कलम का क्रांतिकारी : गणेश शंकर विद्यार्थी !
गणेश शंकर विद्यार्थी एक मूक शहीद कहे जाते हैं, जो कि कलम से क्रांति के अग्रदूत बने। आपका जन्म इलाहाबाद के अतरसुइया नामक मोहल्ले 26 अक्टूबर 1890 में हुआ था। आपके पिता जयनारायण श्रीवास्तव और माँ गोमती देवी थी। 1905 ई. में भेलसा से अंग्रेजी से एंट्रेंस परीक्षा पास करके आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला कालेज में भर्ती के समय से ही उनका रुझान पत्रकारिता की ओर हुआ और उस समय के लेखक सुन्दर लाल कायस्थ इलाहाबाद के साथ उनके हिंदी साप्ताहिक कर्मयोगी
के संपादन में सहयोग करने लगे। लगभग एक वर्ष कालेज में पढ़ने के बाद 1908
ई. में कानपुर के करेंसी आफिस में 30 रु. मासिक की नौकरी की। परंतु अंग्रेज
अफसर से झगड़ा हो जाने के कारण उसे छोड़कर पंडित पृथ्वीनाथ हाई स्कूल, कानपुर में 1910 तक शिक्षण कार्य किया। इसी के दौरान सरस्वती, कर्मयोगी, स्वराज्य (उर्दू) तथा हितवार्ता (कलकत्ता) में समय समय पर लेख लिखने लगे।
उन्होंने अपनी पहली किताब 'हमारी आत्मोत्सर्गता' अपनी सोलह वर्ष की उम्र में लिखी थी।
कानपुर शहर को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले क्रान्तिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी ने अखबार "प्रताप" से अंग्रेजों के साथ अपनी बगावत को एक अलग दिशा दी। जिसने कलम को ही अपनी बन्दूक और बम बना कर उस शासन की चूलें ही नहीं हिलायीं बल्कि उसके दम पर ही देश को एक नए जोश और देशभक्ति से भरने का काम किया। वे पत्रकारिता में रूचि रखते थे, अन्याय और
अत्याचार के खिलाफ उमड़ते विचारों ने उन्हें कलम का सिपाही बना दिया। उन्होंने हिंदी और उर्दू - दोनों के प्रतिनिधि पत्रों 'कर्मयोगी और
स्वराज्य' के लिए कार्य करना आरम्भ किया।
उस समय 'महावीर प्रसाद द्विवेदी', जो हिंदी साहित्य के स्तम्भ थे, ने उन्हें अपने पत्र 'सरस्वती' में उपसंपादन के लिए प्रस्ताव रखा और उन्होंने 1911-13 तक ये पद संभाला। वे साहित्य और राजनीति दोनों के प्रति समर्पित थे, अतः उन्होंने सरस्वती के साथ-साथ 'अभ्युदय' पत्र भी अपना लिया जो कि राजनैतिक गतिविधियों से जुड़ा था।
1911 में उन्होंने कानपुर वापस आकर 'प्रताप ' नामक अखबार का संपादन आरम्भ किया। यहाँ उनका परिचय एक क्रांतिकारी पत्रकार के रूप में उदित हुआ। 'प्रताप' क्रांतिकारी पत्र के रूप में जाना जाता था। पत्रकारिता के माध्यम से अंग्रेजों की खिलाफत का खामियाजा उन्होंने भी भुगता। कानपुर कपड़ा मिल मजदूरों के साथ हड़ताल में उनके साथ रहे। 1920 में 'प्रताप ' का दैनिक संस्करण उन्होंने उतारा। प्रताप के प्रथम अंक की सम्पादकीय में लिखा था कि प्रताप सदैव सत्य के समर्पित रहेगा और उन्होंने अपने उस को पूरी से निभाया। वे सदैव सत्य के मार्ग पर चलते रहे।
इतना नहीं बल्कि उन्होंने अपने प्रताप के माध्यम से और भी ऐसे काम किये जो उल्लेखनीय हैं। उन्होंने देश में 1859 में शुरू हुई कुली प्रथा को अपने पत्र के माध्यम से ही ख़त्म करने का प्रयास किया और सफल रहे। देश में जमींदारी प्रथा , देशी राज्यों का विलय , देश की जनता को एक साथ मिलकर लड़ने का सन्देश भी उन्हीं का दिया हुआ था।
उस समय 'महावीर प्रसाद द्विवेदी', जो हिंदी साहित्य के स्तम्भ थे, ने उन्हें अपने पत्र 'सरस्वती' में उपसंपादन के लिए प्रस्ताव रखा और उन्होंने 1911-13 तक ये पद संभाला। वे साहित्य और राजनीति दोनों के प्रति समर्पित थे, अतः उन्होंने सरस्वती के साथ-साथ 'अभ्युदय' पत्र भी अपना लिया जो कि राजनैतिक गतिविधियों से जुड़ा था।
1911 में उन्होंने कानपुर वापस आकर 'प्रताप ' नामक अखबार का संपादन आरम्भ किया। यहाँ उनका परिचय एक क्रांतिकारी पत्रकार के रूप में उदित हुआ। 'प्रताप' क्रांतिकारी पत्र के रूप में जाना जाता था। पत्रकारिता के माध्यम से अंग्रेजों की खिलाफत का खामियाजा उन्होंने भी भुगता। कानपुर कपड़ा मिल मजदूरों के साथ हड़ताल में उनके साथ रहे। 1920 में 'प्रताप ' का दैनिक संस्करण उन्होंने उतारा। प्रताप के प्रथम अंक की सम्पादकीय में लिखा था कि प्रताप सदैव सत्य के समर्पित रहेगा और उन्होंने अपने उस को पूरी से निभाया। वे सदैव सत्य के मार्ग पर चलते रहे।
इतना नहीं बल्कि उन्होंने अपने प्रताप के माध्यम से और भी ऐसे काम किये जो उल्लेखनीय हैं। उन्होंने देश में 1859 में शुरू हुई कुली प्रथा को अपने पत्र के माध्यम से ही ख़त्म करने का प्रयास किया और सफल रहे। देश में जमींदारी प्रथा , देशी राज्यों का विलय , देश की जनता को एक साथ मिलकर लड़ने का सन्देश भी उन्हीं का दिया हुआ था।
जब
अंग्रेजों द्वारा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी दिए जाने की देश भर
में तीखी प्रतिक्रिया हुई, तब घबराकर अंग्रेजों ने देश में सांप्रदायिक दंगे भड़का दिए। सन1931 में पूरे कानपुर में दंगे हो रहे थे, भाई भाई खून से होली
खेल रहे थे और सैकड़ो निर्दोषों की जान चली गई। तब गणेश शंकर विद्यार्थी
कानपुर में लोकप्रिय अखबार प्रताप के संपादक थे और उन्होंने पूरे दिन दंगाग्रस्त इलाकों में घूमकर निर्दोषों की जान बचाई थी। इतना ही नहीं कानपुर के
जिस इलाके में उन्हें लोगों को फँसे होने की खबर मिलती वे तुरंत अपना काम
छोड़कर वहाँ पहुँच जाते है, उन्होंने उस समय पत्रकारिता की नहीं बल्कि मानवता की
जरूरत थी और गणेश शंकर विद्यार्थी पत्रकारिता से ज्यादा मानवता को महत्व देते थे।
कानपुर दंगे के दौरान जब उन्होंने बंगाली मोहाल में फँसे 200 मुसलमानों को
निकाल कर सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया, तब एक बुजुर्ग मुसलमान ने उनका हाथ
चूम कर - 'तू फरिश्ता है' कह पुकारा।
गणेश शंकर विद्यार्थी अपनी पूरी जिंदगी में
पांच बार जेल गए थे। भारतीय इतिहास के एक सजग पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और
सक्रिय कार्यकर्ता भी थे, जब कानपुर के दंगों के दौरान उन्होंने सैकड़ो
लोगों की जान बचाई और वहाँ से फँसे लोगों को लॉरी में बिठा रहे थे तभी वहाँ
भीड़ उमड़ी और किसी ने एक भाला विद्यार्थी जी के शरीर में घुसा दिया, लेकिन इससे पहले वे कुछ कर पाते उनके सिर पर लाठियाँ बरसने लगी और वे 25
मार्च 1931 को वे शांति के दूत अपनी मानवता के चलते शहीद हो चुके थे। कानपुर में लाशों के ढेर में उनकी लाश मिली थी. तब तक उनकी
लाश इतनी फूल गई थी कि लोग पहचान नहीं पा रहे थे। दंगों के रोकते रोकते ही
उनकी मौत हुई और उन्होंने 29 मार्च को अंतिम विदाई दी गई।
उनकी शहादत को सभी भारतियों की भावपूर्ण श्रद्धांजलि !
आपके इस आलेख के माध्यम से मुझे एक नयी जानकारी मिली आभार...ऐसे महान पत्रकार एवं क्रांतिकारी को मेरा शत शत नमन...
जवाब देंहटाएंनाम तो सुन रखा था मगर आपके माध्यम से पूरी जानकारी मिली ……………आभार्।
जवाब देंहटाएंस्वतन्त्रता सेनानी को नमन।
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल 26/3/13 को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका स्वागत है ,होली की हार्दिक बधाई स्वीकार करें|
जवाब देंहटाएंक्रन्तिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी ....को नमन
जवाब देंहटाएंरेखा दी ...आपकी दी गई जानकारी को पढ़ कर अच्छा लगा
पत्रकारिता के वे आदर्श फिर से जीवित सकें,यही विद्यार्थी जी को सच्ची श्रद्धञ्जलि होगी !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रेरक प्रस्तुति ......
जवाब देंहटाएंआपको होली की हार्दिक शुभकामनाएँ!