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रविवार, 19 दिसंबर 2010

संसद के कारनामे !

                     
प्रजातंत्र में संसद देश के नीति निमार्ण और देश के शासन का  आधार होती है और सम्पूर्ण राष्ट्र के प्रति उत्तरदायी सांसद इसमें प्रतिनिधि बन कर बैठे होते हैं. देश की जनता जिन्हें चुन  कर भेजती है उनसे ये आशा करती है कि वे उसके विश्वास की रक्षा करेंगे जिस विश्वास पर उन लोगों ने उन्हें संसद में पहुँचाया है. उन्हें देश के जनप्रतिनिधियों के तौर पर सर्वाधिक वेतन और भत्ते मिल रहे हैं. सारा राष्ट्र संसद की कार्यवाही पर अपनी निगाहें टिकाये रखता है. कई बार सांसदों ने संसद की गरिमा को शर्मसार किया और देश के आम लोगों के सामने अपनी छवि जाहिल और गंवार लोगों से भी गई गुजरी बना कर दिखाई है. वह भी स्वीकार कर लिया और सब चुप रहे. लेकिन दिन पर दिन बढती जा रही संसद की बाधित कार्यवाही और सत्र के कार्यदिवसों का बहिष्कार कुछ सोचने पर मजबूर कर रहा है. 
         हमारी संसद के कार्यवाही एक वित्त वर्ष में तीन सत्रों - बजट सत्र, मानसून सत्र और शीतकालीन सत्र में सम्पन्न होती है. इसमें कुल बैठके क्रमश ३५, २४ ,२४ होनी चाहिए. इस सभी बैठकों में नियमानुसार सभी सांसदों की उपस्थिति अपेक्षित है - चाहे वे एक मूक दर्शक के रूप में बैठे रहें. चूँकि संसद सत्र के लिए आवंटित कुल बजट में सभी का हिस्सा होता है. जिन दिनों  में सत्र नहीं होता सांसद स्वतन्त्र होते हैं, यह भी नहीं नजर आता कि  ये जन प्रतिनिधि कभी जनता के बीच आ ही गए हों या फिर उनकी समस्याओं  से अवगत ही हो जाएँ. .
                         इन सभी सांसदों के वेतन और भत्ते बढ़ाने के लिए बिल सर्वसम्मति से पास हो जाता है और अन्य विषयों पर विपक्ष का बहिर्गमन सत्र को धो कर रख देता है. सत्तारूढ़ दल अपनी गलतियों की स्वीकृति से बचता है क्योंकि सिद्ध होने पर वे अयोग्य घोषित कर दिए जायेंगे , जब पानी सिर से गुजर जाता है तब मंत्री अपने पद से इस्तीफा देते हैं. इस दिशा में असफल सत्रों के लिए कोई भी सांसद अपेन वेतन और भत्तों से तो वंचित होता नहीं है कि उनको इस कार्यवाही  के चलने या बाधित होने से कोई भय प्रतीत हो. उनकी उपस्थिति का भी कोई प्रश्न नहीं उठता है. वे स्वतन्त्र शासक हैं , इस दौरान भी कहीं भी रहे कोई उत्तरदायित्व उनके ऊपर नहीं आता है. इसी जगह अगर किसी सरकारी या निजी कर्मचारी की बात करें तो वे अपने  निर्धारित कार्य दिवसों पर कार्य के लिए अपने कार्यालय जाते हैं ( कार्य न भी करें तो भी कोई बात नहीं , वह विषय इतर  है.) उनकी उपस्थिति का आकलन होता है. उन्हें इस तरह की कोई भी छूट नहीं मिलती है. निर्धारित छुट्टियों से अधिक लेने का कोई प्राविधान नहीं होता है. उन्हें हड़ताल का अधिकार नहीं है - कार्य बंद करने का हक़ नहीं है और करते हैं तो वेतन कट जाता है - ठीक भी है काम नहीं तो वेतन किस बात का ?  फिर ये बात सांसदों पर लागू क्यों नहीं होती है? वर्ष में कुल ८३ दिन संसद का सत्र चलता है और उसमें भी उनको उसकी कोई चिंता नहीं है. 
                       इस बार शीतकालीन सत्र की कार्यवाही ने अपने अलग रिकार्ड कायम कर लिया है. इसमें सदन की २४ बैठकें होनी चाहिए और हर बैठक लगभग साढ़े पांच घंटे की होती है. इस तरह से १३२ घंटे इस सत्र में कार्यवाही चलनी चाहिए जिसमें १२४ घंटे ४० मिनट कार्यवाही हुई ही नहीं या बाधित रखी गयी. कुल सात घंटे और २० मिनट  लोकसभा की बैठक हुई. इसमें कम से कम ४८० तारांकित प्रश्न सूचित थे जिनमें से महज ५ प्रश्नों के उत्तर मौखिक तौर पर दिए गए. १० विधेयक  पेश किये गए जिनमें से ६ पारित हुए और १ वापस लिया गया. शेष अपना निर्णय न ले सके. 
                     राज्य सभा की कार्यवाही में बिना किसी काम के १०० घंटे गवाए सिर्फ २ घंटे तीस मिनट  काम हुआ. 
          यहाँ पर संसद के कामकाज में आने वाला औसत दैनिक खर्च ६.३५ करोड़ रुपये होता है और २३ दिन बिना काम काज के बीते. इस तरह से कुल १४६.०५ करोड़ रुपये का नुकसान हुआ - प्रश्न काल, चर्चा और अन्य विधायी कार्यों के बगैर हुआ.
                   ये तस्वीर है हमारे प्रजातान्त्रिक शासन की - क्या ऐसा नहीं होना  चाहिए कि अगर सदन की कार्यवाही बाधित की जाती है तो सभी सांसदों को उनके दैनिक भत्तों से वंचित कर दिया जाय. उनकी उपस्थिति को सुनिश्चित किया जाय . ये धन आता कहाँ से है? देश वासियों की गाढ़ी कमाई इसी तरह से ये लूटते रहेंगे और हम हाथ मलते रह जायेंगे. संसद में अगर सांसदों के हित का कोई विधेयक होगा तो सर्वसम्मति से पारित हो जाएगा लेकिन इस तरह के विधेयक लाएगा कौन ? फिर पारित क्यों होंगे ? वहाँ तो वही होता है जो मंजूरे सांसद होगा. फिर इसका निदान क्या है? इसके कुछ तो प्राविधान होना चाहिए नहीं तो अनुशासन खो चुकी संसद सिर्फ नाममात्र की रह जायेगी. 
             इस सत्र में महानुभावों की उपस्थिति कुछ इस प्रकार थी. जिनमें देश के दिग्गज काहे जाने वाले सांसद ही वर्णित हैं --
ए राजा - १ दिन

जयाप्रदा - १ दिन
मधु कोड़ा - १ दिन
बाबूलाल मरांडी - ३ दिन
कल्याण सिंह - ३ दिन 
राहुल गाँधी - ४ दिन
सोनिया गाँधी - ६ दिन
नवजोत सिंह सिद्धू - ८ दिन
लालू प्रसाद यादव - ८ दिन
मु. अजहरुद्दीन - १० 
             यहाँ बताते चलें की शीतकालीन सत्र २४ दिन का होता है. ये सांसद सत्र  कालीन भत्तों के शत प्रतिशत हक़दार हैं और रहेंगे भले ही उसके दौरान कहीं भी रहें? उनका कोई नैतिक उत्तरदायित्व न संसद के प्रति है और न ही जनता के प्रति. 

*समस्त आंकड़े  दैनिक जागरण के साभार

7 टिप्‍पणियां:

  1. हमारे सम्मानीय सांसदों को संसंद में अपनी उपस्थिति और इसके कार्य में ज्यादा रूचि नहीं होती है. उनकी रूचि होती है सांसद निधि में . संसद में रहकर वो अपने हितो की देखभाल कैसे कर सकते है?

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  2. विचारणीय लेख है ...काश बिना काम के इनको वेतन और भत्ता न मिले तब सब आयेंगे ..ऐसा होना चाहिए ...

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  3. विचारणीय और महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है। यहां भी लागू होना चाहिए नो वर्क नो पे।

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  4. इन सांसदो पर सांसद का सारा खर्च डालना चाहिये, ओर इन के भत्ते काट देने चाहिये

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  5. आम जनता की गाढ़ी मेहनत की कमाई से चलने वाली सांसदों में जन प्रतिनिधियों का ऐसा बर्ताव बहुत दुखद है ...

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  6. त्रास्द स्थिती है। इन सांसदों ने देश को बर्बाद करने का शायद ठेका ले रखा है। धन्यवाद इस जानकारी के लिये।

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