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शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

चुनौती जिन्दगी की:(संघर्ष भरे वे दिन (१२)




ये जिन्दगी भी कितने रंग दिखलाती है और हर एक के जीवन में ये रंग अलग अलग होते हें लेकिन नाम तो इनका एक ही है न - संघर्ष ! ये जीवन इसके बिना संभव ही नहीं है और मुझे ख़ुशी होती है जब कुछ लोगों ने ये उत्तर मिला कि मैंने अपने जीवन में संघर्ष जैसी कोई चीज देखी ही नहीं है वाकई वे बहुत भाग्यशाली कहे जायेंगे। लेकिन जो हम संघर्ष करके जीवन में पाते हें न उसका स्वाद कुछ और ही होता है । सबसे अलग रंग में संघर्ष है रवींद्र प्रभात जी का:





चुनौती जिन्दगी की: संघर्ष भरे वे दिन




कमोवेश संघर्ष और उससे उत्पन्न चुनौतियों का सामना जीवन में हर कोई करता है, क्योंकि संघर्ष का ही दूसरा नाम जीवन है चुनौती नहीं तो जीवन कैसा ? इस तरह की बातें मैं खूब किया करता था छात्र जीवन में, किन्तु जब जीवन और जीविका के बीच तारतम्य बिठाने का समय आया तो समझ में आया कि यह क्षण कितना कष्टदायी होता है



बात उन दिनों की है जब मैं एक डिग्री कॉलेज में भूगोल पढाता था पढाई ख़त्म करने के बाद उसी शहर के एक कॉलेज में पढ़ाने लगा था जिस शहर में मेरे पिताजी भी कार्यरत थे वित्त रहित शिक्षा निति के तहत मेरा कॉलेज के साथ जुड़े रहना उन्हें अच्छा नहीं लगता था । वे चाहते थे कि मैं सिविल सर्विसेज की तैयारी करूँ । खैर अध्यापन का कार्य करने से मुझे एक फ़ायदा तो यह था कि मैं स्वतंत्र लेखन से पूरी तरह जुडा था और पत्रकारिता से भी संलग्न रहता था । पर आर्थिक तंगी मुझे लगातार विचलित कर रही थी । मेरी शादी भी हो गयी थी और एक बिटियाँ भी, खर्च बढ़ गया था घर वाले हर बात पे मेरी पत्नी को ताना दिया करते थे कि क्या बुढापे में तनख्वाह मिलेगी तुम्हारे पति को ?



बिटिया रश्मि जब जन्मी तो काफी कमजोर थी, डॉक्टर ने उसका ख़ास ख्याल रखने को कहा । पैसे की तंगी न हो इसलिए मैं कवि सम्मेलनों में जाना शुरू कर दिया । महीने दो-चार कवि सम्मलेन से दो-चार हजार रुपये आ जाते थे और अखबारों में स्वतंत्र लेखन से भी एक-दो हजार और इतना ही ट्यूशन से भी । इसप्रकार जैसे-तैसे महीने में पांच-छ: हजार की व्यवस्था हो जाती और काम चल जाता । पिता जी की भी कमाई अच्छी थी इसलिए कभी भी कष्ट का आभास नहीं हुआ । पर मेरी श्रीमती जी ऐसी कमाई से कतई संतुष्ट नहीं थी । बार-बार ताना मारती कि अभी समझ में नहीं आ रहा जब उम्र बीत जायेगी नौकरी की तब महसूस होगी



मैं अपनी नौकरी से इसलिए संतुष्ट था कि मुझे साहित्य सृजन और पत्रकारिता के लिए काफी समय मिल जाते थे, किन्तु मेरी श्रीमती जी मेरी इन गतिविधियों से लगातार कुंठित रहती थी । उनकी यह कुंठा धीरे-धीरे अवसाद में बदलती चली गयी और उसके बाद का हर क्षण मेरे लिए कष्टकारक होता चला गया । स्थिति बिलकुल मेरे लिए अनियंत्रित हो गयी । नन्ही बिटिया रश्मि को संभालने के साथ-साथ मुझे श्रीमती जी को भी संभालना पड़ता था । यह क्रम कई महीनों तक चला । मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ । कैसे इन बिपरीत परिस्थियों से बाहर निकलू । कई मित्रों से भी इस विषय पर सलाह ली मगर कोई रास्ता नहीं दिखा । काफी परेशान रहता था कि क्या करूँ क्या न करूँ ?



खैर कुछ दिन बाद इसका हल मेरी श्रीमती जी का इलाज कर रहे डॉक्टर ने निकाल ही लिया । उन्होंने मुझसे कहा कि यदि यह मुफ्त की नौकरी आप छोड़ दें तो आपकी पत्नी ठीक हो सकती हैं । मैंने कहा यह कैसे संभव है ? जबतक दूसरी नौकरी नहीं मिल जाती मैं यह नौकरी कैसे छोड़ सकता हूँ ? उन्होंने कहा कि यह मैं नहीं जानता मगर आपको ऐसा करना होगा । मैं राजी हो गया । एक रोज डॉक्टर मेरे घर आये और मेरी श्रीमती जी का चेक अप करते हुए मुझसे कहा कि गए नहीं आप ? मैंने कहा- कहाँ ? उन्होंने कहा - ज्वाइन karane ? मैं निरुत्तर था इसलिए चुप हो गया । तभी वे मेरी श्रीमती जी से मुखातिब होते हुए कहा कि इन्होनें आपको कुछ बताया कि नहीं ? मेरी श्रीमती जी ने ना में अपना सर हिला दिया । डॉक्टर जो मेरे पिता जी के मित्र भी थे उन्होंने मेरी श्रीमती जी से झूठ बोला कि पता है रवीन्द्र को एक अखबार में अच्छी नौकरी मिल गयी है । यह सुनते ही मेरी श्रीमती जी की आँखों से आंसू और चहरे पर मुस्कान एक साथ तैर गयी और वह समय के साथ धीरे-धीरे ठीक होने लगी । पर बार-बार वह यही प्रश्न करती कि कहाँ जाना है, कब जा रहे ज्वाइन करने ? मैं यही कहकर टाल जाता कि तुम ठीक हो जाओ फिर जाऊंगा


झूठ बोलने का यह क्रम चलता रहा और मैं इस झूठ के लिए अपने-आप में शर्मिन्दा भी होता रहा । पर मुझे क्या पता था कि यह झूठ एक दिन अचानक सच में परिवर्तित हो जाएगा । मैं श्रीमती जी के साथ इसी विषय पर बात कर रहा था कि उसी अख़बार के दफ्तर से मुझे फोन आया, जहां मैं विभिन्न विषयों पर फीचर लिखा करता था) कि संपादक जी ने आपको बुलाया है खैर मैं गया और मुझे नौकरी भी मिल गयी । मगर मैंने सोचा कि जब रचनात्मक कार्यों से अलग होकर नौकरी ही करनी है तो फिर अच्छी पगार वाली नौकरी की जाए । मैंने प्रयास जारी रखा और मुझे एक बड़े व्यावसायिक संस्थान में प्रवन्धक की नौकरी मिल गयी और मैं पत्नी और बच्चों को लेकर वाराणसी आ गया । फिर पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा ।आज जब उन दिनों की चुनौतियों के बारे में सोचता हूँ तो सिहर जाता हूँ पूरी तरह

12 टिप्‍पणियां:

  1. ज्यादातर रचनात्मक कार्यों में संग्ल्ग्न लोगों के साथ इसी तरह की स्थितियां आती हैं.पैसा रचनात्मकता पर भारी पड़ने लगता है.परन्तु आपने चुनोतियों को स्वीकार कर वक्त के साथ चल कर अपनी रचनात्मकता कायम रखी वह प्रसंशा करने योग्य एवं प्रेरणादायी है.

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  2. आपने तो मुझे रुला ही दिया सर, सचमुच जिंदगी के ऐसे क्षण बड़े कष्टदायी होते हैं .....आपके जज्वे को सलाम !

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  3. shikha varshney ने आपकी पोस्ट " चुनौती जिन्दगी की:(संघर्ष भरे वे दिन (१२) " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

    ज्यादातर रचनात्मक कार्यों में संग्ल्ग्न लोगों के साथ इसी तरह की स्थितियां आती हैं.पैसा रचनात्मकता पर भारी पड़ने लगता है.परन्तु आपने चुनोतियों को स्वीकार कर वक्त के साथ चल कर अपनी रचनात्मकता कायम रखी वह प्रसंशा करने योग्य एवं प्रेरणादायी है.

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  4. sakalp kee dridhta hi isa baat ko dikhati hai ki manjile der se hi sahi aur musibat ke sath mile lekin milegi jaroor. aise men halat bhi haar maan lete hain. aise sangharsh ke jajbe ko salam !

    जवाब देंहटाएं
  5. sakalp kee dridhta hi isa baat ko dikhati hai ki manjile der se hi sahi aur musibat ke sath mile lekin milegi jaroor. aise men halat bhi haar maan lete hain. aise sangharsh ke jajbe ko salam !

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  6. चुनौतियों से लड़ने की शक्ति देने वाला संस्मरण बहुत बढ़िया रहा!

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    उत्तर
    1. हाय सब,

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  7. यही जीवन है..चलिये सब ठीक हुआ..सब ठीक चलता रहेगा...

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  8. संघर्ष की तकलीफें अपनी जगह हैं और आज - उसकी रौनक है .

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  9. ऐसा कौन सा कॉलेज था जो मुफ्‍त में ही आपसे बेगार ले रहा था। लेकिन आपके संघर्ष को प्रणाम। रेखाजी ने अच्‍छी सीरिज चलाई है इससे निकटता बढ़ रही है।

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  10. आपको श्रीमतीजी की शुभेच्छा लग गयी..

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ये मेरा सरोकार है, इस समाज , देश और विश्व के साथ . जो मन में होता है आपसे उजागर कर देते हैं. आपकी राय , आलोचना और समालोचना मेरा मार्गदर्शन और त्रुटियों को सुधारने का सबसे बड़ा रास्ताहै.