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सोमवार, 27 जून 2011

गर्मियों की छुट्टियाँ और अपना बचपन (१८)

सफर चल रहा है धीरे धीरे लेकिन सुहाना है, कितना अच्छा लगता है कि हम दूसरों के बचपन को जीनेकि कल्पना करने लगते हैं और अपना जी चुके बचपन को उसमें खोजने लगते हैंये यादों कि कड़ियाँ बहुत ख़ुशी देरही हैं मुझे और इस के लिए आप सब के प्रति आभारी भी हूँ जो मुझसे इतने स्नेह के साथ आप सबने अपनी यादें सौंप दीं चलिए नाम लिखा है तो आप पहचान ही लेंगेलेकिन मीनाक्षी जी कि ये तस्वीर वाकई उस समय कि साक्षी और इसके लिए अमूल्य निधि है




मीनाक्षी धन्वन्तरी



गर्मी की छुट्टियाँ सपने सुहाने बचपन के!




गर्मी की छुट्टियाँ और बचपन के दिन भूलते कहाँ है....वक्त की धूल साफ करो तो फिर सारी यादें ताज़ा हो जाती हैं..यहाँ तो 27 मई से ही ताज़ा हो गई थी.....हर रोज़ बचपन की यादों को पढ़ना और अपनी यादों में डूब जाना..इतने दिनों इतने मित्रों के बचपन को पढ़ते हुए सोचिए यादों का सैलाब कैसे रुक पाएगा...बेतरतीब सा बहने दूँ या बाँध लूँ .... यह सोचे बिना लिखने बैठी हूँ ....

हर साल गर्मियों की छुट्टी का पहला दिन बहुत लम्बा लगता.. बार बार आँगन में जाकर सूरज को गुस्से से देखना कि छिपता क्यों नहीं क्यों कि शाम की बस से कुल्लू मौसी के पास जाने की बेसब्री होती...बचपन से ही मैदान से पहाड़ों की ओर जाना ऐसा लगता जैसे स्वर्ग मे जा रहे हों.... सुबह सवेरे कुल्लू घाटी पहुँच जाते.. वहाँ पहले से ही मौसी बस अड्डे पर इंतज़ार करती दिखाई देती...

चारों तरफ हरे भरे पहाड़..दूर की चोटियाँ बर्फ से ढकी देख कर जी करता कि उड़ कर वहाँ पहुँच जाओ...मौसी के घर जाने का खुशबूदार रास्ता....लकड़ी का तीन मंजिला घर ...काली स्लेट की छतें सब मन को बाँध लेता.. मौसी सयुंक्त परिवार में रहती थीं....मौसाजी आर्मी में थे.. उनके पिताजी, तीन भाई और एक बहन वहीं रहते थे...मेरे से छोटे मौसेरे भाई दो और एक बहन..इधर हम दो बहने और एक छोटा भाई ... सबकी लीडर सबसे बड़ी मैं....घंटों ब्यास नदी के किनारे बैठते.. बहती नदी का गीत सुनते और ऊँची आवाज़ में खुद भी गाने लगते...वहीं बैठ कर आम, नाशपाती, खुमानी , आढू , सेब और अखरोट खाते...

अच्छा लगता घर की खिड़की से नाशपाती और सेब तोड़ कर खाना....फिर ऊपर से डाँट खाना क्यों कि सयुंक्त परिवार होने के कारण किसी को भी सेब, नाशपाती, अखरोट और बादाम तोड़ने की इजाज़त नहीं थी....पेड़ों से जो भी फल उतरते वे सबमें बराबर बराबर बँटते लेकिन चोरी करने से हम बच्चे कहाँ बाज़ आते....रात होते ही चुपके से हम सब बच्चे खिड़की से नाशपाती और सेब तोड़ ही लेते...वहीं बाल्कनी में बैठकर अपने हाथों से ही साफ करके खाते और गपशप करते....मौसी और मम्मी जब अपने कमरे से पूछते कि अभी सोए नहीं तो कहते कि सूसू करने के लिए जा रहे हैं...और न चाहते हुए भी नीचे उतर जाते...नीचे उतर कर सबसे पहले दादाजी के कमरे के बाहर दरवाज़े पर दस्तक देकर भाग जाते... मुझे सबसे ज्यादा गुस्सा आता उन पर... घर एक अन्दर एक भी टॉयलेट नहीं बनवाने दिया था..सब घर से बाहर बना टॉयलेट इस्तेमाल करते...”घर के बड़े हैं..उनका घर है...वे जैसा कहेंगे हमें मानना पड़ेगा” यह कर मौसी और मम्मी शांत कर देते हमें...जब तक दादाजी रहे घर के अन्दर टॉयलेट नहीं बना..हर साल बस यही एक मुश्किल होती जिसे मौसी यह कह कर टाल देती...”दिन में एक बार तो जाना होता...उस बारे मे ज्यादा न सोचो...”

एक महीना पंख लगा कर खत्म हो जाता और फिर तैयारी होती नाना नानी के घर जाने की.....ननिहाल बल्लभगढ़ में था..नाना नानी के घर से कुछ दूरी पर सबसे बड़ी मौसी रहती...मामाजी फरीदाबाद में रहते थे... सभी मिल कर धमाल करते नाना नानी के घर ... नाना का घर बाज़ार में ही था...पहले दुकान फिर पीछे घर...रिटायर वार्डन और गणित के मास्टर सबके लिए मास्टर जी हो गए थे....नानी गीता का पाठ करने में माहिर...मुझे सबसे ज्यादा अच्छा लगता उनका गीता पाठ सुनना..दौड़ दौड़ कर उनके हर काम में हाथ बँटाना...गेहूँ साफ करना, चक्की चलाना, कुएँ से पानी भरना, पहली बार गोबर के उपले बनाना मेरे लिए चमत्कारी काम होते थे....नानी के साथ काम करते देख नानाजी सिर्फ मुझे ही बद्री हलवाई की दुकान पर ले जाते...मिट्टी के कसोरे में मलाई वाला दूध और देसी घी की जलेबी का स्वाद आज भी याद है...

बड़ी मौसी के घर जाते तो सबसे छोटी होने के कारण सब भाई और दीदी मुझे ही कुछ भी मँगवाने के लिए बाज़ार भेजते..बाकि सब जो मुझसे छोटे थे दुबक जाते इधर उधर...कई बार साथ चलने को कहती तो मना कर देते तो मै कट्टी करके चली जाती अकेली.....तीन भाई और एक बहन ... मतलब चार चक्कर तो लगाने ही होते दही लाने के लिए...किसी को दही मे मलाई अच्छी लगती तो किसी को नहीं लेकिन मैं सबमें मलाई डलवा कर रास्ते में ही चट कर जाती..कभी कभी डाँट भी खाती कि दही सही तुलवा कर नहीं लाती कम लग रही लेकिन कैसे बताती कि मलाई का स्वाद जो कराए कम....

मौसाजी बहुत प्यार करते... मौसाजी शौकिया तौर पर कई तरह के अर्क बनाते...उनके हाथ के बने अलग अलग अर्क का तीखापन भी अच्छा लगता..जाने आज वे सभी अर्क बनते भी है कि नहीं....उनके छोटे छोटे तोहफे आज भी नही भूलते...सतू और शक्कर, भुना हुआ भुट्टा, टाँग़री, राम लड्डू, आम पापड़, मीठी फुलियाँ सबसे ज्यादा मुझे ही मिलता....वही चीज़ें छोटे भाई बहन से बाँट कर खाने के लिए उनके पास जाती तो वे मुँह फुला कर बैठे होते, मुझसे बात ही न करते....मुझे भूल जाता कि दोपहर को तो मैने खुद ही कट्टी की थी...आज भी यही होता है कुछ देर के लिए किसी से नाराज़ होकर फिर सब भुला कर सामने जा खड़ी होती हूँ मुस्कुराते हुए...सामने वाले को जबरन मुस्कुराना ही पड़ता है ..... J

दसवीं के बाद की छुट्टियाँ यादगार बन गई जब डैडी ने मुझे अकेले ही दीदी (मौसेरी बहन) के घर श्रीनगर जाने की तैयारी करने को कहा...खुशी खुशी में पैक किया हुआ खाना घर भूल आई...जम्मू तवी की ट्रेन में बिठाते हुए डैडी पैसे देना भूल गए...तब पैसे की किसे चिंता थी बस कश्मीर की वादियों में खो जाने की धुन थी...उन दिनों रात 9 बजे के लगभग दिल्ली से ट्रेन चलती तो सुबह जम्मू पहुँच जाती..आधी रात को दीदी जीजाजी के दोस्त दूसरे कम्पार्टमेंट से आए कि मुझे कुछ चाहिए तो नहीं...अपनी शक्ल दिखा कर चले गए कि सुबह जम्मू मे मिलते हैं..

कैसे दिन थे जब किसी तरह का कोईडर छू गया था...एक अजनबी केसाथ जम्मू उतर कर नाश्ता किया औरश्रीनगर जाने वाली बस में बैठगए...सूरज डूबने के बाद गहरी शामहोते होते श्रीनगर पहुँचे थे जहाँ पहलेसे ही दीदी और जीजाजी इंतज़ार कररहे थे...घर जाने के लिए मेरी पसन्दका ध्यान रखते हुए ताँगे पर गएथे....अगले दिन के सूरज के साथ साथएक सपने का भी जन्म हुआ था .... जिस पर फिर कभी चर्चा ....पढने केलिए कुछ ज्यादा ही हो गयाहै....लेकिन लिखने के लिए तो अथाहसागर है यादों का....

(सफर अभी जारी है )

15 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर संस्मरण। पीछे बहुत कुछ रह गया पढने से।

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  2. मीनाक्षी जी मजा आ गया, दुकान से दही लाते लाते मलाई चट करना हमारा भी जन्म सिद्ध अधिकार था कभी कभी दूसरों के साथ शेयर करना पड़ता था…।वो मलाई का स्वाद तो आज भी जिव्हा पर ताजा है

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  3. :) बदिया संस्मरण ... खूब मलाई उडाई है :):)

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  4. अनितादीईईईईईईई .....आप आए बहार आई...आप को देखना हो तो हर रोज़ एक शरारत की पोस्ट बना कर लगा दी जाए... :)
    @शास्त्रीजी, निर्मलाजी, प्रवीणजी..शुक्रिया
    @संगीतादी...मलाई के साथ साथ लस्सी में मक्खन के टुकड़े...कैसे घर तक आते आते खत्म होते...और जाने कितनी शरारतें छिपा गए :)

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  5. कई पुरानी यादें जुडी रहती हैं ....कुछ भूले बिसरे याद आते हैं ! शुभकामनायें !!

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  6. कुल्‍लू बल्‍लभगढ से लेकर श्रीनगर तक सारी ही जगह घूम आए छुट्टियों में? वाह क्‍या बात है।

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  7. बचपन ... कभी कभी लगता है इंसान बड़ा ही क्यों होता है ... समय रुक क्यों नानी जाता ... पर ऐसा भी बड़ा होने के बाद लगता है ... मिनाक्षी जी ... आपके संस्मरण ने हमें भी बहुत कुछ याद करा दिया ...

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  8. हा हा..मलाई चट करने का किस्सा मजेदार रहा.रोचक संस्मरण.

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