मैट्रो से - 2 !
एक ही स्टेशन से कई सहायिकाएं लेडीज़ डिब्बे में चढ़ती हैं, रोज नहीं तो अक्सर उनका मिलना होता रहता है , एक बहनापे की तरह हो गया। एक टाउनशिप में सब काम करती हैं और कई कई घरों में करती हैं। इतने बड़े शहर में अपने दम पर ही तो रह रही हैं।
"अरी बबिता आज कुछ ज्यादा थकी नजर आ रही है, वह भी सुबह सुबह।"
"हाँ बहन कुछ न कुछ ऐसा हो जाता है, फिर कल तो पूरी रात सो ही नहीं सकी, काम पर निकलना ही था। "
"रोज तेरा कुछ न कुछ ऐसा ही होता रहता है, अरी थोड़ा मजबूत बन, नहीं तो सब तुझे भी बेच कर खा जाएंगे। "
"वह तो है तभी तो रोती नहीं हूँ, कब का छोड़ दिया लेकिन दिल और दिमाग के आँसूं आँखों से चुगली कर देते हैं। "
"अरे आज सी तो कभी न दिखी, कह डाल तो कुछ हल्की हो जायेगी।"
"क्या कहूँ, कल रात पीने के लिए पैसे माँग रहा था तो मैंने मना कर दिया। मारपीट करके घर से भाग गया। जब देर तक न आया तो एक बजे ढूंढने निकली। धुत पड़ा मिला। किसी तरह से लेकर आयी। तीन बज गया और चार बजे से घर के काम करके निकल पड़ी।"
"तू भगा क्यों नहीं देती ऐसे मरद को, कमाए भी तू, खिलाये भी तू और मार खाकर खोजने भी तू ही जाए। कम से कम चैन से काम करके खायेगी तो। "
"किस किस को भगाएँगे, हम लोगों के भाग्य में ऐसे ही मरद लिखे होते हैं, नहीं तो हम भी घर में चैन से न रहें।"
"सच कह रही है, किसी की औलाद खून पीने के लिए पैदा होती है और किसी का तो मरद ही जीते जी मार देता है। "
फिर गंतव्य आ गया और चल दी दोनों।
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