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गुरुवार, 23 जून 2011

गर्मियों की छुट्टियाँ और अपना बचपन (१६)



आखिर कब तक मैं अपने को रोकती,इस लिए खुद को ही पेश कर दिया.



इस
बार मैं ही खड़ी हूँ।


सबके बचपन की यादें संजोते संजोते अब अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रहा उन सबके बचपन से थोड़ा थोड़ा सा मेरा बचपन भी जुड़ा है और कितना अच्छा लगता है फिर कुछ पलों के लिए उनमें डूब जाना
उस समय २० मई को रिजल्ट मिलता था और २१ मई को हम मामा के घर के लिए रवाना मेरे मामा में दो के बच्चे थे इसलिए उन्हें हम लोगों का इन्तजार रहता था बाकी जितने भी चचरे मामा थे उनमें सबके बेटियाँ थीं किस के किसी के और किसी के बस यही आकर्षण रहता था वैसे भी पहले चचेरे और सगे की कोई परिभाषा मेरी समझ नहीं आती थी क्योंकि मेरी माँ से दो तीन मामा ही बड़े थे बाकी सब छोटे थे मेरी ननिहाल मध्य प्रदेश के भिंड जिले के अचलपुरा नामक गाँव में है तब उरई से गिनी घुनी बसें भिंड के लिए जाती थीं और जो जाती वे भी भूसे की तरह से भरी हुई
हम रात में बहुत सतर्क होकर सोते की कहीं देर हो जाये जल्दी से तैयार हुए और मामा के साथ निकल लेते रास्ते भर इस कल्पना में की कौन कौन मिलेगा? इस समय क्योंकि कुछ मामियां भी अपने मायके चली जाती थी भिंड से पहले हम मिहोना में बस से उतर जाते और वहाँ पर बैलगाड़ी हमारे लिए तैयार होकर आती थी उसमें ऊपर से छाया, नीचे गद्दे बिछे रहते थे और तकिया भी रखा होता जैसे कोई नवाब रहा हो, वैसे हम नवाब से कम नहीं माने जाते थे मैं और मेरे भाई साहब दो लोग ही जाते आराम से बैठ कर सफर शुरू होता बैलगाड़ी से सब समझ जाते की मेहमान आये हैं वहाँ एक नहीं कई गाँवों में सब मामाजी को जानते थे गाड़ीवान से पूछते - 'भैया किनके मेहमान है?'
'
लम्बरदार के भानेज हैं' गाड़ीवान परिचय कराता चलता और कहीं कहीं कुँए पर रुक कर ठंडा पानी पिलाता जाता और पानी खाली नहीं जिसके दरवाजे पर गाड़ी रुक जाती पानी के लिए अन्दर से गुड जाता
अचलपुरा में सबको इन्तजार रहता कि कब आयें बखरी के बाहर सारी बहने खड़ी मिलती और कभी कभी तो हम घर बाद में पहुँचते वही खेलने लगते बखरी इसलिए लिखा क्योंकि एक बड़ा सा आँगन जिसमें सभी लोगों के घरों के मूक मुख्य द्वार खुलते थे और दरवाजे के दोनों ओर बड़े बड़े चबूतरे थे उस बखरी में बहुत बड़ा सा दरवाजा था जिससे बाहर से सुरक्षा होती
उस समय वहाँ सिर्फ चना और बाजरा ही पैदा हुआ करता था और मैं बाजरा की रोटी को मिट्टी की रोटी कहती थी और खाने का तो सवाल ही नहीं उठता था इसलिए मामा हम लोगों के आने के पहले बाहर से गेंहूँ मंगवा कर रखते थे अब उस बाजरा के लिए तरस जाते हैं हमारे लिए पहले से ही दरजी के यहाँ से गुड़ियाँ बनवा कर मंगवा ली जाती थी खूब बड़ी बड़ी से गुड़ियाँ होती लड़कियों की भरमार थी सो सारे दिन गुड़ियाँ खेली जाती
कभी छोटू मामा के नेतृत्व में आम के बाग़ में चले जाते, कच्चे आम ले आते और उन्हें अनाज के कुठले में दबा देते बस दो दिन में पक कर तैयार हो जाते और हम जी भर कर खाते. कभी कभी तो सारी दोपहर जब घूम कर लौटते तो मामी से धमकी मिलती आने दो मामा को शिकायत करेंगे मामा कानूनगो थे सो अपने हैड क्वार्टर पर रहते थे सिर्फ छुट्टी में आते
तब पैसे अधिक नहीं होते थे अगर कोई सब्जी वाला या फिर फल वाला आता तो अनाज देकर खरीदारी होती थी बनिया के यहाँ भी एक झोले में अनाज लेकर जाते और जो लाना होता ले आते वैसे मुझे ये कभी समझ नहीं आया की उसकी कीमत कैसे लगाते थे? दोपहर में ताश जरूर खेले जाते थे इसके अलावा वहाँ लूडो या कैरम जैसे खेल होते थे हम घर की अटरिया में छुपा छुपी का खेल भी खूब खेले. नीचे की मंजिल के ऊपर जो कमरे होते थे उन्हें ही अटरिया कहा जाता था ये भी मिट्टी की दीवारों वाली होती और वहाँ पर पक्के फर्श नहीं होते थे. घर के फर्श गोबर से लीपे जाते थे. पता नहीं कैसे छत पक्की होती थी? वहाँ पर खूब ठंडी ठंडी हवा आती और खिड़की से चारों तरफ का नजारा भी दिखाई देता जहाँ निकल जाते अलग नजर आते थे क्योंकि हम तो शहर से गए होते थे फिर भी गाँव के हर ठिकाने पर घूम आते हमें अपनी ननिहाल इतनी पसंद थी की वहाँ से आने का मन नहीं करता और जब चलते तो सारी ममेरी बहनें खूब रोती थीबस वही यादें रह गयीं अब तो जमाना गुजर गया गाँव में बसें भी चलने लगी हैं लेकिन बैलगाड़ी में बैठने का जो मजा था वह अब नहीं

15 टिप्‍पणियां:

  1. रेखाजी, बहुत अच्‍छा संस्‍मरण। पहले जैसे गाँव अब नहीं रहे। वहाँ भी आत्‍मीयता की जगह दूरियों ने ले ली है।

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  2. हाँ अजित जी,

    न पहले जैसे गाँव रहे और न पहले जैसा प्यार रहा लेकिन वे बचपन के दिन याद तो आते ही हैं. काश फिर लौट आयें.

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  3. मन नहीं माना न ? पहुँच गईं न वहाँ जहाँ से लौटने का दिल नहीं करता और तस्वीर बिल्कुल बच्चों सी है .... पढ़ते पढ़ते दिल करता है , एक बार फिर ऐसा कुछ कर जाएँ .... पर अब वो मासूमियत कहाँ !

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  4. किसी ने ठीक ही कहा है कि -
    गाँव सचमुच नहीं रहा गाँव अब,
    रह गयी है यादें बस वही पुरानी मासूम चिड़िया सी चुलबुली
    अब तो इसे भी हो गया है सोहबत शहर के मनचलों से ...!

    आपका संस्मरण बहुत सुन्दर है, पढ़कर अच्छा लगा, बधाईयाँ !

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  5. रेखा जी
    आपकी भीनी भीनी यादो की सुगंध हम तक पहुंच गयी तो हम भी उसी मे खो गये…………कुछ यादें ज़िन्दगी भर सम्हालने योग्य होती है और बचपन की यादे ही शायद ऐसी होती है बचपन सी मासूम्।

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  6. बैलगाड़ी ही नहीं बच्चों से गर्मियों की छुट्टियों का वो आनंद भी छीन लिया है हमने...गर्मियों की छुतियों में आजकल शहरों के बच्चे होंबी क्लासेज में जाते हैं...वहां आर्ट क्राफ्ट डांस स्केटिंग आदि सीखते हैं...उन्हें क्या मालूम गर्मियों की दुपहरी में ननिहाल में उधम कूद करने आनंद...
    रोचक संस्मरण.

    नीरज

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  7. बहुत बढ़िया संस्मरण रहा...हम तो जानते थे कि आप यादों की गठरी खोले बिना न रह पायेंगी...अच्छा किया.

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  8. waah rekha di....wahi to main sochun....aapne khud ke baare me kyon nahi bataya tha...!!
    achchha laga!

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  9. वह आनन्द अब नहीं मिलता है, टीवी, चैनल सबने मिल कर चौपट कर दिया।

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  10. कितनी प्यारी यादें हैं बचपन की क्या ऐसा कुछ आज के बच्चों को याद रहेगा ? रोचक प्रस्तुति

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  11. बहुत बढ़िया संस्मरण रहा आपका।
    गाँव की हमारी भी यादें ताज़ा हो गईं!

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  12. बचपन हमारे अन्दर ही छिपा होता है...इस तरह संस्मरण के माध्यम से बाहर निकल आता है :)

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  13. बहुत भाव भीनी यादें हैं ... पर अब वो गान्ह, वो बचपन, वो प्यार वो मस्ती सब कहीं खो गया है .. अर्थ के नीचे दब गया है ...

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  14. wah.maza aa gaya.bahut achcha hua ki aap bhi yahan aa gayeen......

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  15. wah.maza aa gaya.bahut achcha hua ki aap bhi yahan aa gayeen......

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