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मंगलवार, 18 अगस्त 2020

रास्ते खुद बनाने पड़ते हैं !

 #रास्ते_खुद_बनाने_पड़ते_हैं !


             सच  कहूँ अभी एक लेखिका बहन की आपबीती सुनी  तो अपनी यादें भी फुदकने लगी और मन आया कि जिंदगी वक्त नहीं देगी , चल छीन लेते है और आज तो लिखना ही है । नहीं तो सोचते सोचते महीनों गुजर जाते हैं और फिर दिमाग के एक कोने में बसे बसे अपना अस्तित्व भी खो देती है।          

        पैदा उरई जैसे कस्बे में हुई और अपने घर में तो सब शेर होते हैं । हमारा इण्टर कॉलेज और डिग्री कॉलेज ठीक घर के सामने था तो कदम उतने ही चले । तब लड़कियाँ अकेली कहीं नहीं जाती थीं , बाजार जाना है तो माँ के साथ या छोटी बहन के साथ । बाकी घर में पढ़ाई और लिखाई । स

यानी लड़कियों पर माँ बाप की  ही नजर नहीं रहती थी बल्कि पास पड़ोस वाले सब सजग रहते थे।    

         1980 कानपुर में शादी हुई और ससुराल रही कानपुर विश्वविद्यालय का परिसर। एक तो विश्वविद्यालय ही शहर से दूर जंगल में बसा था ।  कैम्पस से जीटी रोड तक पैदल आओ । वैसे इनके पास दोपहिया वाहन था। पर जब कदम बाहर निकलने को हुए तो हम सड़क पर खड़े थे क्योंकि इनका टूरिंग जॉब था तो हमारे किसी भी मौके पर ये बाहर ही होते । बी.एड. में एडमीशन हुआ , हमें तो कॉलेज मालूम नहीं था । प्रवेश प्रक्रिया तो बगैर गए पूरी हो गयी क्योंकि उसी वक्त मेरी बड़ी बेटी का जन्म हुआ था।  

             एक महीने के बाद ही जिस दिन से कक्षाएँ शुरू होनी थी , इनका टूर था।  अब नक्शा बनाकर दे गये GPS  कहेंगे 1981 का । विश्वविद्यालय गेट से टैम्पो ली तो नक्शे के अनुसार चुन्नीगंज उतरे और तीर के अनुसार बाईं ओर मुड़कर सीधे जाना , जब तक दायीं ओर डीडब्ल्यूटी कॉलेज न दिख जाय । चलते चलते थक गये तब कॉलेज मिला और फिर तो रोज का रुटीन हो गया लेकिन ज्यादा दिन नहीं चल सका क्योंकि बी.एड. तो हमको करना ही नहीं था , तभी तो शादी से पहले  उरई में मेरिट में नाम आने के बाद भी मैंने नहीं किया था। बेटी दो महीने की थी , जाना और आना पूरा दिन लग जाता । तय रहा कि वही पास में अस्थायी निवास खोजा जाय ताकि समय न लगे ।

          विक्टोरिया मिल के पास मिल मजदूरों के बीच एक कमरा बरामदा मिला , सासु माँ मेरे साथ चली और जेठ जी ससुर जी के पास विश्वविद्यालय निवास पर रहे । छोटी बच्ची को छोड़ कर जाना और कई बार क्लास में ही मेरा ब्लॉउज गीला होने लगता।  लंच टाइम में लम्बे लम्बे डग भर कर घर आती बेटी को फीड कराती और तुरंत वापस कॉलेज । लंबा रास्ता छोड़कर शॉर्टकट खोजा और घर जल्दी आ जाती।

        इसके बाद 1984 में हम इंदिरा नगर शिफ्ट हो गये और वह भी जीटी रोड से काफी दूर। कल्यानपुर तक पैदल आइये  फिर शहर की ओर टैम्पो मिलता था ।  फिर नौकरी मिली जुहारी देवी गर्ल्स डिग्री कॉलेज में । पहले दिन फिर पतिदेव की मीटिंग नक्शा थमा कर चले गये । उस तरफ कभी जाना भी नहीं हुआ था । चल दिये GPS के साथ पूछते पाछते पहुँच ही गये। तारीफ की बात ये थी कि  हाथ पकड़ कर चलने वाली उसी के सहारे कॉलेज भी पहुँच गयी और ज्वाइन कर लिया। कानपुर का एक कोना इंदिरानगर और दूसरा कोना जुहारी देवी कॉलेज था।

                  छः महीने बाद ही आईआईटी में नौकरी मिल गयी । वह काफी पास था और कल्याणपुर से सीधे गेट तक टैम्पो और फिर रिक्शा । तो जिंदगी में सारे रास्ते खुद ही खोजने पड़ते हैं , चाहे जितनी भीड़ हो। ी हुई

          मंजिलें तो सबको मिलती हैं , कभी हथेली पर रखी और कभी पीछा करते करते छाले पड़ जाते हैं । हौसले बुलंद हों तो  हार नहीं होती । 





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