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना का रूप दिया गया है और इसी लिए कहा गया है - ' धन्यो गृहस्थाश्रमः ' . अनेक परिवर्तन के बाद भी विवाह हमारे समाज में हमेशा जीवित रहेगा।
यदि वर वधु के बीच आपसी सामंजस्य है तो विवाह चाहे वैदिक रीति से हो या फिर कोर्ट मैरिज भावात्मक बंधन में कोई अंतर उत्पन्न नहीं होता।
सजातीय विवाह को हम प्राथमिकता देते हैं , अंतर्जातीय विवाह होते ही तब हैं जब कि वर और वधु दोनों पहले से परिचित हों और आपसी सामंजस्य हो। ये अधिक सफल माने जा सकते हैं क्योंकि इनमें परिपक्वता के बाद निर्णय लेते हैं।
लिव इन सदियों से चली आ रही रखैल व्यवस्था का आधुनिक रूप है , जिसे बड़े ही आधुनिक रूप में युवाओं के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है। इससे परिवार नहीं बनता बच्चों के हो जाने पर उनकी जिम्मेदारी लेने कोई भी तैयार नहीं होता।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (03-02-2018) को "धरती का सिंगार" (चर्चा अंक-2868) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'