हम जीवन में बहुत सारे काम ऐसे करते हैं जो सिर्फ हमारे मन की संतुष्टि के लिए होते हैं लेकिन कुछ काम अपने कामों की नुमाइश के लिए भी लोग करते हैं। चारों तरफ चर्चा हो , लोग तारीफों के पुल बांधें लेकिन इन सबसे दूर और उम्र में बहुत परिपक्व भी नहीं है वो लेकिन सोच शायद जन्मजात होती है और ये व्यक्तिगत भी होती है।
मेरी मानसपुत्री हेमलता जिसे मैं अपनी बेटियों जैसा ही पास पाती हूँ और बचपन से वह पड़ोस में ही रहती रही है मेरी बेटी की सहेली हैं लेकिन शायद अपनी माँ से अधिक वो मेरे करीब है । उसकी शादी के ५ वर्ष बाद उसके बेटा हुआ और वह भी उसके जीवन मरण के सवाल के बीच डूबता और उतराता हुआ। जिसने शादी के एक साल बाद ही लोगों के ताने सुनने शुरू कर दिए हों और फिर कैसे इतने वर्षों तक इस समाज के व्यंग्य बाणों का सामना किया होगा। लेकिन शायद उसकी सार्थक और परोपकारी सोच का ही परिणाम है कि वो सात्विक नाम के बच्चे की माँ बनी।
इस वर्ष उसके बेटे का प्रथम जन्मदिन था और इत्तेफाक से वह कानपूर में ही थी। उसके मायके के परिवार में भी बहुत उत्साह था कि कैसे मनाया जाय ? उसने सबसे कह दिया कि वह इसको अपने ढंग से मनाएगी और इसके बारे में कोई शोर भी नहीं होना चाहिए। मुझसे वह इस बारे में चर्चा कर चुकी थी। उसने एक वृद्धाश्रम के बारे में पता किया और फिर उसकी संचालिका से बात की। वह भी कभी सुलझी हुई महिला हैं - उन्होंने कहा कि आप साड़ी या शाल की जगह पर अपने बजट के अनुसार जो सामान हम हर बुजुर्ग को पहली तारीख जो देते हैं , वह दे सकती हैं। हमारे यहाँ ६५ बुजुर्ग हैं और ४ बच्चे हैं ( बच्चे अनाथ हैं ) . उसने सबके लिए १० हजार रुपये में आने वाला सामान खरीदा और ११ दिसंबर को वहां पहुंचा दिया, वह सामान जो संचालिका माह की पहली तारीख को सबको देती हैं। अतः उन्होंने कहा कि आप १ जनवरी को आकर अपने हाथ से दें तो मुझे ख़ुशी होगी। लेकिन उसने मुझसे कहा - 'आंटी मैं अपने सामान को बाँट कर ये नहीं दिखाना चाहती कि ये मैं दे रही हूँ इसलिए मैं वहां अब इस दिन तो नहीं ही जाउंगी लेकिन जाती रहूंगी। अपने से जो भी बनेगा करती रहूंगी। उसने उन अनाथ बच्चों में से किसी एक की पढाई के लिए साल के शुरू होने पर यूनिफार्म , किताबें और सामान भी देने का निश्चय किया।
उच्च वर्ग में कितनी ऐसी महिलायें भी है जो हर महीने हजारों रुपये अपने ऊपर खर्च करती हैं और मुझे ये कहने में भी संकोच नहीं है कि शायद उन्हीं में से किसी के सास ससुर या फिर माँ बाप ऐसे वृद्धाश्रम में जीवन व्यतीत कर रहे हों। लगभग आज की नयी पीढ़ी अपने बच्चों का जन्मदिन अपनी हैसियत के अनुसार कभी होटल में , कोई घर में मनाता रहता है और ऐसी सोच काम ही लोगों के मन में आती है कि उसका एक छोटा सा हिस्सा अनाथ बच्चों के लिए ( भिखारियों के लिए कतई नहीं ) खर्च कर उन्हें भी कुछ अच्छा महसूस करने का मौका दें। दुआएं वो तो दिखती नहीं है लेकिन आशा के आशा के विपरीत कुछ कोई वंचित पा जाता है तो दिल से दुआ देता है।
मेरी मानसपुत्री हेमलता जिसे मैं अपनी बेटियों जैसा ही पास पाती हूँ और बचपन से वह पड़ोस में ही रहती रही है मेरी बेटी की सहेली हैं लेकिन शायद अपनी माँ से अधिक वो मेरे करीब है । उसकी शादी के ५ वर्ष बाद उसके बेटा हुआ और वह भी उसके जीवन मरण के सवाल के बीच डूबता और उतराता हुआ। जिसने शादी के एक साल बाद ही लोगों के ताने सुनने शुरू कर दिए हों और फिर कैसे इतने वर्षों तक इस समाज के व्यंग्य बाणों का सामना किया होगा। लेकिन शायद उसकी सार्थक और परोपकारी सोच का ही परिणाम है कि वो सात्विक नाम के बच्चे की माँ बनी।
![]() |
हेमलता और सात्विक |
इस वर्ष उसके बेटे का प्रथम जन्मदिन था और इत्तेफाक से वह कानपूर में ही थी। उसके मायके के परिवार में भी बहुत उत्साह था कि कैसे मनाया जाय ? उसने सबसे कह दिया कि वह इसको अपने ढंग से मनाएगी और इसके बारे में कोई शोर भी नहीं होना चाहिए। मुझसे वह इस बारे में चर्चा कर चुकी थी। उसने एक वृद्धाश्रम के बारे में पता किया और फिर उसकी संचालिका से बात की। वह भी कभी सुलझी हुई महिला हैं - उन्होंने कहा कि आप साड़ी या शाल की जगह पर अपने बजट के अनुसार जो सामान हम हर बुजुर्ग को पहली तारीख जो देते हैं , वह दे सकती हैं। हमारे यहाँ ६५ बुजुर्ग हैं और ४ बच्चे हैं ( बच्चे अनाथ हैं ) . उसने सबके लिए १० हजार रुपये में आने वाला सामान खरीदा और ११ दिसंबर को वहां पहुंचा दिया, वह सामान जो संचालिका माह की पहली तारीख को सबको देती हैं। अतः उन्होंने कहा कि आप १ जनवरी को आकर अपने हाथ से दें तो मुझे ख़ुशी होगी। लेकिन उसने मुझसे कहा - 'आंटी मैं अपने सामान को बाँट कर ये नहीं दिखाना चाहती कि ये मैं दे रही हूँ इसलिए मैं वहां अब इस दिन तो नहीं ही जाउंगी लेकिन जाती रहूंगी। अपने से जो भी बनेगा करती रहूंगी। उसने उन अनाथ बच्चों में से किसी एक की पढाई के लिए साल के शुरू होने पर यूनिफार्म , किताबें और सामान भी देने का निश्चय किया।
उच्च वर्ग में कितनी ऐसी महिलायें भी है जो हर महीने हजारों रुपये अपने ऊपर खर्च करती हैं और मुझे ये कहने में भी संकोच नहीं है कि शायद उन्हीं में से किसी के सास ससुर या फिर माँ बाप ऐसे वृद्धाश्रम में जीवन व्यतीत कर रहे हों। लगभग आज की नयी पीढ़ी अपने बच्चों का जन्मदिन अपनी हैसियत के अनुसार कभी होटल में , कोई घर में मनाता रहता है और ऐसी सोच काम ही लोगों के मन में आती है कि उसका एक छोटा सा हिस्सा अनाथ बच्चों के लिए ( भिखारियों के लिए कतई नहीं ) खर्च कर उन्हें भी कुछ अच्छा महसूस करने का मौका दें। दुआएं वो तो दिखती नहीं है लेकिन आशा के आशा के विपरीत कुछ कोई वंचित पा जाता है तो दिल से दुआ देता है।