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सोमवार, 9 जून 2014

माँ तुझे सलाम ! (18)

                 कोई कोई वाकया और कभी कभी तो यादगार पल कितना याद आते हैं ? अब भले  मूर्खता पर हंस लें लेकिन उस समय माँ की कही बात वेदवाक्य होती थी। ऐसे लोभ देकर काम भी करवा लिए जाते थे और हम करते रहते थे।  वो भूले हुए पल माँ से जुड़ कर और भावुक कर जाते हैं।  अपनी एक याद के  साथ हैं : प्रतिभा सक्सेना !


                                          



सौ का नोट !

                     तब मैं बहुत छोटी थी।   बात 1947 से और द्वितीय विश्व युद्ध  से भी पहले की है , जब ४० - ५० रुपये की आय में  ३ -४ बच्चों वाली गृहस्थी आराम से चल जाया करती  थी.  दो रुपये में एक सेर घी मिलता था ,  जीवन बहुत सीधा सादा  था तब।
                      घर पर हमें माँ ही पढ़ाती थी।  उस ज़माने में हमारी माँ हाई स्कूल पास थी।  प्रायः ही रसोई में बिठा लेती और अपने काम करते करते हमारा काम देखती जाती। हमारा दिमाग इधर उधर भागा कि  फौरन चपत रसीद।  अंग्रेजी के मीनिंग तो याद  हो जाते ,  हिंदी   अपनी भाषा लिखना , पढ़ना, याद करना कभी मुश्किल नहीं लगा , पर गणित के सवालों से बड़ी घबड़ाहट  लगती   थी।
                      ' मन लगाकर करोगे तो कुछ भी कठिन नहीं लगेगा। ' उनका ये कहना था की जितने सवाल ठीक आएंगे हर सवाल पर पैसा मिलेगा। हिसाब खुद रखना पड़ता था - बाकायदा कॉपी पर लिख कर और कुछ पैसे इकट्ठे हो जाते  तो उधार कर देती कहती - 'मेरे संदूक में सौ रुपये का नोट है तुड़ाऊँगी तो दूँगी .' 
                         उस सौ के नोट ने हमें ऐसा लुभा रखा था कि  हम अपने मन को समेट  कर पाठ पूरा करने में पूरा ध्यान लगा देते।  उनके संदूक  खोलने पर हम  मंडराते रहते कि सौ का नोट निकले शायद ? इतनी छोटी रकम के लिए इत्ता बड़ा नोट चढ़ाएं , कुछ और इकठ्ठा हो जाने दो पहले  ……….  इतना भारी  नोट निकालना ठीक नहीं , बंद करके रखना पड़ता है चलते फिरते कोई देख ले तो ? 
                         मुझसे दो साल छोटा भाई विष्णु और मैं कितने पैसे हो गए जोड़ कर ही मगन रहते थे।  कभी कभार खुश होने पर कुछ पैसे पकड़ा भी देती थीं।  जिनसे हम लेमनचूस ( तब यही कहते थे ) और बर्फ के गोले  खा लेते ,  लेकिन हाँ ठीक ठीक पूरा हिसाब  रखना जरूरी था। 
                         हमारी पुरानी कापियां , किताबें उनहोने कभी नहीं  बेचीं , हम अच्छे तरह से पास हुए तो कीमत वसूल हो गयी।  (मैथ्स में अंत तक मेरे बढ़िया नंबर आते रहे ) अब यही किताबें किसी गरीब बच्चे के काम आएं।  वह हिसाब की कॉपी  इधर उधर होगयी और कितने पैसे इकट्ठे  यह भी भूल भाल गए। 
                        आज के बच्चे इतने मूर्ख  न ऐसे बहुमूल्य नोट संदूकों में  धरे जाते हैं।  अपनी आँखों से देखा नहीं कभी , पर माँ की उस मोहमयी मुद्रा और सौ  के नोट की याद कभी कभी बहुत आती है।  





6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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    आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (10-06-2014) को "समीक्षा केवल एक लिंक की.." (चर्चा मंच-1639) पर भी होगी!
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. बहुत ही मोहक एवं आत्मीयतापूर्ण संस्मरण ! अपनी माँ की याद आ गयी आपका संस्मरण पढ़ कर ! वे भी हमें इसी तरह रसोई में काम करते हुए पढ़ाती रहती थीं और उनकी पैसों की छोटी सी संदूकची अभी तक मेरे मानस पर अंकित है ! बहुत अच्छा लगा आपका यह अतीत की वीथियों में विहार !

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  3. सुंदर,मासूम बचपन.
    मां तो बस मां होती है.

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  4. बहुत आत्मीय संस्मरण . उस समय तो सौ का नोट बहुत कम देखना मयस्सर होता होगा .

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  5. अपना संस्मरण साझा करने के लिये धन्यवाद...बहुत सुन्दर...

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