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शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

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                                       ये बानगी है कुछ विज्ञापनों की -----रोज करीब करीब हर दैनिक अख़बार में निकला करते हैं. इनसे आने वाली बू सबको आती है और सब इस बात को समझते हैं. अख़बार वाले भी और असामाजिक गतिविधियों में लिप्त लोगों को सही दिशा देने वाली संस्थाएं भी लेकिन क्या कभी इस ओर किसी ने प्रयास किया कि  इनकी छानबीन की जाय ? लेकिन आख़िर की क्यों जाय? 
              अभी कानपुर में एक सेक्स रैकेट पकड़ा गया बहुत सारी धर पकड़ हुई , शहर से बाहर की लड़कियों को बुलाया जाता था और जब पकड़ गयीं तो उनके पास कोई उत्तर नहीं है कि वे कैसे और क्यों यहाँ आयीं थीं और अब इसके बाद उनका क्या इरादा है? इन सबके पीछे काम करने वाली महिला आज भी पकड़ से बाहर है. लोकतंत्र में ये नितांत निजी मामला है कि हम कब और किसके साथ कैसे समय बिताएं लेकिन इस समाज में रहने के लिए भी कुछ मर्यादाएं हैं जिन्हें हर सामाजिक प्राणी से पालन करने की अपेक्षा रखी जाती है. परिवार संस्था पहले भी थी और आज भी है, बस उसके नियम और कायदे कुछ उदार हो गए हैं. पहले बेटे और बहू परिवार के साथ ही रहते थे और वहीं पर कोई नौकरी कर लेते थे. उस समय मिल जाती थीं. घर और परिवार की मर्यादा का पालन होता रहता था. मुझे अपना बचपन और जीवन का प्रारंभिक काल याद है. घर से बाहर जाने पर अकेले नहीं जा सकते  थे कोई साथ होना चाहिए. स्कूल भी अकेले नहीं बल्कि साथ पढ़ने वाली कई लड़कियाँ इकट्ठी हो कर जाती थीं. भले ही स्कूल घर से २० कदम की दूरी पर था. समय के साथ ये सब बदला और बदलते बदलते यहाँ तक पहुँच गया कि लड़कियाँ और लड़के दोस्ती के नाम पर जिस्म फरोशी का धंधा चलने लगा है. जिसमें यहाँ से लड़कियों को लेकर विदेशों में तक पहुँचाने वाले रैकेट मौजूद हैं. कहीं कभी कोई वारदात सामने आ गयी तो हंगामा मच जाता है लेकिन खुले आम आने वाले इन विज्ञापनों को क्या कोई नहीं पढ़ पाता है ? 
                 सिर्फ ये ही क्यों? मसाज सेंटर के नाम पर निकलने वाले विज्ञापनों में भी आप इस तरह के कामों की महक पा सकते हैं. हमारी सरकार या फिर पुलिस  किस इन्तजार में रहती है कि ऐसे लोगों पर छापे मारने के लिए कोई बड़ी वारदात जब तक न हो जाए तब तक उनकी नींद खुलती ही नहीं है. इन विज्ञापनों में फ़ोन नो. ईमेल एड्रेस सभी कुछ होता है. इसके लिए कोई आपरेशन क्यों नहीं चलाया जाता है? समाज में सेक्स के भूखे भेडिये बेलगाम घूम रहे हैं जिनसे बच्चियों से लेकर युवतियां ही नहीं बल्कि उम्र दराज महिलायें भी सुरक्षित नहीं है. जिसमें ऊँची पहुँच वाले लोगों को तो अब संयम जैसे गुण से कोई वास्ता ही नहीं रह गया है या फिर इनके साए तले पलने वाले लोग भूखे भेडिये बन कर घूम रहे हैं. 
                मीडिया वाले नए नए मामलों को लेकर टी वी पर रोज पेश करते रहते हैं लेकिन उनकी नजर इन पर क्यों नहीं पड़ती है कि वे ऐसे लोगों तक पहुँचने के लिए अपने जाल बिछा कर इनका खुलासा करें. जो खुल गया उसको पेश करके कौन सा कद्दू में तीर मार रहे हैं. अभी हम आदिम युग की ओर फिर प्रस्थान करने लगे हैं तो फिर अपने प्रगति के दावों को बखानना बंद करें नहीं तो अंकुश लगायें इस तरह की संस्थाओं और विज्ञापनों पर जिनसे समाज का भला नैन होता है. इस दलदल में फंसाने के बाद अगर कोई बाहर निकलना भी चाहे तो नहीं निकाल सकता है. अपना भंडा फूटने के डर से इनसे जुड़े लोगों को इस तरह से अनुबंधित कर लिया जाता है या फिर उनको ऐसे प्रमाणों के साथ बाँध दिया जाता है कि वे उससे निकलने का साहस नहीं कर पाते हैं. इससे समाज सिर्फ और सिर्फ पतन कि ओर जा रहा है. इस पर अंकुश लगाना चाहिए चाहे जिस किसी भी प्रयास से लगे.

13 टिप्‍पणियां:

  1. बात तो आप सही कह रही हैं…………विचारणीय आलेख सोचने को विवश करता है…………सम्मिलित प्रयास से ही कुछ संभव हो पायेगा।

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  2. ek sachchai byan karta hua aalekh...sach me didi....samaj me aisee bahut si gandagi hai jisko nikal fenkne ki jarurat hai...

    basharte media kabhi sarthak soche......!

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  3. रेखा जी इस तरह के विज्ञापन पश्चिमी देशों में आम बात हैं परन्तु इस बार अपने भारत प्रवास के दौरान वहां के समाचार पत्र में भी यही सब देख कर बहुत हैरानी हुई थी मुझे.पता नहीं क्यों ? हम पश्चिमी देशो से कुछ अच्छा नहीं सीख सकते ?मसलन अपना काम इमानदारी से करने की आदत...या फिर थोडा सा अनुशासन.

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  4. हाँ शिखा हम पश्चिम कि तरह से प्रगति कर रहे हैं न, बस इसी बात में कुछ अच्छी बातें उनमें भी हैं वह नहीं सीख पा रहे हैं. हम इस विषय में खुद बहुत ही आधुनिक समझाने लगे हैं. यही सब हो रहा है, पिछले दिनों एक ऐसा आलेख पढ़ा था कि झकझोर गया. उस विषय को उठना है और फिर सोचना है कि क्या हम ऐसे ही चलते रहेंगे. अपने विवेक और बुद्धि का प्रयोग कब करेंगे? जहाँ देखो वहीं पर अराजकता फैली हुई है और हम विस्फारित नेत्रों से सब कुछ देख रहे हैं. इतना साहस भी नहीं जुटा पा रहे हैं कि इसका विरोध करके जन मानस को इस ओर सोचने पर मजबूर करें. ऐसे ही विषयों पर कलम चलनी है शायद कुछ कर paaun?

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  5. विचारणीय समस्या पर तीक चलें, कद्दू पर नहीं।

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  6. सिर्फ अखबार ही नहीं , मोबाइल पर भी ऐसे सन्देश आम है ...हालत यही है की हम विदेशियों का कूड़ा करकट अपना रहे हैं और वे हमारी अच्छी बातों या संस्कारों का अनुकरण कर रहे हैं !

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  7. मीडिया और सरकार सभी शामिल हैं इस खेल में ... आधुनिकता और प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर होने वाला ये खेल रुक पायगा ... इस बात में संदेह है ...

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  8. रुक पायेगा या नहीं ये तो नहीं जानती लेकिन इसके लिए आवाज तो उठाई ही जा सकती है.

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  9. विचारणीय पोस्ट. ऐसे विज्ञापन आम हो गये हैं, और सही है, अब मोबाइल पर भी दोस्ती करने के विज्ञापन आते हैं. ये कैसी दोस्ती की तरफ़ इन्गित करते है, हम सब जानते हैं. अखबारों पर यदि रोक लगा भी दी जाये तो मोबाइल कम्पनियां?

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  10. सामाजिक संस्‍थाओं, एनजीओज की भूमिका प्रभावी हो सकती है, कुछ ऐसी सक्रिय संस्‍थाओं की खबर भी कभी-कभार देखने में आती है.

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  11. सही मुद्दा उठाया है ...आज कल इन विज्ञापनों की बहुतायत पाई जाती है ...इस पर सामजिक संस्थाएं ही कुछ कर पाएंगी ..आम आदमी तो अपने ही पचडों में पड़ा रहता है ...

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  12. रेखा जी इस तरह के विज्ञापन पश्चिमी देशों में आम बात हैं परन्तु इस बार अपने भारत प्रवास के दौरान वहां के समाचार पत्र में भी यही सब देख कर बहुत हैरानी हुई थी मुझे.पता नहीं क्यों ? हम पश्चिमी देशो से कुछ अच्छा नहीं सीख सकते ?मसलन अपना काम इमानदारी से करने की आदत...या फिर थोडा सा अनुशासन.

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