माँ को हर इंसान अपने अपने ढंग से परिभाषित करता है और उसका एक निजी रूप से लगाव उसमें दिखलायी देता है। इसी को कहते हैं - माँ को हम कभी परिभाषित कर ही नहीं सकते हैं। हर माँ के जीवन में बच्चे की जगह अपने एक अलग स्वरूप में होती हैं और हर बच्चे के लिए भी यही कहा जा सकता है। सरस दरबारी जी ने कितने सहज ढंग से माँ के कितने सारे अर्थ प्रस्तुत कर दिए :
मातृ दिवस पर.....
माँ
.......न जाने कितनी
भावनाएँ जुड़ी हैं
इस एक उदगार
से....
माँ ...याने हर
समस्या का समाधान
-
माँ....याने हर
दुःख से निदान
-
माँ....याने हर
पीड़ा का मरहम
-
माँ ...याने संस्कारों
का मान -
अंतहीन है यह
फेहरिस्त. बस इतना
जानती हूँ कि
ज़ुबाँ पर यह
नाम आते ही
मन आश्वस्त हो
जाता है .
आज माँ को
गए १४ साल
हो गए . एक
पूरा युग बीत
गया. लेकिन वह
आज भी साथ
हैं....अपनी दी
हुई सीखों में...अपनी झिड़कियों में
..अपने जुमलों में...... जिन्हें
माँ के मुँह
से अक्सर सुना
करते थे और
बुरा भी लगता
था
आज उन्हीं जुमलों को
याद कर आँखें
भर आती हैं
. माँ के साथ
एक अलग ही
रिश्ता था हम
बच्चों का , क्योंकि
वह बहुत स्ट्रिक्ट
थीं. अपना प्यार
छिपातीं थीं...पापाके बिलकुल
विपरीत, जो बिलकुल
एक दोस्त की तरह
थे, जिनसे हम
हर बात बेख़ौफ़
होकर कह सकते
थे. लेकिन मम्मी
से कुछ कहना
होता तो बहोत
हिम्मत जुटानी पड़ती .
लेकिन जब मेरा
विवाह हुआ तो
माँ जैसे अंदर
से टूटकर बिखर
गयीं …….बर्फ का
वह कठोर आवरण
जो उन्होंने सदा
अपने चारों ओर
लपेट रखा था
जैसे ममता की
ऊष्मा से बह
गया. उन आँसुओं
में ...हमेशा एक चिंता
रहती जो हर
माँ को खाए जाती
है ...मेरी बेटी
अपने ससुराल में
खुश तो है
..कहीं कुछ छिपा
तो नहीं रही.
मेरे विवाह
के बाद मम्मी
का पूरा व्यक्तित्व
ही जैसे बदल
गया था और
वह स्नेह बेपर्दा
हो गया था
जो उन्होंने सदा
हम सबसे छिपाया . सब कुछ
तो मिला था
मम्मी से , सही
संस्कार , सही
गलत की समझ,
पाक शास्त्र का
हुनर, हर ज़रूरतमन्द की सहायता करने का
जज़्बा.......बस कमी थी
जीवन में तो
उस स्नेह भरे
स्पर्श की जो
यदा कदा ही
मिलता था उनकी
गोद में
सर रखकर
भी. आज लगता
है वह आवरण
ही उनका स्वभाव
था जो उन्होंने
जान बूझकर ओढ़
रखा था क्योंकि
वह एक इंट्रोवर्ट
थीं ....
विवाहोपरांत
मेरे साथ बदले हुए
इस इक्वेशन से
जो स्नेह मुझे
उनसे मिला उससे
सारे पुराने गिले शिकवे
धुल गए ...कमियाँ
दूर हो गयीं
. उनका पुचकार कर वह
आश्वस्त करना, मेरी तकलीफ
में छिपकर आँसू
बहाना और
मायके आते जाते
गले मिलकर हिलक
हिलककर रोना ....देखकर
लगता कहाँ थीं
तुम अब तक ...कहाँ
छिपा रखा था
अपने आपको इतने
सालों.
और अब जब
तुम्हारे इस स्नेह
को समझना शुरू
ही किया था.....तो तुम
इतनी दूर चलीं
गयीं .... कहाँ हो
माँ.....क्यों चली गयीं......
सरस दरबारी
maa to hoti hi yesi hai...beti nahi hai mujhe par kash hoti to maa ki sikh to sikha pati.....khel-khel me kitni bate sikha jati thin jo waqt aane pe yad aati hai,aankhe bhingo jati hai......
जवाब देंहटाएंमाँ के स्नेह को नमन ही कर सकते हैं हम बस
जवाब देंहटाएंआत्मीय एवं हृदयस्पर्शी संस्मरण ! हर माँ और बेटी का रिश्ता अनोखा और भिन्न होते हुए भी संवेदना के स्तर पर कहीं न कहीं बहुत मिलता जुलता सा लगता है ! माँ एक शाश्वत माँ हो जाती है और बेटी एक शाश्वत बेटी !
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा माँ का यह रूप
जवाब देंहटाएंकठोरता के आवरण में कहीं माँ होती है तो कही पिता !
जवाब देंहटाएंदिल से पढ़ा दिल का लिखा !
दिल को छूता हुआ संस्मरण ...
जवाब देंहटाएं.उसकी जानकारी दिलचस्प वेब हमेशा उसकी सफलता के लिए धन्यवाद.harga hp
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