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रविवार, 20 मई 2012

बुजुर्गों का मनोविज्ञान !







 *चित्र गूगल के साभार .

मन है तो मनोविज्ञान भी रहेगा , इसके सीमायें और स्वरूप  उम्र  साथ बदलती रहती  है। मैंने मनोविज्ञानं पढ़ा तो उस समय इसकी सभी शाखाएं भी पढ़ी. लेकिन इस बार जो भी पढ़ा वह किताबों में नहीं पढ़ा था . वह पढ़ा जो सिर्फ और सिर्फ इंसान को गहरे से पढ़ लेने पर ही  समझ सकते हैं। वह हैं बुजुर्गों का मनोविज्ञान - इस बार इसे गहरे से पढ़ने का  मिला  जिसे मैं इतनी उम्र में अपने शेष बुजुर्गों के साथ रहते हुए पढ़ न सकी .  नौकरी और घर के बीच भागते दौड़ते हुए उसे पढ़ने का मौका नहीं मिला। सब कुछ दिया जो मेरे लिए संभव था तन , मन और धन सभी कुछ फिर भी कहीं कुछ चूक तो हुई है जिसका अब कोई प्रायश्चित नहीं है। 
                   मैं 84 वर्षीय माँ के साथ दस दिन रही कुछ ऐसा संयोग रहा कि एकदम अकेले हम माँ बेटी थे। भाई और भाभी कहीं घूमने गए हुए थे इसलिए माँ  के पास मैं रही।  मेरा माँ  को समर्पित  दिवस जीवन में पहली बार उनके साथ गुजरा ( जब से इस दिन की जानकारी मिली )
                          इस काल में माँ  बोलती रही और मैं चुपचाप   रही और ये महसूस  कर रही  थी कि  माँ  को घर में किसी भी तरह की परेशानी नहीं है . फिर भी  वे संतुष्ट क्यों नहीं है? मेरे साथ वे हम लोगों के बचपन की बातें , पापा की बातें , हमारी शादी की बातें और उस समय को याद करके उनका गला रुंध जाना और आखें भर आना , कभी कभी आक्रोश की झलक मिलना । मैंने उन्हें पूरे पूरे धैर्य के साथ उन्हें सुना और इससे  ही इस मनोविज्ञान को समझा । उनकी शिकायत गलत नहीं है - पोते और पोतियों के बाहर पढ़ने के लिए जाने के बाद घर खाली हो गया . - बहू बेटे अपने अपने जीवन में लिप्त होने के बाद वह एकाकी हो गयीं . घर में समय से खाना, चाय और हर सुविधा ही तो उन्हें खुश नहीं रख पाता  है लेकिन वे कभी इस बात की शिकायत किसी से नहीं करती हैं। जब बेटी मिली तो दिल खोल कर रख दिया और सिर्फ अपना ही नहीं बल्कि बुजुर्गों के मनोविज्ञान को भी उजागर  कर दिया।
                         क्या सिर्फ खाना और रहने की सारी सुविधाएँ किसी इंसान के लिए पर्याप्त  होती हैं?  नहीं ऐसा ठीक नहीं है वे  चाहते हैं कि  जब उनके पोते और पोती का फ़ोन आये तो कुछ हाल  वे उनसे भी  पूछें  क्योंकि उन  को बचपन में माँ  से अधिक उन्होंने पाला   है। इतनी अपेक्षा  तो बुजुर्ग कर ही सकते हैं। इतना समय न हो तो फ़ोन आने के बाद उन्हें  के हालचाल से अवगत करा दिया जाय . लेकिन क्या ऐसा होता है?  हम लोग समझते हैं कि हमारे   बच्चों का हालचाल  हमने जान लिया  इतना ही बहुत   है। उनके मन को हम   समझने की कोशिश कब करते हैं?
                       उनके सारे  दिन अपने कमरे में लेटे  रहना या टीवी देखते रहने के वे कभी आदी  रहे ही नहीं है , संयक्त परिवार में रहने वाले इस एकाकीपन से ऊब जाते  हैं लेकिन सत्य यही  है कि  ये एकाकीपन ही आज के परिवार का भविष्य है। हमने उनको समझाया कि  माँ  आप बहुत भाग्यशाली है कि आप के साथ आपके बहू और बेटा तो है कल इनके हिस्से में यह भी नहीं होगा . क्या होगा  तब ?  क्या  इसी तरह से वे भी अकेले  रहने   के लिए विवश होंगे। जब तक दो हैं तब तक तो  है लेकिन  सब अंतिम समय तक  दो  तो नहीं रह  सकते हैं .  किस   पल  किस को जाना  पड़े ये तो कोई भी नहीं जानता  फिर  क्यों इस तरह के हालात  पैदा हो जाते हैं?
                      सिर्फ एक काल में एक घटना से मैंने  ये मनोविज्ञान नहीं समझा  है। इसके लिए उनके साथ   कुछ समय  जिया हैं .पिछले  दिनों मैं अपने कजिन के घर पहुंची , मैं अपने वृहत परिवार में बचपन से ,  हम  और पापा के तीन भाइयों में हम 9 बहनें  और चार भाई हैं, के साथ रही . गर्मियों ,की छुट्टियाँ हुई नहीं कि सब उरई में आ गए . कोई भी त्यौहार कहीं और हो ही नहीं  सकता था। . सिर्फ मेरे भाई साहब  मुझसे बड़े हैं लेकिन बहनों में सबसे बडी . कजिन ने मेरे 80 वर्षीय चाचा का  14  पन्नों का पत्र  मुझे पढ़ने को दिया . लिखा  तो उन्होंने सब कुछ सच था और इसके विषय में जब मैं चाचा के पास गयी थी  तो उन्होंने मुझे बताया था .  लेकिन मैं तटस्थ -  जो सच होता है या  फिर न्यायसंगत होगा  वही समझाने  की कोशिश करती हूँ। माँ , चाचा  के लिए बड़ी बेटी हूँ और भाई बहनों के लिए जीजी .
                       कजिन ने अपने बेटे की शादी की और अपने पिता से  इस बारे में कोई भी सलाह नहीं की . वैसे भी वे अपने छोटे   बेटे के साथ रहते हैं। उन्हें कोई मतलब नहीं होता लेकिन  पिता हैं तो फिर सिर्फ आप और आपकी पत्नी  महत्वपूर्ण  लेने में उन्हें शामिल तो कर ही सकते हैं . इतने ही शौक से उन्होंने आपका विवाह किया था और अपने बड़े भाई (मेरे पापा ) को आगे रख कर काम किया क्यों क्या वे ये निर्णय लेने में सक्षम नहीं थे . ये एक सम्मान और बड़े का मान था। जो जीवन भर मान देता है और खुद उपेक्षित होने  के बारे में तो सोच  नहीं  सकता है और अगर हम उन्हें अपमानित कर जाते हैं तो ये हमारी नादानी है। वे  सक्षम हैं और जरूरत पर  आज भी दे रहे हैं फिर आप का ऐसा व्यवहार उन्हें  स्वीकार हो सकता है। हम सोचे कि   बुजुर्गों को  हमारे  कामों के बीच में दखलंदाजी नहीं करनी चाहिए तो ये हमारी  गलती है। जितना हम अपने बच्चों पर अपना  हक समझते  हैं उतना ही उनका भी है। वे उम्र से भले ही वृद्ध हों लेकिन अनुभव से वे हम से अधिक धनी  हैं।
                         वे आपके कामों में  भागीदारी नहीं माँगते हैं लेकिन ये  अवश्य ही चाहते हैं कि आप जो भी करें उनसे सलाह ले न लें अपने निर्णय को उन्हें अवगत अवश्य करते रहे। वे सब कुछ बता सकते हैं जो आपको अभी तक मालूम नहीं है। माँ  जीवन में एक बार ही मिलते हैं और अगर  गए तो फिर आप और सारे रिश्ते तो खोज लेंगे और पा भी लेंगे लेकिन जन्मदाता कभी और कहीं नहीं  मिलते हैं।
उनके मनोविज्ञान बहुत कठिन नहीं है लेकिन अगर हमारे समझ आ  जाय तो फिर जो आज हो   है वह हो ही नहीं .  किसी माता या पिता को अपनी वसीयत इस  तरह न लिखनी पड़े कि  आपका सर शर्म से झुक जाय। हो सकता है कि  न भी झुके लेकिन समाज कितना  भी आधुनिक हो जाय इस को अभी भी स्वीकार नहीं करता कि उन्हें हम अपने परिवार से अलग समझें और किसी वृद्धाश्रम में डाल  आयें। वे सिर्फ और सिर्फ अपनत्व के भूखे रह जाते हैं और उसे देने में आपके और हमारे  पैसे नहीं लगते हैं . इसलिए ये सोच कर कि  यही मनोविज्ञान हमारा होगा खुद की सोच बदलें यही भविष्य के लिए उचित होगा।

18 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही उपयोगी पोस्ट लगाी है आपने हम जैसे बुजुर्गों के लिए..!

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    1. हाँ शास्त्री जी , ये आज की सबसे बड़ी समस्या बन चुकी है सिर्फ छोटी सी बात हम समझ लें तो फिर बुजुर्ग उपेक्षित क्यों रहें? पैसा आज उनके पास भी है लेकिन वो अपनत्व जो उन्हें चाहिए खरीदा नहीं जा सकता है. कल हम भी इसी अपनत्व के लिए तड़प रहे होंगे ये हमें अहसास नहीं होता है.

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  2. ्सटीक व सार्थक पोस्ट्।

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  3. जैसे हमें अभी प्यार चाहिये, बुढ़ापे में भी चाहिये..

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  4. रेखा जी,
    मन भर आया यह पोस्ट बाँच कर.

    बुज़ुर्गों के जीवन का खालीपन भरने को हर संतान तत्पर रहनी चाहिए.........परन्तु अफ़सोस कि आज इसका अभाव है

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    1. अलबेला जी,

      ये तो फिर भी गमिनत है कि हम उनके खालीपण को भरने की नहीं सोच रहे हें लेकिन उनके सामने तो हें भले ही न बोलेन न बात करें लेकिन अपनी सोचनी चाहिए कि हमारे लिए कोई इतना भी नहीं होगा कि हमारे सामने से गुजर जाए. जिस संस्कृति की ओर हम जा रहे हें वह हमें अपने से दूर ले जा रही है.

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  5. यह स्थिति दुखद है , पर यही हो रहा है ... समय नहीं - मेरी माँ की भी यही शिकायत , हम सब उसे बहुत ज्यादा प्यार करते - पर हमारी अपनी उम्र के साथ हमारी जिम्मेदारियां मुंह बाए खड़ी हैं ...पूछकर , बताकर भी एक खालीपन है ... वह हमारे हिस्से भी आएगा

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    1. बिल्कुल सही कहा आपने यही हमारा भी भविष्य है लेकिन ये जो हमने और आपने कलम थाम रखी है शायद इसके रहते एकाकीपण का अहसास काम हो जाता है. सबसे बड़ा साथी और कहने सुनाने और सुनने का आधार है.

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  6. सही कहा आप ने। एक बार फ़िर कहूंगी कि इसके लिए काफ़ी हद्द तक व्यक्तिवाद जिम्मेदार है।

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  7. यह स्थिति सबके साथ आती है ... पर सच ही बस थोड़ा सा ध्यान देने की ज़रूरत है .... बहुत सार्थक लेख

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  8. प्यार और मान तो हर उम्र में चाहिए..पर आजकल है ही कहाँ जो कोई बांटेगा.

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  9. सबसे पहला गीत सुनाया
    मुझे सुलाते , अम्मा ने !
    थपकी दे दे कर बहलाते
    आंसू पोंछे , अम्मा ने !
    सुनते सुनते निंदिया आई,आँचल से निकले थे गीत !
    उन्हें आज तक भुला न पाया ,बड़े मधुर थे मेरे गीत !

    आज तलक वह मद्धम स्वर
    कुछ याद दिलाये कानों में !
    मीठी मीठी लोरी की धुन,
    आज भी आये, कानों में !
    आज जब कभी नींद ना आये,कौन सुनाये मुझको गीत !
    काश कहीं से मना के लायें , मेरी माँ को , मेरे गीत !

    मुझे याद है ,थपकी देकर,
    माँ अहसास दिलाती थी !
    मधुर गुनगुनाहट सुनकर
    ही,आँख बंद हो जाती थी !
    आज वह लोरी उनके स्वर में, कैसे गायें मेरे गीत !
    कहाँ से ढूँढूँ ,उन यादों को,माँ की याद दिलाते गीत !

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  10. सतीश जी,

    बुजुर्गों के लिए हम जो कर सकें काम है और फिर माँ तो इतना कुछ करती है अपनी संतान के लिए कि हमारा रोम रोम उनके कर्ज में दबा रहता है. हम चलते हें तो माँ रो देती है , हम मुसीबात में तो माँ की नींद उड़ जाती है फिर कैसे हम उनको समझने की भूल कर लेते हें . इतनी सुंदर कविता के लिए धन्यवाद !

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  11. बुजुर्ग घर के देवता की तरह होते हैं ... उनका मान सम्मान जरूरी है ...

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ये मेरा सरोकार है, इस समाज , देश और विश्व के साथ . जो मन में होता है आपसे उजागर कर देते हैं. आपकी राय , आलोचना और समालोचना मेरा मार्गदर्शन और त्रुटियों को सुधारने का सबसे बड़ा रास्ताहै.