ब्लॉगिंग : कल , आज और कल !
जैसे किसी चीज का आरम्भ मंदिम गति से होता है और फिर वह एक चरम पर पहुँच जाता है और फिर अवसान, लेकिन ये ब्लॉगिंग कोई ऐसी कला नहीं है कि जिसको बिना किसी के चाहे अवसान हो जाये। जब नया नया कंप्यूटर के साथ अंतरजाल शुरू हुआ तो ब्लॉगिंग भी अपने अस्तित्व में आयी। सबसे पहले ब्लॉग का श्रेय आलोक कुमार जी को जाता है। 2003 में "नौ दो ग्यारह " नाम से ब्लॉग बनाया था लेकिन यूआरएल की समस्या के चलते उन्होंने अंकों( 9211 में) अपना ब्लॉग को पता दिया था। धीरे धीरे लोगों ने खोज की और ब्लॉगर के संख्या में वृद्धि होने लगी। प्रारंभिक दिनों में ये कुछ धीमी ही रही लेकिन 2007 - 2008 तक ब्लॉगर की संख्या हजारों में पहुँच चुकी थी।
हम उसे ब्लॉगिंग का स्वर्णिम काल भी कह सकते हैं। सारा सारा दिन ब्लॉग ही लिखे और पढ़े जाते थे। पढ़ने की सूचना उसे समय ऑरकुट पर मिला करती थी। साथी मित्र सूचना देते थे कि ये लिखा है जरा पढ़ो और राय दें। ये मैं महिलाओं की बात कर रही हूँ क्योंकि तब एग्रीग्रेटर के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। एक एक पोस्ट पर बहस का जो माहौल बनता था तो लगता था कि युद्ध हो जाएगा। हम उस बहसबाजी में कम ही पड़ते थे, लेकिन पढ़ सब को लेते थे क्योंकि हम पूरे समय बारे ब्लॉगर नहीं थे। सिर्फ ऑफिस में ही वह भी खाली वक्त में होता था। अपना डेस्कटॉप था तो कोई समस्या नहीं थी। घर में न लैपटॉप था और न तब स्मार्ट फ़ोन का जमाना था यानि कि इतने सामान्य लोगों के पास मोबाइल होते भी थे तो वही छोटे वाले। सो घर पर देखने या देख पाने की कोई गुंजाईश भी नहीं रह जाती थी। वापस दूसरे दिन जाकर ऑफिस में जाकर ही होता था दर्शन। फिर भी बहुत लिखा जाता था सब लिखते थे और हम भी लिखते जरूर थे। मैंने वर्ष 2008 में ब्लॉग बनाया था और उसको भी हमारी सखियों ने एक एक चरण पर काम करना सिखाया था। ढेर सारे ब्लॉग खुद बना डाले थे। हर काम के लिए अलग अलग ब्लॉग। कविता , कहानियों , सामाजिक सरोकार , निजी राय और जीवन के कटु यथार्थ को बयान करने वाली घटनाओं के लिए। बाद में सभी को चलाती रही और अभी भी सब जीवित हैं और उन पर लेख जाते रहे। 2009 -2012 तक खूब जम कर लिखा। 2010 में लैपटॉप लिया क्योंकि अगस्त के महीने में मेरा एक्सीडेंट हुआ हाथ और पेर दोनों ही दुर्घटनाग्रस्त हुए। न चलना संभव था और न हाथ से टाइप करना। एक टाइपिस्ट को दो घंटे के लिए बुला लेती और मैं बोलती जाती और वह टाइप करती जाती। वह वर्ष था जब कि मैं बिस्तर पर थी और ब्लॉग में सबसे ज्यादा रचनाएँ प्रकाशित हुई थी।
वह सभी के लिए सक्रियता वाला वर्ष था। करीब करीब तीन हजार ब्लॉगर उस समय सक्रिय थे। ब्लॉगिंग का स्वर्णकाल था। इसके साथ ही फेसबुक अस्तित्व में आई और फिर उस पर धड़ाधड़ अकाउंट बनाने शुरू हो गए और लोगों ने उस पर भी अपने विचारों लोगों को संक्षिप्त रूप में डालना ज्यादा सुविधाजनक लगा और ब्लॉग पर लिखने के स्थान पर लोगों ने फेसबुक को अच्छा मंच समझा और यहाँ शिफ्ट हो गए। ऐसा नहीं कि ब्लॉगिंग बिलकुल ख़त्म हो गयी लिखने वाले ईमानदार ब्लॉगर उसपर लिखते रहे और फेसबुक पर भी डालते रहे। मैं खुद अपनी कहूँ कि इस बीच एक पत्र से जुड़कर आलेख, कहानी और कवितायेँ वहां भेजनी शुरू कर दी और गलती ये की कि उनको ब्लॉग पर नहीं डाला।
इस बीच एक काम और होने लगा कुछ महत्वकांक्षी ब्लॉगर साथियों ने अपने मित्रों से लेकर साझा कविता संग्रह , कहानी संग्रह , लघुकथा संग्रह का संपादन करना शुरू कर दिया। ये काम भी अच्छा लगा क्योंकि ब्लॉग की दुनिया ब्लॉगर तक ही सीमित होती थी। उससे इतर लोग उसमें काम ही पढ़ने आते थे लेकिन किताब के प्रकाशन में उसके अतिरिक्त भी लोगों को पढ़ने और लिखने का मौका मिलने लगा और फिर होड़ लग गयी। साल में कई कई संग्रह आने लगे। जिसने रचनाएँ माँगी दे दीं और जितने पैसे माँगे दे दिए। किताब छप गई और मिल गयी। इसी बीच मुलाकात हुई वरिष्ठ ब्लॉगर से उनको मैंने एक साझा संग्रह दिया तो उन्होंने ज्ञान दिया कि अपनी रचनाएं भी देती हैं , पैसे भी देती हैं और फिर मुफ़्त में किताब बाँटी भी। क्या मिला ? इस काम को बंद कर दीजिये। कुछ अक्ल आ गयी लेकिन फिर बहुत आत्मीय और करीबी लोगों ने अगर रचनाएँ मांगी तो दीं और पैसे भी। किताब भी आयीं लेकिन वो संतुष्टि नहीं मिली।
फिर से ब्लॉगिंग शुरू करने का विचार ठांठे मारने लगा। ब्लॉगर साथियों से मित्रता तो आजीवन की हो चुकी थी। वे फेसबुक पर भी मिले तो आभासी मित्र से न लगे और उन्हीं ने राय दी कि कितनी सारी परिचर्चाएं आयोजित की थीं उनको संग्रह के रूप में छपवा डालो और वैसा ही किया। हाँ सहयोग राशि जो कटु अनुभव था सो मैंने वह काम नहीं किया। संस्मरण सब से लिए। कुछ और नए लोगों को भी शामिल कर लिया। जब पुस्तक छप कर आ गयी तो फिर तय किया कि गृह नगर के स्थान पर दिल्ली में ब्लॉगर साथी ज्यादा हैं तो उनकी किताब उन सबके बीच ही विमोचन रखा जाय और सिर्फ विमोचन ही नहीं बल्कि "ब्लॉगिंग : कल , आज और कल" पर परिचर्चा भी रखी गयी सभी वरिष्ठ ब्लॉगर साथियों ने भरपूर सहयोग दिया और जो विचारों का आदान प्रदान हुआ उससे ब्लॉगिंग के लिए एक नयी आशा का संचार हुआ और वहां पर सब ने फिर से ब्लॉगिंग के लिए समर्पित प्रयास करने का वचन दिया और उसको पूरा करने के लिए जुट गए। अब हम आज गंभीर होकर कल को संवारेंगे। अभी हमें आने वाली पीढ़ी को भी इस ब्लॉगिंग से जोड़ना है और हर लिखने वाला जो मेरे संपर्क में है अभी तक ब्लॉगर तो नहीं है लेकिन प्रतिबद्ध है। कल जरूर सुनहरा होगा ऐसी आशा करती हूँ।
आने वाला कल तभी सफल होगा जब हम लिखने के साथ साथ पढ़ेंगे भी। ब्लॉग सिर्फ लिखने के लिए नहीं होता है बल्कि पढ़ने के लिए भी होता है। हर लेख , कहानी , कविता कुछ कहती है और हमें ज्ञान के रूप में हमारे संवेदनशील मन को कुछ दे जाती है। कल को सवाँरने में कल और आज के साथी आने वाले कल की भूमिका बनाएंगे और नयी पौध को तैयार करेंगे तभी इस को हम अमर कर सकेंगे.
फिर लगा कि फेसबुक , पेपर या कहीं और लिख कर हम डाल तो सकते हैं , प्रकाशन और पैसे भी मिलते हैं लेकिन ब्लॉगिंग अपनी एक निजी संपत्ति है, जिसको जब चाहे तब आप देख और पढ़ सकते हैं। कोई खोज नहीं और कोई संकोच नहीं। फिर वापस ब्लॉगिंग को जारी रखने के बारे में विचार आया तो जुट गये और नए नए विषयों पर लिखने की सोची है। आगे हरि इच्छा।
जैसे किसी चीज का आरम्भ मंदिम गति से होता है और फिर वह एक चरम पर पहुँच जाता है और फिर अवसान, लेकिन ये ब्लॉगिंग कोई ऐसी कला नहीं है कि जिसको बिना किसी के चाहे अवसान हो जाये। जब नया नया कंप्यूटर के साथ अंतरजाल शुरू हुआ तो ब्लॉगिंग भी अपने अस्तित्व में आयी। सबसे पहले ब्लॉग का श्रेय आलोक कुमार जी को जाता है। 2003 में "नौ दो ग्यारह " नाम से ब्लॉग बनाया था लेकिन यूआरएल की समस्या के चलते उन्होंने अंकों( 9211 में) अपना ब्लॉग को पता दिया था। धीरे धीरे लोगों ने खोज की और ब्लॉगर के संख्या में वृद्धि होने लगी। प्रारंभिक दिनों में ये कुछ धीमी ही रही लेकिन 2007 - 2008 तक ब्लॉगर की संख्या हजारों में पहुँच चुकी थी।
हम उसे ब्लॉगिंग का स्वर्णिम काल भी कह सकते हैं। सारा सारा दिन ब्लॉग ही लिखे और पढ़े जाते थे। पढ़ने की सूचना उसे समय ऑरकुट पर मिला करती थी। साथी मित्र सूचना देते थे कि ये लिखा है जरा पढ़ो और राय दें। ये मैं महिलाओं की बात कर रही हूँ क्योंकि तब एग्रीग्रेटर के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। एक एक पोस्ट पर बहस का जो माहौल बनता था तो लगता था कि युद्ध हो जाएगा। हम उस बहसबाजी में कम ही पड़ते थे, लेकिन पढ़ सब को लेते थे क्योंकि हम पूरे समय बारे ब्लॉगर नहीं थे। सिर्फ ऑफिस में ही वह भी खाली वक्त में होता था। अपना डेस्कटॉप था तो कोई समस्या नहीं थी। घर में न लैपटॉप था और न तब स्मार्ट फ़ोन का जमाना था यानि कि इतने सामान्य लोगों के पास मोबाइल होते भी थे तो वही छोटे वाले। सो घर पर देखने या देख पाने की कोई गुंजाईश भी नहीं रह जाती थी। वापस दूसरे दिन जाकर ऑफिस में जाकर ही होता था दर्शन। फिर भी बहुत लिखा जाता था सब लिखते थे और हम भी लिखते जरूर थे। मैंने वर्ष 2008 में ब्लॉग बनाया था और उसको भी हमारी सखियों ने एक एक चरण पर काम करना सिखाया था। ढेर सारे ब्लॉग खुद बना डाले थे। हर काम के लिए अलग अलग ब्लॉग। कविता , कहानियों , सामाजिक सरोकार , निजी राय और जीवन के कटु यथार्थ को बयान करने वाली घटनाओं के लिए। बाद में सभी को चलाती रही और अभी भी सब जीवित हैं और उन पर लेख जाते रहे। 2009 -2012 तक खूब जम कर लिखा। 2010 में लैपटॉप लिया क्योंकि अगस्त के महीने में मेरा एक्सीडेंट हुआ हाथ और पेर दोनों ही दुर्घटनाग्रस्त हुए। न चलना संभव था और न हाथ से टाइप करना। एक टाइपिस्ट को दो घंटे के लिए बुला लेती और मैं बोलती जाती और वह टाइप करती जाती। वह वर्ष था जब कि मैं बिस्तर पर थी और ब्लॉग में सबसे ज्यादा रचनाएँ प्रकाशित हुई थी।
वह सभी के लिए सक्रियता वाला वर्ष था। करीब करीब तीन हजार ब्लॉगर उस समय सक्रिय थे। ब्लॉगिंग का स्वर्णकाल था। इसके साथ ही फेसबुक अस्तित्व में आई और फिर उस पर धड़ाधड़ अकाउंट बनाने शुरू हो गए और लोगों ने उस पर भी अपने विचारों लोगों को संक्षिप्त रूप में डालना ज्यादा सुविधाजनक लगा और ब्लॉग पर लिखने के स्थान पर लोगों ने फेसबुक को अच्छा मंच समझा और यहाँ शिफ्ट हो गए। ऐसा नहीं कि ब्लॉगिंग बिलकुल ख़त्म हो गयी लिखने वाले ईमानदार ब्लॉगर उसपर लिखते रहे और फेसबुक पर भी डालते रहे। मैं खुद अपनी कहूँ कि इस बीच एक पत्र से जुड़कर आलेख, कहानी और कवितायेँ वहां भेजनी शुरू कर दी और गलती ये की कि उनको ब्लॉग पर नहीं डाला।
इस बीच एक काम और होने लगा कुछ महत्वकांक्षी ब्लॉगर साथियों ने अपने मित्रों से लेकर साझा कविता संग्रह , कहानी संग्रह , लघुकथा संग्रह का संपादन करना शुरू कर दिया। ये काम भी अच्छा लगा क्योंकि ब्लॉग की दुनिया ब्लॉगर तक ही सीमित होती थी। उससे इतर लोग उसमें काम ही पढ़ने आते थे लेकिन किताब के प्रकाशन में उसके अतिरिक्त भी लोगों को पढ़ने और लिखने का मौका मिलने लगा और फिर होड़ लग गयी। साल में कई कई संग्रह आने लगे। जिसने रचनाएँ माँगी दे दीं और जितने पैसे माँगे दे दिए। किताब छप गई और मिल गयी। इसी बीच मुलाकात हुई वरिष्ठ ब्लॉगर से उनको मैंने एक साझा संग्रह दिया तो उन्होंने ज्ञान दिया कि अपनी रचनाएं भी देती हैं , पैसे भी देती हैं और फिर मुफ़्त में किताब बाँटी भी। क्या मिला ? इस काम को बंद कर दीजिये। कुछ अक्ल आ गयी लेकिन फिर बहुत आत्मीय और करीबी लोगों ने अगर रचनाएँ मांगी तो दीं और पैसे भी। किताब भी आयीं लेकिन वो संतुष्टि नहीं मिली।
फिर से ब्लॉगिंग शुरू करने का विचार ठांठे मारने लगा। ब्लॉगर साथियों से मित्रता तो आजीवन की हो चुकी थी। वे फेसबुक पर भी मिले तो आभासी मित्र से न लगे और उन्हीं ने राय दी कि कितनी सारी परिचर्चाएं आयोजित की थीं उनको संग्रह के रूप में छपवा डालो और वैसा ही किया। हाँ सहयोग राशि जो कटु अनुभव था सो मैंने वह काम नहीं किया। संस्मरण सब से लिए। कुछ और नए लोगों को भी शामिल कर लिया। जब पुस्तक छप कर आ गयी तो फिर तय किया कि गृह नगर के स्थान पर दिल्ली में ब्लॉगर साथी ज्यादा हैं तो उनकी किताब उन सबके बीच ही विमोचन रखा जाय और सिर्फ विमोचन ही नहीं बल्कि "ब्लॉगिंग : कल , आज और कल" पर परिचर्चा भी रखी गयी सभी वरिष्ठ ब्लॉगर साथियों ने भरपूर सहयोग दिया और जो विचारों का आदान प्रदान हुआ उससे ब्लॉगिंग के लिए एक नयी आशा का संचार हुआ और वहां पर सब ने फिर से ब्लॉगिंग के लिए समर्पित प्रयास करने का वचन दिया और उसको पूरा करने के लिए जुट गए। अब हम आज गंभीर होकर कल को संवारेंगे। अभी हमें आने वाली पीढ़ी को भी इस ब्लॉगिंग से जोड़ना है और हर लिखने वाला जो मेरे संपर्क में है अभी तक ब्लॉगर तो नहीं है लेकिन प्रतिबद्ध है। कल जरूर सुनहरा होगा ऐसी आशा करती हूँ।
आने वाला कल तभी सफल होगा जब हम लिखने के साथ साथ पढ़ेंगे भी। ब्लॉग सिर्फ लिखने के लिए नहीं होता है बल्कि पढ़ने के लिए भी होता है। हर लेख , कहानी , कविता कुछ कहती है और हमें ज्ञान के रूप में हमारे संवेदनशील मन को कुछ दे जाती है। कल को सवाँरने में कल और आज के साथी आने वाले कल की भूमिका बनाएंगे और नयी पौध को तैयार करेंगे तभी इस को हम अमर कर सकेंगे.
फिर लगा कि फेसबुक , पेपर या कहीं और लिख कर हम डाल तो सकते हैं , प्रकाशन और पैसे भी मिलते हैं लेकिन ब्लॉगिंग अपनी एक निजी संपत्ति है, जिसको जब चाहे तब आप देख और पढ़ सकते हैं। कोई खोज नहीं और कोई संकोच नहीं। फिर वापस ब्लॉगिंग को जारी रखने के बारे में विचार आया तो जुट गये और नए नए विषयों पर लिखने की सोची है। आगे हरि इच्छा।
आभार शास्त्री जी ।
जवाब देंहटाएंदीदी , ये लिख कर चल देने की बीमारी बहुत पुरानी है । आपने विस्तार से सब कुछ लिख दिया । हम बार बार लिखेंगे , पढ़ेंगे भी । चाहे कोई कुछ करे कोई कुछ लिखे या न लिखे करे । मैं हमेशा साथ हूँ ।
जवाब देंहटाएंमुझे अपने संकल्प के लिए तुम्हारा , कुमार का साथ चाहिए ।
जवाब देंहटाएंहम पंछी एक डाल के, संग संग उड़ेंगे, दाना चुगेंगे
जवाब देंहटाएंब्लॉगिंग के दौर में हम आज भी फँसे हुए हैं हाँ, अब आदत सुधारने में लगे हैं, पढ़ने के बाद टिप्पणी देने की. किसी समय में यह बहुत बुरी आदत थी. सभी पुराने, वरिष्ठ ब्लॉगर जुट गए तो माहौल फिर बन जायेगा, पुराना.
जवाब देंहटाएंआपके प्रयासों को नमन.
सही है जुटे रहेंगे यह हमारा निजी अखबार है जहां के लेखक पत्रकार और संपादक हम ही हैं।
जवाब देंहटाएंसार्थक चिंतन रेखा जी ! बहुत अच्छी पहल है ! मैंने कभी भी ब्लॉग पर लिखना बंद नहीं किया ! पाठकों की संख्या अवश्य घटी लेकिन ब्लॉग मेरी निजी डायरी की तरह रहा ! बीच में तो कमेंट्स गूगल के द्वारा ही आते थे ! गूगल ने जिस समय खुद को समेटा उन दिनों की पोस्ट्स पर से सभी कमेंट्स गायब हो गए लेकिन मेरा ब्लॉग पर लिखना जारी रहा ! ब्लॉग के सुनहरे दिन फिर से लौटें यही कामना है !
जवाब देंहटाएंब्लॉगिंग अपनी एक निजी संपत्ति है, जिसको जब चाहे तब आप देख और पढ़ सकते हैं। कोई खोज नहीं और कोई संकोच नहीं। बेहद सशक्त और सटीक कही आपने ...
जवाब देंहटाएंसच मैं तो ब्लॉग को 'घर से बाहर एक घर' मानती हूँ और मेरी भी कोशिश रहती है कि कुछ न कुछ लिखती रही और अधिक से अधिक ब्लॉग पढ़ती रहूं
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रेरक यादें
बेहतरीन संस्मरण, अपनी भी ब्लॉग।की शुरुआत 2007 और ऑरकुट से हुई थी, तब इंग्लिश भवन दिल्ली के बारे में तब के अपने ब्लॉग और आज के पोर्टल alldelhi.com पर लिखता था, फिर हिंदी ब्लॉगिंग का पता चला। मैंने तो अपने करियर की शुरुआत ही पत्रकारिता से की थी, हालांकि बाद में डिज़ाइनिंग और एडवेटाइज़िंग के क्षेत्र में चला गया तो लेखन कुछ छूट गया। हिंदी ब्लॉगिंग ने फिर से उसे जीवित कर दिया। इस नए दौर मे मैं सबसे ज़्यादा शुक्रगुज़ार ब्लॉग एग्रीगेट ब्लॉगवाणी और चिट्ठा जगत का रहता हूँ और इनके बंद होने के बाद हर संभव प्रयास करता हूँ कि हमारीवाणी के माध्यम से ब्लॉग जगत को एक प्लेटफॉर्म दे पाऊं। हालांकि पिछले 10 वर्षों में इसमें बहुत ज़्यादा आर्थिक खर्च भी हुआ। पर धुन आज भी सर पर सवार है 😊
जवाब देंहटाएंब्लॉग परिचर्चा में सम्मिलित होना बहुत ही बेहतरीन अनुभव रहा, जिसपर आपका आभार व्यक्त करता हूँ। हालांकि उस समय चल रहे दिल्ली दंगो के बाद पीड़ित लोगों तक मदद पहुचाने के काम और उसके बाद कोरोना महामारी में मदद के चलते उसपर लिखने का समय नहीं निकाल पाया। इन दिनों हमारीवाणी में आई टेक्निकल प्रोबलम के चलते भी समय का अभाव रहा।
पर इन दिनों यह अच्छी बात रही कि अनुभव के आधार पर कम शब्दों में ही सही, पर अपने ब्लॉग पर कुछ पोस्ट लिख डाली 😊
🙏 पुनः मुझे ब्लॉग पर गतिशील करने के लिए आदरणीय रेखा दीदी को 🙏 कभी निजी डायरी पर लिखना छूट सा गया था , पर अब निरन्तरता बनी रहेगी ।
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