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बुधवार, 14 जून 2023

पुरुष विमर्श - 4

पुरुष विमर्श -4

                                   

                                           नारी विमर्श का एक दूसरा पहलू है पुरुष विमर्श। सदियों से शोषित नारी ने भी  रूप बदला है या  संविधान और कानून ने जब उसकी रक्षा और अधिकारों के प्रति सजगता दिखलाई तो उसका दुरूपयोग भी शुरू हो गया।  इसमें कानून के साथ उस स्त्री के साथ खड़े परिवार वालों ने भी सारी सामाजिकता और नैतिकता को ताक पर रख दिया। परिणाम सामाजिक संस्थाएँ खतरे में ही नहीं आ गयीं हैं बल्कि उसका विद्रूप रूप भी सामने आने लगा है। अब इतना अधिक आतंक हो चुका है कि लोग लड़कियों से ज्यादा लड़कों की शादी के लिए सशंकित रहने लगे हैं। 

                          गिरीश एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार और सुलझे हुए माता-पिता का इंजीनियर बेटा, जिसे घर और परिवार से अधिक दुनिया जहाँ में कोई रूचि न थी। उसकी एक सेमिनार के दौरान नमिता से मुलाकात हुई और बात हुई कुछ अधिक बात बढ़ी बस।  फिर सब अपनी अपनी जगह। सामान्य बातचीत होती रही। 

                    एक दिन नमिता के पिता मिस्टर सिन्हा, जो आईएएस अधिकारी थे, ने गिरीश के पिता को  फ़ोन किया कि वे उनसे मिलना चाहते हैं।  दोनों अलग अलग प्रदेशों के रहवासी थे, यहाँ तक कि बहुत फर्क था दोनों की भाषा और संस्कृति में भी। राय साहब को समझ नहीं आया कि उनका ऐसा कोई परिचय भी नहीं है फिर कोई अनजान व्यक्ति क्यों मिलना चाहता है। सिन्हा साहब अपने रुतबे के अनुकून लाव लश्कर के साथ आ गए और उनका भी समुचित आदर सत्कार किया गया। 

        "अपनी बेटी नमिता का रिश्ता आपके बेटे गिरीश से करना चाहता हूँ , वे दोनों भी एक दूसरे को पसंद करते हैं आशा करता हूँ कि आपको कोई आपत्ति नहीं होगी।"

        ये बात सुनकर राय साहब कुछ अचकचा गए और बोले "गिरीश ने तो मुझसे ऐसा कुछ भी नहीं बताया, फिर एकाएक शादी की बात कैसे पैदा हो गयी।" उनको सिन्हा साहब का रुतबा और स्टेटस देख कर संकोच तो हो ही रहा था। 

         "मुझे नमिता ने बताया और लड़की के पिता होने के नाते में खुद प्रस्ताव लेकर आया।  आपको कोई आपत्ति तो नहीं। "

          "जी मुझे क्या आपत्ति होती अगर गिरीश की मर्जी है तो। "

         "तब आप एक बार मेरे निवास पर आइये, आपकी नमिता से भी मुलाकात हो जायेगी, हमारे परिवार भी आपस में मिल लेंगे। "

          सब कुछ सही रहा और कुछ महीने के अंतराल में विवाह सम्पन्न हो गया। सिन्हा साहब ने अपने स्तर के अनुसार शादी की और सारा सामान गिरीश की पोस्टिंग के अनुसार हैदराबाद में भिजवा दिया। नमिता एक सप्ताह ससुराल में रही और फिर उसके पापा ने हनीमून टिकट दिया ही था सो वे बाहर निकल गए।  लौटकर नमिता सीधे मायके निकल गयी और गिरीश घर आकर अपनी नौकरी पर चला गया। 

              कुछ एक सप्ताह के बाद नमिता अपने एक नौकर को लेकर हैदराबाद पहुँच गयी। वह उसके साथ ही रहने वाला था और पिता ने अपनी बेटी को पूरी सुख सुविधा का ध्यान रखते हुए ये व्यवस्था की थी और कुछ बड़े घरों के बच्चों की जिंदगी के अनुरूप भी किया। यहाँ भी वह सिर्फ एक सप्ताह सामान्य रही और फिर एक दिन - गिरीश ऑफिस से वापस आया तो ड्रांइंग रूम में कैंडल लाइट में नमिता शार्ट पहने मेज पर दोनों पैर फैलाये ड्रिंक करती मिली, वह तो ऊपर से नीचे गिरा क्योंकि वह तो ड्रिंक तो क्या कोई भी व्यसन नहीं करता था। वह अपने पर काबू नहीं रख पाया तो उसने आते ही सवाल किया - "नमिता ये क्या ?" 

    "कुछ नहीं जानू , बहुत दिन हो गए थे , अब तो इससे दूर नहीं रखा जाता आखिर कब तक मैं नाटक कर सकती हूँ  आओ न दोनों मिलकर पिएंगे। "

          "नहीं मेरे घर में ये सब नहीं चलेगा।"

          "क्या कहा तेरा घर? अरे में मेरा भी घर है और इसमें मेरी ही चलेगी।  तुम मर भुक्के हो ये मैं जानती थी और इसी लिए पैग बनाने और बाकि सामान लाने के लिए पापा ने राजू को साथ भेजा है।"

        "नमिता होश में बात करो, ये घर है कोई होटल नहीं और मेरे साथ तो ऐसे बिलकुल भी नहीं चलेगा। "

         "तुम्हारे साथ चलाना भी किसे है? वो तो उस एक्सीडेंट से मेरे ब्रेन में कुछ गड़बड़ हो गया था और ये कभी भी उभर सकता है ये बात पापा जानते थे।  इसीलिए न तुमसे शादी की नहीं तो तुम्हारी औकात क्या है ? मेरे लिए आईएएस और आईपीएस लड़कों की कमी नहीं थी। अब शादी की है तो उसका भी मजा लो न। "

               गिरीश एकदम सकते में आ गया और समझ गया कि अब जीवन नर्क होने वाला है। दूसरे ही दिन उसने अपने पापा से सारी बात बतलाई और पूछा कि अब क्या करूँ ? लेकिन पापा भी कुछ नहीं सकते थे।  कुछ दिन ऐसे ही गुजरे उसने अब उसकी हरकतों और गालियों, जो कि रोजमर्रा का रूटीन बन चुका था, के वीडियो बनाना शुरू कर दिया क्योंकि वह कर कुछ नहीं सकता था। फिर एक दिन जब वह ऑफिस से आया तो घर में ताला लगा था और वह नौकर सहित जा चुकी थी। उसने चारों तरफ फ़ोन घुमाये तो पता चला कि वह फ्लाइट पकड़ कर अपने पापा के घर पहुँच चुकी है।  उसने अपने ससुर को फ़ोन किया तो उनका उत्तर था - "अब वह तुम्हारी वाइफ है और उसको कैसे रखना है ?  ये तुम्हें पता होना चाहिए। मैं इस विषय में कोई सहायता नहीं कर सकता हूँ। "

                सिर्फ एक हफ़्ते के अंदर उसके खिलाफ घरेलू हिंसा का केस कर दिया गया और उसके घर सम्मन भेजा गया। इधर उसको नौकरी से भी निकलवा दिया गया। वह वहाँ से घर भागा, लेकिन कानून की पेचेदगी में उसे फँसा लिया गया था। सब कुछ पूर्व नियोजित था क्योंकि उसके ससुर को पता था कि नमिता की दिमागी हालत आज नहीं तो कल उबरेगी ही और फिर क्या होगा ? उनका भेजा हुआ नौकर उनका गवाह बन गया। उसने घर आकर अपने ही हाथ से दीवार पर सिर मार कर गुमला बना लिए , चूड़ियां तोड़ कर हाथों पर भी खरोंच के निशान बना कर मेडिकल करवा कर सुबूत बनवा लिए।  जो उसके पिता के लिए कोई बड़ा काम नहीं था और मारा गया बेचारा सीधा सादा परिवार। समाज के सामने परिवार ख़राब होने का एक सर्टिफिकेट नमिता को मिल गया और अब मनमर्जी के लिए वह स्वतन्त्र थी।  वैसे भी बड़े घरों में ये सब कोई बड़ी बात नहीं होती।

                    वारंट निकाला गया किसी शुभचिंतक ने इसकी सूचना दे दी और उन्हीं ने आकर पूर्व जमानत ले लेने की सलाह दी। पिता ने भाग दौड़ करके वह भी ली।  गिरीश घर में आकर बैठा था और फिर घर का माहौल तनावपूर्ण हो गया। सब तरफ से वे लोग सशंकित रहते , घर का दरवाजा भी खटकता तो डर लगा रहता। 

                   इसी बीच गिरीश की माँ को ब्रेन हैमरेज हुआ और तीन महीने वह जीवन मृत्यु के बीच झूलती रहीं, आखिर में चल बसी। घर का एक स्तम्भ ढह गया, सारा घर मानसिक रूप से बिखर गया।  माँ के जाने से पिता भी असहाय महसूस करने लगे थे। उनका मन उचाट हो गया और वे वहां से भागने की सोचने लगे। 

                  तारीखों का सिलसिला शुरू हो गया, साथ ही जान का खतरा भी लगने लगा क्योंकि ऐसे रुतबे वाले लोगों के लिए कुछ भी असंभव न था। गिरीश भी न नौकरी कर रहा था और न उसको मानसिक शांति थी। पिता का स्वास्थ्य भी गिरने लगा था, कोई रोग न भी था तो चिंता उनको खाये जा रही थी कि मेरा सीधा सादा लड़का किस मुसीबत में फँस गया। 

                  उन्होंने अपना घर और सारी जायदाद बेच कर अपना शहर छोड़ने की सोच ली और वे रातोंरात जो भी मिला बेच कर अपने भाई के पास चले गए और वहीँ सेटल होने की सोची।  भतीजे ने अपनी ही कंपनी में गिरीश को जॉब दिलवा दी। उसके पीछे होने से कोई समस्या खड़ी नहीं हुई। पिता और बेटे ने अपने मोबाइल नंबर भी बदल दिए।  धमकियों का सिलसिला बंद हो और उनका पता न मिल सके। उन्होंने सभी से अपने संपर्क तोड़ लिए।  अब अकेले ही सब झेलना था, एक भाई का परिवार उनके साथ था।  

                इसके साथ ही गिरीश के साढ़ू, जो उससे अपने उत्पीड़न की घटनाएं शेयर करता था, की तरफ से एक मुकद्दमा उसके खिलाफ लगा दिया गया। उसका सम्मान पुराने आवास पर भेजा गया लेकिन वापस हो गया। मुकदमा दर्ज है और वारंट भी, लेकिन जिस कोर्ट में ये सब चल रहा है वहां पर तारीख पर तारीख अब सालों में पड़ रहीं हैं और इनके कभी वहाँ न पहुंचने से आगे बढ़ जाती है। 

                  एक मानसिक यंत्रणा का शिकार एक होनहर इंजीनियर का भविष्य एक गलत निर्णय ले गया। जिससे मुक्ति अब संभव है या नहीं किसी को नहीं पता है। 

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