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शुक्रवार, 17 जून 2011

गर्मियों की छुट्टियाँ और अपना बचपन (१४)








डॉ डंडा लखनवी:



घटना सन १९६० की हैउस समय मेरी आयु लगभग दस वर्ष की थीप्रायः इस आयु में बच्चों की जिज्ञासु प्रवृत्ति होती हैइस प्रवृत्ति के कारण वे संसार को अपनी ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा जानना , समझना और परखना चाहते हैंइससे उनका अनुभव बढ़ता है और जिज्ञासाएं शांत हो जाती हैंप्रयोग करके सीखने की प्रवृत्ति अन्य बच्चों की तरह मेरे मन में भी थीउन दिनों लखनऊ में मलेरिया का प्रकोप फैला और घर में कई लोग ज्वर से पीड़ित थेडॉक्टर ने सलाह दी कि रोगियों का बुखार नाप कर उसके बारे में उसको बताया जायइसी लिए पिताजी एक अच्छा सा थर्मामीटर खरीद कर घर लायेउसे मुख में डाल कर शरीर का ताप नापा गयामैंने ताप नापने की क्रिया को बड़े ध्यान से देखामेरे बाल मन में जिसे देख कर एक कौतूहल जाग उठा कि इससे शरीर के ताप की तरह दीपक की लौ का ताप भी नापा जा सकता हैअतः दीपक की लौ का ताप नापने की इच्छा मन में घर कर गयीउपचार के बाद थर्मामीटर घर के अन्य सामानों की तरह से सभाल कर रख दिया गयाइसी बीच गर्मियों की छुट्टियाँ गयी और एक दिन दोपहर में जब घर के अन्य सदस्य आराम कर रहे थेमैंने चुपके से थर्मामीटर निकला , एक मोमबत्ती जलाई और उसकी लौ से थर्मामीटर स्पर्श करवा दियाथर्मामीटर चट की आवाज के साथ तुरंत टूट गयामैं इस परिणाम से बेखबर थाअतः जो होना था सो हो ही गयाउसके अन्दर भरा हुआ पारा ओस की बूंदों की तरह से फर्श पर बिखर गयामैं ज्यों ज्यों उन्हें समेटने का प्रयास करता वे त्यों त्यों और छोटे छोटे कणों में बिखरती चली गयींमेरा समेटने का प्रयास व्यर्थ चला गयाइस प्रयोग से मैं हक्का बक्का रह गयाइस घटना की जानकारी जब पिताजी को हुई तो बड़ी डांट पड़ी थी
उस घटना से मुझे ये सबक मिला की प्रयोग से पहले सावधानियों की पूरी जानकारी पहले से कर लेनी चाहिए

7 टिप्‍पणियां:

  1. काफ़ी दिनों से, जब से आपका पत्र मिला है तभी से मैं भी सोच रहा हूं कि कोई संस्मरण भेजूं लेकिन वक्त की तंगी आड़े आ रही है, तो भी आपका पत्र सहेज कर रख रखा है।
    बचपन में हम तो अपनी ननिहाल में गर्मी की छुट्टियां मनाया करते थे। बाल्टी भर कर आम खाया करते थे। बंबे-रजबाहे में दोपहर को उसके पुल पल पर से पानी में छलांगे लगाते थे। मामू साहब के घोड़ों पर दौड़ लगाते थे और वह घबराते रहते थे कि कहीं कुछ हो न जाए। आंगन में एक नीम का पेड़ था और उसके नीचे दूध कढ़ता रहता था। लाल लाल दूध पिया करते थे। और भी बहुत कुछ करते थे। मौक़ा लगा तो अलग से लिखूंगा।
    कुल मिलाकर हमारा बचपन ठीक गुज़रा और गर्मी की छुट्टियां तो हमारे बचपन के यादगार दिन हैं।

    डॉक्टर साहब एक मिलनसार आदमी हैं। जनाब से मैं लखनऊ में मिल चुका हूं। यह मौक़ा था लखनऊ के सहकारिता भवन में मुझे और सलीम ख़ान साहब को ईनाम से नवाज़े जाने का। डॉक्टर साहब आए भी और अपने साथ एक और विद्वान संपादक महोदय को लाए भी। आज उनके बचपन की बात भी पता चली लेकिन बच्चे आज भी ऐसे ही होते हैं।

    शुक्रिया !
    http://blogkikhabren.blogspot.com/2011/06/blog-post_17.html

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  2. अरे वाह!
    यह संस्मरण तो मेरे संस्मरण से मेल का रहा है!
    गिरीश जी ने थर्मामीटर को मोमबत्ती दिखाई
    और हमने मिट्टी के तेल की जलती हुई कुप्पी दिखाई!

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  3. बहुत सुन्दर रोचक संस्मरण| धन्यवाद|

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  4. डॉ साहब का संस्मरण पढ़ कर अच्छा लगा. एक सीख भी दे गये.

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  5. बहुत बढ़िया, शानदार और रोचक संस्मरण! बेहतरीन प्रस्तुती!

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  6. अब मैं भी कुछ प्रेरणा प्राप्‍त करता हूं और गुब्‍बारे की हवा निकाल कर उसे वापिस समेटने का प्रयास करता हूं। हंसिए मत, बहुत गंभीर हूं मैं।

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